हमारी वसीयत और विरासत

विचार क्रांति का बीजारोपण पुनः हिमालय आमंत्रण

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मथुरा से ही उस विचार क्रान्ति अभियान ने जन्म लिया, जिसके माध्यम से आज करोड़ों व्यक्तियों के मन-मस्तिष्कों को उलटने का संकल्प पूरा कर दिखाने का हमारा दावा आज सत्य होता दिखाई देता है। सहस्र कुण्डीय यज्ञ तो पूर्वजन्म से जुड़े उन परिजनों के समागम का माध्यम था, जिन्हें भावी जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इस यज्ञ में एक लाख से भी अधिक लोगों ने समाज से, परिवार से एवं अपने अंदर से बुराइयों को निकाल फेंकने की प्रतिज्ञाएँ लीं। यह यज्ञ नरमेध यज्ञ था। इनमें हमने समाज के लिए समर्पित लोकसेवियों की माँग की एवं समयानुसार हमें वे सभी सहायक उपलब्ध होते चले गए। यह सारा खेल उस अदृश्य बाजीगर द्वारा सम्पन्न होता ही हम मानते आए हैं, जिसने हमें माध्यम बनाकर समग्र परिवर्तन का ढाँचा खड़ा कर दिखाया।

मथुरा में ही नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति के लिए गाँव-गाँव आलोक वितरण करने एवं घर-घर अलख जगाने के लिए सर्वत्र गायत्री यज्ञ समेत युग निर्माण सम्मेलन के आयोजनों की एक व्यापक योजना बनाई गई। मथुरा के सहस्र कुण्डीय यज्ञ के अवसर पर जो प्राणवान व्यक्ति आए थे, उन्होंने अपने यहाँ एक शाखा संगठन खड़ा करने और एक ऐसा ही यज्ञ आयोजन का दायित्व अपने कंधों में लिया या कहें कि उस दिव्य वातावरण में अन्तःप्रेरणा ने उन्हें दायित्व सौंपा ताकि हर व्यक्ति न्यूनतम एक हजार विचारशील व्यक्तियों को अपने समीपवर्ती क्षेत्र में से ढूँढ़कर अपना सहयोगी बनाए। आयोजन चार-चार दिन के रखे गए। इनमें तीन दिन तीन क्रान्तियों की विस्तृत रूपरेखा और कार्य पद्धति समझाने वाले संगीत और प्रवचन रखे गए। अंतिम चौथे दिन यज्ञाग्नि के सम्मुख उन लोगों से व्रत धारण करने को कहा गया, जो अवांछनीयता को छोड़ने और उचित परम्पराओं को अपनाने के लिए तैयार थे।

ऐसे आयोजन जहाँ-जहाँ भी हुए, बहुत ही सफल रहे, इनके माध्यम से प्रायः एक करोड़ व्यक्तियों ने मिशन की विचारधारा को सुना एवं लाखों व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने अनैतिकताओं, अंध-विश्वासों एवं कुरीतियों के परित्याग की प्रतिज्ञाएँ लीं। इन आयोजनों में से अधिकाँश के बिना दहेज और धूमधाम के साथ विवाह हुए। मथुरा में एक बार और सौ कुण्डीय यज्ञ में 100 आदर्श विवाह कराए गए। तब से ये प्रचलन बराबर चलते आ रहे हैं और हर वर्ष इस प्रकार के आन्दोलन से अनेक व्यक्ति लाभ उठाते रहे हैं।

सहस्र कुण्डीय यज्ञ से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से जुड़े अनेकानेक रहस्यमय घटनाक्रमों का विवरण बताना अभी जनहित में उपयुक्त न होगा। इस काया को छोड़ने के बाद ही वह रहस्योद्घाटन हो, ऐसा प्रतिबन्ध हमारे मार्गदर्शक का है, सो हमने उसे दबी कलम से ही लिखा है। इस महान यज्ञ से हमें प्रत्यक्ष रूप से काफी कुछ मिला। एक बहुत बड़ा संगठन रातों रात गायत्री परिवार के रूप में खड़ा हो गया। युग निर्माण योजना के विचार क्रान्ति अभियान एवं धर्मतंत्र से लोकशिक्षण के रूप में उनकी भावी भूमिका भी बन गई। जिन-जिन स्थानों से आए व्यक्तियों ने अपने यहाँ शाखा स्थापित करने के संकल्प लिए, लगभग वहीं दो दशक बाद हमारे प्रज्ञा संस्थान एवं स्वाध्याय मण्डल विनिर्मित हुए। जिन स्थाई कार्यकर्ताओं ने हमारे मथुरा से आने के बाद प्रेस-प्रकाशन, संगठन-प्रचार का दायित्व अपने कंधों पर लिया, वे इसी महायज्ञ से उभरकर आए थे। सम्प्रति शान्तिकुञ्ज में स्थाई रूप से कार्यरत बहुसंख्य स्वयं सेवकों की पृष्ठभूमि में इस महायज्ञ अथवा इसके बाद देश भर में हुए आयोजनों की प्रमुख भूमिका रही है।

