हमारी वसीयत और विरासत

जीवन के उत्तरार्द्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्धारण

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बड़ी और कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही किसी महिमा और गरिमा का पता चलता है। प्रतिस्पर्धाओं में उत्तीर्ण होने पर ही पदाधिकारी बना जाता है। खेलों में बाजी मारने वाले पुरस्कार पाते हैं। खरे सोने की पहचान अग्नि में तपाने और कसौटी पर कसने से ही होती है। हीरा इसीलिए कीमती माना जाता है कि वह साधारण आरी या रेती से कटता नहीं है। मोर्चे फतह करके लौटने वाले सेनापति ही सम्मान पाते और विजय श्री का वरण करते हैं।

चुनौतियाँ स्वीकार करने वाले ही साहसी कहलाते हैं। उन्हें अपनी वरिष्ठता भयानक कठिनाइयों को पार करके ही सिद्ध करनी पड़ती है। योगी, तपस्वी जानबूझकर कष्टसाध्य प्रक्रिया अपनाते हैं। कृष्ण की गरिमा को जिनने जाना वे दुर्दान्त उन्हें बर्बाद करने के लिए आरम्भ से ही अपनी आक्रामकता का प्रदर्शन करते रहे। बकासुर, अघासुर, कालिया सर्प, कंस आदि अनेकों के आघातों का सामना करना पड़ा। पूतना तो जन्म के समय ही विष देने आई थी। आगे भी जीवन भर उन्हें संघर्षों का सामना करना पड़ा। महानता का मार्ग ऐसा ही है जिस पर चलने ओर बढ़ने वाले को पग-पग पर खतरे उठाने पड़ते हैं। दधीचि, भागीरथ, हरिश्चंद्र और मोरध्वज आदि की महिमा उनके तप-त्याग के कारण ही उजागर हुई।

भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्निपरीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। भगवान् का प्यार बाजीगरी जैसे चमत्कार देखने-दिखाने में नहीं है। मनोकामनाओं की पूर्ति भी वहाँ नहीं होती।

हमारे निजी जीवन में भगवत् कृपा निरंतर उतरती रही है। चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण करने का अत्यंत कठोर साधना क्रम उन्हीं दिनों से लाद दिया गया जब दुधमुँही किशोरावस्था भी पूरी नहीं हो पाई थी। इसके बाद संगठन, साहित्य, जेल, परमार्थ के एक से एक बढ़कर कठिन काम सौंपे गए। साथ ही यह भी जाँचा जाता रहा कि जो किया गया वह स्तर के अनुरूप बन पड़ा या नहीं। बड़ी प्रवंचना के सहारे संसारी ख्याति अर्जित करने की विडम्बना तो नहीं रचाई गई है। आद्यशक्ति गायत्री को युग शक्ति के रूप में विकसित और विस्तृत करने के दायित्व को सौंपकर वह जान लिया गया कि एक बीज ने अपने को गलाकर नये २४ लाख सहयोगी-समर्थक किस प्रकार बना लिए? उनके द्वारा २४०० प्रज्ञापीठें विनिर्मित कराने से लेकर सतयुगी वातावरण बनाने और प्रयोग परीक्षणों की शृंखला अद्भुत अनुपम स्तर तक की बना लेने में आत्म समर्पण ही एक मात्र आधारभूत कारण रहा। सस्ता ईंधन ज्वलंत ज्वाला बनकर धधकता है तो इसका कारण ईंधन का अग्नि में समर्पित हो जाना ही माना जा सकता है।

अब जबकि ७५ वर्षों में से प्रत्येक को इसी प्रकार तपते-तपते बिता लिया तो एक बड़ी कसौटी सिर पर लदी। इसमें नियंता की निष्ठुरता नहीं खोजी जानी चाहिए, वरन् यही सोचा जाना चाहिए कि उसकी दी हुई प्रखरता के परीक्षण क्रम में अधिक तेजी लाने की बात उचित समझी गई।

हीरक, जयंती के वसंत पर्व पर अंतरिक्ष से दिव्य संदेश उतरा। उसमें ‘लक्ष्य’ शब्द था और उँगलियों का संकेत। यों यह एक पहेली थी, पर उसे सुलझाने में देर नहीं लगी। प्रजापति ने देव, दानव और मानवों का मार्गदर्शन करते हुए उन्हें एक शब्द का उपदेश दिया था-‘‘द’’। तीनों चतुर थे उनने संकेत का सही अर्थ अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप निकाल लिया। कहा गया था-‘‘द’’। देवताओं ने दमन (संयम), दैत्यों ने दया, मानवों ने दान के रूप में उस संकेत का भाष्य किया, जो सर्वथा उचित था।

एक-एक लाख की पाँच शृंखलाएँ सँजोने का संकेत हुआ। उसका तात्पर्य है कली से कमल बनने की तरह खिल पड़ना। अब हमें इस जन्म की पूर्णाहुति में पाँच हव्य सम्मिलित करने पड़ेंगे, वे इस प्रकार हैं:

१. एक लाख कुण्डों का गायत्री यज्ञ। २. एक लाख युग सृजेताओं को उभारना तथा शक्तिशाली प्रशिक्षण करना। ३. एक लाख वृक्षों का आरोपण। ४. एक लाख ग्रामतीर्थों की स्थापना। ५. एक लाख वर्ष का समयदान-संचय।

