इस प्रकार के हानिकारक आवेशों से मुक्त रहकर यदि मनोवृत्तियों का उपयोग किया जाय तो वे हानि पहुंचाने के बजाय हितकारी ही सिद्ध होंगी। सर्वथा संसार-त्यागियों की तो बात छोड़ दीजिये, पर अधिकांश मनुष्यों को, जो संसार में रहते हैं और जिनको भली-बुरी सभी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, सभी मनोवृत्तियों से काम लेना आवश्यक होता है। इसलिये हमारा कर्त्तव्य यही है कि अपनी मनोवृत्तियों और इन्द्रियों को ऐसी ही सधी हुई अवस्था में रखें।
मनुष्य को जो मनोवृत्तियां जन्म से ही दी गई हैं, वे सब उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। यदि उनको ठीक प्रकार से प्रयोग में लाया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति अत्यन्त सुख शान्ति पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है। हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश लोग उनका सदुपयोग करना नहीं जानते और उन्हें बुरे मार्ग से खर्च करके अपने लिए तथा दूसरों के लिए दुखों की सृष्टि करते हैं।
हम देखते हैं कि कई मनोवृत्तियों की संसार में बड़ी निन्दा होती है। कहा जाता है कि यह बातें पाप और दुख की जड़ है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि को जी भर कोसा जाता है और कहा जाता है कि इन्हीं के कारण संसार में अनर्थ हो रहे हैं। इस प्रकार के कथन किस हद तक सही हैं इसका विचारवान पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं।
यदि काम बुरी वस्तु है, त्याज्य है, पाप मूलक है तो उसका उपयोग न तो सत्पुरुषों को ग्राह्य हो सकता था और न बुरी बात का अच्छा परिणाम निकल सकता था। परन्तु इतिहास दूसरी ही बात सिद्ध करता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश विवाहित जीवन व्यतीत करते हैं, व्यास, अत्रि, गौतम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवलक्य, भारद्वाज, च्यवन, आदि प्रायः सभी प्रधान ऋषि सपत्नीक रहते थे और संतानोत्पादन करते थे। दुनिया में असंख्य पैगम्बर, ऋषि, अवतार, महात्मा, तपस्वी, विद्वान, महापुरुष हुए हैं, यह सब किसी न किसी माता पिता के संयोग से ही उत्पन्न हुए थे। यदि काम सेवन बुरी बात है तो उसके द्वारा उत्पन्न हुए बालक भी बुरे ही होने चाहिए। बुरे से अच्छे की सृष्टि कैसे हो सकती है? कालोच से सफेदी कैसे निकल सकती है? इन बातों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि ‘काम’ स्वयं कोई बुरी वस्तु नहीं है। परमात्मा ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मनुष्य’ में कोई बुरी बात नहीं रखी, काम भी बुरी वस्तु नहीं है, बुरा केवल काम का दुरुपयोग है। दुरुपयोग करने से तो अमृत भी विष बन सकता है। पेट की सामर्थ्य से बाहर अमृत पीने वाले को भी दुख ही भोगना पड़ेगा।
