निरोग जीवन का राजमार्ग

स्वस्थ रहने की दिनचर्या

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‘‘भाव प्रकाश’’ के अनुसार हम यहां स्वास्थ्य, सुख एवं दीर्घायु की कामना रखने वाले पाठकों के लिए प्रकृति की दृष्टि से दिनचर्या दे रहे हैं। इसे ध्यान पूर्वक अनुसरण करना चाहिए।
निरोगी कौन है?
सुश्रुत कहते हैं—जिस मनुष्य के वात, पित्त, आदि दोष, अग्नि, धातु और मल समान स्थित हों, जो व्यक्ति अपने शरीर के अनुसार समान रूप से क्रियाएं करता हो और जिसके देह और मन प्रसन्न हों—वह मनुष्य स्वस्थ (निरोगी) कहलाता है।
प्रातःकाल क्या करें?
स्वस्थ्य मनुष्य आयु की रक्षा के लिए चार घड़ी तड़के अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में उठे और उस समय दुःख की शान्ति के लिए ईश्वर का स्मरण करे। फिर दही, घी, दर्पण, सफेश सरसों, बैल, गोरोचन और फूल माला—इनका दर्शन और स्पर्श करे—ये शुभकारक हैं।
यदि और अधिक जीवन की अभिलाषा हो तो घी में अपना मुख नित्य देखें। प्रातःकाल मल, मूत्र, आदि का विसर्जन करने से दीर्घायु होती है, क्योंकि इनसे पेट का गुड़ गुड़ाहट, अफरा और भारीपन आदि सब दूर हो जाते हैं। मल को रोकने से पेट का फूलना, शूल, गुर्दा में कतरन के सदृश पीड़ा होती है तथा मल का अवरोध होता है। डकार बहुत आने लगती हैं अथवा मुख में से बदबू निकलने लगती है। अधोवायु को रोकने से पेट में वायु सम्बन्धी अन्य रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। मूत्र रोकने से मूत्राशय में तथा लिंग में शूल होता है, मूत्र कृच्छ, मस्तक में दर्द, शरीर की नम्रता और तंक्षण का सम्पूर्ण सन्धियों में खींचने सदृश पीड़ा होती है। मलमूत्र का वेग हो तो तुरन्त मलमूत्र का त्याग करना चाहिए। इससे पहले अन्य कार्य न करें।
दतौन कैसी हो?
बारह अंगुल लम्बी, कनिष्ठिका अंगुली के अग्रभाग की तरह मोटी, सीधी, गांठ और छिद्र रहित ऐसी दतौन करें। दतौन की नई कुंची से एक-एक दांत को घिसे। शहद, सोंठ, मिर्च और पीपल इनके मिले हुए चूर्ण से अथवा तेल की भावना दिये हुए सैंधे नोन के चूर्ण से व तेज वल्कल नामक लकड़ी के चूर्ण से दांतों को नित्य शुद्ध करें। मीठी दतौन में महुआ, तीक्ष्ण में करंज, कड़वी में नीम और कसैली में खैर श्रेष्ठ है। समय, दोष और प्रकृति को विचार करके योग्य रस और योग्य शक्ति वाले वृक्ष की लकड़ी की दतौन करे और दंत मंजन भी योग्य ही प्रयोग में लायें। इस प्रकार दतौन करने से मुख की विरसता (बेजायकेपना) दांत, जीभ तथा मुख के रोग नहीं होते। रुचि, स्वच्छता और शरीर में हल्कापन होता है।
जीभी का प्रयोग—
जीभ साफ करने को जीभी सोने की, चांदी की या तांबे की बनवाएं और यदि यह न मिले, तो कोमल चिरी हुई लकड़ी की दतौन अथवा नर्म पीतल आदि की बनवायें, दस अंगुल लम्बी, कोमल और स्निग्ध जीभी से जीभ के मैल को दूर करें। जीभी करने से जीभ का मैल, विरसता, दुर्गन्धता और जड़ता दूर होती है।
