मानवी क्षमता असीम अप्रत्यासित

मानवी सामर्थ्य और प्रकृति से भी बृहत्तर शक्ति !

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एक समय था जब क्यूबा में रहने वाला सेनर एवेलिनो पेरेज नामक एक व्यक्ति व्यक्तियों और वैज्ञानिकों के आकर्षण और शोध का बहुचर्चित विषय बन गया था। पेरेज की यह विशेषता थी कि वह अपनी इच्छानुसार अपनी एक आंख या एक साथ दोनों आंखों की पुतलियां दो इन्च बाहर निकाल लेता था और उन्हें वापस यथास्थान बैठा लेता था। इससे उसकी देखने की शक्ति में किसी भी तरह का दबाव नहीं पड़ता था।

यौगिक अभ्यास और प्राणायाम द्वारा शरीर और प्राणों पर नियन्त्रण करके उन्हें मनमाने ढंग, से मोड़ने-मरोड़ने के यौगिक प्रदर्शन हमारे देश में कोई अनोखी घटनायें नहीं मानी जातीं। यहां का प्रायः सामान्य नागरिक भी इस तरह के चमत्कारों से परिचित मिलेगा। कई शिक्षित लोग इसे उनका अन्ध-विश्वास भी मान लेते हैं, पर जिन्होंने भी योग साहित्य का अध्ययन किया होगा, शरीरस्थ चक्रों, गुच्छकों, उपत्यिकाओं का जिन्हें थोड़ा भी विज्ञान ज्ञात होगा वे इस तरह के आश्चर्यजनक लगने वाले प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि भली प्रकार अनुभव कर सकते हैं। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (ग्लैण्ड्स) के बारे में आधुनिक शरीर शास्त्रियों ने अब तक जो जानकारियां की हैं उनसे भी यह सिद्ध हो गया है कि इन स्रावों (हारमोन्स) पर पूरी तरह नियन्त्रण कर लेना मनुष्य के लिए सम्भव हुआ तो एक दिन वह आयेगा जब हनुमान जी की तरह मनुष्य एक क्षण में ‘मसक समान’ और दूसरे क्षण ‘शत योजन मुख सुरसा’ बन जाना बिल्कुल साधारण बात हो जायेगी।

यह सब मनुष्य की प्रचण्ड इच्छा शक्ति, संकल्प और इनके द्वारा विकसित अभ्यासों की उपलब्धियां मात्र हैं। यह डॉक्टर लोग अब भी यह नहीं समझ सके कि पेरेज ने इस तरह आंख की पेशियों पर नियन्त्रण कैसे प्राप्त कर लिया जब कि यह मात्र नियन्त्रण का कौतुक है। पेरेज की आंखें बचपन में कमजोर थीं, उसने अपने ही आप आंखों को इधर-उधर घुमाकर व्यायाम प्रारम्भ किया और यह क्षमता विकसित कर ली। इच्छा शक्ति सचमुच एक महान दैत्य है। यदि वह अपनी पर आ जाये, संकल्प रूप धारण कर ले तो मनुष्य ऐसे-ऐसे एक नहीं लाख चमत्कार दिखाई देने वाले परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। किसी व्यक्ति का स्वस्थ होना, किसी का जीवन भर रोगी बने रहना, किसी का प्रखर बुद्धि विद्याथ्र्ज्ञी होना, किसी का मन्द बुद्धि, किसी का सफलता के उच्च शिखर पर पहुंच जाना और दूसरे को जीवन भर परमुखापेक्षी बने रहना उस मनोबल के ही प्रतिफल हैं जो मनुष्य को कुछ से कुछ बना देते हैं।

केन्या के सम्वरू नामक एक व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि वह जिन्दगी भर कभी बैठेगा नहीं और सचमुच ही अब वह लगभग 58 वर्ष का होने को आया, 28 वर्ष का था तब उसने यह प्रतिज्ञा की थी अब तक 30 वर्ष हो गये, खाना, पीना, टट्टी, पेशाब सब उसने खड़े ही खड़े किया। लेटने या खड़े रहने की प्रतिज्ञा मृत्यु पर्यन्त निबाहने की आन अब उसकी सामान्य आदत बन गई है जबकि सामान्य व्यक्तियों के लिए उसकी चर्चा भी कम विस्मयकारक नहीं होगी। वुफेलो अमेरिका के टाममीलिफ के एक भी हाथ नहीं था, पर वह विश्व का माना हुआ गोला चैम्पियन था उसने 18 बार चैम्पियनशिप जीती। योगी हरिदास अपनी जीभ से भ्रू-मध्य का स्पर्श कर लेते थे। अफ्रीका के सार्स जिन्जेस ने अपने दोनों ओठ इतने बढ़ा लिए थे कि वह उसकी पत्नी के लिए पूरी तकिया का काम देते थे। ओठों के इस राक्षसी आकार के कारण जिन्जेस न तो कड़ा खाना खा सकता था, न बोल सकता था। ऊपर से वह कहीं भाग न जाये इस भय से उसकी पत्नी उसके ओठों का तकिया बनाकर सोती थी ताकि वह कहीं खिसकने का प्रयास करे तो तुरन्त नियन्त्रित किया जा सके।

