जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

उच्च मानसिकता के चार सूूत्र

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व्यवहार की धर्मधारणा और सेवा- साधना उपर्युक्त सद्गुणों को जीवन में उतारने भर से बन पड़ती है। इसके अतिरिक्त दूसरा क्षेत्र मानसिकता का रह जाता है। उसमें चरित्र और भावनात्मक विशेषताओं का समावेश किया जा सके, तो समझना चाहिए कि लोक- परलोक दोनों को ही समुन्नत स्तर का बना लिया गया। चार वेद, चार धर्म, चार कर्म, चार दिव्य वरदान जिन्हें कहा जा सकता है, उन चार मानसिक विशेषताओं को- (१) समझदारी, (२) ईमानदारी, (३) जिम्मेदारी, (४) बहादुरी के नाम से समझा जा सकता है।

    समझदारी का अर्थ है, तात्कालिक आकर्षण पर संयम बरतना, अंकुश लगाना और दूरगामी, चिरस्थाई, परिणतियों, प्रतिक्रियाओं का स्वरूप समझना, तदनुरूप निर्णय करना, उपक्रम अपनाना। चटोरेपन की ललक में लोग अभक्ष्य- भक्षण करते और कामुकता के उन्माद में शरीर और मस्तिष्क को खोखला करते रहते हैं। ऐसे ही दुष्परिणाम अन्य अदूरदर्शिताएँ उत्पन्न करते हैं। उन्हीं की प्रेरणा से लोग, अनाचार पर उतरते, कुकर्म करते और प्रताड़ना सहते है। अदूरदर्शिता के कारण ही लोग मछली की तरह सामान्य से प्रलोभनों के लोभ में बहुमूल्य जीवन गँवा देते हैं। समझदारी यदि साथ देने लगे, तो इंद्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम अपनाते हुए उन छिद्रों को सरलतापूर्वक रोका जा सकता है, जो जीवन सम्पदा को अस्त- व्यस्त करके रख देते हैं।

    ईमानदारी बरतना सरल है, जबकि बेईमानी बरतने में अनेक प्रपञ्च रचने और छल- छद्म अपनाने पड़ते हैं। स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि ईमानदारी के सहारे ही कोई व्यक्ति प्रामाणिक और विश्वासी बन सकता है। उन्हीं को जन- जन का सहयोग एवं सम्मान पाने का अवसर मिलता है।

    उत्कर्ष अभ्युदय के लिए इतना अवलम्बन बहुत है, आगे की गतिशीलता तो अनायास ही चल पड़ती है। बेईमान वे हैं, जिन्होंने अपना विश्वास गँवाया और जिनकी मित्रता मिलती रह सकती थी, उन्हें अन्यमनस्क एवं विरोधी बनाया। बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार नौकर रखना चाहता है। इससे प्रकट है कि ईमानदारी की सामर्थ्य कितनी बढ़ी- चढ़ी है। जिनकी प्रतिष्ठा एवं गरिमा अन्त तक अक्षुण्ण बनी रहती है, उनमें से प्रत्येक को ईमानदारी की रीति- नीति ही सच्चे मन से अपनानी पड़ी है। झूठों की बेईमानी तो काठ की हाँडी की तरह एक बार ही चढ़ती है।

    तीसरा भाव पक्ष है- जिम्मेदारी। हर व्यक्ति शरीर रक्षा, परिवार व्यवस्था, समाज निष्ठा, अनुशासन का परिपालन जैसे कर्तव्यों से बँधा हुआ है। जिम्मेदारियों को निबाहने पर ही मनुष्य का शौर्य निखरता है, विश्वास बनता है। विश्वसनीयता के आधार पर ही वह व्यवस्था बनने लगती है, जिसके अनुसार उन्हें अधिक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौंपी जाएँ, प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचने का सुयोग खिंचता चला आए, लोग उन्हें आग्रहपूर्वक बुलाएँ और सिर माथे पर चढ़ाएँ। व्यक्तित्व जिम्मेदार लोगों का ही निखरता है। बड़े पराक्रम करते उन्हीं से बन पड़ता है।

    चौथी आध्यात्मिक सम्पदा है- बहादुरी हिम्मत भरी साहसिकता, निर्भीक पुरुषार्थ- परायणता जोखिम उठाते हुए भी उस मार्ग पर चल पड़ना जो नीति- निष्ठा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। बुराइयाँ संघर्ष के बिना जलती नहीं और संघर्ष के लिए साहस अपनाना अनिवार्य होता है। कायर, कृपण, डरपोक, दीन- हीन अक्सर इसीलिए अपने ऊपर आक्रमण और शोषण करने वालों को चढ़ दौड़ने के लिए न्यौत बुलाते हैं कि उनमें अनीति के आगे सिर न झुकाने की हिम्मत नहीं होती। दबने, बच निकलने और जैसे- तैसे मुसीबत टालने की वृत्ति जिनने अपनाई हुई होती है, वे किसी के द्वारा भी, कहीं भी, पीसे और दबोचे जाते हैं। ऐसे ही लोग हैं, जो दुष्टता के सामने भी सिर झुकाते और नाक रगड़ते देखे गये हैं। इतने पर भी उन्हें सुरक्षा मिल नहीं पाती। सभी जानते हैं कि बहादुर की अपेक्षा कायरों पर आततायियों के आक्रमण हजार गुने अधिक होते हैं। कठिनाइयों से पार पाने और प्रगति- पथ पर आगे बढ़ने के लिए साहस ही एक मात्र ऐसा साथी है, जिसको साथ लेकर मनुष्य एकाकी भी दुर्गम दीखने वाले पथ पर चल पड़ने एवं लक्ष्य तक जा पहुँचने में समर्थ हो सकता है।

    पंचशील और चार वर्चस्, इस प्रकार यह नौ की संख्या युग धर्म के अनुरूप बैठती है। सौर मण्डल के ग्रह नौ हैं। नवरत्न और ऋद्धि- सिद्धियाँ भी नौ की संख्या में ही प्रख्यात हैं। इन नौ गुणों में से, जो जितनों को जिस अनुपात में अपना सके, वे उतने ही बड़े ईश्वर भक्त और धर्मात्मा कहलाए। इन्हें यदि योगाभ्यास और तप- साधना कहा जाये, तो भी कुछ अत्युक्ति न होगी।

    धर्म और कर्म में उतारी- अपनाई गई उत्कृष्टता -आदर्शवादिता ही प्रकारान्तर से स्वर्ग जैसा उल्लास भरा मानस और जीवन मुक्ति जैसी तृप्ति, तुष्टि एवं शान्ति प्रदान कर सकने में हाथों- हाथ समर्थ होती है। उनके लिए देर तक किसी को भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। किंवदन्तियों के अनुसार मरने के उपरान्त ही स्वर्ग, मुक्ति जैसी उपलब्धियों को प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु यदि कल्पनाओं की उड़ान से नीचे उतर कर व्यावहारिक धर्म- कर्म में नौ सूत्रीय उत्कृष्टता का समावेश किया जाये, तो जीवित रहते हुए भी स्वर्गीय अनुभूतियों और मुक्ति स्तर की विभूतियों का हर घड़ी रसास्वादन करते रहा जा सकता है। इतना ही नहीं, इन दो के अतिरिक्त एक और तीसरा लाभ भी प्राप्त किया जा सकता है। सिद्धियों के चमत्कार भी हस्तगत हो जाते हैं। सफलताएँ खिंचती हुई चली आती हैं और मनस्वी के पैरों तले लोटने लगती हैं।
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