निरोग जीवन का राजमार्ग

रोग से डरने की आवश्यकता नहीं!

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प्रकृति हमें बीमार नहीं पड़ने देना चाहती। साधारणतः जो लोग कुदरत के पास रहते हैं, साहचर्य बनाये रहते हैं और प्रकृति के मामूली नियमों का भी पालन करते हैं, वे बीमार नहीं पड़ते। बीमार पड़ने पर भी प्रकृति हमारी गलतियां सुधारने की चेष्टा करती है।
रोग प्रकृति की वह क्रिया है, जिससे शरीर की सफाई होती है। रोग हमारा मित्र होकर आता है, वह यह बताता है कि हमने अपने शरीर के साथ बहुत अन्याय किया है, अनेक कीटाणुओं को स्थान देकर विष एकत्रित कर लिया है। रोग उस आन्तरिक मल का प्रतीत या बाह्य प्रदर्शन मात्र है। यह प्रकृति का संकेत मात्र है जो हमें बताता है कि हमें अब अपनी गलतियों से सावधान हो जाना चाहिए। शरीर में स्थित गंदगी विष, विजातीय तत्त्व, या अप्राकृतिक जीवन से सावधान हो जाना चाहिए। रोग शरीर शोधन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
साधारण पढ़े-लिखे या मूढ़ व्यक्ति रोगों से बुरी तरह भयभीत हो जाते हैं। वे उसके कारणों को समझने की चेष्टा नहीं करते। प्रकृति यदि अपनी ओर से बीमारियों को ठीक करने की योजना भी करती है, तब भी वे उसके मार्ग में रोक लगा देते हैं। देखा है कि अत्यधिक दवाई और इन्जेक्शन इत्यादि का प्रयोग हानिकारक सिद्ध हुआ है।
स्मरण रखिये, रोग बिना कारण के कभी उत्पन्न नहीं होते। शारीरिक या मानसिक विकार उत्पन्न होते ही सर्वप्रथम आप यह मालूम कीजिए कि शरीर में किन-किन कारणों में रोग के कीटाणु उत्पन्न हुए? क्यों आप बीमार पड़े? प्रकृति के किस नियम की आपने अवहेलना की है? रोग का वास्तविक कारण समझ लेना चिकित्सा की आधार शिला है।
‘‘रोग प्रतिकार के रूप में प्रकट होता है और यह पहले विषम अवस्था का अन्त कर देता है। रोग मनुष्य के शरीर में इसलिए होता है कि उसके लिए रोग की आवश्यकता है। रोग स्वास्थ्य लाभ करने का एक उपाय है। रोग के द्वारा जब शारीरिक विकार बाहर निकल जाते हैं, तो मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। बाहर हम जिस रोग को देखते हैं वह रोग का लक्षण मात्र है। मान लीजिए, किसी व्यक्ति को जुकाम हो गया अथवा फोड़ा निकल आया, तो हम इसी को रोग मान लेते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा की दृष्टि से यह रोग नहीं है, वरन् रोग के लक्षण मात्र हैं। रोग से शरीर की विकृत अवस्था का पता चलता है।’’
रोग के प्रति हमें अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा। हम रोग को शत्रु नहीं, मित्र मानें। अर्थात् निराशावादी बनने के स्थान पर आशावादी बनें। हमें यह विश्वास रखना चाहिये कि रोग हमें पूर्ण स्वस्थ कर देगा, संचित विकार निकाल देगा, शरीर के लिए लाभदायक सिद्ध होगा। यह मानसिक परिवर्तन प्राकृतिक चिकित्सा का सहकारी है। जो व्यक्ति अपने रोगों से मुक्त होने के लिए जितना ही आशावादी बनेगा, सुखद कल्पनाओं और मधुर आशाप्रद विचारों से अपना मन भरा रखेगा, उसे रोग एक मित्र प्रतीत होगा। शरीर से हट जाने पर भी रोग सूक्ष्म रूप से अन्तःकरण में विद्यमान रहता है।
डा. के. लक्ष्मण के शब्दों में, ‘‘आत्मा के अन्तर्भूत आनन्द को भूल जाना ही रोग है, जिसके कारण मन में इच्छाओं का उदय होता है। आत्म विस्मृति ही रोग है। आजकल के बहुत से मानसिक एवं शारीरिक रोगों का कारण एक यह भी है कि मनुष्य सत् तत्त्व की रक्षा न कर असत् एवं विजातीय तत्त्वों का संचय होने देना। डॉ. फापड़ के अनुसार अनेक स्नायविक एवं शारीरिक रोग मनुष्य के चेतन और अचेतन मन की रहस्यमयी गुफाओं में होते हैं। पहिले मन रोगी होता है, रोग चेतना पर आता है, यातनाओं और विचारों में प्रभाव दिखाता है और अन्त में स्थूल शरीर में नाना रूपों में प्रकट होता है। हर एक रोगी की सर्व प्रथम मानसिक अवस्था विकृत हो जाती है। दूषित अन्तःकरण विकृत मन और अशुभ भावनाएं रोगों का कारण है।