अच्छे हों या बुरे परिणाम संकल्प शक्ति को जुटाकर मनुष्य अति मानव बन सकता है इसमें सन्देह नहीं। इतना होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते। इसलिए कि उसकी इच्छा और मांग के विरुद्ध अनुवांशिकी, भौतिकी और पराभौतिकी क्षेत्र में ऐसी सैकड़ों घटनाएं घटती रहती हैं जिनका नियन्त्रण तो दूर वह उस रहस्य तक को नहीं जान पाता कि उसका कारण क्या है? जब कि निसर्ग में उस तरह का स्वयं कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं होगा। उदाहरण के लिये 1829 में लन्दन में चार्ल्सवर्थ नामक एक बच्चे ने जन्म लिया सामान्यतः 4 वर्ष की आयु ऐसी होती है जब बच्चा अच्छी तरह बोल भी नहीं पाता किन्तु चार्ल्स वर्थ ने अनुवांशिकी के सारे वैज्ञानिक नियमों को उठाकर एक ओर फेंक दिया। चार वर्ष में ही वह पूर्ण वयस्क हो गया। उसके मूंछ, दाढ़ी भी निकल आई। उसके व्यवहार बात-चीत में भी पूरी तरह बुजुर्गपन टपकने लगा था। सात वर्ष की आयु में उसके सम्पूर्ण बाल सफेद हो गये और इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।

अनुवांशिकी का सिद्धान्त यह है—बच्चे में यह तो हो सकता है कि उसके माता-पिता के न होकर बाबा, नाना, परबाबा, परनाना, दादी, परदादी, नानी, परनानी अथवा इससे ऊपर वहां तक जहां से उस वंश के आविर्भाव का महापुरुष पहुंचता है, भले ही वह ब्रह्माजी ही क्यों न हों, के आनुवांशिकीय लक्षण अवश्य होने चाहिए जब कि विश्व इतिहास में यह अपनी तरह का एकमेव उदाहरण है जो मनुष्य की संकल्प शक्ति से भी परे किसी विधेय-सत्ता की ओर संकेत करता है। एक ही रंग रूप आकृति के एक से अधिक व्यक्ति हो सकते हैं, पर उनमें ऊंचाई, निचाई, तिल मस्से, नाक, भों, दांत, माथा, बाल कहीं न कहीं कोई न कोई ऐसा अन्तर अवश्य रह जाता है जिससे उनकी पहचान सरल हो जाती है किन्तु सन् 1895 में न्यूयार्क में एक साथ एक ही मुहल्ले में हेनरी, थामस तथा वेर्नन नाम के तीन ऐसे व्यक्ति निकल आये जिनकी पहचान स्वयं उनके माता, पिता, भाई, बहिनों के लिए दुःसाध्य हो गई। कई बार थामस को घर पहुंचने में देर हो जाती तो उसकी मां ढूंढ़ने निकलती और सामने पड़ जाता हेनरी तो वह उसी की पिटाई करते घर ले जाती। बेचारा हेनरी कहता भी कि मैं हेनरी हूं, पर मां उसकी आवाज तो पहचानती थी फिर वह कैसे धोखा खा सकती थी? पर सचमुच में खाती वह धोखा ही थी उन तीनों की आवाज भी एक जैसी थी। आवाजों से भी उन्हें पहचानना कठिन था।