यों पाँचों कार्य एक से एक कठिन प्रतीत होते हैं और सामान्य मनुष्य की शक्ति से बाहर, किंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं। वे सम्भव भी हैं और सरल भी। आश्चर्य इतना भर है कि देखने वाले उसे अद्भुत और अनुपम कहने लगें।

१-एक लाख गायत्री यज्ञः वरिष्ठ प्रज्ञापुत्रों में से प्रत्येक को अपना जन्मदिवसोत्सव अपने आँगन में मनाना होगा। उसमें एक छोटी चौकोर वेदी बनाकर गायत्री मंत्र की १०८ आहुतियाँ तो देनी ही होंगी। इसके साथ ही समयदान-अंशदान की प्रतिज्ञा को निबाहते रहने की शपथ भी लेनी होगी। अभ्यास में समाए हुए दुर्गुणों में से कम से कम एक को छोड़ना और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए न्यूनतम एक कदम उठाना होगा। इस प्रकार अंशदान से झोला पुस्तकालय चलने लगेगा और शिक्षितों को युग साहित्य पढ़ने तथा अशिक्षितों को सुनाने की विधि-व्यवस्था चल पड़ेगी। अपनी कमाई का एक अंश परमार्थ प्रयोजनों में लगाते रहने से वे सभी प्रायः चल पड़ेंगे, जिनके लिये प्रज्ञा मिशन द्वारा सभी प्रज्ञा-संस्थानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

हर गायत्री यज्ञ के साथ ज्ञानयज्ञ जुड़ा हुआ है। कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र, पड़ोसी आदि को अधिक संख्या में इस अवसर पर बुलाना चाहिए और ज्ञानयज्ञ के रूप में सुगम संगीत के अनुरूप प्रवचन करने की व्यवस्था बनानी चाहिए। यज्ञवेदी का मण्डप सूझ-बूझ और उपलब्ध सामग्री से सजाया जा सकता है। वेदी को लीपा-पोता जाए और चौक पूर कर सजाया जाए, तो वह देखने में सहज आकर्षक बन जाती है। मंत्रोच्चार सभी मिल जुलकर करें। हवन सामग्री के रूप में यदि सुगंधित द्रव्य मिलाए जा सकें तो गुड़ और घी से छोटे बेर जैसी गोली बनाई जा सकती है। १०८ गोलियों में १०८ आहुतियाँ हो जाती हैं। इससे सब घर का वातावरण एवं वायुमण्डल शुद्ध होता है। एक स्थान पर १ लाख गुणा १०८ लगभग एक करोड़ आहुतियों का यज्ञ हो जाएगा। यह न्यूनतम है। इससे अधिक हो सके, तो संख्या २४० तक बढ़ाई जा सकती है। आतिथ्य में कुछ खर्च करने की मनाही है। इसलिए हर गरीब-अमीर के लिए यह सुलभ है। महत्त्व को देखते हुए वह छोटी सी प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण सत्परिणाम उत्पन्न करने में समर्थ हो सकती है।

युगसंधि सन् २००० तक है। अभी उसमें प्रायः १४ वर्ष हैं। हर साल इतने जन्मदिन भी मनाए जाते रहें तो १ लाख कार्यकर्ताओं के जन्मदिन १ लाख यज्ञों में होते रहेंगे। देखा-देखी इसका विस्तार होता चले, तो हर वर्ष कई लाख यज्ञ और कई करोड़ आहुतियाँ हो सकती हैं। इससे वायुमण्डल और वातावरण दोनों का ही संशोधन होगा, साथ ही जनमानस का परिष्कार करने वाली अनेकों सत्प्रवृत्तियाँ इन अवसरों पर लिए गए अंशदान, समयदान संकल्प के आधार पर सुविकसित होती चलेंगी।

२-एक लाख को संजीवनी विद्या का प्रशिक्षणः शान्तिकुञ्ज की नई व्यवस्था इस प्रकार की जानी है कि जिसमें ५०० आसानी से और १००० ठूँस-ठूँस कर नियमित रूप से शिक्षार्थियों का प्रशिक्षण होता रह सकता है। इस प्रशिक्षण में व्यक्ति का निखार, प्रतिभा का उभार, परिवार सुसंस्कारिता, समाज में सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन जैसे महत्त्वपूर्ण पाठ नियमित पढ़ाए जाएँगे। आशा की गई है कि इस स्वल्प अवधि में भी जो पाठ्यक्रम हृदयंगम कराया जाएगा, जो प्राण-प्रेरणा भरी जाएगी वह प्रायः ऐसी होगी जिसे साधना का, तत्त्वज्ञान का सार कह सकते हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस संजीवनी विद्या को जो साथ लेकर वापिस लौटेंगे, वे अपना काया-कल्प अनुभव करेंगे और साथ ही ऐसी लोक नेतृत्त्व क्षमता सम्पादित करेंगे, जो हर क्षेत्र में हर कदम पर सफलता प्रदान कर सके। यह प्रशिक्षित कार्यकर्ता अपने क्षेत्र में पाँच सूत्री योजना का संचालन एवं प्रशिक्षण करेंगे।

