कर्मकांड क्यों और और कैसे

जप एवं सिद्धि

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हमने अपने जीवन में ऐसे कई व्यक्ति देखे जिन्होंने कठोर तपस्या की थी फिर भी उनमें सिद्धि दृष्टिगत नहीं होती जैसी कि परम पूज्य गुरुदेव ने प्राप्त की थी। अवसर पाकर एक दिन पूज्यवर से मैंने पूछ ही लिया ‘‘हे गुरुदेव! आपने गायत्री मंत्र का जाप किया है। औरों ने भी उसी 24 अक्षर वाले गायत्री मंत्र का जाप किया है आप फिर उन लोगों को आप जैसी सिद्धि उपलब्ध क्यों नहीं हो सकी है?’’

पूज्यवर ने मुस्कराकर कहा ‘‘बेटा हमने इस गायत्री मंत्र का जप तो बाद में किया है। पहले अपने बहिरंग एवं अंतरंग का परिष्कार किया है। इसके बिना सारी आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त होने पर भी अप्राप्त होने के ही समान हैं। हमने धोबी की तरह अपने मन को पीट-पीट कर धोया है। केवल जप करने से तो किसी को लाभ मिलता ही नहीं।’’

यह कहकर गुरुजी ने एक आंखों देखी घटना सुनाई। ‘‘हिमालय में दो महात्मा रहकर तपश्चर्या कर रहे थे। वे निर्वस्त्र एवं मौनी थे। कुछ जमीन थी उससे कंद-मूल-फल प्राप्त हो जाता था। गुफा में रहते थे, खाते थे व जीवन निर्वाह करते थे। एक बार दोनों महात्मा गर्मी के दिनों में गुफा के बाहर जमीन की सफाई कर रहे थे। अपनी-अपनी गुफा के सामने यह सफाई का क्रम एक दो दिन चलता रहा। एक दिन एक महात्मा ने दूसरे महात्मा की थोड़ी सी जमीन पर कब्जा कर लिया। दूसरा महात्मा क्रोधित हुआ। उसने इशारा किया, त्यौरियां चढ़ गईं। दोनों मौन थे। उनका यह मौन युद्ध आगे बढ़ा, घूंसा-लात मारने तक नौबत आ गई। एक ने दूसरे महात्मा की दाढ़ी उखाड़ ली, खून बहने लगा।’’

पूज्यवर ने कहा ‘‘हमें आश्चर्य हुआ कि हिमालय के मौन तपस्वी, गुफा में जीवन व्यतीत करने वाले ये साधक और इनकी ऐसी स्थिति। धिक्कार है ऐसी साधना को। जब तक अपना परिष्कार नहीं होता तब तक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जब तक व्यक्ति अपनी धुलाई-सफाई नहीं कर लेता तब तक उसे मंत्र सिद्ध हो ही नहीं सकता। यदि किसी प्रकार हो भी जाए तो भस्मासुर के समान स्वयं को ही भस्म कर सकने से अधिक उसका कोई लाभ नहीं हो पाएगा। तपस्या तो भागीरथ ने की थी, लोकमंगल के लिए, परमार्थ के लिए सब कुछ त्याग कर दिया था। तभी तो स्वर्गलोक में बहने वाली सुर-सरिता गंगा मइया को गोमुख से निकाल कर धरा पर लाने में सक्षम हो पाए थे। यदि भस्मासुर का भी ऐसा उद्देश्य होता तो वह कितने ही लोगों का कल्याण कर सकता था। भस्मासुर भी भगवान शिव से यह वर मांग सकता था कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखूं वह तुरंत निरोगी हो जाए। परन्तु उसने अपना परिष्कार तो किया ही नहीं था। लोभ-मोह-वासना-तृष्णा जब तक हैं वह व्यक्ति ऊपर उठ नहीं सकता। ये आसुरी प्रवृत्तियां पतनोन्मुखी बना देती हैं।

आत्म शोधन की प्राथमिक पाठशाला उत्तीर्ण करने के बाद ही अध्यात्म की पहली सीढ़ी पर कदम रखकर आगे बढ़ा जा सकता है। आत्मशोधन यदि कर लें तो आत्मविकास का मार्ग खुल जाता है। हमने 24 वर्ष तक मात्र जौ की रोटी और छाछ ग्रहण करके जीवन बिताया। किसी प्रकार के चटपटे नमक, मिर्च, मसाले का प्रयोग नहीं किया। जीभ को काबू में किया है तभी तो जीव को भी काबू में कर सके हैं। यदि स्वादेंद्रिय पर काबू पा लिया जाए तो दसों इंद्रियां और मन सभी अपने दास बन जाते हैं। अतः साधक को पहले अपने मन को धोना पड़ता है। कबीर दास ने ठीक ही कहा है-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।

पीछे-पीछे हरि फिरत, कहत कबीर-कबीर।।

तुलसीदास ने भी मानस में यही लिखा है-

निर्मल मन सोहि जन मोहि भावा।

मोहि कपट, छल, छिद्र न भावा।।

इतना कर लिया तो निश्चित ही भगवान को पा सकते हैं, चाहे वह जैन हो, मुसलमान हो, बौद्ध हो, ईसाई हो या फिर हिन्दू हो।’’

पूज्यवर के इन समाधानपरक विचारों को सुनकर संतुष्टि हुई, मन का ऊहापोह समाप्त हुआ। अपने भी अंतःकरण की उसी दिन से धुलाई प्रारंभ कर गुरुजी के निर्देशानुसार हमने जीवन साधना का क्रम आगे बढ़ाया।

पवित्रीकरण क्यों और कैसे?

गुरुदेव तो अधिकतर ध्यान में ही रहते थे। तपोभूमि में आने वाले अतिथियों और यात्रियों से तो हमें ही निपटना होता था, उनकी शंकाओं का समाधान करना होता था। तर्कशील व्यक्ति को संतुष्ट करने में कभी-कभी बड़ी कठिनाई होती थी। इसी से एक दिन हमने पूज्य गुरुदेव से प्रश्न किया ‘‘गुरुदेव! पवित्रीकरण सर्वप्रथम क्यों करते हैं? क्या जल हथेली में लेकर मंत्र पढ़कर छिड़क लेने मात्र से हम पवित्र हो जाते हैं? फिर हम तो पहले ही नहा धोकर साफ धुले वस्त्र पहनकर बैठते हैं।’’

इस पर गुरुजी पहले तो खूब हंसे फिर बाद में बोले, ‘‘बेटा! क्रिया के साथ भावना भी आवश्यक है। मात्र स्थूल उपचार से कुछ होता नहीं। अध्यात्म को गहराई में घुसकर जानना होता है। मोती समुद्र में भीतर ही मिलते हैं, ऊपर तो कंकण पत्थर ही हाथ आते हैं। केवल जप से जीभ हिलाने से फायदा हैं नहीं। भावना के बिना जप बेकार होता है। मंत्र के साथ यह भावना करनी चाहिए कि चारों तरफ से पवित्रता की वर्षा हो रही है जो हमारी अपवित्रता को, मलिनता को धो रही है। धरती गर्मी के दिनों में तपने लगती है परन्तु जब बरसात होती है तो चारों ओर हरियाली, शीतलता छा जाती है। पवित्रीकरण के साथ भी ऐसी ही भावना करनी चाहिए कि आध्यात्मिकता की वर्षा से शरीर के ताप निकल रहे हैं, दूर हो रहे हैं। शांति की, करुणा की, संवेदना की, पवित्रता की फुहारें पड़ रही हैं, मन शुद्ध और पवित्र हो रहा है। परन्तु आजकल तो लोग भावना यह करते हैं कि हमारी भैंस दूध कम क्यों दे रही है? हमें भगवान ने बेटा क्यों नहीं दिया? धन सम्पत्ति क्यों नहीं दी ? इस प्रकार की मनौतियों का क्रम चल पड़ा है।

क्रिया तो केवल संकेत है, इशारा है, प्रतीक है। जिस प्रकार रेलगाड़ी को गार्ड लाल झंडी दिखाते हैं तो गाड़ी रुक जाती है, हरी झंडी दिखाते हैं तो चल पड़ती है। भावना का ही दूसरा नाम ‘देवता’ है। शंकर भगवान् कैलाश पर्वत पर ढूंढ़ने से मिलने वाले नहीं हैं। मीरा ने तो भावना से ही पत्थर की मूर्ति में भगवान कृष्ण के साक्षात दर्शन कर लिए थे। एकलव्य ने भावना से, श्रद्धा से गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उससे ही धनुर्विद्या सीख ली थी। उत्कृष्ट भावनाएं ही देवता बनकर हमारी सहायता को आती हैं। वे भावनाएं ही तो थीं जिनके बल पर भगवान् स्वयं नंदा नाई की जगह पैर दबाने चले गए थे, सुदामा के चरण धोकर पी गए थे, शबरी के घर जूठे बेर खाने पहुंच गए थे। भगवान को चापलूसी नहीं श्रेष्ठ कार्य ही पसंद होते हैं। शरीर और मन की पवित्रता, शुद्धता से ही भगवान का अवतरण होता है। पवित्र आचरण करना चाहिए।

ऐसी भावना और आचरण से जब पवित्रीकरण की क्रिया होगी तो शरीर और अंत:करण की धुलाई होगी। हमें इसी भावना से शरीर-मन-अंतःकरण को पवित्र करना चाहिए।’’

आचमन की सार्थकता

‘‘गुरूजी हमें पवित्रीकरण क्रिया तो समझ में आ गई परंतु तीन बार आचमन करने से क्या लाभ होता है? केवल तीन चम्मच जल से तो प्यास भी नहीं बुझती।’’

‘‘बेटा यह आचमन प्यास बुझाने के लिए नहीं किए जाते। इसके पीछे गहरे तथ्य छिपे पड़े हैं। हमारे शरीर भी तीन होते हैं—स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर।

स्थूल शरीर में आलस्य और असंयम की बीमारी होती है। इन दोनों रोगों ने स्थूल शरीर को चौपट कर दिया है। समय को बर्बाद करने वाला आत्मघाती कहलाता है। हकीम लुकमान ने एक बार कहा था कि मनुष्य स्वयं अपनी जीभ से अपनी कब्र खोदते हैं। जीभ के असंयम ने ही उनके शरीर को उनके रोगों का घर बना दिया है। पहला आचमन जागरूकता तथा संयमशीलता की प्रेरणा देता है। यह आचमन भवरोगों की दवा है। ‘अमृतपान कर रहे हैं’, यही भावना उस समय करनी चाहिए।

इसी प्रकार दूसरे आचमन का भी निश्चित उद्देश्य है। यह सूक्ष्म शरीर के रोगों लोभ और मोह को दूर करने के लिए किया जाता है। लोभ और मोह के रोग ने सूक्ष्म शरीर की शक्ति को क्षीण कर दिया है। हम हमेशा पैसा कमाते और जमा करते रहे परंतु बच्चों को सुयोग्य, संस्कारवान नहीं बनाया। बेटे को वकील, डॉक्टर, अफसर चाहे न बनाते अपितु संस्कारवान बना लेते तो वह वसुंधरा स्वर्ग बन गई होती। इस लोभ-मोह ने हमारे परिवारों को चौपट कर दिया है। दूसरे आचमन से लोभ और मोह का निवारण करने की भावना करते हैं।

तीसरा आचमन कारण शरीर के लिए है। कारण शरीर में भी तो बीमारी है—अविवेक और अनास्था की। ‘कर्मफल’ की सुनिश्चितता पर विश्वास नहीं है तभी तो लोग बिना किसी भय के, निर्लज्जता से पापकर्मों में लिप्त रहते हैं। धर्म पर विश्वास करते हैं, पूजा पाठ करते हैं, पर आत्मा की बात को मानते नहीं हैं। अविवेक के कारण उचित-अनुचित के ज्ञान का अभाव हो गया है। परमात्मा सर्वत्र है, उसकी दृष्टि हर समय हम पर रहती है, यदि ऐसा विश्वास हो तो फिर गलत काम कोई कैसे करेगा। तीसरा आचमन करते समय हम यही भावना करते हैं कि हमारे अंतर्मन में विवेक तथा आस्था का उदय हो रहा है। अपने भव रोगों को दूर करने के लिए हम औषधि का पान कर रहे हैं।’’