अब तक वे काफी बड़े हो गये थे। लोगों ने समझा अब दाढ़ी, मूंछ में तो कुछ फर्क आयेगा ही, पर न जाने किस सत्ता का निर्माण है यह जो मनुष्य की सारी कल्पनाओं को भी लांघकर कल्पनातीत सृष्टि का सृजन करता रहता है। तीनों की मूंछ, दाढ़ी भी एक ही तरह की थी। अन्त में दाढ़ी, मूंछों की आकृति भिन्न-भिन्न रखने का उन तीनों ने निश्चय किया। हेनरी ठोढ़ी के नीचे के बाल तो साफ रखता था, पर दोनों गालों के नीचे दाढ़ी समानान्तर लटकती उन्हें मूंछ इस तरह जोड़ती थीं कि दाढ़ी, मूंछ का आकार अंग्रेजी के एन की तरह बन जाता था। उसके नाम का पहला अक्षर भी यही था। थामस मूंछों के अतिरिक्त केवल ठोढ़ी के नीचे मुसलिम कट दाढ़ी रखता था दोनों गाल के बाल साफ रखने से उसकी मूंछ और दाढ़ी की आकृति अंग्रेजी के ‘टी’ वर्ण के आकार की हो गई और इस तरह उसकी पहचान सम्भव हुई। वर्नन ने तीसरी युक्ति निकाली उसने अपनी मूंछें तो सफाचट करालीं और दाढ़ी के बालों की इस तरह कटिंग कराता कि वह दोनों कनपटियों से चलकर ठोढ़ी में अंग्रेजी के वर्ण ‘वी’ की सी आकृति बना देती। इस तरह मानवीय बुद्धि ने एक समस्या का निराकरण तो कर लिया, पर लगता है उस रहस्य का कुछ महत्व ही नहीं समझता कि ऐसा किस नियम के अन्तर्गत होता है कि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों वातावरण, माता-पिता, आहार-विहार के भी एक-सी शक्ल के वह भी इतने साम्य गुणों वाले कि उनकी पहचान तक न हो सके किसी बहुत ही कुशल कलाकार की तूलिका का ही चमत्कार हो सकता है। उस पूर्ण परात्पर रचनाकार को जानना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है, पर मनुष्य तो अपने सांसारिक बखेड़ों में इतना उलझ गया है कि इस तरह की दुर्लभ घटनाएं देखकर भी उसका विवेक जागृत नहीं होता।

इस तरह के विलक्षण अपवाद मनुष्य है नहीं जीव-जन्तुओं में भी मिलने लगें तो विकासवाद के सिद्धान्त का एक दूसरा प्रश्न चिन्ह लग जाता है और उसके समर्थकों के दावों पर सन्देह होने लगता है कहीं उन्होंने उपहास में ही तो दर्शन का विकृत नहीं कर डाला।

ऐली (इंग्लैण्ड) एच.जी. बाय उनके घर मुर्गी ने ऐसा बच्चा दिया जिसके चार पैर थे। तमाम उम्र इस बच्चे ने यों ही सामान्य स्थिति में बिताई। प्रजनन क्रियाएं भी उसमें सम्मिलित थीं, पर उसकी सन्तानों में कहीं कोई इस तरह का अद्भुत देखने को नहीं मिला। मैनचेस्टर सागर में कैप्टेन जे.टी. वैनेट ने एक ऐसा कछुआ पकड़ा जिसके दो सिर थे। यह कछुआ उन्होंने अपनी मृत्युपर्यन्त पालकर रखा। ग्रीन्सवर्ग के वाल्टर रडिल मैन के पास एक ऐसी भेंट थी जिसके सारे शरीर में बाल उगते थे, किन्तु पीठ के बिलकुल ऊपरी हिस्से में विधिवत् घास उगा करती थी। यह एक विलक्षण संरचना थी जिसका कोई भी अनुवांशिकी आधार, शारीरिक त्रुटि या कारण ढूंढ़ पाना आज तक भी वैज्ञानिकों के लिए सम्भव नहीं हो पाया। यह वैसा ही कठिन कार्य है जैसे घड़े में जमाये दूध को विलोने वाली रई से समुद्र मंथन की बात सोची जाये? सृष्टि जितनी विराट है मानवीय ज्ञान की सीमाएं उतनी ही नगण्य है अतएव सुनिश्चित अनुभूति प्राप्त न होने तक किसी को भी उस परम सत्ता पर विश्वास नहीं करना चाहिए जिसकी शक्ति से ही इस विलक्षण निर्माण की प्रक्रिया चलती है।