क्रोध के ऊपर विचार कीजिये। क्रोध एक प्रकार की उत्तेजना है जो आक्रमण करने से पूर्व, छलांग मारने से पूर्व आनी अत्यन्त आवश्यक है। लम्बी छलांग कूदने वाले को पहले कुछ दूर से दौड़ कर आना होता है, तब वह लम्बा कूद सकता है। यदि यों ही शांत खड़ा हुआ व्यक्ति अचानक छलांग मारना चाहे तो उसे बहुत कम सफलता मिलेगी। अपने भीतर घुसी हुई तथा फैली हुई बुराइयों से लड़ने के लिए एक विशेष उत्साह की आवश्यकता होती है और वह उत्साह क्रोध द्वारा आता है। यदि क्रोध तत्व मानव वृत्ति में से हटा दिया जाय तो बुराइयों का प्रतिकार नहीं हो सकता। रावण, कंस, दुर्योधन, हिरण्यकश्यप, महिषासुर जैसों के प्रति यदि क्रोध की भावनाएं न उत्पन्न होतीं तो उनका विनाश कैसे होता? भारत में यदि अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक क्रोध न उभरता तो भारत माता आज स्वाधीन कैसे हुई होती? अत्याचारों के विरुद्ध क्रोध न आता तो परशुराम कैसे अपना फरसा संभालते? महारानी लक्ष्मी बाई, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, जैसे आदर्श नर रत्नों की सृष्टि कैसे होती? अधर्म की बढ़ोतरी से कुपित होकर ही भगवान पापों का संहार करते हैं। इससे प्रगट है कि क्रोध बुरा नहीं है। क्रोध का अनुपयुक्त स्थान पर दुरुपयोग होना ही बुरा है।
लोभ को लीजिये। उन्नति की इच्छा का नाम ही लोभ है। स्वास्थ्य, विद्या, धन, प्रतिष्ठा, पुण्य, स्वर्ग, मुक्ति, आदि का लोभ ही मनुष्य को क्रियाशील बनाता है। यदि लोभ न हो तो न किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न न होगी और इच्छा के अभाव में उन्नति के लिये प्रयास करना भी न हो सकेगा। फल स्वरूप मनुष्य भी कीट-पतंगों की तरह भूख और निद्रा को पूर्ण करते हुए जीवन समाप्त करले। लाभ उन्नति का मूल है। पहलवान, विद्यार्थी, व्यापारी किसान, मजदूर, लोकसेवी, पुण्यात्मा, ब्रह्मचारी, तपस्वी, दानी, सत्संगी, योगी सभी अपने दृष्टिकोण के अनुसार लोभी हैं। जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता है, जो जिस वस्तु का संचय करने में लगा हुआ है उसे उस विषय का लोभी कहा जा सकता है। अन्य लोभों की भांति धन का लोभ भी बुरा नहीं है। यदि बुरा है तो भामाशाह का, जमना लाल बजाज का धन संचय भी बुरा कहा जाना चाहिए, परन्तु हम देखते हैं कि इनके धन संचय द्वारा संसार का बड़ा उपकार हुआ। और भी अनेकों ऐसे उदार पुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने धन को सत्कार्य में लगाकर अपनी कमाई को सार्थक बनाया। ऐसे लोभ में और निर्लोभता में कोई अन्तर नहीं है। निन्दा तो उस लोभ की, की जाती है जिसके कारण अनीति पूर्वक अनुचित धन संचय करके उसको कुवासनाओं की पूर्ति में व्यय किया जाता है, जोड़ जोड़ कर अनुपयुक्त अधिकारी के लिए छोड़ जाता है। लोभ का दुरुपयोग ही बुरा है वस्तुतः लोभ वृत्ति की मूलभूत रूप में निन्दा नहीं की जा सकती।
मोह का प्रकरण भी ऐसा ही है। यदि प्राणी निर्मोही हो जाय तो माताएं अपने बच्चे को कूड़े करकट के ढेर में फेंक आया करें, क्योंकि इन बालकों से उनको लाभ तो कुछ नहीं, उलटी हैरानी ही होती है। फिर मनुष्य तो यह भी सोचले कि बड़ी होने पर हमारी सन्तान हमें कुछ लाभ देगी, पर बेचारे पशु पक्षी तो यह भी नहीं सोचते, उनकी सन्तान तो बड़े होने पर उन्हें पहचानती तक नहीं, फिर सेवा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। रक्षा की सभी क्रियाएं मोह के कारण होती हैं। शरीर का मोह, यश का मोह, प्रतिष्ठा का मोह, कर्तव्य का मोह, स्वर्ग का मोह, साधन सामग्री का मोह, यदि