शीतल जल से बार-बार कुल्ला करें, इससे कफ, तृषा और मल दूर हो जाता है तथा भीतर से मुख स्वच्छ होता है। थोड़े गर्म जल से कुल्ला करने से कफ, अरुचि, मैल तथा दांतों की जड़ता दूर होती है और मुख हल्का हो जाता है। शीतल जल से मुख धोने से रक्त, पित्त और मुख के मुंहासे, झांई इत्यादि नष्ट हो जाते हैं, थोड़े गर्म जल से कफ तथा वात दूर होती है, स्निग्धता आती है और दुःख का शोक नष्ट होता है।
तेल का उपयोग—
नित्यप्रति नाक में सरसों आदि का तेल डालने का अभ्यास करें। कफ बढ़ा हो तो प्रातःकाल, पित्त बढ़ा हो तो दोपहर में और वायु बढ़ी हुई हो तो सायंकाल में नाक में सरसों का तेल डालें। नाक में तेल डालने से मुख में सुगंध आती है, शब्द में स्निग्धता होती है, इन्द्रियां वितल रहती हैं और शरीर की सिकुड़ने, श्वेत बाल, झाई उस मनुष्य को नहीं होते।
अंजन लगाने के लाभ—
सफेद सुरमा नेत्रों को सदा हितकारी है। इसलिए इसको नेत्रों में सदा लगाना चाहिए। इससे नेत्र मनोहर और सूक्ष्म वस्तु को देखने वाले हो जाते हैं। काला सुरमा भी अच्छा होता है इसके लगाने से नेत्रों की खुजली, मैल तथा दाह नष्ट होती है और नेत्रों का पानी बहना बन्द हो जाता है। रात में जागा हुआ, थका हुआ, उल्टी करने वाला, जो भोजन कर चुका हो—उनको सुरमा या अंजन नहीं लगाना चाहिए।
दाढ़ी बनवाने और क्षौर कर्म से लाभ—
पांच-पांच दिन में नख, दाढ़ी, केश और रोम कतरवायें। हजामत से शरीर की शोभा होती है, पुष्टता बढ़ती है, पवित्रता होती है, धन की प्राप्ति होती है, आयु बढ़ती है और शरीर में कान्ति बढ़ती है। नाक के बाल कभी न उखड़वायें, क्योंकि इससे नेत्र निर्बल हो जाते हैं। कंघे से बालों को काढ़कर पुष्ट करें इससे केश स्वच्छ होते हैं। और उनकी धूल, कृमि तथा मैल दूर होता है।
शीशे में मुख देखने से लाभ—
शीशे में मुख देखना मंगल रूप है, कान्तिकारक, पुष्टिकर्त्ता बल तथा आयु को बढ़ाने वाला और पाप तथा दरिद्रता का नाश करता है।
व्यायाम कीजिए—
कसरत करने से शरीर में हलकापन और काम करने की सामर्थ्य आती है, शरीर सुन्दर तथा पुष्ट होता है, कफादि रोगों का क्षय होता है और अग्नि की वृद्धि होती है। जिसका शरीर व्यायाम से पुष्ट हो गया हो, उसको कभी कोई रोग नहीं होता, विरुद्ध अन्न भी पच जाता है, शिथिलता नहीं आती। अकस्मात् वृद्धावस्था नहीं आती।
व्यायाम बसन्त ऋतु में तथा शीतकाल में विशेष हितकारी है। खांसी, श्वास, क्षय, रक्त तथा पित्त रोगी, दुर्बल, क्षती भोजन करने के पश्चात् कभी कसरत नहीं करनी चाहिए। बहुत कसरत करने से खांसी, श्वास, ज्वर, वमन, श्रम, रक्त-पित्तादि उत्पन्न होते हैं—इसलिए साधारण ही व्यायाम करना चाहिए।
मालिश से लाभ—
सम्पूर्ण अंगों में नित्य तेल का लगाना पुष्टिकारक है, किन्तु विशेष करके सिर में, कानों में और पांवों में तेल की मालिश करें। सरसों का तेल, अग्नि के संयोग से अगरु आदि सुगन्धित पदार्थों का निकाला हुआ तेल, चंपा, चमेली, बेला, जुही, मोतिया आदि पुष्पों से सुवासित किया हुआ तेल और अन्य द्रव्यों से मिलाकर बनाया हुआ तेल सर्वथा हितकारी है।