हस्तक्षेप प्राणि-सत्ता तक ही सीमित नहीं है लगता है। प्रकृति को भी इच्छानुसार बनाने और बदलने की शक्ति का कोई और उद्गम है। स्काटलैण्ड के डंकल्स नामक स्थान में 13 फुट लम्बा 7 चौड़ा तथा 5 फुट ऊंचा एक पत्थर तीन छोटे-छोटे पत्थरों पर इस तरह टिका है मानो कोई भीमकाय कछुआ चल पड़ने की तैयारी में हो, पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार यह पत्थर पिछले बीस लाख वर्षों से इसी तरह टिका हुआ है जबकि इस बीच आये अंधड़ तूफानों ने सैकड़ों पहाड़ ढहा दिये बिना किसी गणितीय आधार के ही यह तीन छोटे सिपाही खड़े अपने महान् सम्राट की अभ्यर्थना करते जान पड़ते हैं।

एण्डले फ्रान्स में भी एक इसी तरह का वोल्डर (पत्थर) इस तरह नन्हे से आधार पर नाचते हुए लट्टू की-सी आकृति में खड़ा है, मानो उसे किसी विद्युत चुम्बकीय शक्ति ने चारों ओर से साध रखा हो। वैज्ञानिक उस बल की सब तरह जांच कर चुके, पर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके। विचित्र बात यह है कि यह पत्थर गजब की भविष्य वाणी भी करता है, मौसम साफ रहेगा तो वह अपनी उसी धुरी पर चुपचाप खड़ा रहेगा किन्तु तूफान आने को हो तो वह धीरे-धीरे हिल-डुलकर उसकी सूचना दे देता है उस स्थिति में भी उसका सन्तुलन यथावत् रहता है जबकि यदि कोई दूसरा पत्थर हो तो हाथ के रत्तीभर इशारे से सैकड़ों फिट दूर जा लुढ़क सकता है, पर उसे जोर देकर भी हटाया नहीं जा सका।

भारतीय वेद पुराण और दर्शन कहते हैं उसने अपनी इच्छा शक्ति को मुखर करने के उद्देश्य से सृष्टि की रचना की। अनेक-अनेक जीव योनियों की संरचना वस्तुतः इच्छाशक्ति का ही संगठन है सम्भव है उससे सर्वशक्तिमान सत्ता परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध न हो, पर इंग्लैण्ड के वाटफोर्ड नामक कस्बे में हुई एक घटना ने यह सिद्ध कर दिया है मानवीय इच्छा शक्ति किसी न किसी रूप में एक अति समर्थ सत्ता की ही सन्तान है उसे परमात्मा, विश्वात्मा, ब्रह्म परमेश्वर कुछ भी कहें वह विचार की ही श्रेणी का कोई श्रेष्ठ तत्व है। हुआ यह कि लिड नामक एक व्यक्ति को अंजीर बहुत प्रिय थे। उसकी मृत्यु होने लगी तो उसने कहा—अंजीर ने मुझे जीवन में अत्यन्त तृप्ति प्रदान की है मेरा मन है कि मेरे ताबूत में अंजीर का एक पौधा रखा जाये, मेरी आत्मा उसी से फूटे और इतने फल दे कि हजारों लोग उससे तृप्ति पायें।

ऐसा ही किया गया। लिड को जिस ताबूत में रख कर दफनाया गया उसी में अंजीर का एक नन्हा-सा पौधा भी रख दिया गया। कुछ दिन बाद समय के गर्भ में रही, पर न जाने कैसे एक दिन ताबूत में बन्द मिट्टी में दबा हुआ वह अंजीर का पौधा पृथ्वी को फोड़कर ऊपर निकल आया। जैसे-जैसे उसका विकास होता गया वैसे-वैसे कब्र फटती गई और एक दिन वह पूर्ण वृक्ष के रूप में उभर उठा। सचमुच सामान्य अंजीर वृक्षों की अपेक्षा उसमें इतने अधिक, मीठे और बढ़िया अंजीर लगते हैं कि खाने वाला उस वृक्ष की याद अवश्य करता है। उसके अंजीरों पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं रखा गया ताकि लिड की इच्छा की पूर्ति हो सके।

इच्छा शक्ति का यह अपने आप में सबसे अलग और अनूठा प्रमाण है। यह इच्छा शक्ति सभी बाधाओं और अवरोधों को पार करते हुए अपने बल के अनुसार आगे बढ़ती व सुरक्षित रहती हैं।

इच्छा शक्ति की अजेय सामर्थ्य

यों प्राणी प्रकृति की विपरीत चपेट में आकर अक्सर अस्तित्व गंवा बैठता है। वह नियति के उग्र परिवर्तनों का सामना कर पाता और विपरीत परिस्थिति के सामने अपने को निरीह असमर्थ अनुभव करता है, पर ऐसा तभी होता है जब वह उस आपत्ति का सामना करने के लिए पहले से ही तैयार न हो।