न हो तो निर्माण और उत्पादन न हो और रक्षा की व्यवस्था भी न की जा सके। ममता का भाव न रहे तो ‘‘मेरा कर्तव्य’’ भी न सोचा जा सकेगा ‘‘मेरी मुक्ति-मेरा कल्याण’’ भी कौन सोच सकेगा? अपनी संस्कृति, अपनी देश भक्ति को भी लोग भुला देंगे। एक दूसरे के प्रति प्रेम का बंधन कायम न रह सकेगा और सब लोग आपस में उदासीन की तरह रहा करेंगे। क्या ऐसा नीरस जीवन जीना कोई मनुष्य पसंद कर सकता है? कदापि नहीं। मोह एक पवित्र शृंखला है जो व्यष्टि का समष्टि के साथ, व्यक्ति को समाज के साथ, मजबूती से बांधे हुए हैं। यदि यह कड़ी टूट जाय तो विश्व मानव की सुरम्य माला के सभी मोती इधर-उधर बिखर कर नष्ट हो जायेंगे। मोह का अज्ञान जनित रूप ही त्याज्य है उसके दुरुपयोग की ही भर्त्सना की जाती है।
इसी प्रकार मद मत्सर अहंकार आदि निंदित वृत्तियों के बारे में समझना चाहिए। परमात्मा के प्रेम में झूम जाना सात्विक मद है, क्षमता करना, भूल जाना, अनावश्यक बातों की ओर से उपेक्षा करना एक प्रकार का मत्सर है। आत्म ज्ञान को, आत्मानुभूति को, आत्म गौरव को अहंकार कहा जा सकता है। इस रूप में यह वृत्तियां निन्दित नहीं है। इनकी निन्दा तब की जाती है जब यह संकीर्णता पूर्वक, तुच्छ स्वार्थों के लिए, स्थूल रूप में प्रयुक्त होती हैं।
मानव प्राणी, प्रभु की अद्भुत कृति है, इसमें विशेषता ही विशेषता भरी हैं, निन्दनीय एक भी वस्तु नहीं है। इन्द्रियां अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग हैं उनकी सहायता से हमारी आनन्द में वृद्धि होती है तथा उन्नति में सहायता मिलती है, पुण्य परमार्थ का लाभ होता है। पर यदि इन इन्द्रियों को उचित रीति से प्रयुक्त न करके उनकी सारी शक्ति अत्यधिक, अमर्यादित भोग भोगने में खर्च कर डाली जाय तो इससे नाश ही होगा, विपत्तियों की उत्पत्ति ही होगी। इसी प्रकार काम क्रोध, मोह आदि की मनोवृत्तियां, परमात्मा ने आत्मोन्नति तथा जीवन की सुव्यवस्था के लिये बनाई हैं इनके सदुपयोग से हम विकास पथ पर अग्रसर होते हैं। इनका त्याग पूर्ण रूप से नहीं हो सकता। जो इनको नष्ट करने या पूर्णतया त्याग करने की सोचते हैं, वे ऐसा ही सोचते हैं जैसे कि आंख, कान, हाथ, पांव, आदि काट देने से पाप न होंगे या सिर काट देने से बुरी बातें न सोची जायेंगी। ऐसे प्रयत्नों को बालबुद्धि का उपहासास्पद कृत्य ही कहा जा सकेगा। प्रभु ने जो शारीरिक और मानसिक साधन हमें दिए हैं वे उसके श्रेष्ठ वरदान हैं, उनके द्वारा हमारा कल्याण ही होता है। विपत्ति का कारण तो हमारा दुरुपयोग है। हमें चाहिये कि अपने प्रत्येक शारीरिक और मानसिक औजार के ऊपर अपना पूर्ण नियंत्रण रखें, उनसे उचित काम लें, उनका सदुपयोग करें। ऐसा करने से जिन्हें आज निंदित कहा जाता है, शत्रु समझा जाता है, कल वे ही हमारे मित्र बन जाते हैं। स्मरण रखिये प्रभु ने हमें श्रेष्ठ तत्वों से बनाया है, यदि उनका दुरुपयोग न किया जाय तो जो कुछ हमें मिला हुआ है हमारे लिये सब प्रकार श्रेयस्कर ही है। रसायन शास्त्री जब विष का शोधन मारण करके उससे अमृतोपम औषधि बना लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि विवेक द्वारा वह अमूल्य वृत्तियां जो आमतौर से निंदित समझी जाती हैं, सत्परिणाम उत्पन्न होने वाली न बन जायं।
