परमहंस विशुद्धानंद एक बार अपने शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। सब उन्हें दत्तचित्त होकर सुन रहे थे। कुछ समय के पश्चात् अचानक उन्होंने एक शिष्य को इंगित करते हुए उसे तुरन्त घर चले जाने का आदेश दिया। शिष्य अचकचाया; पर चूँकि गुरु की आज्ञा थी, अतः वह इंकार नहीं कर सका। उपस्थित से कुछ विस्मित हुआ । बाद में पता चला कि उक्त व्यक्ति के अबोध बच्चे की अंगुली सरौते में आ जाने के कारण कट कर अलग हो गई थी। अब उपस्थित जनों को उनके इस विचित्र व्यवहार का रहस्य ज्ञात हुआ; किन्तु कुछ जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा रोक न सके और उक्त घटना पर प्रकाश डालने के लिए विशुद्धानन्द से आग्रह करने लगे, तब परमहंस ने बताया कि मन की सामर्थ्य अपार है। यदि उसे निग्रहित कर लिया गया, तो घड़ी भर में ही कहीं भी जाकर वह सब कुछ पता लगाकर लौट सकता है। इतना ही नहीं, मन की इस अद्भुत शक्ति से असंभव जैसे कार्यों को भी संभव और सरल बनाया जा सकना शक्य है।
फ्राँसीसी परामनोविज्ञान वेत्ता डॉ0 पाल गोल्डीन मनःचेतना की असाधारण सामर्थ्य की जानकारी देते हुए कहते हैं कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों की सुनने, बोलने, देखने, सूँघने तथा स्पर्शानुभूति क्षमता से हम सभी परिचित हैं ; पर इनसे भी महत्वपूर्ण एक और शक्ति है - पराचेतना शक्ति, जिसे ‘छठी इन्द्रिय’ कहा जा सकता है। आश्चर्य है कि हम लोग इस बलवती सामर्थ्य के बारे में बहुत कम जानते हैं। इसे प्रयासपूर्वक जगाया और उभाजा जा सकना संभव है। इस स्थिति में इसका लाभ स्थूल इन्द्रिय की तुलना में कई गुना अधिक और आदर्शजनक होता है। वे कहते हैं। कि यदि इस प्रकार की क्षमताओं को उभारने वाले आध्यात्मिक अनुशासनों का जीवन में पालन किया गया, तो व्यक्ति ऐसा और इतना शक्ति सम्पन्न बन सकता है। जिसे असाधारण और अद्भुत कहा जा सके।
उल्लेखनीय है कि अध्यात्मिक अनुशासनों को आरम्भ में विज्ञान ने निराधार भावुक मान्यताओं की संज्ञा दी थी और कहा था, उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; पर अब वैसी बात नहीं रही। मनःचेतना के क्षेत्र में जो खोजें हुई हैं, उन्होंने यह तथ्य सामने खड़ा कर दिया है कि मस्तिष्क मात्र चिन्तन का एवं शरीर-संचालन का ही उत्तरदायित्व निभाने तक सीमित नहीं है। उसकी परिधि इतनी व्यापक और विस्तृत है कि अतीन्द्रिय अनुभूतियों और चमत्कारों का भी तथ्य उसी के अंतर्गत स्वीकारना पड़ेगा। समय-समय पर बुद्धि को चकराने वाले प्रसंग वास्तव में और कुछ नहीं, वरन् परिष्कृत मन-मस्तिष्क के ही कौशल हैं। आये दिन ऐसे कितने ही चमत्कार प्रकाश में आते रहते हैं।
समस्त अलौकिक क्षमताओं के केन्द्र व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान हैं ; किंतु वे केन्द्र ही चेतना नहीं हो सकते। चेतन- सत्ता उससे भिन्न है। उसके छोटे स्वरूप को अध्यात्म विज्ञान में ‘आत्मा’ कहा गया है जबकि उसका विराट् स्वरूप परब्रह्म कहलाता है। परमात्मा, भगवान, देव देवी सब उसी शक्ति के भिन्न-भिन्न नाम और अभिव्यंजनाएँ हैं। उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति करने का साधन यह मस्तिष्क ही है। कोट खूँटी पर टाँगा जा सकता है। खूँटी के गिर जाने पर उस पर टँगा कोट भी गिर जायेगा ; किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि खूँटी ही कोट है अथवा कोट ही खूँटी है। दोनों की दो भिन्न और स्वतंत्र सत्ताएँ हैं।
विज्ञान अब तक स्थूल शरीर के ही निरीक्षण - परीक्षण में उलझा रहा, अस्तु अलौकिक क्षमताओं के कारण के बारे में कुछ भी बता पाने में असमर्थ रहा ; किन्तु शरीर की पदार्थपरक जो जानकारी इस क्रम में उसने हस्तगत की, उसे भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं माना जा सकता। निस्सन्देह आगे के शोध-अनुसंधान के निमित्त और अधिक जानकारी प्राप्त करने एवं और अधिक गहराई में उतरने यह पिछला ज्ञान भी उपयोगी साबित होगा और महत्वपूर्ण भी।