सिर में मला हुआ तेल सम्पूर्ण इन्द्रियों को तृप्त करता है, दृष्टि को बल देता है और सिर तथा त्वचा के रोगों को दूर करता है सिर में कोमलता आती है, आयु की वृद्धि होती है, देह पुष्ट होती है, केशों में तेल लगाने से बाल बढ़ते हैं, लम्बे, नर्म, दृढ़ और काले हो जाते हैं तथा सिर में भरे रहते हैं।
नित्य कान में तेल डालने से कान में रोग तथा मैल नहीं होते, तथा गरदन और हनुग्रह रोग, ऊंचा सुनना तथा बहरापन भी नहीं होता। कानों में रस आदि पदार्थ डालने हों, तो भोजन के पूर्व डालें और तेल आदि सूर्य अस्त होने पर डालें। पांवों में तेल मलना पांवों की स्थिरता करता है, निद्रा और दृष्टि को प्रसन्न रखता है। कसरत का अभ्यास करने से श्रमयुक्त और पांवों में तेल की मालिश करने वाले मनुष्यों के पास रोग नहीं आते, जैसे गरुड़ के समीप सर्प नहीं आते।
स्नान के समय तेल का प्रयोग—
स्नान के समय तेल का प्रयोग किया हुआ रोमकूप, शिराओं के समूह और धमनियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर को तृप्त करता है और अत्यन्त बल दायक है। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ को जल से सींचने से पत्रादिक की वृद्धि होती है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर को तेल के द्वारा मलने से धातुओं की वृद्धि होती है। नवीन ज्वर वाला, अजीर्ण युक्त, जिसने जुलाब लिया हो, वमन करने वाला—इन्हें तेल की मालिश वर्जित है।
उबटन से लाभ—
मैल को दूर करने के लिए शरीर में उबटन मलने से कफ और मेदा नष्ट होता है, वीर्य की वृद्धि तथा बल की प्राप्ति होती है। रुधिर यथावत् चलता है और त्वचा स्वच्छ तथा कोमल होती है। मुख पर उबटन मलने से नेत्र दृढ़ होते हैं कपोल पुष्ट होते हैं, मुंहासे और झांई नहीं होती, हुई हो, तो नष्ट हो जाती है और मुख कमल के समान शोभामान हो जाता है।
स्नान एक आनन्द दायक अनुभव—
स्नान करना अग्नि को प्रदीप्त करने वाला, शक्ति, आयु और ओज को बढ़ाने वाला, उत्साह तथा बल को देने वाला और खुजली, मैल, परिश्रम, पसीना, आलस्य, तृषा, दाह तथा पाप इनको दूर करता है। शीतल जल आदि से सींचने से शरीर के बाहर की गर्मी मोड़ित होकर भीतर जाती है। इनसे स्नान करते ही भूख लगती है।
शीतल स्नान करने से रक्त पित्त दूर होता है। ऊष्ण जल से स्नान करने से बल बढ़ता है, वात पित्त, कफ का नाश होता है। सिर से अत्यन्त गर्म जल से स्नान करना सदा आंखों के लिए बुरा है। जो व्यक्ति शरीर में आंवले मलकर स्नान करते हैं, वे सौ वर्ष पर्यंत जीते हैं। ज्वर, अतिसार, नेत्र, कान के दर्द वाला, वात रोगी, जिसका पेट में अफरा हो, पीनस रोग युक्त, अजीर्ण वाला—इन सबको स्नान नहीं करना चाहिए। भोजन के पश्चात् भी स्नान करना ठीक नहीं है। स्नान करने के बाद वस्त्र से अंग को खूब रगड़कर पोंछना चाहिए। इससे कान्ति बढ़ती है खुजली और त्वचा के दोष दूर होते हैं।