चिकित्सा के नाम पर आपको ठगा जाता है—
आज कुदरती जिन्दगी को भूलकर हम चिकित्सकों के कुचक्र में फंस गये हैं। ये लोग हमें इतनी दिलचस्पी स्वस्थ करने में नहीं लेते, जितनी बीमारी को बढ़ाने में। इनका दृष्टिकोण अधिक से अधिक रुपया ऐंठना होता है।
डॉ. राम लिखते हैं कि हमारी लापरवाही का सबसे अधिक फायदा उन लोगों ने उठाया है जिन्होंने समाज की चिकित्सा का ठेका लिया है। ये लोग जिनको भूख नहीं लगती, उसकी दवा तैयार करते हैं। खाना हजम नहीं होता उसकी दवा तैयार करते हैं। काम में मन नहीं लगता उसकी भी दवा बनाते हैं। ये धातु पुष्ट करने की ठेकेदारी लेते हैं, बालों को काला करते हैं, दांतों को जमाते हैं, लड़के (लड़की नहीं) पैदा करवाते हैं, और संसार के सब पुरुषों की नपुंसकता व स्त्रियों का बांझपन मिटाकर संसार में स्वर्ग का राज्य स्थापित कराते हैं। यह लोग संसार में मकड़ी के समान अपना जाल फैलाये हुए हैं और संसार इनके जाल में फंसा है।
मूत्र रोगों से लोगों को डरा कर और भीषण जटिल रोग बता बताकर ये उन्हें कुकर्म में प्रोत्साहन देते हैं। ताकत की दवाइयों का व्यापार आज जितना चलता है, शायद कभी नहीं चला। दुबले-पतले व्यक्तियों को व्यर्थ ही रोगी कह कर ये अटकाये रहते हैं। गुप्त रोगों में रुपया पानी की तरह बहाया जाता है और युवक चुपके-चुपके खूब उसमें ठग जाते हैं। हर एक साधू फकीर, कविराज, वैद्य बना बैठा है और समाज को चूस रहा है।
अधिकांश दवाइयां ऐसी दी जाती हैं, जिनमें साधारण चीजों के अलावा कुछ भी नहीं होता। कभी-कभी पानी ही दे दिया जाता है। नब्बे फीसदी रोग तो प्रकृति स्वयं चंगा कर देती है और चिकित्सक उसका श्रेय लूटते हैं। बुखार, खांसी, दुखने वाली आंख, पेट विकार अधिक अंशों में कुदरत द्वारा ही ठीक हुआ करते हैं, किन्तु इन्हें ठीक करने का सेहरा डॉक्टरों के सिर पर बांधा जाता है। प्रकृति का विधान ही ऐसा है कि हमारी मामूली बीमारियां स्वयं ही ठीक होती चलें। इनमें हमारे अन्दर बैठा हुआ आत्म-विश्वास ही काम किया करता है। मामूली दवाई दी जाती है, तो हम समझते हैं कि हमें दवाई मिल रही है और हम चंगे हो जायेंगे। ‘‘हमें चंगे हो जाना चाहिए’’—इस भाव से हमारा ही आत्मविश्वास प्रकट होकर हमें स्वस्थ होने में सहायता करता है। प्रायः देखा जाता है कि किन्हीं साधु, वैद्य, हकीम या डॉक्टर पर हमारा विश्वास ज्यादा है। ‘‘इसकी दवाई से हम अवश्य ही ठीक हो जायेंगे’’ इस भावना के साथ हम उन महाशय द्वारा दी गई जो भी चीज प्रयोग में लायेंगे उसी से लाभ होगा। यह है प्राकृतिक चिकित्सा में आत्म-विश्वास का चमत्कार। हमारे देखने में अनेक बार आया है कि अनेक असाध्य रोगी मानसिक शक्ति के सफल प्रयोग द्वारा अच्छे हो जाते हैं और अनेक शारीरिक रोगों को ठीक कर लेते हैं। हमारे विचारों का जो विलक्षण प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ा करता है, उस मनोवैज्ञानिक चमत्कार से आज लोग अनभिज्ञ हैं। रक्त तब तक दूषित रहेगा और हमारा शरीर रोग ग्रस्त रहेगा जब तक हमारे विचार रोगी और दूषित रहेंगे। स्वास्थ्य, बल, दीर्घायु की उत्पत्ति पवित्र विचारों द्वारा ही संभव है।
प्रकृति वही है जो आदिकाल से थी। उसके सम्पूर्ण नियम अटल हैं, उन्हें तोड़ने में क्या राजा क्या रंक—दोनों ही को समान रूप से सजा मिलती है। वे अटूट अपरिवर्तनीय और चिर सनातन हैं। प्रकृति विरुद्ध जाकर हम नए रोगों की उत्पत्ति कर रहे हैं। प्रकृति की गोद में विचरण करने से आदिम निवासी हमारी सभ्यता के अनेक रोगों से अपरिचित थे।

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