यदि प्राणी को विपरीत अनभ्यस्त परिस्थिति में रहने को विवश होना पड़े तो वह अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए क्रमशः ऐसे परिवर्तन उत्पन्न कर लेता है—ऐसी विशेषता का उत्पादन कर लेता है, जिसके आधार पर वह प्राणघातक समझी जाने वाली परिस्थितियों से भी तालमेल बिठा ले और अपना अस्तित्व कायम रख सके, सुविधा पूर्वक निर्वाह कर सके।

जीवाणुओं की असह्य तापमान पर मृत्यु हो जाती है। वे अधिक उष्णता एवं शीलता सहन नहीं कर सकते, यह मान्यता अब पुरानी पड़ चली है। पानी खौलने से अधिक गर्मी और 270 डिग्री से. से नीचे शीत पर जीवाणुओं की मृत्यु हो जाने की बात ही अब तक समझी जाती रही है। इसका कारण यह था कि शरीर में पाया जाने वाला ग्लिसरोद रसायन असह्य तापमान पर नष्ट हो जाता है और जीवाणु दम तोड़ देते हैं। अब वे उपाय ढूंढ़ निकाले गये हैं कि इस रसायन को ताप की न्यूनाधिकता होने पर भी बचाया जा सके और जीवन को अक्षुण्ण रखा जा सके।

अत्यधिक और असह्य शीतल जल में भी कई प्रकार के जीवित प्राणी निर्वाह करते पाये गये हैं इनमें से प्रोटोजोआ, निमैटोड, क्रस्टेशिया, मोलस्का आदि प्रमुख हैं। पेलोस्टोन की प्रयोगशाला में लुईब्राक और टामस नामक दो सूक्ष्म जीव-विज्ञानी—वायोलाजिस्ट यह पता लगाने में निरत हैं कि जीव सत्ता के कितने न्यून और कितने अधिक तापमान पर सुरक्षित रह सकने की सम्भावना है। वे यह सोचते हैं कि जब पृथ्वी अत्यधिक उष्ण थी तब भी उस पर जीवन सत्ता मौजूद थी। क्रमशः ठण्डक बढ़ते जाने से उस सत्ता ने विकास विस्तार किया है, पर इससे क्या—अति प्राचीन काल में जब जीवन सत्ता थी ही तो वह विकसित अथवा अविकसित स्थिति में अपनी हलचलें चला ही रही होगी भले ही वह अब की स्थिति की तुलना में भिन्न प्रकार की अथवा पिछड़े स्तर की ही क्यों न रही हो। विकसित प्राणी के लिए जो तापमान असह्य है वह अविकसित समझी जाने वाली स्थिति में काम चलाऊ भी हो सकता है।

यदि यही तथ्य हो फिर जीवन की मूल मात्रा को शीत, ताप के बन्धनों से मुक्त माना जा सकता है और गीताकार के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आत्मा को न आग जला सकती है, न पवन सुखा सकता है, न जल डुबा सकता है। पंचभूतों की प्रत्येक चुनौती का सामना करते हुए वह अपना अस्तित्व पूर्णतया सुरक्षित रख सकने में पूर्णतया समर्थ है।

समुद्र तट के सभी पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली धूसर रंग की एफिड्रिल को 45 डिग्री से 51 डिग्री से. के बीच तापमान वाले गर्म जल में प्रवेश करते देखा गया है। यह प्राणियों के जीवित रहने को असम्भव बनाने वाली गर्मी है। सामान्यतया धरती की सतह पर 12 डिग्री से. तापमान रहता है। प्राणियों को उतना ही सहन करने का आभास होता है। अधिक उष्ण या अधिक ताप के वातावरण में रहने वाले जन्तुओं को विशिष्ट स्थिति के अभ्यस्त ही कह सकते हैं।

एफिड्रिल मक्खी के अतिरिक्त कुछ जाति के बैक्टीरिया भी ऐसे पाये गये हैं जो खौलते पानी के 92 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान में भी मजे से जीवित रहते हैं। अमेरिका के येलोस्टोन नेशनल पार्क में स्थित गर्म जल के झरने प्रायः इसी तापमान के हैं और उनमें जीवित बैक्टीरिया पाये गये हैं। इन गर्म झरनों अथवा कुण्डों में एक प्रकार की काई की मोटी परत जमी रहती है जिसे हिन्दी में शैवाल कहा जाता है। अंग्रेजी में उसका नाम एल्गी है। इसमें जीवन रहता है। आमतौर में वह 75 डिग्री से. तक गर्म जल में मजे का निर्वाह करती है बैक्टीरिया उसी के सहारे पलते हैं। एफिड्रिड मक्खी का प्रमुख भोजन यह एल्गी ही है। उसे प्राप्त करने के लिए वह उस असह्य तापमान के जल में डुबकी लगाती है और बिना जले झुलसे अपना आहार उपलब्ध करती है।