शिखावंदन किसलिए

‘‘हां गुरुदेव, आचमन का रहस्य तो समझ में आ गया परंतु शिखावंदन के पीछे क्या तथ्य सन्निहित है? कृपया यह भी समझाएं।’’

गुरुदेव ने कहा, ‘‘बेटा यह किले के ऊपर झंडे के समान है। यह ऊंचे विचारों का झंडा है। ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा, इसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए’ यही भावना एवं संकल्प होना चाहिए। धन, मकान, दुकान, संतान ऊंचे नहीं होते, ऊंचे तो आदर्श, सिद्धांत होते हैं। शिखा ज्ञान-गंगा की प्रतीक है। इससे मस्तिष्क में पवित्र भाव उत्पन्न होते हैं जो हमें संसार में सदैव शिखस्थ रखते हैं, सबसे ऊंचा रखते हैं। शिखा उस भावना की मूर्ति है। शिखा भारतीय संस्कृति की धर्मध्वजा है।

मस्तिष्क में विकृति आ जाए तो बहुत नुकसान होता है। हाथी जब पागल हो जाता है तो विवेक खो देता है। उसे मारना पड़ता है। शिखा एक अंकुश के समान है। जिस प्रकार हाथी पर अंकुश लगाया जाता है, उसी प्रकार शिखा हमारे ऊपर आदर्श और सिद्धांत का अंकुश है। हम श्रेष्ठ विचार तथा विवेकशीलता धारण कर रहे हैं, कुविचार नष्ट हो रहे हैं, भाग रहे हैं, यही भावना करते हुए शिखावंदन करते हैं, भावसंवेदना का जागरण करते हैं।’’

प्राणायाम का सिद्धांत

‘‘हां गुरुदेव! शिखावंदन का प्रयोजन तो समझ में आ गया परंतु यह प्राणायाम करने से क्या फायदा? लोग कहते हैं कि नाक से सांस खीचना और हवा बाहर निकालना तो तांगे के घोड़े भी अच्छी तरह कर लेते हैं। कृपया हमें उसके बारे में भी बताएं ताकि हमारी जिज्ञासा का समाधान हो सके।’’

‘‘बेटा, यह तेरा ही नहीं अनेक लोगों का भ्रम है। हमने पहले ही बताया था कि क्रिया के साथ भावना भी होनी चाहिए। प्राणायाम का सिद्धांत है कि हमारी उपासना प्राणवान होनी चाहिए। प्राण निकल जाने पर शरीर निस्पंद हो जाता है। जैसे बिजली का कनेक्शन टूटने पर माइक, पंखा, बल्ब, हीटर आदि नहीं चलते हैं उसी प्रकार कर्मकांड पंखा, बल्ब, हीटर आदि हैं जिनमें प्राणायाम प्राण फूंकते हैं, साहस उत्पन्न करते हैं। बिना साहस के तो कुछ भी नहीं हो सकता। चोरी डकैती के लिए भी हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। पानी का घड़ा उठाने के लिए भी साहस चाहिए। बुराई छोड़ने के लिए भी साहस चाहिए। हम जो भी अनुचित बात है उसे अस्वीकार करेंगे, गलत परंपराओं का अनुसरण नहीं करेंगे, धूमधाम से विवाह नहीं करेंगे, दुनिया के इन बेकार के रीति रिवाजों को तोड़ेंगे-ऐसे संकल्प करने के लिए भी साहस चाहिए। मछली की तरह साहस के साथ पानी को चीर कर ऊपर जाना पड़ेगा। अध्यात्म कायरों का नहीं शूरवीरों का काम है। उसके लिए प्राणवान बनना होगा। कायरों को, लोभ को, अध्यात्मवादी नहीं कहते। अध्यात्मवादी तो लड़ाकू साहसी होते हैं, देवताओं के सामने नाक नहीं रगड़ते।

प्राणायाम के द्वारा हम साहस और हिम्मत को अंदर खींचते हैं, प्राणों में जीवटता उत्पन्न करते हैं। श्वास खींचते समय (पूरक) प्राणों में दिव्य भावों को धारण करने की भावना की जाती है। श्वास बाहर निकालते समय (रेचक) यह भावना होनी चाहिए कि हमारे भीतर की कमजोरियां, निकृष्टता, मलिनता बाहर निकल रही हैं। ऐसे ही पूरक करने के बाद नाक बंद कर लेते हैं (कुंभक) और यह भावना करते हैं कि अच्छाइयां हमारे भीतर सुरक्षित रहेंगी और बुराइयां भीतर नहीं जाएंगी। इस भावनाओं के साथ प्राणायाम करेंगे तभी तो कुछ लाभ होगा।’’

इतना कहकर पूज्यवर ने पूछा ‘‘अब तो प्राणायाम का सिद्धांत समझ गए होगे।’’

हमने कहा ‘‘हां गुरुदेव! हमारी समझ में इस क्रिया के भाव आ गए। अब आप न्यास के बारे में भी हमारा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।’’

न्यास की उपयोगिता

गुरुदेव ने कहा ‘‘न्यास करते समय भावना करनी चाहिए कि ये इंद्रियां शक्ति की, आनंद की स्रोत हैं, हम इनका सदुपयोग करने का संकल्प लेते हैं, देवत्व की स्थापना करते हैं, इनको गतिशील बनाने के लिए क्रिया करते हैं। हथियार को भी सामर्थ्यवान बनाना है, उसे धार देनी है और साथ ही हथियार को चलाने का सही तरीका भी तो आना चाहिए। अब जिन अंगों का न्यास किया जाता है उनके बारे में सुनो—

मुख — इसके दो कार्य हैं। एक भोजन करना अर्थात् स्वाद की शक्ति। जीभ का सही इस्तेमाल करो, सतोगुणी भोजन ही ग्रहण करो। उपनिषद् कहते हैं ‘‘जैसा खाए अन्न-वैसा बने मन।’’ जीभ को काबू में रखकर ही हम स्वास्थ्य रह सकते हैं। हराम की कमाई का अन्न भी हमें नहीं खाना चाहिए। मुख का दूसरा काम है बोलना, इससे किसी के लिए अपशब्द नहीं बोलने चाहिए, दूसरों को गुमराह नहीं करना चाहिए। यदि तुम उचित वाणी बोलने लगे तो गांधी और विवेकानंद जैसी प्रभावशाली वाणी तुम्हारी भी हो जाएगी।

नासिका — इसके बाद नासिका का न्यास करते हैं। कुत्ता अपनी घ्राण शक्ति से ही चोर को पकड़ लेता है। अनेक जीव जंतु गंध पाकर ही भोज्य पदार्थों का पता लगा लेते हैं। यह है इस शक्ति का सदुपयोग। हम भी नाक की शक्ति से उचित की खोज करने की प्रेरणा लें, उचित वस्तु ही खोजें। अकारण बेसिर पैर की बातों पर झूठे अहं के लिए, नाक कटने या नाक ऊंची नीची होने की भावना का त्याग करें।

चक्षु — आंखों का न्यास करते हैं। इस समय भावना करनी चाहिए कि इन नेत्रों से हम दिव्य ही देखेंगे। सारी विश्व-वसुंधरा को भगवान का ही रूप मानकर ‘सियाराम मय सब जग जानी’ की दृष्टि रखेंगे। आज हर व्यक्ति आंख से नकारात्मक ही देखता है, ईर्ष्या-द्वेष की भावना से ही देखता है। आंखों का न्यास करते समय प्रार्थना करनी चाहिए कि हे भगवान! हमें दिव्य चक्षु प्रदान करें ताकि हम आपके दिव्य स्वरूप को देख सकें, सबके अंदर आपका दर्शन कर सकें।

कान — कानों का भी न्यास करते हैं। उस समय हम ‘भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम्’ की भावना रखें। हम कल्याणकारी श्रेष्ठ विचार ही सुनें व ग्रहण करें। हे भगवान हमारे कान हितकारी, परोपकारी, लोक-कल्याणकारी वचन ही सुनें, ऐसी ही प्रेरणा हमें देना-इसी भावना के साथ कानों का न्यास करना चाहिए।

भुजा — भुजाओं के न्यास से ये भावना जागृत करते हैं कि हमारे हाथ सशक्त हों और सत्कर्मों में ही प्रेरित हों। भावना यह है कि भिखारी मत बनो, किसी के आगे हाथ मत फैलाओ, वरदान मत मांगो, पुरुषार्थी बनो। मनुष्य की गरिमा देने में है, देने की वृत्ति पैदा करो, दोनों हाथों से दो। दो हाथों से एक बालिश्त का पेट भरना कठिन नहीं है। परिश्रमी बनो, मेहनत करो, आलसी मत बनो।

जंघा — जंघाओं का न्यास निरंतर गतिशीलता की भावना हृदयंगम करने के लिए करते हैं। ‘चरैवेति, चरैवेति’ के सिद्धांत को धारण करो। उठो, जागो और तब तक न रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। ‘उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य, वरान्निबोधत’ का ध्येय वाक्य सदैव अपने सामने रखो। इसी शक्ति का कमाल था जिससे स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति के प्रकाश स्तंभ बनकर सारे विश्व को आलोकित किया। ब्रह्मचर्य की शक्ति अर्जित करो। गांधी जी के पास यही शक्ति थी जिसका तेज उनकी आंखों में भरा पड़ा था। उन्होंने असाधारण कर्म कर दिखाए।’’

पूज्यवर ने कहा, ‘न्यास क्रिया का दर्शन पक्ष तो अब समझ गए।’

‘हां गुरुदेव! अब हम इसे जीवन में उतारने का अभ्यास करेंगे।’

पृथ्वी पूजन का तात्पर्य

उस दिन की बात वहीं समाप्त हो गई पर मन में अनेक शंकाएं समाई हुई थीं। अतः पुनः जब अवसर हाथ लगा तब हमने गुरुदेव से प्रश्न किया ‘‘धरती की पूजा करने से क्या तात्पर्य है? क्या जो लोग पृथ्वी पूजन करते हैं, उन्हें ही वह अन्न देती हैं?’’