इन्द्रिय-संयम और अस्वाद व्रत
अस्वाद का अर्थ है स्वाद का गुलाम न होना। अस्वाद का यह अर्थ नहीं है कि हम संसार के भोग्य पदार्थों का सेवन न करें, या षट रसों का पान न करें या जिह्वा की रस-ज्ञान की शक्ति को खो दें। अस्वाद व्रत ऐसा नहीं कहता। वह तो कहता है कि शरीर के पोषण, स्वास्थ्य तथा रक्षा के लिए जिन-जिन पदार्थों की आवश्यकता हो उनका अवश्य सेवन करो परन्तु केवल जीभ के चोचले पूरा करने के लिये किसी वस्तु का सेवन न करो। दूसरे, स्पष्ट शब्दों में जिह्वा के गुलाम न बनो। उसके ऊपर सदैव अपना स्वामित्व कायम रखो। ऐसे रहो कि वह तुम्हारे आदेश पर चले। ऐसा न हो कि तुम ही इसके संकेत पर नाचने लगो ! विनोबा जी के सुन्दर शब्दों में जीभ की स्थिति चम्मच जैसी हो जानी चाहिए। ‘‘
चम्मच से चाहे हलुआ परोसो, चाहे दाल-भात, उसे उसका कोई सुख दुख नहीं।’’हनुमान जी के भक्तों ने बहुत बार कथा सुनी होगी कि एक दफा विभीषण भगवान राम के पास आये और कहने लगे कि ‘‘प्रभु! लौकिक तथा पारलौकिक सफलता का साधन क्या है?’’ भगवान ने कहा कि यह तो बड़ा सरल प्रश्न है, इसको तो तुमको हनुमान जी से ही पूछ लेना चाहिये था’’ और यह कहकर उन्हें हनुमान जी के पास भेज दिया। विभीषण ने जब हनुमान जी के पास जाकर पूछा तो उन्होंने कोई उत्तर तो नहीं दिया पर अपने हाथ से अपनी जीभ को पकड़ कर बैठ गए। विभीषण के कई बार कहने पर भी जब हनुमान कुछ न बोले तो विभीषण नाराज होकर भगवान के पास फिर वापिस गये और बोले कि ‘‘भगवान आपने मुझे कहां भेज दिया?’’ भगवान ने कहा कि ‘‘क्या हनुमान जी ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया?’’ विभीषण बोले कि प्रभु! वह क्या उत्तर देंगे। मैंने उनसे कई बार पूछा पर उन्होंने कोई उत्तर तो दिया नहीं बल्कि अपने हाथ से अपनी जीभ को पकड़कर बैठ गये।’’ भगवान बोले ‘‘विभीषण, हनुमान जी ने सब कुछ तो बतला दिया और क्या कहते? तुम्हारे प्रश्न का केवल यही उत्तर है कि अपनी जीभ को अपने वश में रखो। यही लौकिक और पारलौकिक सफलता का सबसे सुन्दर साधन है।
श्री महादेव गोविंद रानाडे के जीवन की एक घटना इस अस्वाद व्रत के सही रूप को समझने में हमें बड़ी मदद देगी। कहते हैं कि एक दिन किसी मित्र ने यहां कुछ बहुत सुन्दर आम भेंट में भेजे। उनकी चतुर पत्नी ने उनमें से एक आम को धोकर, ठण्डा करके, बनाकर एक तश्तरी में उनके सामने रखा। रानाडे ने उसमें से एक दो टुकड़े खाकर आम की प्रशंसा करते हुए वह तश्तरी अपनी पत्नी को वापिस कर दी और कहा कि यह अब तुम खाना और बच्चों को देना। पत्नी ने उत्तर दिया कि उसके और बच्चों के लिये तो और आम हैं तो रानाडे बोले कि फिर नौकरों को दे देना। पत्नी बोली कि नौकरों के लिए भी और आम हैं, आप सब खा लीजिए। जब इस पर भी रानाडे आम खाने करे तैयार न हुए तो पत्नी ने कहा कि क्या आम अच्छे नहीं हैं? रानाडे बोले कि आम तो इतने मीठे और स्वादिष्ट हैं कि मैंने अपने जीवन में इससे पहले इतने स्वादिष्ट आम कभी खाये नहीं। फिर पत्नी ने पूछा ‘‘आपका स्वास्थ्य तो ठीक है? रानाडे बोले मेरा स्वास्थ्य आज इतना सुन्दर है कि कभी रहा नहीं। तब पत्नी ने कहा कि आप भी अजब