यह तो हुई छोटे जीवों की बात अब अधिक कोमल समझे जाने वाले मनुष्यों की बात आती है वह भी प्रकृति की असह्य कही जाने वाली स्थिति में निर्वाह करने के लिए अपने को ढाल सकता है। उत्तरी ध्रुव प्रदेश में रहने वाले एस्किमो लोग अत्यधिक शीत भरे तापमान में रहते हैं। भालू, हिरन और कुत्ते भी उस क्षेत्र में निवास करते हैं। वनस्पतियां और वृक्ष न होने पर पेट भरने के लिए मांस प्राप्त कर लेते हैं इसके लिए उनने बर्फ की मोटी परतें तोड़कर नीचे बहने वाले समुद्र में से मछली पकड़ने की अद्भुत कला सीखली है और आयुध साधन रहित हुए होते भी हिरन, भालू और कुत्ते का भी शिकार करना सीख गये हैं और लाखों वर्ष से उस क्षेत्र में निर्वाह कर रहे हैं। दूसरे जीवों की तुलना में मनुष्य को अनेक अनुदान ऐसे उपलब्ध हैं जिन्हें असाधारण ही कह सकते हैं। बुद्धि की विशेषता इच्छा शक्ति, भाव सम्वेदना, लक्ष्य निर्धारण, स्मृति जैसी मस्तिष्कीय विशेषताएं ऐसी है जो अन्य प्राणियों को बहुत ही स्वल्प मात्रा में मिली हैं। उसके देखने तथा सुनने की शक्ति अत्यधिक सम्वेदनशील है। घ्राण शक्ति तो अन्य प्राणियों में अधिक है पर वे मनुष्य जैसी उच्च स्तरीय दृष्टि एवं श्रवण शक्ति का वरदान नहीं ही पा सके हैं। मनुष्य की मस्तिष्कीय संरचना की अन्य किसी प्राणी में तुलना नहीं की जा सकती। उसकी बनावट अपने आप में विलक्षण है।

अन्य प्राणी प्रकृति के आक्रमण को एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं और अधिक दबाव पड़ने पर दम तोड़ देते हैं पर मानवी काया का निर्माण इतना लोचदार है कि वह विपन्न परिस्थितियों में भी निर्वाह कर सकता है और अपने आपको इस प्रकार ढाल सकता है जिससे प्रकृति का दबाव उसे चुनौती न दे सके।

‘न्यूरोफिजियोलाजिकल वेसिस आफ माइन्ड’ ग्रन्थ में उदाहरणों और प्रमाणों में यह बताया गया है कि मनुष्य का सामान्य निर्वाह 1.5 डिग्री में होता है पर वह 10 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर जहां टेम्प्रेचर—15 डिग्री सेन्टीग्रेड होता है तथा ऑक्सीजन की कमी से असुविधा पड़ती है वहां भी कुछ ही दिनों के अभ्यास से सरलता पूर्वक निर्वाह करने लगता है। यहां तक कि 20 हजार फुट पर जहां 25 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान रहता है वहां भी जिन्दा रह सकता है और 25 हजार से अधिक ऊंचाई पर जहां 45 डिग्री सेन्टीग्रेड शीत होता है, सामान्य बुद्धि के हिसाब से मनुष्य का जीवित रह सकना सम्भव नहीं, पर उसकी लोच ऐसी है जो वहां भी जिन्दा बनाये रह सकती है। हिमालय पर रहने वाले हिम-मानव की जीवनचर्या भी कम रहस्यमय नहीं है। यह प्राणी मनुष्य जैसी आकृति प्रकृति का है उसे रीछ और मनुष्य का सम्मिश्रण कह सकते हैं। अत्यन्त शीत भरे हिमाच्छादित प्रदेश में उतनी ऊंचाई पर वह रहता है जहां सांस लेने के लिए ऑक्सीजन के सिलेण्डर पीठ पर बांध कर पर्वतारोही जाया करते हैं और खुली हवा में सांस लेना मृत्यु को निमन्त्रण देना मानते हैं लम्बे समय से वह एकाकी जीवन जीता चला आ रहा है। युगीय सभ्यता से दूर रहते हुए भी उसने अपने रहस्यमय जीवन-क्रम को किसी प्रकार अक्षुण्ण बनाये ही रखा है।

हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर रहने वाला हिम मानव अपने अस्तित्व के समय-समय पर अगणित परिचय देता रहा है। पर अभी तक उसे पकड़ने के प्रयास सफल नहीं हो सके। इस अद्भुत प्राणी के सम्बन्ध में अधिक जानने के लिए उसे निकट से देखना, समझना आवश्यक है। यह तभी हो सकता है जब वह पकड़ में आवे। किन्तु अति बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को भी यह हिम-मानव अभी तक चकमा ही देता आया है उसके पकड़ने के प्रयत्नों को निष्फल ही बनाता रहता है। इतने पर भी हिम-मानव का अस्तित्व प्रायः असंदिग्ध ही समझा जाता है।

सन् 1970 की 25 मार्च को अन्नपूर्ण शिखर पर चढ़ाई करने और उस क्षेत्र की सबसे ऊंची चोटी पर विजयपताका फहराने के उद्देश्य से ब्रिटिश पर्वतारोहियों का एक दल अपनी दुस्साहस भरी यात्रा कर रहा था। दल के लोग कैम्प में विश्राम कर रहे थे। चन्द्रमा की चांदनी सारे हिमाच्छादित प्रदेश को आलोकित कर रही थी। अभी वे लोग सोने भी न पाये थे कि हाथी जैसी भयानक आकृति अपनी लम्बी परछाई सहित उधर घूमती हुई दिखाई दी। खतरे की आशंका से वे लोग बाहर निकल आये और राइफलें तान लीं। गौर से देखने पर पाया गया कि यह प्राणी ठीक वैसा ही है जैसा कि हिम-मानव का वर्णन करते हुए समय-समय पर कहा या सुना जाता रहा है। आधा घण्टे तक उसकी हरकतें दल ने शान्तिपूर्वक देखी। उनका उद्देश्य मारना नहीं जानना था। सो उन्होंने आंखें भर कर देखा। थोड़ी देर में वह उछल-कूद करता हुआ पर्वत श्रृंखलाओं की ओट में गायब हो गया।

रात को पहरा देने की पद्धति अपनाकर बारी-बारी से दल के लोग सोये तो सही पर आक्रमण का आतंक रात भर छाया रहा। प्रातःकाल वे लोग तलाश करने गये कि कुछ वास्तविकता भी थी या कोरा भ्रम ही था। उन लोगों ने मनुष्य जैसे किन्तु बहुत बड़े साइज के पद चिह्न देखे जिसके उन लोगों ने फोटो लिये। वे फोटो कई प्रमुख पत्रों में उस देखे हुए विवरण के साथ प्रकाशित भी हुए।

इससे पूर्व सन् 1958 में एक अमेरिकी पर्वतारोही दल विशेषतया हिम-मानव को जीवित अथवा मृतक किसी भी स्थिति में पकड़ने का उद्देश्य लेकर ही आया था। इस दल के एक सदस्य प्रो. टेम्बा अपने साथ कुछ शेरपा लेकर एक क्षेत्र खोज रहे थे। उनने आश्चर्य के साथ एक झरने के किनारे बैठे देखा वह पानी में से मेंढक और मछलियां बिना चबाये निगल रहा था। प्रो. टेम्बा ने उस रात में प्लेट लाइट जलाई तो क्रुद्ध हिम-मानव उनकी ओर दौड़ा। शेरपा समेत वे बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर वापिस लौटने में सफल हुए।

सन् 1958 में इटली के प्रख्यात पत्रकार गाडविन हिम-मानव की खोज में अपने दल समेत हिमाच्छादित चोटियों पर घूमे। एक जगह उनकी मुठभेड़ ही हो गई। राइफल का घोड़ा दबाने की अपेक्षा उनने कैमरे का बटन दबाना अधिक उचित समझा। कुछ ही मिनट सामने रहकर वह विशालकाय प्राणी भाग खड़ा हुआ। उसे पकड़ा या मारा तो न जा सका पर फोटो बहुत साफ आयी। उसके पैरों के निशानों के भी फोटो उनने लिये और अपने देश जाकर उन चित्रों को छापते हुए हिम-मानव के अस्तित्व की सृष्टि की। तिब्बत और चीन की सीमा पर किसी प्रयोजन के लिए गये एक चीनी कप्तान ने भी हिम-मानव से सामना होने पर विवरण अपने फौजी कार्यालय में नोट कराया था। स्विट्जरलैंड का एक पर्वतारोही दल एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए आया था। उनके साथ पन्द्रह पहाड़ी कुली थे। दल का एक कुली थोड़ा पीछे रह गया। उस पर हिम-मानव ने आक्रमण कर दिया। चीख-पुकार सुन कर अन्य कुली उसे बचाने दौड़े और घायल स्थिति में उसे बचाया।