मिशन की पत्रिकाओं के पाठक तो ग्राहकों की तुलना में पाँच गुने अधिक हैं। पत्रिका न्यूनतम पाँच व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है। इसी प्रकार प्रज्ञा परिवार की संख्या प्रायः २४-२५ लाख हो जाती है। इनमें नर-नारी शिक्षित वर्ग के हैं। सभी को इस प्रशिक्षण में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया गया है। २५ पीछे एक विद्यार्थी मिले तो उनकी संख्या एक लाख हो जाती है। युग संधि की अवधि में इतने शिक्षार्थी विशेष रूप से लाभ उठा चुके होंगे। इन्हें मात्र स्कूली विद्यार्थी नहीं माना जाना चाहिए, वरन् जिस उच्चस्तरीय ज्ञान को सीखकर वे लौटेंगे उससे यह आशा कि जा सकती है कि उनका व्यक्तित्व महामानव स्तर का युग नेतृत्त्व की प्रतिभा से भरा-पूरा होगा।

वह शिक्षण मई १९८६ से आरम्भ हुआ है। उसकी विशेषता यह है कि शिक्षार्थियों के लिए निवास, प्रशिक्षण की तरह भोजन भी निःशुल्क है। इस मद में स्वेच्छा से कोई कुछ दे तो अस्वीकार भी नहीं किया जाता, पर गरीब-अमीर का भेद करने वाली शुल्क परिपाटी को इस प्रशिक्षण में प्रवेश नहीं करने दिया गया है। अभिभावक और अध्यापक की दुहरी भूमिका प्राचीनकाल के विद्यालय निभाया करते थे, इस प्रयोग को भी उसी प्राचीन विद्यालय प्रणाली का पुनर्जीवन कहा जा सकता है।

जीवन की बहुमुखी समस्याओं का समाधान, प्रगति पथ पर अग्रसर होने के रहस्य भरे तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त इसी अवधि में भाषण, कला, सुगम-संगीत, जड़ी-बूटी उपचार, पौरोहित्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, गृह-उद्योगों का सूत्र संचालन भी सम्मिलित रखा गया है ताकि उससे परोक्ष और प्रत्यक्ष लाभ अपने तथा दूसरों के लिए उपलब्ध किया जा सके।

अनुमान है कि अगले १४ वर्षों में एक लाख छात्रों के उपरोक्त प्रशिक्षण पर भारी व्यय होगा। प्रायः एक करोड़ भोजन व्यय में ही चला जाएगा। इमारत की नई रद्दोबदल, फर्नीचर, बिजली आदि के जो नए खर्च बढ़ेंगे, वे भी इससे कम न होंगे। आशा की गई है कि बिना याचना किए भारी खर्च को वहन कर अब तक निभा व्रत आगे भी निभता रहेगा और यह संकल्प भी पूरा होकर रहेगा। २५ लाख का इस उच्चस्तरीय शिक्षण में सम्मिलित होना तनिक भी कठिन नहीं, किन्तु फिर भी प्रतिभावानों को प्राथमिकता देने की जाँच-पड़ताल करनी पड़ी है और प्रवेशार्थियों से उनका सुविस्तृत परिचय पूछा गया है।

३-एक लाख अशोक वृक्षों का वृक्षारोपणः वृक्षारोपण का महत्त्व सर्वविदित है। बादलों से वर्षा खींचना, भूमि-कटाव रोकना, भूमि की उर्वरता बढ़ाना, प्राणवायु का वितरण, प्रदूषण का अवशोषण, छाया, प्राणियों का आश्रय, इमारती लकड़ी, ईंधन आदि अनेकों लाभ वृक्षों के कारण इस धरती को प्राप्त होते हैं। धार्मिक और भौतिक दृष्टि से वृक्षारोपण को एक उच्चकोटि का पुण्य परमार्थ माना गया है।

वृक्षों में अशोक का अपना विशेष महत्त्व है, इसका गुणगान सम्राट अशोक जैसा किया जा सकता है। सीता को आश्रय अशोक वाटिका में ही मिला था। हनुमान जी ने भी उसी के पल्लवों में आश्रय लिया था। आयुर्वेद में यह महिला रोगों की अचूक औषधि कहा गया है। पुरुषों की बलिष्ठता और प्रखरता बढ़ाने की उसमें विशेष शक्ति है। साधना के लिए अशोक वन के नीचे रहा जा सकता है। शोभा तो उसकी असाधारण है ही। यदि अशोक के गुण सर्वसाधारण को समझाए जाएँ तो हर व्यक्ति का अशोक वाटिका बना सकना न सही पर घर-आँगन, अड़ोस-पड़ोस में उसके कुछ पेड़ तो लगाने और पोसने में समर्थ हो ही सकते हैं।

एक लाख अशोक वृक्ष लगाने का संकल्प पूरा करने में यदि प्रज्ञा परिजन उत्साह पूर्वक प्रयत्न करें तो इतना साधारण निश्चय इतने बड़े जन समुदाय के लिए तनिक भी कठिन नहीं होना चाहिए। उसकी पूर्ति में कोई अड़चन दीखती भी नहीं है। उन्हें देवालय की प्रतिष्ठा दी जाएगी। बिहार के हजारी किसान ने हजार आम्र-उद्यान निज के बलबूते खड़े करा दिए थे, तो कोई कारण नहीं कि एक लाख अशोक वृक्ष लगाने का उद्देश्य पूरा न हो सके। इनकी पौध शान्तिकुञ्ज से देने का निश्चय किया गया है और हर प्रज्ञापुत्र को कहा गया है कि वह अशोक वाटिका लगाने-लगवाने में किसी प्रकार की कमी न रहने दें। उसके द्वारा वायुशोधन का होने वाला कार्य शाश्वत शास्त्र सम्मत यज्ञ के समतुल्य ही समझें। अग्निहोत्र तो थोड़े समय ही कार्य करता है, पर यह पुनीत वृक्ष उसी कार्य को निरंतर चिरकाल तक करता रहता है।