पूज्यवर ने कहा, ‘‘बेटा! यह भी भावना का ही विषय है। हमारा यह शरीर पृथ्वी तत्व से बना है अतः हम पृथ्वी माता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। हमने इस धरती माता का अन्न खाया है, जब पिया है, हम इसके ऋणी हैं। अतः उसका वंदन करते हैं। वंदन करते समय इस जागरूकता की भावना का समावेश होना चाहिए—‘तुम हम सबकी माता हो। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई पारसी, हम सबने मां! तेरे ही पेट से जन्म लिया है। हम सब आपस में भाई-भाई हैं। हम आपस में मिलजुल कर रहेंगे। हम किसी जीव की भी हिंसा नहीं करेंगे। मां! वे सब भी तो तेरी ही संतान हैं। हमारे भीतर एक सच्चे इंसान का दिल है। पृथ्वी पूजन करते समय हम ये सोचें कि हम एकता, जागरूकता तथा कृतज्ञता-इन तीनों ही भावनाओं को परिपक्व करते हैं। विश्व हमारा परिवार है। प्रांत, जाति, वर्ग ये सब अलग-अलग नहीं है, एक ही है। हमारी मां एक ही हैं हम सब सहोदर हैं। हम समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों को नहीं भुलाएंगे।

इस पृथ्वी से हमें केवल अन्न-जल ही नहीं मिलता। पेड़-पौधे, पर्यावरण, वायु सभी का आधार यह पृथ्वी ही तो हैं। ‘जल, थल, पावक, गगन, समीरा’ सभी तो इस पृथ्वी के स्वस्थ पर्यावरण पर ही आश्रित हैं। हमें उन सबकी भी सुरक्षा करनी है। पृथ्वी से जितना हम लेते हैं उससे अधिक उसे देने को भी तत्पर रहना है। तभी तो सच्चा एवं सार्थक पृथ्वी पूजन होगा। इन श्रेष्ठ भावनाओं के साथ पृथ्वी पूजन किया जाता है।’’ विषय का समापन करते हुए परमपूज्य गुरुदेव ने कहा कि आत्मशोधन के लिए षट्कर्म करते हैं। इन कर्मकांडों से कच्चे लोहे को पक्का बनाया जाता है। हम भी इस भावना से अध्यात्मवादी बन जाते हैं। इन भावनाओं को परिपक्व करने से अवश्य लाभ होगा। बेटा अब तो तुम समझ गए होगे कि षट्कर्म क्यों कराया जाता है।

‘‘जी हां गुरुदेव! अब इस संबंध में हमारा भ्रम दूर हो गया। अब तो हमारे मन में देव पूजन से संबंधित अन्य प्रश्न उभर रहे हैं। उन्हें भी समझाने का अनुग्रह करें।’’

गुरुदेव ने कहा कि अब तो ध्यान का समय हो रहा है। कल प्रातः आगे चर्चा करेंगे। और हम षट्कर्मों के बारे में गुरुदेव द्वारा बताई गई बातों पर चिंतन-मनन करते हुए अन्य कार्यों में लग गए।

देव पूजन का रहस्य

‘‘क्या देवताओं का पूजन करने वाले से ही भगवान प्रसन्न होते हैं?’’ हमारे इस प्रश्न का समाधान करते हुए पूज्यवर ने कहा ‘‘बेटा भगवान तो बाहर नहीं अपने भीतर ही हैं। देव-दानव सभी तो इस शरीर में वास करते हैं। हर समय देवासुर संग्राम हमारे भीतर चलता रहता है। जब दैवी भावना प्रबल होती है तो वह हमको कुकर्मों की ओर खींचते हैं।

देव पूजन से हम अपने अंदर देवत्व के भाव पैदा करने की भावना करते हैं। देवताओं की दैवी शक्तियों का आह्वान करते हैं। यह भावना करनी चाहिए कि ये दैवी शक्तियां हमारे अंतरंग में आ रही हैं (आवाहयामि), अपनी जड़ें जमाकर स्थापित हो रही हैं (स्थापयामि) और हम उनका ध्यान करके (ध्यायामि) अपने अंदर दैवी भावों को पुष्ट कर रहे हैं। सभी देवता अपने समस्त गुणों सहित हमारे मन में अवतरित होकर हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। वे केवल पूजा की चौकी पर ही मूर्ति रूप में नहीं हे बल्कि सूक्ष्म रूप में हमारे भीतर-बाहर सभी ओर विद्यमान हैं तथा आसुरी शक्तियों का नाश कर रहे हैं।

भगवान एक ही है। भगवान के पास बैठने से हमारा भी देवत्व विकसित होता है ठीक वैसे ही जैसे पारस की समीपता से लोहा भी सोना बन जाता है। भगवान का अवतरण हमारे भीतर होना चाहिए। सच्चे मन से, श्रद्धा एवं भावना से पूजा करनी चाहिए। गहराई में प्रवेश करना चाहिए। जिस प्रकार जमीन के ऊपर कंकड़-पत्थर ही मिलते हैं परंतु जमीन की गहराई में जाने से बहुमूल्य खनिज, सोना, चांदी तथा अन्य महत्वपूर्ण पदार्थ पेट्रोल इत्यादि मिलते हैं, उसी प्रकार अंतरमन में उतरने से देव विभूतियों की प्राप्ति होती है।

ऋषियों ने पहना कर्मकांड आत्मशोधन का ही बताया है क्योंकि जब तक कषाय-कल्मष रहेंगे, भगवान की कृपा नहीं पा सकेंगे। मैले कुचैले बच्चे को मां भी गोद में नहीं लेती है। पहले उसे साफ-सुथरा करती है तभी गोद में उठाती है। हमें भी भगवान की गोद में बैठने के लिए पात्रता विकसित करनी चाहिए। अंतःकरण की चेतना के परिष्कार के लिए ही तो सारे कर्मकांड भजन, पूजन हैं। केवल चावल, फूल, रोली चढ़ाकर ही भगवान को प्रसन्न नहीं कर सकते। कर्मकांड के पीछे उच्च कोटि की विचारणा है। सही तरीके से पूजा तभी होगी जब उसमें अंतर्निहित दर्शन की महत्ता को याद रखेंगे। आध्यात्मिकता तो भावना का ही खेल है। हमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, चारों को वश में करके आचरण को शुद्ध करना चाहिए। बर्तन में दूध तभी सुरक्षित रहेगा जब बर्तन साफ हो, उसमें किसी प्रकार की मलिनता न हो। छलनी में दूध का दोहन करेंगे तो दूध कैसे ठहरेगा। व्यसनों से मुक्त हो जाओ तो पतन, पराभव के छिद्र बंद हो जाएंगे और आत्मशक्ति प्राप्त होगी, प्राणशक्ति का संचय होगा।

देवताओं का आवाहन करके उन्हें भीतर धारण करते हैं। देवता व्यक्ति नहीं, शक्ति हैं जो हमारे शरीर के भीतर हैं। मूर्ति तो केवल एक मॉडल के रूप में है। सूर्य एक है, सबको प्रकाश देता है, चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो या अन्य किसी भी संप्रदाय का हो। वहां भेदभाव है नहीं। देवपूजन में हम इन देवताओं का ध्यान करते हैं। उनकी शक्तियों का आह्वान करते हैं।

शंकर भगवान के सिर से गंगाजी निकलती हैं अर्थात् हमारे मस्तिष्क से भी पवित्र, पावन, शुद्ध विचार ही निकलने चाहिए। यह ज्ञान-गंगा की प्रतीक है जो समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। हमारे विचार भी ऐसे ही हों। शिवजी के सिर पर चंद्रमा स्थापित है। चंद्रमा तो गाल होता है, सिर पर कैसे ठहरता है उसे तो बांधना पड़ता है। परंतु नहीं! यह तो प्रतीक है-शीतलता का, शांति एवं सरसता का। कैसी ही विपरीत परिस्थितियां क्यों न आ जाएं तो भी संतुलित रहें, विवेक से शांतिपूर्वक समस्या का सामना करें। क्रोध और अविवेक के भावों को न आने दें। भगवान के सच्चे भक्तों को भी अपना मानसिक संतुलन नहीं खोना चाहिए। शंकरजी के गले में विषधर लिपटे हैं। यह उनकी कला है कि दुष्ट प्रवृत्ति के जीवों को भी बस में करके उसने मनचाहा कार्य करा लेते हैं। अपने प्रभाव से, क्षमता से दुष्टों को भी सुधार कर अपने अनुरूप बना लेना चाहिए, जैसे भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल का, नारदजी ने रत्नाकर डाकू का जीवन बदलकर उन्हें महान बना दिया था।

शंकरजी अपने शरीर में भस्म रमाते हैं। यह भस्म हमें निरंतर अपनी मृत्यु का ध्यान दिलाती है। यह शरीर कभी भी मुट्ठी भर राख में बदल सकता है। इस शरीर की क्षणभंगुरता को याद रख कर निरंतर अपने लक्ष्य के प्रति सावधान रहें। राजा परीक्षित ने मौत को याद रखा तो सात दिन में ही मुक्ति पा ली थी। हम सबको भी सात दिन ही तो जीना है। सप्ताह में सात दिन होते हैं और उनमें से ही किसी दिन हम सबको जाना है। हमारा यह जीवन लोक मंगल के कार्य में अर्पित हो जाए यही उद्देश्य रहे। शंकर जी की बारात में लंगड़े लूले, अंधे सभी प्रकार के लोग थे। हमें दीन-हीन, पिछड़े समाज के सभी लोगों को लेकर चलना चाहिए। किसी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। जापान के गांधी के नाम से विख्यात संत कागावा कोढ़ियों के बीच रहकर आजीवन सेवा करते रहे। ठक्कर बापा भंगियों के बीच रहते थे। भगवान राम ने रीछ-वानर तक को साथ रखा था। भगवान कृष्ण ने तो ग्वालबालों को सदैव अपने साथ रखकर यह दिखाया कि पिछड़ों की उपेक्षा कभी नहीं करें। उन्हें भी उचित मान-सम्मान दें।

शंकरजी के तीन नेत्र हैं। हमारे प्रत्यक्ष दो ही आंखें हैं। यह तीसरा नेत्र ज्ञान का है, विवेक का है, इसे स्वयं विकसित करना होता है। हमारी दूरदर्शिता, विवेकशीलता, जाग्रत होनी चाहिए। भगवान शंकर की पूजा करने से ये सभी गुण हमारे अंदर विकसित होने चाहिए।

देवी का पूजन करते हैं। देवी सहकारिता की, सामूहिकता की प्रवृत्ति की प्रतीक है। एक बार असुरता देवत्व पर हावी हो गई और देवताओं को हारना पड़ा। तब देवता ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने पूछा ‘तुम क्यों हार गए?’ देवताओं के पास कोई उत्तर नहीं था। देवता असंगठित थे, यही उनकी हार का मूल कारण था। अतः ब्रह्माजी ने कहा ‘तुम्हें संगठित होना पड़ेगा तभी विजय प्राप्त कर सकोगे।’ ब्रह्माजी की बात मानकर देवता अपने-अपने अहं को त्यागकर संगठित हुए। उनकी सम्मिलित शक्ति से देवी का प्रादुर्भाव हुआ। वे विजयी हुए। सप्त ऋषियों ने मिलकर ही इस देव संस्कृति के प्रकाश को सारे विश्व में फैलाया था। तीन नदियां एक हो गईं तभी त्रिवेणी संगम हुआ और प्रयाग तीर्थराज बन गया। आज सभी जगह संगठन का अभाव है। साथ रहने में उनके अहं टकराते हैं। अलग-अलग रहने की वृत्ति से ही समाज में कमजोरी आ रही है। देवताओं की बिखरी हुई शक्ति जब संगठित हो गई तो एक प्रचंड शक्ति का अभ्युदय हुआ उसे दुर्गा कहते हैं। अनेक हाथ, अनेकानेक अस्त्र–शस्त्र सभी एक ही शक्ति से संचालित होने लगे। इसी दुर्गा ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ जैसे राक्षसों से सबको मुक्ति दिलाई। व्यक्तिवाद की भावना से ही आज मनुष्य हर क्षेत्र में पराजित हो रहा है। हम देवी का पूजन इसी संघ भावना से करेंगे तो दैवी शक्ति हमारे भीतर जागेगी और स्वर्ग जैसी सहकारिता धरा पर छा जाएगी।

गायत्री माता को भी जानना चाहिए। गायत्री माता बाहरी साज-शृंगार से, पूजा-पाठ से प्रसन्न नहीं होतीं। वह तो प्रसन्न होती हैं जब अपनी वृत्ति हंस जैसी विवेकशील और दूरदर्शी बन जाए। गायत्री माता पुष्प पर बैठी हैं। कमल के उस पुष्प पर जो है तो कीचड़ में परंतु उससे ऊपर उठकर निर्विकार रहता है। संसार में बुराइयां तो हैं, सदा से ही हैं और आगे भी रहेंगी। उन्हें निर्मूल कर सकना संभव नहीं है। परंतु हम इतना तो करें ही कि अपने भीतर बुराई का प्रवेश नहीं होने दें। रहें इस प्रकार जिस प्रकार जल पर नाव तैरती है। जल में नाव रहती है पर नाव में जल नहीं रहता। यदि नाव में छेद हो जाए और जल नाव में भर जाए तो नाव डूब जाती है। श्रेष्ठ आचरण और श्रेष्ठ कर्तव्य करना ही सच्ची आध्यात्मिकता है, गायत्री माता की असली पूजा है। गायत्री माता की कृपा भी उस पर होगी जो इस प्रकार जीवन जीना चाहेगा। गायत्री माता के एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में वेद है। कमंडल सादगी का प्रतीक है। उसमें जल है श्रद्धा का प्रतीक है, शालीनता, सरसता का प्रतीक है। वेद संसार के समस्त ज्ञान का मूल है। हम ज्ञान के उपासक बनें, स्वाध्याय में प्रमाद न करें। बिना विद्या के, बिना ज्ञान के मनुष्य को शास्त्रों ने बिना सींग व बिना पूंछ का जानवर कहा है। ज्ञान प्राप्ति के बाद भी उसका गर्व न करें, सादगी से रहें, श्रद्धापूर्वक उस ज्ञान का जनकल्याण हेतु सदुपयोग करें।’’

मूर्तिपूजा क्यों?