भिन्न-भिन्न वस्त्र तथा उनके गुण−दोष—
रेशमी कपड़े खास तौर पर पीताम्बर और टसर, ऊनी वस्त्र तथा लाल रंग के कपड़े वात, पित्त और कफ को दूर करने वाले हैं—इसलिए जाड़ों में ये वस्त्र पहिने। जोगिया रंग के कपड़े से चित्त पवित्र और शीतल होता है, पित्त दूर होता है। इसलिए गर्मियों में उन्हें धारण करना चाहिए। सफेद कपड़े शुभदायक, शीतल और धूप निवारक हैं। जो गर्म हैं न शीतल हैं—ऐसे वस्त्र वर्षाकाल में धारण करें। निर्मल और नवीन वस्त्र कीर्ति देने वाले हैं, काम को प्रदीप्त कर देते हैं, आयु को बढ़ाते हैं, शोभायुक्त करते हैं, आनंद दाता हैं, त्वचा को हितकारी हैं, वशीकरण तथा रुचि उत्पन्न करने वाले हैं। श्रेष्ठ पुरुष कभी मैले वस्त्र न पहिने, क्योंकि मैले वस्त्र से शरीर में खुजली होती है, जूयें इत्यादि जीव उत्पन्न हो जाते हैं और ग्लानि, अशोभा तथा दरिद्रता प्राप्त होती है।
भोजन के सम्बन्ध में शास्त्रीय विधि—
भोजन का समय हो तो मांगलिक पदार्थों का दर्शन करें। संसार में ब्राह्मण, गौ, अग्नि, पुष्पों की माला, घृत, सूर्य, जल और राजा—ये आठ मांगलिक हैं। इनका दर्शन करने से नित्य आयु और धर्म की वृद्धि होती है। भोजन से पहले अथवा बाद में खड़ाऊं धारण करें क्योंकि इनसे पांवों के रोग दूर होते हैं, शक्ति प्राप्त होती है, नेत्रों के लिए हितकारी हैं और आयु को बढ़ाने वाले हैं।
जो मनुष्य भूख लगने पर नहीं खाते उनके शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है। शरीर की अग्नि खाये हुए आहार को पचाती है। आहार न मिलने से वात, पित्त, कफ को पकाती है। दोषों का क्षय होने पर धातुओं को पचाती हैं और धातुओं का क्षय होने पर प्राणों को पचाती है, अर्थात् प्राणों का नाश करती है।
आहार से तत्काल देह का पोषण होता है। बल की वृद्धि तथा स्मृति, आयु, शक्ति, वर्ण, उत्साह, धैर्य तथा शोभा की वृद्धि होती है। संध्या और प्रातःकाल इन दोनों समय भोजन करने की शास्त्र में आज्ञा है। भूख लगे तभी भोजन का समय है ऐसा जानना चाहिए।
भोजन करने से पहले नमक और अदरक खाना हितकारी है। यह अग्नि को दीप्त कर रुचिकारक और जीभ व कण्ठ को शुद्ध करने वाला है। सेंधा नमक स्वादिष्ट, पाचक, हलका, स्निग्ध, रुचिकारक, शीतल, वीर्यवर्द्धक, सूक्ष्म, नेत्रों के लिए हितकारी और त्रिदोष नाशक है।
एकाग्र चित्त होकर पहले मधुर रस, बीच में खट्टा तथा खारी रस और अन्त में तीक्ष्ण, कड़ुवा तथा कसैला रस खाना चाहिए। बुद्धिमान् व्यक्ति पहले अनार खाये, परन्तु उसमें केला और ककड़ी का त्याग करे। कंवल की ताल, भसीड़ा, शालूक, कन्द और ईख इत्यादि को पहले ही खाये, भोजन के बाद पिष्टमय पदार्थ, चावल, चिल्ले आदि न खाये, आवश्यकता से अधिक भी न खा जाये।
पहले भी घी से पूर्ण गरिष्ठ पदार्थ खाये। फिर कोमल पदार्थ खाये और अन्त में द्रव्य रूप पतले पदार्थ खाये।
भोजन में जल कितना पिएं?