४-हर गाँव एक युग तीर्थः जहाँ श्रेष्ठ कार्य होते रहते हैं, उन स्थानों की अर्वाचीन अथवा प्राचीन गतिविधियों को देखकर आदर्शवादी प्रेरणा प्राप्त होती रहती है, ऐसे स्थानों को तीर्थ कहते हैं। जिन दर्शनीय स्थानों की श्रद्धालु जन तीर्थयात्रा करते हैं, उन स्थानों एवं क्षेत्रों के साथ कोई ऐसा इतिहास जुड़ा है, जिससे संयमशीलता, सेवा भावना का स्वरूप प्रदर्शित होता है। प्रस्तुत तीर्थों में कभी ऋषि आश्रम रहे हैं। गुरुकुल आरण्यक चले हैं और परमार्थ सम्बन्धी विविध कार्य होते रहे हैं।

इन दिनों प्रख्यात तीर्थ थोड़े ही हैं। वहाँ पर्यटकों की धकापेल भर रहती है। पुण्य प्रयोजनों का कहीं अता-पता नहीं है। इन परिस्थितियों में तीर्थ भावना को पुनर्जीवित करने के लिए सोचा यह गया है कि भारत के प्रत्येक गाँव को एक छोटे तीर्थ के रूप में विकसित किया जाए। ग्राम से तात्पर्य यहाँ शहरों में द्वेष या उपेक्षा भाव रखना नहीं है, वरन् पिछड़ेपन की औसत रेखा से नीचे वाले वर्ग को प्रधानता देना है। मातृभूमि का हर कण देवता है। गाँव और झोंपड़ा भी। आवश्यकता इस बात की है कि उन पर छाया पिछड़ापन धो दिया जाए और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना की जाए। इतने भर से वहाँ बहुत कुछ उत्साहवर्धक प्रेरणाप्रद और आनंददायक मिल सकता है। ‘‘हर गाँव एक तीर्थ’’ योजना का उद्देश्य है, ग्रामोत्थान, ग्राम सेवा, ग्राम विकास। इस प्रचलन के लिए घोर प्रयत्न किया जाए और उस परिश्रम को ग्राम देवता की पूजा माना जाए।  यह तीर्थ स्थापना हुई, जिसे स्थानीय निवासी और बाहर के सेवा भावी उद्बोधनकर्त्ता मिल-जुलकर पूरा कर सकते हैं। पिछड़ेपन के हर पक्ष से जूझने और प्रगति के हर पहलू को उजागर करने के लिए आवश्यक है कि गाँवों की सार्थक पद यात्राएँ की जाएँ, जन संपर्क साधा जाए और युग चेतना का अलख जगाया जाए।

हर गाँव को एक तीर्थ रूप में विकसित करने के लिए तीर्थयात्रा टोलियाँ निकालने की योजना है। पद यात्रा को साइकिल यात्रा के रूप में मान्यता दी है। चार साइकिल सवारों का एक जत्था पीले वस्त्रधारण किए गले में पीला झोला लटकाए, साइकिलों पर पीले रंग के कमंडल टाँगे प्रवास चक्र पर निकलेगा। यह प्रवास न्यूनतम एक सप्ताह के, दस दिन के, पंद्रह दिन के अथवा अधिक से अधिक एक माह के होंगे। जिनका निर्धारण पहले ही हो चुका होगा। यात्रा जहाँ से आरम्भ होगी, एक गोल चक्र पूरा करती हुई वहीं समाप्त होगी। प्रातःकाल जलपान करके टोली निकलेगी। रास्ते में सहारे वाली दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखती चलेगी। छोटी बाल्टियों में रंग घुला होगा। सुंदर अक्षर लिखने का अभ्यास पहले से ही कर लिया गया होगा। १. हम बदलेंगे-युग बदलेगा। २. हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा। ३. नर और नारी एक समान, जाति वंश सब एक समान। वाक्यों की प्रकाशित शृंखलाएँ जो जहाँ उपयुक्त हों वहाँ उन्हें ब्रुश से लिखते चलना चाहिए।

रात्रि को जहाँ ठहरना निश्चय किया हो वहाँ शंख-घड़ियालों से गाँव की परिक्रमा लगाई जाए और घोषणा की जाए कि अमुक स्थान पर तीर्थयात्री मण्डली के भजन-कीर्तन होंगे।

गाँव में एक दिन के कीर्तन में जहाँ सुगम संगीत से उपस्थित जनों को आह्लादित किया जाएगा वहाँ उन्हें यह भी बताया जाएगा कि गाँव को सज्जनता और प्रगति की प्रतिमूर्ति बनाया जा सकता है। प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कारशाला, स्वच्छता, व्यायामशाला, घरेलू शाक वाटिका, परिवार नियोजन, नशाबन्दी, मितव्ययिता, सहकारिता, वृक्षारोपण आदि सत्प्रवृत्तियों की महिमा और आवश्यकता बताते हुए यह बताया जाए कि इन सत्प्रवृत्तियों को मिलजुलकर किस प्रकार कार्यान्वित किया जा सकता है। और उन प्रयत्नों का कैसे भरपूर लाभ उठाया जा सकता  है।