गुरुदेव ने बताया, ‘‘मूर्तिपूजा पहला चरण है। इस माध्यम से हम अपनी भावनाओं को केंद्रीभूत करते हैं। जिस प्रकार छोटे बच्चों को ‘क’ से कबूतर ‘ख’ से खरगोश पढ़ाना पड़ता है, उसी प्रकार मूर्ति पूजा के माध्यम से अध्यात्म का प्रारंभिक शिक्षण दिया जाता है। तिरंगे झंडे का हम सम्मान करते हैं। यह राष्ट्रीय भावना का, गौरव का प्रतीक है। आर्य समाजी मूर्ति पूजा नहीं करते परंतु यदि कोई स्वामी दयानंद की प्रतिमा या चित्र का अपमान करे तो वे कभी बरदाश्त नहीं करेंगे। यह भावना का, सम्मान का विषय है। मूर्ति पूजा प्रारंभिक चरण है जिसके सहारे भगवान को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त होता है। देव पूजन और मूर्ति पूजा के पीछे क्या भावना है यह अब समझ में आ गया होगा बेटे।’’

‘‘जी हां गुरुदेव। यह सब तो समझ में आ गया परंतु पूजा में चार चम्मच जल, चंदन-रोली, अक्षत, पुष्प और मिष्ठान्न चढ़ाने से क्या होता है? दीपक क्यों जलाते हैं? इससे क्या लाभ है यह भी बताने की कृपा करें।’’

जल के माध्यम से समर्पण

पूज्यवर ने कहा ‘‘बेटे चार चम्मच जल में तन, मन, धन और भावना चार शक्तियां हैं। इन्हें भगवान के चरणों में समर्पित करते हैं। हम अपना समय, श्रम, धन आदि भगवान के लिए लगाएं। एक हजारी नाम का गरीब किसान था। उसके पास धन नहीं था, परंतु श्रम था। उसने समाज के लिए पुण्य करने की बात सोची। निष्ठापूर्वक एक हजार आम के बगीचे लगाए। उस किसान के नाम पर आज भी बिहार में एक स्थान है जो हजारी बाग के नाम से जाना जाता है। मथुरा में एक पिसनहारी थी जो विधवा थी और आटा पीसने का काम करती थी, उसी से गुजारा करती थी। अपनी कमाई का एक अंश बचा के रखती थी जिसे वह किसी परोपकार के कार्य में लगाना चाहती थी। उसने एक कुआं खुदवाया। कुएं का पानी बड़ा मीठा निकला। मथुरा-वृंदावन में उस समय मीठे पानी वाला एक यही कुआं था। आज भी उसे पिसनहारी का कुआं ही कहा जाता है। लोभ-मोह के लिए तो सब जीते हैं, कुछ भगवान के लिए भी लगाएं। यदि परोपकार के लिए हमारा ध्यान नहीं तो हम पशु से भी गिरे हुए हैं यही समझना चाहिए। पशु तो मरने के बाद भी काम आता है परंतु मनुष्य तो मरने के बाद किसी के कोई काम नहीं आता।

जल शीतलता का, कल्याण का, संवेदना का प्रतीक है। बहेलिए ने क्रौंच पक्षी को तीर मारा। उस पक्षी की पत्नी के करुण विलाप को देखकर वाल्मीकि की करुणा जाग गई। उसी करुणा से प्रस्फुटित हुआ था रामायण महाकाव्य। दूसरों का दुःख देखकर हृदय पिघलना चाहिए।

यही सब गुण हमारे भीतर विकसित हों और हम तन, मन, धन तथा भावना से समाज की सेवा कर सकें उसी के प्रतीक रूप में चार चम्मच जल चढ़ाते हैं।

चंदन रोली

चंदन-रोली चढ़ाने का अर्थ है कि हमारा जीवन भी चंदन जैसा ही होना चाहिए। चंदन के संपर्क में आने वाले झाड़-झंखाड़ सभी चंदन जैसे सुगंधित हो जाते हैं। हमारा जीवन खुशबूदार बनना चाहिए। इत्र-फुलेल लगाने से नहीं, हमारे कर्मों की कीर्ति से, सद्विचारों से, सब ओर हमारी यश पताका फहराती रहे। हमारे पास जो भी प्रतिभा है उसे समाज के लिए नियोजित करना चाहिए। स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए जीवन जीने की बात सोचें। भागीरथ ने गंगा अवतरण के लिए कठोर तपश्चर्या की थी। उसमें परमार्थ की ही भावना थी तभी तो वह गंगा भी स्वयं को भागीरथी कहलाकर धन्य हुई। भगवान की भक्ति शबरी जैसी होनी चाहिए। केवल भजन-कीर्तन करने वाले सच्चे भक्त नहीं होते हैं। भजन का अर्थ है सेवा करना। शबरी प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में ऋषियों के स्नान घाट तक जाने के मार्ग पर झाड़ू लगाया करती थी ताकि ऋषियों के पैरों में कांटे न चुभ जाएं। उसकी भक्ति निःस्वार्थ भाव से प्रेरित भक्ति थी तभी तो भगवान राम एक दिन उसकी कुटिया में गए और उसके जूठे बेर भी खाए। चंदन यह कहता है कि दूसरों की सेवा करना सीखो।

चंदन के बारे में कहावत है ‘खड़े-खड़े सौ साल, पड़े-पड़े सौ साल’ मतलब कि चंदन का पेड़ सौ साल तक खड़ा रहकर अपनी सुगंध फैलाता रहता है और कटने के बाद उसकी लकड़ी भी सौ साल तक सुगंध देती रहती है। हम भी इसी तरह सौ साल तक जीवित रहकर, ‘जीवेम शरदः शतम्’ समाज में अपने सत्कार्यों की सुगंध फैलाएं और बाद में भी सैकड़ों वर्षों तक वह सुगंध संसार में व्याप्त रहे।

चंदन यह कहता है कि दूसरों की सेवा में अपने को समर्पित करना सीखो। भगवान सदैव पहले मांगते हैं, हमारा समर्पण चाहते हैं फिर कुछ देते हैं। सुदामा से चावल की पोटली मांगी थी। राजा बलि सिंहासन पर बैठे थे, भगवान नीचे खड़े थे, भिक्षा मांगने के लिए। भगवान से कुछ मांगना भक्ति नहीं है, यह तो व्यापार है। देना भक्ति है, समर्पण भक्ति है। हमें कर्ण जैसा दानी होना चाहिए।

पुष्प

भगवान की पूजा में ‘पुष्पम् समर्पयामि’ का भी विधान है। हमारा जीवन पुष्प के समान ही खिलता, हंसता हो और उस समृद्ध जीवन को हम भगवान के कार्य में समर्पित कर दें। पुष्प ने माली से कहा हम भगवान के चरणों में चढ़ना चाहते हैं। माली ने कहा ‘पहले अपना गला कटाना होगा’ अर्थात् प्रभु के चरणों में पहुंचना है तो कष्टसाध्य जीवन जीना पड़ेगा, तप-तितीक्षा का अवलंबन लेना होगा। पुष्प ने कहा हम भगवान के गले का हार बनना चाहते हैं। माली ने कहा केवल गला कटाने से काम नहीं चलेगा। अपने पेट में सुई से छेद करवाओ तब भगवान के गले का हार बनोगे। अर्थात् कष्ट साध्य जीवन ही पर्याप्त नहीं अपने भीतर के व्यसनों को भी बाहर निकालना होगा। अंदर जो गंदगी है उसे सुई से छेद कराकर बाहर निकालो। बीड़ी, सिगरेट, शराब, मांस के, जुआ, सट्टा, सिनेमा आदि के व्यसनों से अपने को मुक्त करो और फिर सब एक में मिलकर सहकारिता का जीवन जियो तभी एक माला के रूप में तुम देवता के गले का हार बनोगे। फूल की तरह ही एक होकर समर्पित जीवन जिओ तथा लोकमंगल के लिए अपना सर्वस्व सर्वत्र बिखेरते रहो, अपनी सुगंध से सबको मोहित करते रहो।

दीपक

पूजा में दीपक जलाते हैं। दीपक तभी प्रकाश देने में समर्थ होगा जब पात्र, घी, बत्ती तीनों हों। पात्रता, निष्ठा और समर्पण। यदि पात्र ही टूटा-फूटा होगा तो उसमें घी कैसे रुकेगा और प्रकाश कहां से फैलेगा। इसी प्रकार हमें भी दीपक के समान ही अपने में भगवान की सेवा की पात्रता पैदा करनी चाहिए। अंदर-बाहर के सब कषाय-कल्मष समाप्त करके दीपक के समान सेवा हेतु समर्पित होना चाहिए। प्यार और सेवा भाव से ओत-प्रोत होना चाहिए। सत्कर्मों के प्रति, समाज सेवा के प्रति निष्ठा भी चाहिए। इन तीनों प्रतीकों की सम्मिलित ज्योति से ही भटकों को राह दिखाई जा सकेगी। ज्ञान का प्रकाश जन-जन तक पहुंचाने में तभी तो सक्षम हो सकेंगे। इसी भावना के साथ दीपक के रूप में हम स्वयं को भगवान के समक्ष समर्पित करके प्रार्थना करते हैं कि हम पात्रता की उपयुक्त कसौटी पर खरे उतर सकें।

अक्षत

अक्षत चढ़ाने से तात्पर्य है कि जो अन्न एवं धन-संपत्ति कमाते हैं उसे हम अकेले ही नहीं सब मिलजुल कर खाएं। परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति भी हमारा कर्त्तव्य है उसे भी पूरा किया जाना चाहिए। गीता में कहा है ‘जो अकेले खाता है वह पाप खाता है।’ मनुष्य समाज के प्रति ऋणी रहता है। वह सब कुछ समाज में रहकर समाज के साधनों व सहयोग से ही तो सीखता है। रामू नामक उस बालक का ही उदाहरण लो। वह नन्हा बालक खेत के किनारे सो रहा था, मां किसी काम में व्यस्त थी, जंगल से एक भेड़िया आया और उस बालक को उठा ले गया। कुछ वर्षों के बाद एक शिकारी ने उस बालक को भेड़ियों के झुंड में देखा। ललकारने पर भेड़िये तो भाग गए। उस बालक को, जो आठ-दस वर्ष का होकर भी भेड़ियों के समान ही चलने लगा था, उसी तरह चिल्लाने लगा था, पकड़ कर लाया गया। उसे लखनऊ के अस्पताल में रखा गया और नाम दिया गया रामू। तीन वर्ष तक रखने पर भी वह अपनी बोली नहीं सीख पाया। एक दिन वह मर गया। अपने समाज से कट कर रहने का यह परिणाम हुआ। हमको समाज से अगणित अनुदान मिले हैं। बल-बुद्धि,, धन-संपत्ति सब समाज की देन हैं। अतः यह हमारा कर्त्तव्य है कि अपनी कमाई का एक भाग समान के लिए निकालें। ऐसा करने से कितना लाभ होता है, इसे सुनो।

एक बार भारी अकाल पड़ा। एक ब्राह्मण परिवार सात दिन से भूखा था। अन्न के अभाव में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची थी। ब्राह्मण भिक्षा से आजीविका कमाते थे। अच्छे समय में भिक्षा आसानी से मिल जाती थी परंतु दुर्भिक्ष में जब लोगों के पास अपने लिए ही कुछ नहीं रहा तो किसी को भिक्षा किस प्रकार देते?

