जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

सुधरें-सँभलें तो काम चले प्रकृति अलमस्त बच्चे की तरह निरन्तर अपने खेल- खिलवाड़ में लगी रहती है। पंचतत्त्वों के रेत- बालू को बटोरना, सँजोना, बढ़ाना- घटाना बिगाड़ना बस यही उसके क्रिया- कलाप का केन्द्र बिन्दु है। बाजीगर का तमाशा देखने में अपनी सुध- बुध खो बैठने वाले मनचले दर्शकों की तरह लोग उस कौतुक- कौतूहल को देखने के लिए एकत्रित हो जाते हैं। हाथ की सफाई का कमाल उन्हें ऐसा सुहाता है कि कहाँ जाना था, क्या करना था, जैसे तथ्यों को भूल बैठते और बेतुकी कल्पनाओं में उड़ने- तैरने लगते हैं। इन प्रपंच- कौतुकों में मन भी सहायता देता है, रोने- हँसने तक लगता है। यही है प्रकृति का प्रपंच, जिसमें आम आदमी बेतरह उलझा, उद्विग्न, खिन्न, विपन्न होते देखा जाता है। कभी- कभी तो इसे सिनेमा के पर्दे से प्रभावित होकर चित्र- विचित्र अनुभूतियों में तन्मय होते तक देखा जाता है। यद्यपि यह पूरा कमाल कैमरों का, प्रोजेक्टर का, ऐक्टर- डायरेक्टर का रचा हुआ जाल- जंजाल भर होता है, पर दर्शक तो दर्शक जो ठहरे, उन्हें पर्दे में रेंगती छाया भी वास्तविक दीखती है और इतने भर से आँसू बहाते, मुस्कराते, आक्रोश व्यक्त करते और आवेश में आते तक देखे गये हैं।

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