सम्भव हो तो सभा के अंत में उत्साही प्रतिभा वाले लोगों की एक समिति बना दी जाए जो नियमित रूप से समयदान-अंशदान देकर इन सत्प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करने में जुटे। गाँव की एकता और पवित्रता का ध्वज अशोक वृक्ष के रूप में दूसरे दिन प्रातःकाल स्थापित किया जाए। यह देव प्रतिमा उपयोगिता और भावना की दृष्टि से अतीव उपयोगी है।

इन आंदोलनों का एक लाख गाँवों में विस्तार हेतु शान्तिकुञ्ज ने पहला कदम बढ़ाया है। इसके लिए संचालन केन्द्रों की स्थापना की गई है। चार-चार नई साइकिलें, चार छोटी बाल्टियाँ, बिस्तरबंद, संगीत उपकरण, साहित्य आदि साधन जुटाए गए हैं। इनके सहारे यात्रा की सभी आवश्यक वस्तुएँ एक ही स्थान पर मिल जाती हैं और कुछ ही दिनों की ट्रेंनिंग के उपरांत समयदानियों की टोली आगे बढ़ चलती है। कार्यक्रम की सफलता तब सोची जाएगी जब कम से कम एक नैष्ठिक सदस्य उस गाँव में बने और समयदान और अंशदान नियमित रूप से देते हुए झोला पुस्तकालय चलाने लगे। यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनाई जाएगी वहीं एक उपयोगी संगठन बढ़ने लगेगा और उसके प्रयास से गाँव की सर्वतोमुखी प्रगति का उपक्रम चल पड़ेगा। यही है तीर्थ-भावना - तीर्थ स्थापना। इसके लिए एक हजार ऐसे केन्द्र स्थापित करने की योजना है, जहाँ उपरोक्त तीर्थ यात्राओं का सारा सरंजाम सुरक्षित रहे। समयदानी तीर्थयात्री प्रशिक्षित किए जाते रहें और एक टोली का एक प्रवास चक्र पूरा होते-होते दूसरी टोली तैयार कर ली जाए और उसे दूसरे गाँव के भ्रमण प्रवास पर भेज दिया जाए। सोचा गया है कि पचास-पचास मील चारों दिशाओं में देखकर एक तीर्थ मण्डल बना लिया जाए, उनमें जितने भी गाँव हों, उन में वर्ष में एक या दो बार परिभ्रमण होता रहे।

देश में सात लाख गाँव हैं, पर अभी वर्तमान सम्भावना और स्थिति को देखते हुए एक लाख गाँव ही हाथ में लिए गए हैं। २४ लाख प्रज्ञा परिजन एक लाख गाँवों में बिखरे होंगे। उनकी सहायता से यह कार्यक्रम सरलतापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। इसके बाद वह हवा समूचे देश को भी अपनी पकड़ में ले सकती है। क्रमिक गति से चलना और जितना सम्भव है, उतना तत्काल करते हुए आगे की योजना को विस्तार देते हुए चलना, यही बुद्धिमत्ता का कार्य है।

५-एक लाख वर्ष का समयदानः जितने विशालकाय एवं बहुमुखी युग परिवर्तन की कल्पना की गई है, उसके लिए साधनों की तुलना में श्रम सहयोग की कहीं अधिक आवश्यकता पड़ेगी। मात्र साधनों से काम चला होता, तो अरबों-खरबों खर्च करने वाली सरकारें इस कार्य को भी हाथ में ले सकती थीं। धनी-मानी लोग भी कुछ तो कर ही सकते थे, पर इतने भर से काम नहीं चलता। भावनाएँ उभारना और अपनी प्रामाणिकता, अनुभवशीलता, योग्यता एवं त्याग भावना का जनसाधारण को विश्वास दिलाना, यही वे आवश्यकताएँ हैं, जिनके कारण लोकहित के कार्यों में दूसरों को प्रोत्साहित किया और लगाया जा सकता है अन्यथा लम्बा वेतन और भरपूर सुविधाएँ देकर भी यह नहीं हो सकता है कि पिछड़ी हुई जनता को आदर्शवादी चरण उठाने के लिए तत्पर किया जा सके। जला हुआ दीपक ही दूसरे को जला सकता है। भावनाशीलों ने ही भावना उभारने में सफलता प्राप्त की है। सृजनात्मक कार्यों में सदा कर्मवीर अग्रदूतों की भूमिका सफल होती है।

बात पर्वत जैसी भारी किन्तु साथ ही राई जितनी सरल भी है। व्यक्ति औसत नागरिक स्तर स्वीकार कर ले और परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर की जिम्मेदारी वहन करे तो समझना चाहिए कि सेवा-साधना के मार्ग में जो अड़चन थी, सो दूर हो गई। मनोभूमि का इतना सा विकास-परिष्कार कर लेने पर कोई भी विचारशील व्यक्ति लोक-सेवा के लिए युग परिवर्तन हेतु ढेरों समय निकाल सकता है। प्राचीन काल में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सद्गृहस्थ ऐसा साहस करते और कदम उठाते थे। गुरुगोविंद सिंह ने अपने शिष्य समुदाय में से प्रत्येक गृहस्थ से बड़ा बेटा संत सिपाही बनने के लिए माँगा था। वे मिले भी थे और इसी कारण सिखों का भूतकालीन इतिहास बिजली जैसा चमकता था। देश की रक्षा प्रतिष्ठा के लिए असंख्यों ने जाने गँवाई और भारी कठिनाइयाँ सहीं। यही परम्परा गाँधी और बुद्ध के समय में भी सक्रिय हुई थी। विनोबा का सर्वोदय आंदोलन इसी आधार पर चला था। स्वामी विवेकानन्द, दयानंद आदि ने समाज को अनेकानेक उच्चस्तरीय कार्यकर्ता प्रदान किए थे। आज वही सबसे बड़ी आवश्यकता है। समय की माँग ऐसे महामानवों की है, जो स्वयं बढ़ें और दूसरों को बढ़ाएँ ।।