सात दिन के प्रयत्न के बाद चार रोटियों के बराबर भिक्षा मिली। लेकर घर आया। परिवार के चारों सदस्यों के लिए चार रोटियां बनाई गईं। बन जाने पर थाली में रखीं। खाने से पहले ब्राह्मण को याद आया कि कहीं कोई हमसे अधिक जरूरतमंद तो नहीं है। यदि है तो इस उपार्जन पर पहला हक उसका है। पहले तलाश लें फिर भोजन करेंगे। अपने हिस्से की रोटी लेकर बाहर निकलते ही ब्राह्मण देवता ने देखा कि पास ही एक पेड़ के नीचे एक वृद्ध चांडाल पड़ा है। बहुत दिनों से अन्न न मिलने के कारण वह मरणासन्न स्थिति में था। ब्राह्मण को रोटी लेकर समीप आते देखकर बोला कि मुझे कहीं भोजन मिल जाता तो मेरे प्राण बच जाते, कोई मेरे प्राण बचा ले बड़ी कृपा हो। ब्राह्मण ने उस वृद्ध चांडाल को अपने हिस्से की रोटी दे दी पर इससे उसकी भूख शांत नहीं हुई। इस पर ब्राह्मण पत्नी ने भी उसे अपनी रोटी दे दी। अब तो उसकी भूख और तीव्र हो गई। और मांगने लगा तो पुत्र और पुत्री ने भी अपनी-अपनी रोटी उसे खिला दी। सात दिन के भूखे उस परिवार ने बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुआ सारा भोजन स्वेच्छा से उस चांडाल को दे दिया, उसकी भूख शांत हुई। उस वृद्ध चांडाल ने तृप्त होकर कुल्ला किया। इस प्रकार फेंका जल जमीन पर पड़ा था, एक नेवला आकर वहां लोटने लगा। नेवले के शरीर का जितना भाग उस जल से गीला हुआ था, सोने का बन गया। उसी नेवले ने जब सुना कि राजा युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर रहे हैं तो उसने सोचा कि इस यज्ञ में शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा परंतु उसे वहां निराशा ही हाथ लगी। इस प्रकार उस ब्राह्मण का अन्नदान राजसूय यज्ञ से भी बड़ा सिद्ध हुआ। उदार चेताओं के सामान्य कृत्य को भी असाधारण पुण्य माना जाता है।

पूज्यवर ने इसी प्रकार का एक और कथानक सुनाया। संत एकनाथ भक्तों के साथ कांवर लेकर रामेश्वर पर गंगाजल चढ़ाने जा रहे थे। रास्ते में एक गधा प्यास के मारे तड़प रहा था। सब भक्त उस गधे की उपेक्षा कर आगे बढ़ गए परंतु संत एकनाथ जो ‘ईशावास्य मिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यां जगत’ की भावना रखते थे, सबमें भगवान का वास मानते थे, उन्होंने उसी जल में से जो रामेश्वरम में चढ़ाने ले जा रहे थे, एक घड़ा उस प्यासे गधे को पिला दिया वह। उठ कर बैठ गया। अब उसकी प्यास और बढ़ी तो दूसरा घड़ा भी पिला दिया। गधा उठकर खड़ा हो गया और पूछा कि तुम यह जल कहां ले जा रहे थे। एकनाथ बोले—‘‘भगवान रामेश्वरम पर चढ़ाने के लिए’’ इस पर वह गधा बोला ‘‘मैं ही तो रामेश्वरम हूं।’’ उसी क्षण वह गधा वहां से गायब हो गया और उसके स्थान पर भगवान रामेश्वरम स्वयं प्रकट हो गए और कहने लगे ‘‘तू ही मेरा सच्चा भक्त है।’’

गुरुदेव ने समझाया कि भगवान मिलते हैं पीड़ितों में, दीन-दुखियों की वेदना में। तुम्हारे अंदर दूसरों के लिए दयालुता होगी, करुणा, संवेदना, सेवा भावना होगी तो समझ लो वहीं भगवान का अवतरण हो जाएगा। देव पूजन के कर्मकांड के माध्यम से इसी देवत्व का अवतरण हमारे अंदर हो-यही प्रयास व भावना होनी चाहिए। वैसे ही कृत्य भी हमारे होने चाहिए।

मिष्ठान्न भी भगवान को चढ़ाते हैं। इसके पीछे यही तथ्य है कि हमारा व्यक्तित्व मधुर बने, वाणी में मिठास हो। कड़वा और कर्कश व्यवहार ही मित्र को शत्रु बना देता है। हम भगवान के अनुरूप ही अपना व्यवहार बनाएंगे। मृदु बनकर दूसरों का हृदय जीत लेंगे। घर-परिवार, मित्र, कुटुंबी सबके प्रिय तभी बन पाओगे जब अपनी वाणी, व्यवहार, व्यक्तित्व, कृतित्व सबमें मिठास पैदा कर लोगे।

बेटा! यही सब दर्शन पूजा-पाठ, देव पूजन में निहित है। इसको अपने जीवन में उतार कर भगवान जैसे बन सकते हो। यही सारे कर्मकांड का मर्म है।

गायत्री उपासना

हमने पुनः प्रश्न किया ‘हे गुरुदेव! क्या गायत्री उपासना से धनबल, शरीरबल, बुद्धिबल मिल सकता है?’’ उनका उत्तर था ‘‘बेटा केवल तुम ही नहीं संसार का प्रत्येक व्यक्ति इन्हीं तीन बलों को प्राप्त करने के लिए भाग रहा है। परंतु इन तीन बलों से बड़ी भी एक शक्ति है अध्यात्म बल जो हमें गायत्री महामंत्र से मिली है। इस शक्ति से तीनों बल भी प्राप्त हो जाते हैं। शरीर बल तो बड़ा आवश्यक है, उससे ही मेहनत व्यायाम, चलना-फिरना सब संभव है। दूसरी समर्थ शक्ति है बुद्धि। बुद्धि का उपयोग डॉक्टर, वकील, आदि सब पैसे कमाने में कर सकते हैं और तीसरी धन की शक्ति से मोटर कार खरीद सकते हैं, मकान बनवा सकते हैं, भौतिक साधनों की उपलब्धि हो सकती है।

इन तीनों शक्तियों से भी महत्वपूर्ण है ‘अध्यात्म बल’। इसकी प्राप्ति के बिना शरीरबल, बुद्धिबल, धनबल सभी बेकार हैं। आध्यात्म की इस चौथी शक्ति को आज सब भूल गए हैं।

दुर्योधन के पास इसी का अभाव था। उसके पास क्या नहीं था? राजपाट, धन-संपदा, विशाल सेना, बुद्धि-चातुर्य, सभी तो था पर आध्यात्मिक शक्ति नहीं थी इसी कारण उसे सर्वनाश ही हाथ लगा।

रावण जब मरने लगा तब विचार किया मेरे पास तो धन बल, जन बल, शरीर बल सब कुछ था। उधर ये वनवासी राम-लक्षण! इनके पास तो कुछ भी नहीं था, फिर इन्होंने विजय कैसे पा ली। इस जिज्ञासा के समाधान हेतु उसने राम से ही प्रश्न किया। भगवान राम ने कहा ‘तुम्हारे पास तीनों बल तो थे परंतु चौथा बल नहीं था—अध्यात्म बल।’ रावण ने पुनः पूछा ‘यह चौथा अध्यात्म बल कहां से आया’ रामचंद्रजी ने उसे बताया ‘यह बल गायत्री उपासना से आया। हमें गुरु वशिष्ठ ने यज्ञोपवीत संस्कार के समय इस मंत्र की साधना और आदर्श सिद्धांतों का अपने में समावेश करना इत्यादि समस्त मार्गदर्शन किया था तथा ऋषि विश्वामित्र ने गायत्री-सावित्री महाविद्या सिखाई थी।’

पूज्यवर ने समझाया कि गायत्री महामंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को जीवन में उतार कर सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। बुराइयों को छोड़कर पवित्र विचार से पवित्र कार्य करना चाहिए। उसके आदर्शों और मर्यादाओं का पूर्णरूपेण पालन करना चाहिए तभी यह प्राणवान होकर प्रतिफलित होगी। गुरुदेव ने आगे बताया कि तुम देखते हो कि हनुमान के मंदिर रामचंद्रजी के मंदिरों से कई गुना अधिक हैं। यह सब अध्यात्म का ही प्रतिफल है। भगवान भी भक्त को अपने से बड़ा बना देता है। हनुमान जी पहले सुग्रीव के सेवक थे, बालि के भय से ऋष्यमूक पर्वत पर छुपकर रहते थे। वही हनुमान जब भगवान राम से मिले तब समुद्र लांघने, पर्वत उखाड़ने, संजीवनी लाने जैसे असंभव कार्य भी कर सकने में समर्थ बन गए। जब सामान्य सा वानर अध्यात्म से जुड़कर इतना महान शक्तिशाली बन सकता है तो मनुष्य क्या नहीं कर सकता।

हमारी हठवादिता से पूज्यवर परिचित थे। हमने कहा ‘‘गुरुदेव! हनुमान जी का दृष्टांत तो बहुत पुराना है, हो सकता है इसमें अतिशयोक्ति भी हो। कोई जीवंत उदाहरण बताइए’’

पूज्यवर ने कहा ‘‘बेटा तुमने महात्मा गांधी को तो देखा होगा।’’

‘‘जी हां गुरुदेव! हमने देखा है, वे दुबले पतले, पांच फीट दो इंच कद के सादगी से जीने वाले व्यक्ति थे।’’

गुरुदेव ने आगे कहा ‘देखो बेटे गांधी जी एक वकील थे। अफ्रीका की अदालत में जब एक मुकदमे की पैरवी कर रहे थे तब दूसरे पक्ष के वकील की बहस का उत्तर नहीं दे पाए और उनके हाथ पैर कांपने लगे, वाणी लड़खड़ाने लगी। आखिरकार अदालत के बाहर आने पर मुवक्किल को वकालत की फीस भी गांधीजी को वापस करनी पड़ी। इतने कमजोर मनोबल वाले गांधीजी जब अध्यात्म से जुड़े तब उनके अंदर इतनी शक्ति आ गई कि एक आवाज पर लाखों व्यक्ति मरने-मिटने के लिए स्वतंत्रता सेनानी बनकर आगे आ गए। जिन अंग्रेजों के राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था उनको भी एक दिन भारत छोड़ना पड़ा। जब अध्यात्म की शक्ति आ जाती है तब आदमी के पास तीनों बल स्वमेव आ जाते हैं। अगर आदमी अध्यात्म को समझ ले तो निहाल हो जाए। इससे शरीर बल, बुद्धि बल, धन बल ही प्राप्त नहीं होते अपितु लोक-परलोक भी संवरता है।

फिर पूज्यवर ने स्वामी विवेकानंद का दृष्टांत समझाया। नरेंद्र नाम का एक पढ़ा लिखा ग्रेजुएट लड़का स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास नौकरी मांगने गया था। परमहंस ने कहा ‘‘जाओ मां काली से मांग लो।’’ वह मां काली के मंदिर में गया। इसके हृदय में अध्यात्म का प्रकाश स्वामी रामकृष्ण की कृपा से प्रवेश कर गया था। अतः उसके हृदय में अनेक बेरोजगारों की समस्याओं की गुहार गूंजने लगी। इस विश्व माता से अपने लिए एक छोटी सी भीख क्या मांगना? मुझे तो विश्वहित के लिए ही कुछ मांगना चाहिए। वे काली मां की प्रतिमा के समक्ष गिड़गिड़ा उठे ‘हे मां मुझे ज्ञान दो, भक्ति दो, विवेक दो, उनके हृदय में सारे विश्व, जो समस्याओं से भरा पड़ा है, की चिंता जागृत हो गई। नरेंद्र को बहन के विवाह की चिंता थी। घर में मा थी जिसके निर्वाह के लिए नरेंद्र को नौकरी की जरूरत थी। परंतु उन्होंने अपने लिए यह सब न मांगकर विश्वमाता से वैसा ही आशीर्वाद मांगा कि जिससे सबका हित हो। वह नरेंद्र जब अध्यात्म बल से जुड़ा तो विवेकानंद बन गया।