पेट के दो भागों को अन्न से भरें, तीसरा भाग जल से और चौथा भाग वायु के चलने-फिरने के लिए खाली रहने देवें। अन्न के रस से प्रथम जीभ तृप्त होने पर दूसरे पदार्थ के स्वाद को नहीं जानती। इसलिए बीच-बीच में थोड़ा सा जल पीकर जीभ को साफ कर लें। स्मरण रखें, अधिक जल पीने से अन्न जल्दी नहीं पचता, और बिल्कुल जल न पीने से भी यही दोष होता है। अतः बार-बार थोड़ा-थोड़ा जल पीना चाहिए। भोजन करने से पहले जल पिये तो अग्नि मन्द हो जाती है, मध्य में पीने से अग्नि दीप्त होती है और अन्त में पानी पीने से शरीर मोटा होता है।
भोजन के पश्चात् दूध क्यों पियें?
शिष्ट पुरुष भोजन के अन्त में दूध पीते हैं। दूध स्वाद रसान्वित, स्निग्ध, सामर्थ्यवान, धातुवर्द्धक वायु तथा पिर्त्तहारी, वीर्य वर्द्धक, कफकारी, भारी और शीतल है। हम नित्य प्रति दाह कारक जो-जो अन्न खाते हैं, उनकी दाह शान्त करने के लिए दूध पीना जरूरी है। ब्रह्मपुराण में कहा गया है—‘‘जिसके अन्त में दूध पीने को मिले, ऐसा भोजन करे और जिसके अन्त में दही खाया जाय, ऐसा भोजन न करे। दूध आदि मधुर भोजन, खट्टे, खारी और चरपरे भोजन से उत्पन्न हुए पित्त की वृद्धि को दूर करता है। भोजन के बाद नमकीन पदार्थ खाकर कुल्ला करें, दांतों से भोजन के टुकड़े निकाल डालें। आचमन के पश्चात् दोनों भीगे हाथों से आंखों का स्पर्श करें। भोजन के पश्चात् नित्य सुख प्राप्त होने के लिए अगस्त्य आदि का स्मरण करें। भोजन के बाद सोना नहीं चाहिए।
भोजन के पश्चात् का कार्यक्रम—
भोजन के बाद धीरे-धीरे सौ कदम चलना चाहिए, इससे भोजन किया हुआ अन्न उदर में शिथिल होता है और गर्दन, घुटने तथा कमर को सुख होता है। भोजन करके बैठ जाने से शरीर में आलस्य और तन्द्रा उत्पन्न होती है, थोड़ी देर पश्चात् विश्राम करने से शरीर पुष्ट होता है आयु बढ़ती है। खाट त्रिदोष नाशक है, पृथ्वी पर सोना पुष्टि कारक है। भोजन के पश्चात् भी मन को प्रिय लगें ऐसे शब्द गाना बजाना, सुंदर वस्तु को छूना, रूप, रस, गंध का सेवन करें, क्योंकि इनका सेवन करने से अन्न भली भांति ठहर जाता है।
पगड़ी और जूता से लाभ—
पगड़ी धारण करने से कांति बढ़ती है, केशों को हितकारी तथा पित्त, वात तथा कफ को दूर करने वाली है। पगड़ी हलकी उत्तम है। पांवों में जूतियां पहनना नेत्रों को सुखदायक, आयु बढ़ाने वाला, पांवों के रोगों का नाशक, उत्साह और शक्ति देने वाला है।
धूप सेवन से लाभ—
सूर्य की किरणों का सेवन करने से पसीना, स्फूर्ति, रक्त, पित्त, तृषा, परिश्रम तथा उत्साह और विवर्तता की उत्पत्ति होती है।
दिन कैसे व्यतीत करें?