माना कि आज स्वार्थपरता, संकीर्णता और क्षुद्रता ने मनुष्य को बुरी तरह घेर रखा है, तो भी धरती को वीर विहीन नहीं कहा जा सकता। ६० लाख साधु बाबा यदि धर्म के नाम पर घर बार छोड़कर मारे-मारे फिर  सकते हैं, तो कोई कारण नहीं कि मिशन की एक लाख वर्ष की समयदान की माँग पूरी न हो सके। एक व्यक्ति यदि दो घण्टे रोज समयदान दे सके तो एक वर्ष में ७२० घण्टे होते हैं। ७ घण्टे का दिन माना जाए तो यह पूरे १०३ दिन एक वर्ष में हो जाते हैं। यह संकल्प कोई २० वर्ष की आयु में ले और ७० का होने तक ५० वर्ष निवाहें तो कुल दिन ५ हजार दिन हो जाते हैं, जिसका अर्थ हुआ प्रायः १४ वर्ष। एक लाख वर्ष का समय पूरा करने के लिए ऐसे १०००००=१४७१४३ कुल इतने से व्यक्ति अपने जीवन में ही एक लाख वर्ष की समयदान याचना को पूर्ण कर सकते हैं। यह तो एक छोटी गणना हुई। मिशन में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जो साधु-ब्राह्मणों जैसा परमार्थ परायण जीवन अभी भी जी रहे हैं। और अपना समय पूरी तरह युग परिवर्तन की प्रक्रिया में नियोजित किए हुए हैं। ऐसे ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी हजारों की संख्या में अभी भी हैं। उनका पूरा समय जोड़ लेने पर तो वह गणना एक लाख वर्ष से कहीं अधिक की पूरी हो जाती है।

बात इतने तक सीमित नहीं है। प्रज्ञा परिवार के ऐसे कितने ही उदारचेता हैं, जिनने हीरक जयंती के उपलक्ष्य में समयदान के आग्रह और अनुरोध को दैवी निर्देशन माना है और अपनी परिस्थितियों से तालमेल बिठाते हुए एक वर्ष से लेकर पाँच वर्ष तक का समय एक मुश्त दिया है। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो प्रवास पर तो नहीं जा सके, पर घर पर रहकर ही आए दिन मिशन की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने के लिए समय देते रहेंगे, स्थानीय गतिविधियों तक ही सीमित रहकर समीपवर्ती कार्यक्षेत्र को भी संभालते रहेंगे।

पुरुषों की तरह महिलाएँ भी इस समयदान यज्ञ में भाग ले सकती हैं। शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के श्रम ऐसे हैं, जिन्हें अपनाकर वे महिला समाज में शिक्षा-सम्वर्धन जैसे अनेकों काम कर सकती हैं। अशिक्षित महिलाएँ तक घरों में शाक-वाटिका लगाने जैसा काम कर सकती हैं। जिनके पीछे पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं हैं, शरीर से स्वस्थ मन से स्फूर्तिवान् हैं, वे शान्तिकुञ्ज के भोजनालय विभाग में काम कर सकती हैं। और यहाँ के वातावरण में रहकर आशातीत संतोष भरा जीवन बिता सकती हैं।

कार्यक्रमों में प्रचारात्मक, रचनात्मक और सुधारात्मक अनेक कार्य हैं जिन्हें घर से बाहर रहते हुए परिस्थितियों के अनुरूप कार्यान्वित किया जा सकता है। प्रचारात्मक स्तर के कार्य १-झोला पुस्तकालय, २-ज्ञान रथ, ३-स्लाइड प्रोजेक्टर प्रदर्शन, टेपरिकार्डर से युग संगीत एवं युग संदेश को जन-जन तक पहुँचाना, ४-दीवार पर आदर्श वाक्य लिखना, ५-साइकिलों वाली धर्म प्रचार पद यात्रा योजना में सम्मिलित होना। संगीत, साहित्य, कला के माध्यम से बहुत कुछ हो सकता है। साधन दान से भी अनेक सत्प्रवृत्तियों का पोषण हो सकता है। रचनात्मक कार्यों मेंः १-प्रौढ़ शिक्षा-पुरुषों की रात्रि पाठशाला, महिलाओं की अपराह्न पाठशाला। २-बाल संस्कारशाला। ३-व्यायामशाला। ४-स्वच्छता सम्वर्धन। ५-वृक्षारोपण आदि। सुधारात्मक कार्यों में अवांछनीयता, अनैतिकता, अन्धविश्वास आदि का उन्मूलन प्रमुख है। १-जातिगत ऊँच-नीच, २-पर्दा प्रथा, ३-दहेज, ४-फैशन के नाम पर अपव्यय, बाल विवाह, बहु प्रजनन आदि के उन्मूलन में सामर्थ्य भर प्रयत्न करना। इसके अतिरिक्त शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक क्षेत्रों से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम हैं, जिन्हें कार्यान्वित करने के लिए हर क्षेत्र और हर स्थिति में गुंजायश हैं। जिन्हें नवसृजन के लिए समय देना हैं, उन्हें अपनी योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप कोई काम चुन या पूछ लेना चाहिए। यह सभी कार्य प्रगति प्रयास समयदान से सम्बंधित हैं।

