यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है । इसे द्विजत्वका प्रतीक
माना गया है । द्विजत्व का अर्थ है- मनुष्यता के उत्तरदायित्वको स्वीकार
करना । जो लोग मनुष्यता की जिम्मेदारियों को उठाने के लिये तैयार नहीं,
पाशविक वृत्तियों में इतने जकड़े हुए हैं कि महान्मानवता का भार वहन नहीं कर
सकते, उनको अनुपवीत शब्द से शास्त्रकारों ने तिरस्कृत किया है और उनके
लिए आदेश किया है कि वे आत्मोन्नति करने वाली मण्डली से अपने को
पृथक-बहिष्कृत समझें । ऐसे लोगों को वेद पाठ, यज्ञ तप आदि सत्साधनाओं का भी
अनधिकारी ठहराया गया है, क्योंकि जिसका आधार ही मजबूत नहीं, वह स्वयं
खड़ानहीं रह सकता, जब स्वयं खड़ा नहीं हो सकता, तो इन धार्मिक कृत्यों का भार
वहन किस प्रकार कर सकेगा ? भारतीय धर्म-शास्त्रों की दृष्टि से का यह
आवश्यक कर्तव्य है कि वह अनेक योनियों में भ्रमण के कारण संचित हुए पाशविक
संस्कारों का परिमार्जन करके मनुष्योचित संस्कारों को धारण करे । इस धारणा
को ही उन्होंने द्विजत्व के नाम से घोषित किया है । कोई व्यक्ति जन्म से
द्विज नहीं होता, माता के गर्भ से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं । शुभ
संस्कारों को धारण करने से वे द्विज बनते हैं । महर्षि अत्रि का