गुरुदेव ने आगे कहा कि तुम हमारे साथ टाटानगर गए थे। वहां जब हम टाटा की फैक्ट्री देखने गए तो वहां के जनरल मैनेजर ने तुम्हारे सामने ही बताया था कि यह फैक्ट्री स्वामी विवेकानंद की ही देन है। जमशेद जी टाटा ने अपनी डायरी में लिखा है कि उनकी भेंट स्वामी विवेकानंद से विदेश के एक होटल में हुई थी। वहां उन्होंने स्वामीजी से पूछा था कि क्या वे भारत में ऐसा स्थान बता सकते हैं जहां कोयला, लोहा और पानी तीनों एक साथ उपलब्ध हो सकें। स्वामी जी ने एक पल आंख मूंदकर ध्यान किया और भारत के नक्शे में बिहार के सिंहभूमि जिले में एक स्थान बता दिया। जमशेदजी ने भारत आकर इसी स्थान पर अपना कार्य आगे बढ़ाया। आज उसी स्थान पर स्वामी विवेकानंद के आध्यात्मिक तेज के प्रताप से विशाल औद्योगिक नगर बस गया है और इस टाटा नगर की प्रसिद्धि सारे संसार में है। जमशेदजी अपनी समस्त प्रगति का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही देते रहे। अध्यात्म बल का यही चमत्कार है। आज भी जमशेदजी की डायरी वहां पर प्रमुखता से प्रदर्शित है और कोई भी इस सब को पढ़ सकता है। जमशेदजी ने ही बेलूर मठ बनवाया है जहां से रामकृष्ण मिशन का कार्य संचालन होता है।

सच्चा अध्यात्म यही है। असली और नकली अध्यात्म में भी उसी प्रकार अंतर होता है जैसे असली और नकली सोने में। अध्यात्म का अर्थ होता है लोक मंगल का काम करना और पवित्र जीवन जीना।

पूज्यवर ने याद दिलाते हुए कहा कि तुम हमारे साथ गुजरात भी गए थे। वहां बापा जलाराम की मूर्ति देखी थी। बेटे! बापा जलाराम ने भी सच्चे अध्यात्म का जीवन जिया था। वे साधारण किसान थे। उनका व्रत था कि हमारे द्वार से कोई भूखा न जाए। खेत से जो अन्न पैदा होता था वह परोपकार में लगाते थे। उनका यही व्रत उन्हें भगवान तक पहुंचाने में सहायक रहा। एक दिन एक वृद्ध साधु जलाराम के घर ठहरे। उन्होंने कहा ‘मुझे चारों धाम की यात्रा करनी है। आप मुझे यात्रा करा लाओ।’ बापा ने कहा ‘मैं तो खेती के कार्य की देखभाल करूंगा। मेरी धर्मपत्नी आपको चारों धाम की यात्रा करा देगी।’ वृद्ध साधु को यात्रा कराने के लिए उनकी धर्मपत्नी ने सेवा व्रत धारण करना स्वीकार किया तथा उनका सामान लेकर साथ में चल पड़ी। रास्ते में एक जगह वह साधु अपनी झोली सौंपकर शौच के बहाने कहीं चले गए, वह उनकी राह देखती रही। जब शाम तक भी वे वापस नहीं लौटे तो वह उस झोली को, जिसे संभालकर रखने को वृद्ध ने कहा था, लेकर घर आ गई। वह झोली आज तक वहां टंगी है। उस वीरपुर के जलाराम मंदिर में सदाव्रत भोजनालय आज भी अनवरत चल रहा है।

यही अध्यात्म की शक्ति का चमत्कार है। इन दृष्टांतों को सुनकर तुम्हारे सभी भ्रम दूर हो गए होंगे। यदि फिर भी संतोष न हुआ हो तो मेरे जीवन को देखो। मैं अठारह घंटे लोकमंगल के लिए निरंतर काम करता हूं। न तो मैं कभी बीमार हुआ हूं और न ही कमजोर। कोई मुझे बुड्ढा कहता है तो मुझे गाली लगती है। मैं इस उम्र में भी जवान हूं। बाल सफेद होने से कोई बूढ़ा नहीं होता। भेड़ के बच्चे के बाल तो जन्म से ही सफेद होते हैं। हमने लालटेन जलाकर उसकी रोशनी में ही चारों वेदों, अठारह पुराणों तथा 108 उपनिषदों का भाष्य किया है। ‘अखंड ज्योति मासिक पत्र’ से अध्यात्म और विज्ञान को मिलाया है। वैज्ञानिक तो अध्यात्म और विज्ञान में कुत्ते-बिल्ली का सा बैर मानते हैं। हमने दोनों को मित्र के समान मिला कर एक और एक ग्यारह के बराबर शक्तिशाली बना दिया है। जन्म भूमि आंवलखेड़ा, गायत्री तपोभूमि, शांतिकुंज, 2400 शक्तिपीठ इन सबकी करोड़ों की संपत्ति, लाखों परिजनों का विशाल संगठन, यह सब कहां से खड़ा हो गया। यह तो केवल मेरे व्यवहारिक जीवन आदर्श और सिद्धांतों का ही चमत्कार है। अध्यात्म की मैंने असली कमाई तो अभी तिजोरी में बंद कर रखी है। उसे हमारे इस शरीर छोड़ने के बाद तुम सब स्वयं देखोगे।

पूज्यवर ने अपने बारे में जो कुछ कहा था उस बात को आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। गायत्री परिवार का विस्तार और अश्वमेध महायज्ञ जैसे विराट आयोजनों की सफलता, यह सब उनकी सूक्ष्म सत्ता और उनकी तप शक्ति की ही उपलब्धि है। कितने ही दुःखी, रोगी, समस्याग्रस्त, व्याकुल व्यक्ति उनके पास आए और सभी को पूज्यवर के आशीर्वाद का लाभ मिला। कितने ही ऐसे परिजन हैं। जिन्हें उन्होंने जीवन दान दिया, मृत्यु की गोद से भी वापस ले आए। आज यह सब एक गहन शोध का विषय है।

हमें पूज्यवर के इस कथन से कि अध्यात्म से सब कुछ पाया जा सकता है, इन दृष्टांतों से पूर्ण संतुष्टि मिली। इसी अध्यात्म को उन्होंने जन-जन को सिखाया। इसके वास्तविक स्वरूप को समझ कर अगणित साधकों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।

गायत्री साधना की विधि

हमने पूज्यवर के समक्ष अपनी एक शंका रखी ‘‘आपने 24 वर्ष तक गायत्री महामंत्र के 24 महापुरश्चरण किए तो आपको लाभ हुआ परंतु कई ऐसे भी हैं जिन्हें कई पुरश्चरण करने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। इसके पीछे क्या कारण है, कृपया हमें समझाइए।’’

गुरुदेव ने हमारा शंका समाधान करने से पूर्व एक किस्सा सुनाया कि एक बार राजस्थान में एक मेला लगा था जिसमें एक व्यक्ति ऊंची आवाज लगाकर एक रुपये में एक खाट बेच रहा था। हमने सोचा कि एक रुपये में इतनी सस्ती खाट मिल रही है तो ले लेनी चाहिए। दोपहर में यहीं उसपर आराम करेंगे। जब हम खाट लेने गए तो देखा वह आदमी कह रहा था ‘दो दांया नहीं, दो बांया नहीं, बीच का झाबर झल्ला नहीं और तीन नहीं है पाया। खाट ले लो मेरे भाया।’ वह एक पाए वाली खाट लेकर खड़ा था। उसकी एक मसखरी पर सभी हंस रहे थे। तुम्हें भी यह किस्सा सुनकर हंसी आती होगी परंतु तुम्हारी शंका का समाधान भी इसी में है। एक पाए वाली खाट के समान केवल जप कर लेने से लाभ हो जाए, सब यही चाहते हैं। लिखने के लिए भी तीन चीजों की आवश्यकता होती है, कागज, कलम और स्याही। खेती में भी खाद, पानी, बीज चाहिए। हमारे जीवन के लिए अन्न, जल, वायु तीनों ही आवश्यक हैं। केवल जप से काम चलता नहीं। राम का नाम ही पर्याप्त नहीं है। नाम जप के साथ राम का काम भी करना होगा। हनुमानजी की तरह ‘राम काज करिबे बिना मोहि कहां विश्राम’ की भावना जाग्रत करनी होगी। बिल्वमंगल ने अपना जीवन बदला, वे सूरदास हो गए। वाल्मीकि ने जप भले ही उल्टा किया हो या सीधा परंतु जप ने उनका जीवन क्रम ही बदल दिया था तभी वे इतने महान ऋषि हो सके।

गायत्री मंत्र का महत्व बताते हुए पूज्यवर ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने त्रिवेणी स्नान का महत्व लिखा है—

मज्जनफल देखिय तत्काला ।

काक होई पिक बकऊ मराला ।।

इस चौपाई का अर्थ है कि त्रिवेणी में स्नान करने से कौवा कोयल हो जाता है और बगुला हंस। पर क्या ऐसा हो सकता है? बाह्य आकृति क्या इस प्रकार बदल सकती है? इसका भाव है कि आकृति नहीं प्रकृति बदल जाती है। यह त्रिवेणी में स्नान करने से मनुष्य की मनोदशा भी उत्कृष्ट हो जाती है। यह त्रिवेणी है उपासना, साधना, आराधना की। गायत्री मंत्र के जप के साथ उपासना, साधना और आराधना तीनों ही होनी चाहिए तभी तो वह अपना चमत्कार दिखाएगा।

उपासना

उपासना पास बैठने को कहते हैं, उप-आसन। जिस प्रकार आग के पास लकड़ी बैठती है तो वह आग बन जाती है। भगवान के पास बैठने से उसी के अनुरूप गुण, कर्म और स्वभाव बनाना पड़ता है, भगवान के अनुशासन पर चलना पड़ता है। समर्पण करना पड़ता है। जिस प्रकार कठपुतली बाजीगर के इशारे पर नाचती है, उसी प्रकार का समर्पण करना पड़ता है भगवान के प्रति। पत्नी जब पति को समर्पण कर देती है तो उसकी अर्धांगिनी कहलाती है, घर की मालकिन बन जाती है, पति की संपूर्ण जायदाद की हकदार हो जाती है। यह है समर्पण का परिणाम। आज तो लोग उल्टे भगवान को ही अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं, जबकि स्वयं भगवान के इशारे पर नाचना चाहिए। पानी की एक बूंद जब समुद्र को समर्पण कर देती है तो वह समुद्र कहलाती है। भक्त और भगवान के बीच ऐसे ही अजीब रिश्ते हैं। गंदा नाला भी जब गंगाजी में मिल जाता है तो वह भी गंगा के समान ही पवित्र हो जाता है। सच्चे समर्पण से भक्त भगवान के बराबर हो जाता है। भगवान से बड़ा भी हो जाता है। एक बड़े ही मार्मिक उदाहरण से पूज्यवर ने समझाया कि भक्त भगवान से भी बड़ा कैसे हो जाता है।

एक बार नारदजी पृथ्वी लोक पर आए। रास्ते में एक किसान की कुटिया में ठहर गए। किसान ने नारदजी की सेवा की। सुबह जब नारदजी चलने लगे तो किसान ने कहा ‘कहां जा रहे हो?’ नारदजी बोले ‘विष्णु भगवान के पास जा रहा हूं’। किसान ने उनसे अनुनय विनय की हमारे कोई संतान नहीं है, आप विष्णु भगवान से हमारे लिए प्रार्थना करना। नारदजी सीधे विष्णुजी के पास गए और सबसे पहले उस किसान की बात सुनाकर उसको संतान देने का अनुरोध किया। भगवान बोले ‘उस किसान के भाग्य में इस जन्म में तो क्या, अगले सात जन्मों में भी संतान का विधान नहीं है।’