एक व्यक्ति का एक लाख वर्ष का समय यों सुनने कहने में बहुत अधिक प्रतीत होता है, किन्तु जब परिजन मिलजुलकर इसकी पूर्ति करने पर कटिबद्ध होते हैं, तो हर परिजन के हिस्से में थोड़ा ही आता है।

बड़े अनुदान-बड़े वरदानः फुंसी का मवाद घरेलू सुई चुभोकर भी निकाला जा सकता है, पर मस्तिष्क या हृदय में घुसी गोली को निकालने के लिए कुशल सर्जन और बहुमूल्य उपकरणों की जरूरत पड़ती है। मकड़ी का पेट एक मक्खी से भर जाता है, पर हाथी को मनों गन्ना रोज चाहिए। घोंघे जलाशय की तली में जा बैठते हैं, पर समुद्र सोखने के लिए अगस्त्य ऋषि जैसे चुल्लू चाहिए। कुएँ से घड़ा भरकर पानी कोई भी निकाल सकता है, पर स्वर्ग से गंगा का अवतरण धरती पर करने के लिए भागीरथ जैसा तप और शिव जटाओं का आधार चाहिए। वृत्तासुर वध के लिए ऋषि दधीचि की ऊर्जामयी अस्थियों से वज्र बनाना पड़ा था। छोटे काम छोटे मनुष्यों की साधारण हलचलों से स्वल्प साधनों से बन पड़ते हैं, पर महान् कार्यों के लिए महान् व्यवस्था बनानी पड़ती है। धरती की प्यास बादल बुझाते और समुद्र की सतह यथावत बनाए रहने के लिए सहस्रों नदियों की असीम जलराशि का निरंतर समर्पित होते रहना आवश्यक है।

परिवर्तन और निर्माण दोनों ही कष्टसाध्य हैं। भ्रूण जब शिशु रूप में धरती पर आता है तो प्रसव पीड़ा के साथ होने वाला खून खच्चर दिल दहला देता है। प्रस्तुत परिस्थितियों के दृश्य और अदृश्य दोनों ही पक्ष ऐसे हैं, जिनके कण-कण से महाविनाश का परिचय मिलता है। समय की आवश्यकताएँ इतनी बड़ी हैं जिन्हें पूरा करने के लिए बहुतों को बहुत कुछ करना चाहिए। विनाश से निपटने और विकास प्रत्यक्ष करने के लिए असामान्य व्यक्तित्व, असामान्य कौशल और असीम साधन चाहिए। इतने असीम जिन्हें जुटा सकना किसी व्यक्ति या समुदाय के लिए कठिन है। उस सारे सरंजाम को जुटाना मात्र परमेश्वर के हाथ है। हाँ इतना अवश्य है कि निराकार को साकार जीवधारियों में नियोजित रणनीति की और कौशल भरी व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। सो भी परिमाण में। ऐसे कार्यों का संयोजन तो सृष्टा की विधि व्यवस्था ही करती है, पर उसका श्रेय श्रद्धावान साहसियों को मिल जाता है। हनुमान और अर्जुन की शक्ति उनकी निज की उपार्जित नहीं थी वे सृष्टा का काम करते हुए उसी की सामर्थ्य को प्राप्त कर सके। अर्जुन को सारथी का यदि समर्थन न रहा होता, तो महाभारत कैसे जीता जाता? हनुमान स्वयं बलवान रहे होते तो सुग्रीव सहित ऋष्यमूक पर्वत पर छिपे-छिपे न फिरते। समुद्र छलांगने, लंका जलाने, पर्वत उखाड़ने की सामर्थ्य उन्हें धरोहर में इसलिए मिली थी कि वह राम काज में समर्पित हों। यदि निजी मनोवाँछनाओं के लिए किसी भक्त ने माँगा है तो नारद मोह के समय पर मिले उपहास की तरह तिरस्कृत होना पड़ा है।

महान् परिवर्तन के साथ जुड़े हुए नवसृजन का उभय पक्षीय कार्य ऐसा है कि जिसे सम्पन्न किए जाने के लिए उतने साधन चाहिए जिनका विवरण शब्दों में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। वह जुटाए जाने हैं, जुटेंगे भी।

अभीष्ट प्रयोजन की महानता को समग्र रूप से आँका जाना कठिन है। इसकी किस्तें ही शृंखला की कड़ियों की तरह प्रादुर्भूत होती हैं। प्रस्तुत संकट या संकल्प इसी प्रकार का है जो अवतरण पर्व पर विगत वसंत पंचमी को प्रकट हुआ। उस एक को पाँच भागों की सुविधा की दृष्टि से विभाजित किया गया है। १-एक लाख यज्ञ, २-एक लाख नर रत्न, ३-एक लाख अशोक वाटिका, ४-एक लाख ग्राम्य तीर्थ, ५-एक लाख वर्ष का समयदान संकलन। यह पाँचों ही काम इतने भारी लगते हैं मानों शेषनाग के सिर पर धरती का बोझ लादने वाले का अनुशासन ही प्रत्यक्ष हुआ हो। यह सभी कार्य ऐसे हैं जिन्हें मानवी सत्ता न सोच सकती है, न उनकी योजना बना सकती है और न पूरी करने का दुस्साहस ही सँजो सकती है। ये अतिमानवी कार्य हैं जिन्हें हमारे जैसा तुच्छ व्यक्ति अपने निज के बलबूते किसी भी प्रकार वहन एवं सम्पन्न नहीं कर सकता। यह परम सत्ता का कार्य है और वही बाजीगर की तरह कठपुतलियों को नचा-कुदा रही है।