सन् 1887 में कर्नल वेडैल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल भारत आया था उसमें सिक्किम क्षेत्र में यात्रा की थी। 16 हजार फुट ऊंचाई पर उनने बर्फीली चोटियों पर पाये गये हिम-मानव के ताजे पद चिन्हों के फोटो उतारे थे।

वनस्पति विज्ञान प्रो. हेनरी ल्यूस जिन दिनों वनस्पति शोध के सन्दर्भ में हिमाच्छादित प्रदेशों में भ्रमण कर रहे थे तब उन्होंने मनुष्याकृति के विशालकाय प्राणी को आंखों से देखा था। वह तेजी से एक ओर से आया और दूसरी ओर के पहाड़ी गड्ढों में कहीं गायब हो गया। ठीक इसी से मिलते-जुलते कहानी सन् 1921 में एवरेस्ट चढ़ाई पर निकले कर्नल हावर्ड ब्यूरी की है उनके सामने से भी वैसा ही वन-मानुष से मिलता-जुलता प्राणी निकला था। उस क्षेत्र में आने-जाने वाले बताते थे कि वह अकेले दुकेले आदमियों और जानवरों को मारकर खा जाता है।

भारतीय हिम-यात्री ए.एन. तोम्वाजी ने सिक्किम क्षेत्र में हिम-मानव देखने का विवरण बताया था। स्विट्जरलैंड के डायरन फर्थ ने भी सन् 1925 में उसे आंखों से देखा था। नार्वे के दो वैज्ञानिक थोरवर्ग और फ्रसिस्ट किसी अनुसन्धान के सम्बन्ध में सिक्किम क्षेत्र में गये थे। उन पर हिम-मानव ने हमला कर दिया और कन्धे नोंच डाले। गोलियों से उसका मुकाबला करने पर ही वे लोग बच सके। गोली उसे लगी तो नहीं किन्तु डर कर वह भाग तो गया ही। सन् 1951 में एक ब्रिटिश यात्री एरिक शिपटन ने भी हिम-मानव के पैरों के निशानों के बर्फीले क्षेत्र से फोटो खींचे थे। ऐसे ही फोटो प्राप्त करने वालों में डा. एडमंड हिलेरी का भी नाम है। सन् 1954 में कंचन जंघा चोटियों पर सन् जानहन्ट के दल ने 20 हजार फुट की ऊंचाई पर हिम-मानव के पद चिन्हों के प्रमाण एकत्रित किये थे। वे निशान प्रायः 18 इंच लम्बे थे। न्यूजीलैंड के पर्वतारोही जार्जलोव ने उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर हिम-मानव के अस्तित्व को असंदिग्ध बताया था।

सन् 1955 में इंग्लैंड के दैनिक पत्र ‘डेलीमेल’ ने अपना एक खोजी दल मात्र हिम-मानव सम्बन्धी अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए भेजा था। दल ने बहुत समय तक हिमाच्छादित प्रदेशों के दौरे किये इस बीच उन्होंने हिम-मानव देखा या पकड़ता तो नहीं पर ऐसे अनेक प्रमाण अवशेष एवं चित्र संग्रह करके उस पत्र में छपाये जिनसे हिम-मानव सम्बन्धी जन श्रुतियां सारगर्भित सिद्ध होती हैं।

असह्य माने जाने वाले शीत और ताप से प्राणियों का विशेषतया मनुष्य जैसे कोमल प्रकृति जीवधारी का निर्वाह होते रहने के उपरोक्त प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि प्रतिकूलताएं कितनी ही बड़ी क्यों न हों जीव उन सबसे लड़ सकने में समर्थ हैं। उसका संकल्प बल ऐसी परिस्थितियां पैदा कर सकता है जिसमें असह्य को सह्य और असम्भव को सम्भव बनाया जा सके। न केवल प्रकृति से जूझने में वरन् पग-पग पर आती रहने वाली कठिनाइयों को निरस्त करने में भी संकल्प बल की प्रखरता का तथ्य सदा ही सामने आता रहता है।
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