(लेखक—महावीर प्रसाद विद्यार्थी, साहित्य-रत्न)
(1)
सफल साधना होगी साधक! बढ़े चलो पथ पर अविचल।
विश्व बने परिवार तुम्हारा, ऐसा प्रेम-प्रसार करो,
ठुकराते हो व्याकुल होकर, क्यों जीवन की हारों को,
विजय-वैजयन्ती हैं ये ही, मानव इनको प्यार करो,
इन उत्ताल तरंगों को, इन तूफानों को चीर चलो,
पार करो भवसागर को, भुजदण्डों को पतवार करो,
पंकमयी जीवन सरिता में हो नव जीवन का कल—कल।
सफल साधना होगी साधक! बढ़े चलो पथ पर अविचल॥
(2)
आत्म-शुद्धि के लिये सत्य की ज्वाला में जलना होगा,
भय कैसा, यदि तलवारों की धारों पर चलना होगा,
पाओगे अक्षय विभूति जब त्याग करोगे तुम मानव,
सौरभ-मुक्त सुमन बनने को काँटों में पलना होगा,
प्रति क्षण ध्यान रहे-जीने के लिए तुम्हें मरना होगा,
पर सेवा वेदी पर धरना होगा तन - मन - धन निश्छल।
सफल साधना होगी साधक! बढ़े चलो पथ पर अविचल॥
(3)
आत्म-शक्ति उद्बुद्ध करो, यह दरिद्रता जल जाएगी,
पल भर में तिम राशि तुल्य सारी बाधा गल जाएगी,
शैल तुम्हारे जाने की तब हृदय खोल देंगे अपना,
पलकें सरिता धीर! तुम्हारे स्वागत हेतु बिछाएंगी,
आकर स्वयं सफलता तुमको विजय माला पहनाएंगी,
निश्छल अन्तस्तल में झरता मधुर शाँति निर्झर अविरल।
सफल साधना होगी साधक! बढ़े चलो पथ पर अविचल॥
*समाप्त*