कुछ दिनों बाद उसी किसान के घर के पास एक साधु आया और कहने लगा कोई रोटी खिला दे, उसे एक बच्चा दूंगा। किसान ने कहा ‘महाराज आप मेरे घर पधारिए। एक नहीं जितनी भी रोटियां आप खाना चाहें मैं खिलाऊंगा।’ साधु ने कहा ‘हम तो केवल दो ही रोटियां खाते हैं।’ वह साधु दो रोटी खाकर और किसान परिवार को आशीर्वाद दे कर चला गया। समयानुसार उस किसान के घर दो बच्चों का जन्म हुआ। सात-आठ वर्ष बाद नारदजी पुनः उसी गांव में पहुंचे तो उस किसान के घर दोनों बच्चों को खेलते देखा। नारद जी ने पूछा कि ये किसके बच्चे हैं? किसान ने बड़े ही विनीत भाव से कहा ‘मुनिवर ये हमारे ही पुत्र हैं।’ नारदजी ने सोचा कि जब भगवान विष्णु ने यह कहा था कि इस किसान को तो सात जन्मों तक भी संतान का सुयोग्य नहीं है फिर यह सब कैसे हुआ। वह तुरंत विष्णु लोक को चल दिए। विष्णु भगवान से मिलने के लिए नारदजी को कोई रोक-टोक नहीं थी। वे सीधे उनके कक्ष में घुस गए तथा क्रोध एवं क्षोभ भरी वाणी में बोले ‘भगवन्! आपने मुझसे झूठ बोला है। आपने कहा था कि उस किसान के भाग्य में सात जन्म तक बच्चे नहीं हैं फिर उसे आपने दो संतान कैसे दे दी?’ भगवान ने मुस्करा कर नारद जी को शांत किया और बोले कि सुबह इसका उत्तर देंगे।

प्रातः बेला में नारदजी को साथ लेकर भगवान विष्णु जंगल में भ्रमण को गए। नारद ने वहां देखा कि एक कुटी से एक महात्मा बाहर निकले। उनकी कुटी के चारों ओर तरह-तरह के फलों से लदे हुए अनेक वृक्ष थे परंतु यह देखकर नारदजी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह साधु महात्मा सूखे पत्ते खा रहे थे। पास जाकर पूछने पर उस साधु ने बताया कि फल तो सब भाई बहनों, बच्चों के लिए हैं। भगवान ने कहा ‘आप कम से कम हरे पत्ते ही क्यों नहीं खा लेते।’ वह साधु बोला ‘हरे पत्ते गाय, भैंस, बकरियों के लिए सुरक्षित हैं। मैं तो इन सूखे पत्तों से ही अपनी क्षुधा शांत कर लेता हूं।’

यह सब देख सुनकर नारदजी हतप्रभ होकर विष्णु भगवान का मुंह ताकते रह गए। तभी कुछ देर में वह साधु अपनी कुटी से एक तलवार निकाल लाया और हवा में इधर-उधर घुमाने लगा। भगवान ने उससे इस व्यवहार का कारण पूछा तो साधु ने कहा ‘‘कहीं मुझे नारद मिल जाता तो इसी तलवार से उसके दो टुकड़े कर देता’’ ‘‘क्यों भाई! नारद ने क्या बिगाड़ा है?’’ भगवान के यह पूछने पर साधु ने बताया ‘‘वह हमेशा गप मारता रहता है।’’ यह देखकर नारदजी ने भगवान को इशारा किया कि चलो भाग चलें।

मार्ग में भगवान ने नारदजी को समझाते हुए कहा वह वही साधु है जिसके आशीर्वाद से उस किसान के घर दो बच्चों का जन्म हुआ था। इसका रोम-रोम हर पल लोक मंगल के कार्य में रत है। उसके आगे अपने खाने पीने की भी इसे कोई चिंता नहीं है। क्या तुम्हें यह साधु मुझ से भी श्रेष्ठ नहीं लगता? तुम्हीं बताओ कि इसका आशीर्वाद फलीभूत होना चाहिए या मेरा विधान? इसकी उपासना उच्च स्तर की है जिसके फलस्वरूप यह मेरे बराबर ही नहीं मुझसे भी उच्च पद का अधिकारी है।

भगवान ऐसे ही भक्तों के वश में होते हैं जो केवल कीर्तन ही नहीं करते वरन् लोक मंगल का कार्य भी करते हैं। जो जैसा करता है वह वैसा ही फल भोगता है। वह भक्त जो सच्चा समर्पण करता है, भगवान उसे बड़ा बना देता है। उसकी बात को भगवान बड़ा कर देता है। सच्ची उपासना करने वाले का भगवान भी हर प्रकार से मान रखते हैं। वे शबरी के घर जाकर उसके जूठे बेर खाते हैं, सुदामा के चरण धोकर पीते हैं, विदुर के घर का साग खाते हैं और राजा बलि के घर भिक्षा मांगने जाते हैं।

गायत्री मंत्र के साथ भी यही बात है। श्रद्धा जितनी होगी उतना ही मंत्र फलित होगा। श्रद्धा के कारण ही तो मीरा के साथ गिरधर नाचते थे। पत्थर से भगवान प्रकट हो गए थे। एकलव्य ने श्रद्धापूर्वक द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति की उपासना की और उसी से धनुर्विद्या में पारंगत हो गया। यह श्रद्धा ही तो थी जिससे रामकृष्ण परमहंस का भोजन ग्रहण करने को मां काली साक्षात आती थीं। रानी रासमणि से किसी ने शिकायत की कि यह रामकृष्ण पुजारी स्वयं ही भोग खा लेता है तो रासमणि ने छुपकर देखना चाहा। भोग रखकर रामकृष्ण ने मां काली को पुकारा परंतु मां प्रकट नहीं हुईं। इस पर रामकृष्ण ने कहा ‘‘मां इसलिए नहीं खा रही है कि उनके बच्चे ने नहीं खाया तो मां पहले कैसे खाएगी।’’ यह कहकर जैसे ही राम कृष्ण ने एक कौर तोड़कर खाया तो मां काली प्रकट हुई और भोजन करने लगीं।

बिना श्रद्धा-भक्ति के सारा कर्मकांड निरर्थक है। पूज्यवर ने पुनः एक दृष्टांत सुनाया। एक शिष्य था जो केवल जल ही औषधि रूप में दे कर लोगों की आधि-व्याधि सब ठीक कर देता था। जब उसकी ख्याति उसके गुरु के पास पहुंची तो वे स्वयं ही शिष्य के पास गए और पूछने लगे ‘तुम्हारे पास कौन सा मंत्र है जिसके अभिमंत्रित जल देने से सब ठीक हो जाते हैं।’ शिष्य ने कहा ‘गुरुदेव मेरे पास ऐसा कोई मंत्र नहीं है, यह सब तो आपके चरणों का ही प्रताप है। गुरुदेव! गुरु पूर्णिमा को आपके चरण धोकर जो जल मैं लाता हूं वही तो सबको देता हूं। सब उसी चरणामृत का चमत्कार है।’ गुरु ने सोचा मेरे चरणों के जल में जब इतना चमत्कार है तब तो मैं ही सबको अपने चरण धोकर जल दिया करूंगा। गुरु घर लौटा और प्रचार करा दिया कि जिसे भी कोई आधि व्याधि हो औषधि ले जाए। लोग आने लगे। शिष्य तो एक चम्मच जल ही पिलाता था, उसके गुरु ने एक एक गिलास पिलाना शुरू कर दिया। पर किसी को कोई फायदा नहीं हुआ। वह पुनः अपने शिष्य के पास गया और इसका कारण पूछा तो शिष्य ने कहा ‘गुरुदेव! हम जो जल देते हैं उसमें श्रद्धा-भावना भरी होती है। आपके पास तो केवल कर्मकांड है। हमारे पास अपना तो कुछ भी नहीं है। हमने अपने आपको खाली कर दिया है। अब इसमें जो कुछ भी है सब आप ही का है।’

पूज्यवर ने यह प्रसंग सुनाकर कहा ‘बेटा! श्रद्धा, समर्पण के साथ की जाए तभी फलीभूत होती है। उपासना के साथ साधना का भी उतना ही महत्व है। उपासना भगवान की करते हैं परंतु साधना स्वयं अपनी की जाती है।

साधना

साधना का मर्म समझाते हुए गुरुदेव ने बताया साधना के लिए आत्मचिंतन, आत्मशोधन, आत्मपरिष्कार तथा आत्मविकास के सोपानों से आगे बढ़ा जाता है। साधना के ये चार चरण हैं। उपासना गंगा है तो साधना यमुना है, इनका संगम आवश्यक है। बेटा! तुमने देखा होगा एक बंदर जो तरह-तरह के नाच व करतब दिखाकर मदारी के परिवार के पालन के लिए आय का स्रोत बन जाता है। यह चमत्कार साधना का है। बंदर तो इधर-उधर कूदते रहते हैं परंतु जिस बंदर को साध लिया जाता है वह सर्कस और मदारी के लिए परम उपयोगी बन जाता है, लाखों रुपये कमाता है। इसी प्रकार रीछ, बिल्ली, कुत्ते हाथी आदि को भी जब साध लिया जाता है तो वे इशारे पर काम करने लगते हैं। शेर तो मनुष्य के लिए मौत से कम नहीं है परंतु जब उसे साध लिया जाता है तो वही शेर रिंग मास्टर के इशारे पर कठपुतली की तरह काम करता है, तमाशा दिखाता है, आदेश पालन करता है।

अनगढ़ को सुगढ़ बनाने की प्रक्रिया ही साधना है। कुसंस्कारी को सुसंस्कारी बनाना साधना है। अनगढ़ लोहा ढल जाता है तो इंजन बन जाता है और असंभव कार्य भी कर दिखाता है। दोष-दुर्गुणों का निवारण ही साधना है। राजा दशरथ संतान की कामना से गुरु वशिष्ठ के पास पहुंचे और पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने की प्रार्थना की। वशिष्ठ ने यह यज्ञ संपन्न कराने हेतु लोमश ऋषि के पुत्र श्रंगी ऋषि को लाने के लिए कहा। राजा दशरथ को बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक बालक से पुत्रेष्ठि यज्ञ कराने की बात गुरुवर क्यों कह रहे हैं। संदेह निवारण के लिए पूछ ही लिया। उत्तर मिला कि उस बालक में संयम शीलता और साधना की अपरिमित शक्ति है। यह तो तुम जानते ही हो कि उन्हीं ऋंगी ऋषि के द्वारा पुत्रेष्ठि यज्ञ संपन्न कराने पर राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन जैसी विभूतियों का जन्म हुआ था।

गुरुदेव ने अपना ही उदाहरण देते हुए कहा ‘‘हमने स्वयं 24 वर्ष तक केवल गाय के दूध के छाछ तथा जौ की रोटी पर निर्वाह कर चौबीस-चौबीस लाख के 24 महापुरश्चरण संपन्न किए। इस साधना से ही हमारे पास इतनी शक्ति आई है। कितने ही लोगों को नया जीवन दिया। कितने ही लोग रोते हुए आते हैं हंसते हुए जाते हैं। किसी को भी खाली हाथ नहीं जाने देते। यह सब साधना का ही तो चमत्कार है। साधना की परिपक्वता ही ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करती है।