भौतिक विज्ञान परमाणु सत्ता की सूक्ष्म प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा है कि एक ही अणु में सक्रिय दो इलेक्ट्रानों को पृथक् दिशा में खदेड़ दिया जाय, तो भी उनके बीच प्रच्छन्न पारस्परिक संबंध बना रहता है। वे कितनी ही दूर रहें, दर्पण में प्रतिबिम्ब की तरह अपनी स्थिति का परिचय एक-दूसरे को देते रहते हैं। एक इलेक्ट्रॉन को किस तरह प्रभावित किया जाय, तो इतनी दूर चले जाने पर भी दूसरा पहले इलेक्ट्रॉन के समान प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। रोजेन, पोटोल्स्की जैसे वैज्ञानिकों ने भी यह माना है कि इस छोटे से घटक की यह गति निस्संदेह एक विश्वव्यापी ड्रामे का ही छोटा रूप हो सकता है।
एड्रियान ड्राव्स न तो यहाँ तक स्वीकार किया है परमाणु का प्रत्येक घटक विश्व ब्रह्माण्ड का परिपूर्ण घटक है अर्थात् प्रत्येक अणु में ब्रह्माण्डीय सत्ता ओत-प्रोत है। यह भारतीय अध्यात्मिक की ‘अणु में विभु’ वाली मान्यता से काफी मेल खाता है। रुडोल्फ स्टीनर ने एक कदम आगे बढ़कर स्वीकार किया है कि ब्रह्माण्ड में एक मूलभूत चेतना काम कर रही है, जो जीवाणुओं में तथा परमाणुओं में पृथक्-पृथक् ढंग से काम करती है। भारतीय दर्शन में ब्रह्म की परा और अपरा शक्तियाँ इसी तथ्य का निरूपण करती हैं।
परमाणु की इलेक्ट्रॉन प्रक्रिया को यंत्रों से जितना जाना जा सका है, वह अत्यल्प है ; अधिकाँश की जानकारी गणितीय गणनाओं पर आधारित है। इसी तरह जीवाणुओं की मूलभूत प्रक्रिया के लिए ईश्वर ने जो यंत्र बनाया है, उसका नाम ‘मस्तिष्क’ है। इस यंत्र की रोग पद्धति से सर्वांगपूर्ण जानकारी कर लेने के कारण ही भारतीय दर्शन वेद-वेदान्त के उस अलभ्य ज्ञान तक पहुँच गया, पर विज्ञान अभी तक मस्तिष्क के बारे में बहुत सीमित जानकारी ही अर्जित कर सका है। इसी कारण विश्वव्यापी सूक्ष्म सत्ता से अभी तक उसका तालमेल नहीं हो पाया है, फलतः अलौकिक और आश्चर्यजनक घटनाओं प्रसंगों को समझने में वह विफल रहा है। ज्ञातव्य है कि जो अतीन्द्रिय घटनाएँ प्रकाश में आती है, उनमें भी प्रधान माध्यम मस्तिष्कीय बोध ही होता है, चाहे वह पूर्व जन्म का ज्ञान हो, पूर्वाभास या दिव्य - दर्शन।
किन्तु मस्तिष्क सिर्फ ऐसी अलौकिकताओं को ग्रहण करने तक ही सीमित है, सो बात नहीं। वह ऐसी शक्तियों से भरपूर है, जिसकी तुलना इन्द्र के ऐश्वर्य और कुबेर के भण्डार से की जा सकती है।
घटना बंगाल के प्रसिद्ध सन्त रामकिंकर योगत्रयानन्द से संबंधित है। एक बार उन्हें कुछ आवश्यक कागजात कलकत्ते से नवद्वीप अपने एक शिष्य के पास भेजने थे। वे इतने महत्वपूर्ण थे कि यदि शिष्य को समय पर नहीं मिलते, तो भारी आर्थिक हानि संभावना थी। अतः उन्हें तुरन्त भिजवाने का प्रबन्ध करना आवश्यक था, पर सम पर उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति उपलब्ध नहीं हो सका, जो इस दायित्व को वहन कर सके। अन्ततः कोई उपाय न देख उन्होंने उसे योगबल द्वारा वहाँ भेजने का निश्चय किया। सारे कागजातों को एक बड़े लिफाफे में डालकर उसे पूजा की कोठरी में रख दिया और दरवाजों को अन्दर से बन्द कर लिया। दस मिनट बाद जब वे बाहर आये, तो रसोइया उनका इन्तजार कर रहा था। कोठरी का दरवाजा अन्दर से बन्द दे कर उसने सोचा कि योगत्रयानन्द ध्यान कर रहे हैं। अतः उनके बारह आते ही रसोइये ने इस असमय में ध्यान का कारण पूछा तो उन्होंने वास्तविकता बतायी, कहा वस्तुतः वे ध्यान नहीं कर रहे थे, वरन् एक गहन योग क्रिया में निरत थे और कुछ आवश्यक सामग्री कहीं भेज रहे थे। रसोइये ने जब यह जिज्ञासा की कि भौतिक माध्यम के बिना भी भौतिक वस्तुएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानान्तरित की जा सकती हैं क्या ? तो उनका उत्तर था - मन की असीम सामर्थ्य के अंतर्गत ही ऐसा हुआ है और इस तरह के और भी कितने ही विस्मयकारी प्रसंग इससे संभव बनाये जा सकते हैं।
जानने, समझने, पढ़ने सोचने में जिस क्षमता का उपयोग करते हैं, वह मस्तिष्कीय सामर्थ्य का भौतिक स्थल पक्ष है ; किन्तु जब हम उसके सूक्ष्म पहलू का स्पर्श करते हैं, तो वहीं प्रचण्ड मानसिक शक्ति के रूप में सामने आता और ऐसे कौशल कर दिखाता है, जिससे दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। मस्तिष्क का यह पक्ष अभी विज्ञान की पहुँच से परे है। आशा है, चेतना के इस पक्ष पर भी उसकी पकड़ा जल्दी ही मजबूत होगी और जल्द ही उसकी सूक्ष्म व्याख्या वैसे ही करने में समर्थ होगा, जैसा कि इन दिनों वह स्थूल मस्तिष्क की विस्तृत और व्यापक विवेचना करने में सफल हुआ है, तब फिर ऋद्धि-सिद्धियों और चमत्कारों को लोग यथार्थ के धरातल पर आधारित सत्य के रूप में आसानी से स्वीकार कर सकेंगे।