अच्छा हो कि इस गोवर्धन को मिल-जुलकर उठाया जाए। अच्छा हो इस समुद्र बाँधने की कड़ी में कंकड़-पत्थर ढोने मात्र से श्रेय लूटा और यशस्वी बना जाए। प्रज्ञा परिजनों के लिए इस योजना में हाथ बँटाना उनके निज के हित में है, जो खोएँगे उस से हजार गुना अधिक पाएँगे। बीज को कुछ क्षण ही गलने का कष्ट उठाना पड़ता है। इसके उपरांत तो बढ़ने, हरियाने और फूलने फलने का आनंद ही आनंद है। वैभव ही वैभव है। स्वतंत्रता संग्राम में जो अग्रगामी बने वे मिनिस्टर बनने से लेकर स्वतंत्रता सेनानियों वाली पेंशन, सम्मान सहित प्राप्त कर सके। यह अवसर भी ऐसा ही है, जिसमें ली हुई भागीदारी मणिमुक्तकों की खदान, कौड़ी मोल खरीद लेने के समान है जिसका श्रेय यश और वैभव सुनिश्चित है उसे हस्तगत करने में कृपणता से अधिक और कुछ नहीं हो सकता।


तीन संकल्पों की महान् पूर्णाहुति


हमने जैसा कि इस पुस्तक में समय-समय पर संकेत किया है, जैसे हमारे बॉस के आदेश मिलते रहे हैं, वैसे ही हमारे संकल्प बनते, पकते व फलते होते गए हैं। सन् १९८६ वर्ष का उत्तरार्द्ध हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण सोपान है। इस वर्ष के समापन के साथ हमारे पचहत्तरवें वर्ष की हीरक जयंती का वह अध्याय पूरा होता है, जिनके साथ एक-एक लाख के पाँच कार्यक्रम जुड़े हुए हैं। उसकी पूर्णाहुति का समय भी आ पहुँचा है। अखण्ड ज्योति पत्रिका जो इस मिशन की प्रेरणा पुंज रही है, जिसके कारण यह विशाल परिवार बनकर खड़ा हो गया है, अपने जीवन के पचासवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। उसकी स्वर्ण जयंती इस उपलक्ष्य में मनायी जा रही है। तीन वर्ष से हमारी सूक्ष्मीकरण साधना चल रही है। उसे सावित्री साधना या भारतवर्ष की देवात्म-शक्ति की कुण्डलिनी जागरण साधना भी कह सकते हैं, पर हमारी साधना विशुद्धतः लोकमंगल के प्रयोजनों के निमित्त हुई है। जिससे न केवल अपने देश की गरिमा बढ़े, वरन धरती पर बिखरे अनेक अभावों, संकटों, व्यवधानों, विपत्ति भरे घटाटोपों का निराकरण भी सम्भव हो सके।

इन तीन महाअनुष्ठानों की पूर्णाहुति एक विशेष धर्मानुष्ठान के द्वारा की जा रही है। २४ लक्ष्य के २४ महापुरश्चरणों के समापन पर पूर्णाहुति के अवसर पर सन् १९५८ में हमने १००० कुण्डीय यज्ञ किया था जो अविस्मरणीय बन गया। इस बार की तीन साधनाओं की पूर्णाहुति सारे भारत में कुल एक हजार स्थानों पर एक सौ आठ कुण्डीय यज्ञ एवं युग निर्माण सम्मेलनों के रूप में होगी। एक वर्ष में एक हजार यज्ञों के माध्यम से एक लाख यज्ञों का संकल्प भी हमारा पूरा होगा एवं विभिन्न क्षेत्रों के वातावरण का परिशोधन करने में समृद्धि तथा प्रगति में सहायता मिलेगी।

यह न समझा जाए कि ये सभी संकेत आदेश किसी व्यक्ति विशेष के लिए हैं, इसलिए उसे ही पूरा करना चाहिए। यहाँ यह समझ रखना चाहिए कि इतना बड़ा भार कोई एक व्यक्ति न तो उठा सकता है और न उसे लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। यह व्यक्ति वस्तुतः समुदाय है जिसे आज की स्थिति में प्रज्ञा परिवार जैसी छोटी इकाई समझा जा सकता है, किन्तु अगले दिनों यह उदार चेताओं की एक महान् बिरादरी होगी। इस यशस्वी वर्ग में सम्मिलित होना, उनके दायित्वों में हाथ बँटाना उन बड़भागियों के लिए एक अलौकिक वरदान है, जो अपने हिस्से का काम करके उपयुक्त अनुदान प्राप्त करते हैं।

युग संधि २००० तक चलेगी। तब तक हमें स्थूल या सूक्ष्म शरीर से सक्रिय रहना है। हमें सौंपे गए सभी कामों को पूरा करके ही जाना है। परिजन अब तक के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों में साथ देते, हाथ बँटाते और कदम से कदम मिलाकर चलते रहे हैं। विश्वास किया गया है कि इस अग्निपरीक्षा की घड़ी में वे साथ नहीं छोड़ेंगे, मुँह नहीं मोड़ेंगे। इस श्रेय साधना में सभी प्राणवानों की बराबर की भागीदारी रहेगी।
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