बात कर रहे हैं, आम को भी स्वादिष्ट बताते हैं स्वास्थ्य को भी सुन्दर बताते हैं और फिर भी कहते है कि अब और न खाऊंगा। रानाडे हंसे और बोले कि आम बहुत सुन्दर और स्वादिष्ट है इसीलिए अब और न खाऊंगा। ऐसा मैं क्यों कर रहा हूं उसका कारण सुनो। बात यह है कि बचपन में जब मैं बम्बई में पढ़ता था, तब मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले एक धनी घराने की सदस्य रह चुकी थी। परन्तु भाग्य के फेर से अब उसके पास वह धन नहीं था, पर इतनी आय थी कि वह और उसका लड़का दोनों भली प्रकार भोजन कर सकें और अपना निर्वाह कर सकें। वह महिला बड़ी दुखी रहती और प्रायः रोया करती थी। एक दिन मैंने जाकर जब उससे उसके दुख का कारण पूछा तो उसने अपना पहिला वैभव बतलाते हुए कहा कि मेरे दुख का कारण मेरी जीभ का चटोरपन है, बहुत समझाती हूं फिर भी दुखी रहती हूं। जिस जमाने में मैं स्वादिष्ट पदार्थ खाती थी प्रायः रोगी रहा करती थी औषधियों की दासी बनी हुई थी। अब जब से वह पदार्थ नहीं मिलते बिल्कुल स्वस्थ रहती हूं किसी भी औषधि की शरण नहीं लेनी पड़ती। मनको बहुत समझाती हूं कि अब नाना प्रकार के साग, अचार, मुरब्बे, सोंठ, चटनी, रायते मिठाइयों और पकवानों के दिन गये। अब उनका स्मरण करने से कोई फायदा नहीं फिर भी जीभ मानती नहीं है। मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है और आनन्दित रहता है क्योंकि उसने वह दिन देखे नहीं। वह जिह्वा का गुलाम नहीं हुआ है परन्तु मेरा दो तीन साग बनाये बिना पेट ही नहीं भरता। रानाडे ने कहा जब से मैंने उस महिला की यह बात सुनी और उसकी वह दशा देखी तभी से मैंने यह नियम बना लिया कि जीभ जिस पदार्थ को पसन्द करे उसे बहुत थोड़ा खाना। जीभ के वश में न होना। क्योंकि यह आम जीभ को बहुत अच्छा लगा इसीलिये मैं अब और नहीं खाऊंगा।
किसी वस्तु के खाने से पहिले अपने आपसे प्रश्न कीजिये कि इस समय उस वस्तु का खाना आपके लिए आवश्यक है या नहीं, अथवा उस वस्तु के खाये बिना आप रह सकते हैं या नहीं। यदि उत्तर मिले कि नहीं रह सकते, तो उस वस्तु को अवश्य खाइये अन्यथा नहीं।
इस साधन को अपनाने में आपको शारीरिक, आर्थिक या सामाजिक किसी प्रकार की भी हानि नहीं होगी। इसके विपरीत इन तीनों दिशाओं में भी आपको लाभ ही लाभ होगा। ‘‘भोग और स्वाद का आनन्द तो पशु भी लेते है’’ और आपको भी इनके आनन्द लेते न जाने कितना समय बीत गया। अब त्याग और अस्वाद का आनन्द भी देख लीजिये।
यदि किसी समय आपको इस कल्याण मार्ग को अपनाने की प्रेरणा मिले तो आप सबसे प्रथम भोजन में से खोआ, मैदा, बेसन से बनी हुई चीज का त्याग कर दीजिए। यदि आपको परमार्थिक या धार्मिक जीवन की ओर रुचि न भी हो तब भी इस साधन को अपनाने में आपके स्वास्थ्य को बड़ा लाभ पहुंचेगा। पढ़े लिखे व्यक्तियों में आजकल जितने रोग हैं उन सबके पीछे उपरोक्त वस्तुओं की भोजन में प्रधानता होना ही मुख्य कारण है।
अस्वाद व्रत द्वारा यदि आपने प्रयास किया और निरंतर अभ्यास करते रहे तो आप अवश्य बुद्धि योग के द्वारा ज्ञान, भक्ति या कर्म किसी से भी योग करके सच्चा सुख और शांति प्राप्त करते हुए अपने वास्तविक, सत्यं, शिवं, सुन्दरम् स्वरूप को प्राप्त हो जायेंगे।