इससे हमारी स्वयं की संगठन सामर्थ्य विकसित हुई है। हमने गायत्री तपोभूमि के सीमित परिकर में ही एक सप्ताह, नौ दिन एवं एक-एक माह के कई शिविर आयोजित किए। आत्मोन्नति के लिए पंचकोशी साधना शिविर, स्वाध्याय सम्वर्धन हेतु कायाकल्प सत्र एवं संगठन विस्तार हेतु परामर्श एवं जीवन साधना सत्र उन कुछ प्रमुख आयोजनों में से हैं, जो हमने सहस्र एवं शतकुण्डीय यज्ञ के बाद मथुरा में मार्गदर्शक के निर्देशानुसार सम्पन्न किए। गायत्री तपोभूमि में आने वाले परिजनों से जो हमें प्यार मिला, परस्पर आत्मीयता की जो भावना विकसित हुई, उसी ने एक विशाल गायत्री परिवार को जन्म दिया। यह वही गायत्री परिवार है, जिसका हर सदस्य हमें पिता के रूप में, उँगली पकड़ कर चलाने वाले मार्गदर्शक के रूप में, घर परिवार और मन की समस्याओं को सुलझाने वाले चिकित्सक के रूप में देखता आया है।

इसी स्नेह सद्भाव के नाते हमें भी उनके यहाँ जाना पड़ा, जो हमारे यहाँ आए थे। कई स्थानों पर छोटे-छोटे यज्ञायोजन थे, कहीं सम्मेलन तो कहीं प्रबुद्ध समुदाय के बीच तर्क, तथ्य प्रतिपादनों के आधार पर गोष्ठी आयोजन। हमने जब मथुरा छोड़कर हरिद्वार आने का निश्चय किया तो लगभग दो वर्ष तक पूरे भारत का दौरा करना पड़ा। पाँच स्थानों पर तो उतने ही बड़े सहस्र कुण्डी यज्ञों का आयोजन था, जितना बड़ा मथुरा का सहस्र कुण्डी यज्ञ था। ये थे टाटानगर, महासमुन्द, बहराइच, भीलवाड़ा एवं पोरबन्दर। एक दिन में तीन-तीन स्थानों पर रुकते हुए हजारों मील का दौरा अपने अज्ञातवास पर जाने के पूर्व कर डाला। इस दौरे से हमारे हाथ लगे समर्पित, समयदानी कार्यकर्ता। ऐसे अगणित व्यक्ति हमारे सम्पर्क में आए, जो पूर्व जन्म में ऋषि जीवन जी चुके थे। उनकी समस्त सामर्थ्य को पहचान कर हमने उन्हें परिवार से जोड़ा और इस प्रकार पारिवारिक सूत्रों से बँधा एक विशाल संगठन बनकर खड़ा हो गया।

मार्गदर्शक का आदेश वर्षों पूर्व ही मिल चुका था कि हमें छः माह के प्रवास के लिए पुनः हिमालय जाना होगा, पर पुनः मथुरा न लौटकर हमेशा के लिए वहाँ से मोह तोड़ते हुए हरिद्वार सप्त सरोवर में सप्तऋषियों की तपस्थली में ऋषि परम्परा की स्थापना करनी होगी। अपना सारा दायित्व हमने क्रमशः धर्मपत्नी के कंधों पर सौंपना काफी पूर्व से आरम्भ कर दिया था। वे पिछले तीन में से दो जन्मों में हमारी जीवन संगिनी बनकर रहीं थीं। इस जन्म में भी उन्होंने अभिन्न साथी-सहयोगी की भूमिका निभाई। वस्तुतः हमारी सफलता के मूल में उनके समर्पण-एकनिष्ठ सेवा भाव को देखा जाना चाहिए। जो कुछ भी हमने चाहा, जिन प्रतिकूलताओं में जीवन जीने हेतु कहा, उन्होंने सहर्ष अपने को उस क्रम में ढाल लिया। हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण जमींदार के घराने की थी, तो उनकी एक धनी शहरी खानदान की, परन्तु जब घुलने का प्रश्न आया तो दोनों मिलकर एक हो गए। हमने अपने गाँव की भूमि विद्यालय हेतु दे दी एवं जमींदारी बांड से मिली राशि गायत्री तपोभूमि के लिए जमीन खरीदने हेतु। तो उन्होंने अपने सभी जेवर तपोभूमि का भवन विनिर्मित होने के लिए दे दिए। यह त्याग-समर्पण उनका है, जिसने हमें इतनी बड़ी ऊँचाइयों तक पहुँचाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अपनी तीसरी हिमालय यात्रा में उन्होंने हमारी अनुपस्थिति में सम्पादन-संगठन की जिम्मेदारी सँभाली ही थी। अब हम 10 वर्ष बाद 1971 में एक बहुत बड़ा परिवार अपने पीछे छोड़कर हिमालय जा रहे थे। गायत्री परिवार को दृश्य रूप में एक संरक्षक चाहिए, जो उन्हें स्नेह-ममत्व दे सके। उनकी दुःख भरी वेदना में आँसू पोंछने का कार्य माता ही कर सकती थी। माता जी ने यह जिम्मेदारी भलीभाँति सँभाली। प्रवास पर जाने के 3 वर्ष पूर्व से ही हम लम्बे दौरे पर रहा करते थे। ऐसे में मथुरा आने वाले परिजनों से मिलकर उन्हें दिलासा देने का कार्य वे अपने कंधों पर ले चुकी थीं। हमारे सामाजिक जीवन जीने में हमें उनका सतत सहयोग ही मिला। 200 रुपए में पाँच व्यक्तियों का गुजारा परिवार का भरण पोषण किया, आने वालों का समुचित आतिथ्य सत्कार भी वे करती रहीं। किसी को निराश नहीं लौटने दिया। मथुरा में जिया हमारा जीवन एक अमूल्य धरोहर के रूप में है। इसने न केवल हमारी भावी क्रान्तिकारी जीवन की नींव डाली, अपितु क्रमशः प्रत्यक्ष पीछे हटने की स्थिति में दायित्व सँभाल सकने वाले मजबूत कंधों वाले नर तत्त्व भी हाथ लगे।

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