आराधना

पूज्यवर ने आगे बताया ‘‘तीसरी धारा है आराधना, यही सरस्वती है। गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम से ही त्रिवेणी बनती है। ऐसे ही उपासना, साधना और आराधना तीनों का संगम आवश्यक है। तभी जीवन सफल होता है। आराधना कहते हैं समाज सेवा को। भगवान कृष्ण ने यशोदा माता को अपना विराट स्वरूप विश्व ब्रह्मांड में दिखाकर यह बोध कराया था कि यह संसार मेरा ही रूप है। भगवान राम ने कौशल्या तथा काकभुसंडि को विराट स्वरूप दिखाया था कि कण-कण में मेरी ही सत्ता समाई हुई है। भगवान की सच्ची पूजा-आराधना इस समाज की सेवा करना ही है। भगवान राम ने भी समाज की सेवा की। असुरों का नाश कर धरा को दुष्टों से मुक्ति दिलाई। रावण, कुंभकरण जैसे राक्षसों को मारा और प्रजा को सुखी बनाने के लिए अभिनव समाज की रचना की। भगवान राम ने तो ऋषि मुनियों की हड्डियों के ढेर देखकर ही संकल्प ले लिया था-‘निसिचर हीन करौं महि।’ पृथ्वी को असुरता से मुक्त कराने के इस संकल्प से ही रामराज्य की स्थापना हुई। उसी रामराज्य के लिए आज हम तरस रहे हैं। भगवान बुद्ध, गांधी, विवेकानंद सभी ने समाज की भरपूर सेवा की। बुद्ध ने भिक्षुओं का, गांधी ने स्वतंत्रता सेनानियों का, राम ने रीछ वानरों का, कृष्ण ने ग्वाल बालों का संगठन बना कर समाज की सेवा की। भगवान बुद्ध ने तो यहां तक कहा था कि हम तब तक मुक्ति नहीं चाहेंगे जब तक कि एक भी प्राणी बिना मुक्ति के इस धरती पर हो। जनता जनार्दन की सेवा, लोकमंगल की कामना ही समाज सेवा है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर को 450 रुपये मासिक वेतन मिलता था। वे केवल पचास रुपये अपने खर्च में लेते थे। शेष चार सौ रुपये परोपकार के कार्यों में लगाते थे। यही सच्ची आराधना है।

द्रौपदी का उदाहरण देते हुए गुरुदेव ने बताया कि एक बार यमुना स्नान को गईं तो वहां देखा कि नदी किनारे एक बाबा बैठे हैं। द्रौपदी ने पूछा ‘‘बाबा क्यों बैठे हो?’ बाबा ने उत्तर दिया ‘बेटी! मेरी लंगोटी पानी में बह गई है।’ द्रौपदी ने तुरंत कहा ‘बाबा आप तो मेरे पिता तुल्य हैं, और यह कहते हुए अपनी साड़ी का एक हिस्सा फाड़कर उन्हें दे दिया। यही सेवा की, त्याग की, दान की भावना थी जो भगवान के खाते में चढ़ गई। जब दुःशासन चीर हरण कर रहा था तो भगवान ने सैकड़ों गुना साड़ी बढ़ा दी थी। यह सब आराधना का ही चमत्कार था।

गुरुदेव ने बगदाद की एक मुस्लिम बुढ़िया का उदाहरण भी सुनाया। वह बुढ़िया हज पर जाने की तैयारी कर चुकी थी। पर उस वर्ष भारी अकाल पड़ा था। उसने सोचा इस वक्त मेरा पहला कर्तव्य भूखों की सेवा करने का है, हज पर तो बाद में भी जा सकती हूं। उसने अकाल पीड़ितों की सहायता को पहला कर्त्तव्य माना और सेवा कार्य में जुट गई। कहा जाता है कि खुदा ने उसी दिन इस बुढ़िया की हज मंजूर कर ली। इस पर फरिश्तों ने एतराज किया कि जिन्होंने मक्का तक की यात्रा की उनकी हज तो मंजूर नहीं की फिर इस बुढ़िया की कैसे कर ली। इस पर खुदा ने कहा ‘‘और लोगों ने तो केवल रास्ता ही नापा है पर बुढ़िया ने मेरी सच्ची सेवा की है। हज के सिद्धांत को उसी ने समझा और किया है।’’

उपासना, साधना और आराधना तीनों को ही भुलाकर हम पक पाए की खाट लेकर खड़े हैं। इससे काम कैसे चलेगा। केवल मंत्र जपने से तभी तो कुछ लाभ नहीं होता। आज समाज में कितनी कुरीतियां हैं। दहेज का दानव किस तरह हावी हो रहा है। सैकड़ों बेटियां मौत के मुंह में जा रही हैं। बाल विवाह के नाम पर कितनी छोटी कन्याओं पर गृहस्थ का बोझ डालकर उनके शारीरिक और मानसिक विकास तथा प्रगति के साथ खिलवाड़ हो रहा है। अशिक्षा, बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति आदि समस्याएं छोटी नहीं हैं। इनसे देश-समाज खोखला हो रहा है। जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद, संप्रदायवाद की समस्याएं हैं। मृतक भोज की परंपरा कितनी घातक है। जो घर शोक के वातावरण में डूबा हो वहां कमर तोड़ महंगाई के इस जमाने में दावतों की यह परंपरा कितनी क्रूर है। नशाखोरी बढ़ रही है। समाज में पश्चिमी सभ्यता के धब्बे लग रहे हैं। हमारी संस्कृति रूपी सीता का हरण हो गया है।

आज के समय में आराधना के लिए इन सब समस्याओं के निराकरण के लिए युग की पुकार सुनकर आगे आना होगा। अपनी क्षमता, साधना, समय व प्रतिभा को नियोजित करना होगा। तभी सच्ची सेवा होगी। त्रिपदा गायत्री की यही भक्ति है। यदि इतना कर लिया तो समझो कि अध्यात्म की सही परिभाषा जान ली।

आस्था संकट

साधना की इतनी सरल एवं सटीक व्याख्या को समझाकर हमने अपने जीवन में इसका समावेश करने का संकल्प लिया। परंतु मन तो चंचल भी होता है और तर्कशील भी। उसकी जिज्ञासा पूर्णतः शांत कहां हो पाई थी। अंततः एक दिन समय पाकर हमने पूछ ही लिया ‘‘गुरुदेव! आजकल लोग अनेक देवी देवताओं की पूजा किया करते हैं। हमें किसी उपासना करनी चाहिए और क्यों? कृपया समझावें।’’

पूज्यवर ने हंसते हुए कहा, ‘‘बेटा! यह तो हम तुम्हें कई बार समझा चुके हैं। ईश्वर तो सबका एक ही है। हिंदू ही क्यों। मुसलमान, ईसाई, पारसी, संसार का कोई भी धर्म, मत-मतांतर मानने वाला उसे चाहे जिस नाम से पुकारे। ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति, ईश्वर तो एक ही है लोग उसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। उस परमेश्वर की उपासना मनीषियों द्वारा परिस्थिति के आधार पर समयानुसार प्रचलित की गई है। अवतार भी इसी के अनुरूप समयानुसार जन्म लेते रहे हैं। बेटा इस समय तो सबसे बड़ा संकट ‘आस्था संकट’ है। आदर्शवादिता समाप्त होती जा रही है। यदि चिंतन, चरित्र, व्यवहार से व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाए तो वह पशु स्तर से भी निम्न कोटि का होता जा रहा है। मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना ही इस समय की महती आवश्यकता है।

इस समय धन की कमी है नहीं, भुखमरी है नहीं, बुद्धि की कमी भी नहीं है। कमी है तो केवल सद्बुद्धि की। इसी से चारों और त्राहि-त्राहि मची है। इसी कारण आज की परिस्थिति के अनुरूप ‘महाप्रज्ञा’ का अवतार दूरदर्शिता, विवेकशीलता के रूप में हुआ है। उपासना में इसी का समावेश करना चाहिए।

इसी महाप्रज्ञा गायत्री का तप करके ब्रह्माजी ने सृष्टि रचना जैसा कठिन कार्य संपन्न किया था। अब इसका अवतरण सद्बुद्धि के रूप में हो रहा है। रावण रूपी असुरत्व को समाप्त करने के लिए ऋषियों ने अपना रक्त संचित कर एक घड़े में रखकर खेत में गाड़ दिया था। वही घड़ा जनक जी को खेत में हल चलाते समय प्राप्त हुआ था। जब राक्षसों का उत्पात इतना बढ़ गया कि वे ऋषि-मुनियों तक को समाप्त कर देना चाहते थे, तब सभी देवता प्रजापति ब्रह्माजी के पास गए और आराधना करने लगे कि कोई उपाय बताइए जिससे असुरों को समाप्त किया जा सके। ब्रह्माजी ने कहा कि सभी देवता अपनी शक्ति एकत्रित करें। इससे जो महाशक्ति का अवतरण होगा वही दैत्यों का विनाश करेगी। यह तो सर्वविदित है कि इसी महान सहकार से शक्ति स्वरूपा दुर्गा का अवतरण हुआ था और उसी ने असुरों का नाश किया था।

आज का संकट, आज की समस्याएं अलग प्रकार की हैं। सींग-पूंछ के राक्षस तो कहीं नहीं हैं। (पहले भी नहीं थे, ये तो केवल उनके आसुरी, पशु-तुल्य गुणों की अभिव्यक्ति करने के निमित्त दर्शाये जाते थे) परंतु राक्षसी वृत्तियां लोगों के मन में गहरी जड़ें जमाए हैं। इन वृत्तियों को भस्मसात तभी किया जा सकेगा जब अंतःकरण में सद्बुद्धि का प्रवेश हो। यही आज का ‘आस्था संकट’ है। इसकी निवृत्ति के लिए हमने अनेकानेक उपाय सुझाए हैं। अपनी रचनाओं पुस्तकों द्वारा हम सदा इस दिशा में जन साधारण का मार्गदर्शन करते आए हैं। एक बार तुम इन्हें पुनः पढ़ जाओ। एक बात तुम्हें बताए देता हूं कि साधारण कार्यक्रम में हमने ‘प्रज्ञायोग’ साधना पर ही बल दिया है। यही सर्वसुलभ, सर्वोपयोगी तथा अनेक प्रतिफल प्रस्तुत करने वाली साधना है। इसमें ज्ञान, कर्म, भक्ति तीनों का ही समावेश है।

समय का अकाल

‘‘गुरुदेव! आजकल प्रत्येक व्यक्ति अनेकानेक कार्यों में व्यस्त रहता है, समस्याओं में उलझा हुआ है। जीवन एक प्रकार से भागमभाग में, मारामारी में बीतता है। ऐसे में हर व्यक्ति के पास समय का अकाल है, कुछ करने को समय ही नहीं मिलता। पूज्यवर! आप कृपया यह समझाएं कि प्रति दिन कम से कम समय में किस प्रकार से पूजा-पाठ का कार्य जन साधारण को करना चाहिए?’’

सुनकर गुरुदेव ठठाकर हंस पड़े और देर तक उनकी खिलखिलाहट के स्वर गूंजते रहे। फिर मानों स्वयं से ही कह रहे हों ‘‘समय का अकाल है, समय नहीं है, समय, समय तो वही चौबीस घंटे का प्रति दिन हर एक को मिलता है। फिर समय की कमी किसे है। अरे कमी है तो वह आस्था की है। हमारी आस्था सही स्थान पर नहीं है। इसी से हम समय का रोना रोते हैं। आस्था जब सिनेमा में लगती है तो उसके लिए तीन घंटे का समय निकल आता है। घर-घर में आज ही टी.वी. के प्रति आस्था जाग रही है तो हरेक के पास उसके लिए समय है। गप्पे मारने के लिए समय है, चाट-पकौड़ी के लिए समय है। आवारागर्दी के लिए समय है, गुंडागर्दी के लिए समय है। परनिंदा के लिए समय है एक दूसरे की टांग खींचने, नीचा दिखाने के लिए समय है। हां समय नहीं तो व्यक्ति निर्माण के लिए और समाज व राष्ट्र निर्माण के लिए तो बिल्कुल भी नहीं है। अरे समय का रोना क्यों रोते हो। समय तो बहुत है बस आस्था नहीं है। यदि आस्था सही दिशा में हो तो समय तो अपने आप मिल जाएगा। इसे समझो, फिर भी क्या करना चाहिए हम पुनः बता रहे हैं।
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