यह विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दिन में श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ मित्रता करनी चाहिए, नीच का संग छोड़ देना चाहिए। देव, ब्राह्मण, वृद्ध, वैद्य, राजा तथा अतिथि की सेवा करनी चाहिए। याचक को निराश खाली न जाने दें। गुरु लोगों के पास सदा नम्रता पूर्वक बैठें। अपकार करने वाले के साथ भी उपकार करने में तत्पर रहे।
मनुष्य के अभिप्राय को जानकर जो मनुष्य जिस प्रकार से प्रसन्न हो, उसी प्रकार बर्ताव करे क्योंकि अन्य मनुष्यों को प्रसन्न रखना ही चतुरता है।
जिस प्रकार सहायता बिना मनुष्य सुखी नहीं होता, उसी प्रकार सबके ऊपर विश्वास करने वाला अथवा सबके ऊपर सन्देह करने वाला भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।
कभी उद्यम से खाली नहीं बैठना चाहिए। किसी के सफलीभूत उद्यम पर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। जो पुरुष ऐश्वर्यवान् के ऐश्वर्य को देखकर दुःख मानते हैं। वे सदैव दुःखी रहते हैं। विद्वानों को विचारना चाहिए कि अमुक पुरुष को किस प्रकार धन मिला उसी विद्या से, उसी उपाय से हम भी धन उपार्जन करके संसार में अपने यश का प्रकाश करें।
किसी समय भी किसी के जामिन न बने, किसी के वृथा साक्षी न हों, किसी की धरोहर न रखें और जहां जुआ होता हो, उसको दूर से ही त्याग दें।
इस प्रकार सदा सदाचार में तत्पर रहकर दिन व्यतीत करें और रात्रि को रात्रि के समयानुकूल कार्य करें। उक्त नियमों के अनुसार कार्य करने वाले को आयु, आरोग्यता, प्रीति, धर्म और यश की प्राप्ति होती है।
संध्या में यह कार्य न करें।
विद्वान् लोगों को संध्याकाल में आहार, मैथुन, निद्रा, अध्ययन और मार्ग चलना—ये पांच कार्य नहीं करने चाहिए। सायंकाल में भोजन करने से व्याधि उत्पन्न होती है, मैथुन करने से गर्भ में विकार आता है, पढ़ने से आयु का नाश होता है और मार्ग चलने से भय उत्पन्न होता है।
रात्रि में समय पर सोना—
रात्रि में समय पर सोने से धातुओं में समता आती है, आलस्य दूर होता है और पुष्टि की प्राप्ति होती है, रंग निखर आता है, उत्साह बढ़ता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है। जो मनुष्य शयन के समय विनौरे के पत्तों का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटे तो वह तन्द्रा उत्पन्न करने वाला वायु के वेग के निरोध से सुखपूर्वक शयन कर सकता है।
रात्रि के अन्त में पानी का नियम—
जो मनुष्य सूर्योदय के समय आठ अंजुली बासी पानी पीने का नियम करता है वह रोग और जरा से छूटकर सौ वर्ष जीवित रहता है। जब रात्रि का चौथा पहर आरम्भ हो तो इस जल को पीने का समय जानना चाहिए। इस अभ्यास से बवासीर, सूजन, संग्रहणी, ज्वर, जठर, जरा, कोढ़, पेट के विकार मूत्रघात, रक्तपित्त, कर्ण रोग, कमर का दर्द, नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं। प्रातःकाल उठकर नित्य नाक से पानी पीने से बुद्धि पूर्ण होती है, नेत्रों की दृष्टि गरुड़ के समान होती है। सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं।

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