मनुष्य के अन्दर इतना कुछ असाधारण छिपा-दबा पड़ा है कि उसे ढूँढ़ने - उभारने में संलग्न होने वाला ऐसी असाधारण विभूतियाँ करतलगत कर लेता है जैसी कि बाहरी उपार्जन से किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता।
सिद्धियों की चर्चा जहाँ-तहाँ होती रहती है और ऐसे विवरण सामने आते रहते हैं, जिनसे प्रकट होता है कि बाहरी दौड़-धूप तक सीमित रहने की अपेक्षा अधिक सुखी समुन्नत बनने के लिए अपने अंतरंग में छिपी शक्तियों को ढूँढ़ना - जगाना कम लाभदायक नहीं है।
बौद्ध धर्म की योग-साधनाओं में एक ‘जेन’ साधना थी, जिसके प्रमाण जापान आदि देशों में भी पिछले दिनों तक पाये जाते रहे हैं।
एक बार ‘मास’ नामक एक कोरियाई नाटा पहलवान अमेरिका गया और उसने वहाँ के नामी-गिरामी पहलवानों को चुनौतियाँ देना प्रारम्भ कर दिया। अन्ततः एक दंगल का आयोजन किया गया जिसमें अमेरिका के तत्कालीन चैम्पियन पहलवान डिकरियल से भिड़न्त की व्यवस्था की गई। दोनों जब विशाल जन-समूह के बीच अखाड़े में उतरे, तो जनता खिलखिला कर हँस पड़ी। हँसी का मुख्य कारण ‘मास’ का कद था। अपने छोटे कद और साधारण शरीर गठन से उसने डिकरियल को जिस प्रकार की चुनौती दी थी, उससे बरबस ही दर्शकों की हँसी फूट पड़ी। ‘मास’ देखने में डिकरियल से दो फुट छोटा ही न था वरन् आकार में भी उसके आगे वह बच्चे जैसा लगता था। वहाँ 6 फुट 7 इंच का डिकरियल और कहाँ 4 फुट 1 इंच का बौना मास। दर्शकों का उत्साह ठंडा हो गया और वे इस बेजोड़-बेतुकी कुश्ती का सहज परिणाम समझ कर समय से पहले ही उठ कर जाने लगे किन्तु तब चमत्कार ही हो गया, जब कुछ ही दाँव-पेंचों के बाद ‘मास’ ने डिकरियल को चित्त कर दिया और एक हजार डालर का इनाम जीत लिया।
अमेरिकी जनता इस पराजय को अपना राष्ट्रीय अपमान समझने लगी और ‘मास’ पर धोखाधड़ी की लड़ाई-लड़ने का आरोप लगाया गया। अखबारों में इस संबंध में कटु आलोचनाएँ छपीं। खिन्न ‘मास’ ने इन आरोपों का उत्तर एक नई चुनौती के रूप में दिया। उसने विज्ञापन छपवाया कि कोई भी अमेरिकी यदि उसे हरा दे, तो वह मिली हुई उपहार की रकम एक हजार डालर उसी को खुशी-खुशी वापिस लौटा देगा। निदान दूसरे दंगल का आयोजन हुआ। इसमें एक पुलिस अफसर से कुश्ती निर्धारित की गई। यह अफसर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का पहलवान था। वह बहुत ही आवेश में लड़ने आया था, किन्तु हुआ इस बार भी अचरज कि मास ने उसे ऐसी पटक दी कि बेचारे की दो हड्डियाँ ही टूट गईं। इस पर अमेरिकी और भी खीजे और मारने पर उतारू हो गये। किसी प्रकार भाग कर वह अपने होटल पहुँचा और जान बचायी।
यह तो अमेरिका की बात हुई। इससे पूर्व “मास” ने जापान में भी अपने पराक्रम की धूम मचा दी थी। यों वह जन्म से कोरियाई था, पर वहाँ से बचपन में ही अपने बाप के साथ जापान आ गया था और वहाँ का नागरिक बन गया था। उसने एक विशेष प्रकार की योग-साधना ‘जेन’ सीखी और उसी के बल पर वह चमत्कारी योद्धा बन गया।
अक्सर चुनौती - प्रदर्शन में उसके सामने अत्यन्त मजबूत पत्थर जैसी कठोर पकी हुई दो ईंटें दी जातीं। ईंटों की मजबूती को विशेषज्ञ परखते। इसके बाद दोनों हथेलियों के बीच वह इन ईंटों को रखता और उंगलियों के खाँचे भिड़ाकर इस तरह दबाता कि ईंटों का चूरा हो जाता दर्शक अवाक् रह जाते।
एक बार जापान में उसे विचित्र प्रकार की कुश्ती का सामना करना पड़ा। हारे हुए पहलवानों ने मिल-जुलकर उसे चुनौती दी कि वह साँड़ से कुश्ती लड़ने को तैयार हो। पहले तो वह आनाकानी करता रहा, पर पीछे जब चिढ़ाया जाने लगा, तो वह तैयार हो गया। इसके लिए एक अत्यन्त क्रोधी और तेरह मन भारी साँड़ विशेष रूप से तैयार किया गया। और नशा पिलाकर प्राणघातक आक्रमण करने में प्रवीण बनाया गया। इस दंगल को देखने के लिए जापान के कोने-कोने से लोग आये। डॉक्टरों और पुलिस वालों का एक विशेष कैम्प लगाया गया कि यदि ‘मास’ साँड़ की चपेट में आ जाय तो कम से कम उसकी मरणासन्न स्थिति में कुछ तो उपचार किया जा सके और लाश को यथास्थान पहुँचाया जा सके, तब कुद्ध साँड़ को काबू करने का भी सवाल था। यह काम पुलिस ही सँभाल सकती थी सो सभी आवश्यक प्रबन्ध पहले से ही नियोजित कर लिये गये।
‘मास’ पूरी तरह निहत्था था। मुट्ठियाँ ही उसकी एक मात्र ढाल तलवार थीं। लड़ाई आरंभ हुई आक्रमण करने के लिए पहला अवसर साँड़ को दिया गया। ‘मास’ अपनी जगह चट्टान की तरह खड़ा रहा। टक्कर खाकर वह उखड़ा नहीं, वरन् घूँसे से प्रत्याक्रमण किया। घूँसा ऐसा करारा बैठा कि वह एक में ही चक्कर खाकर गिर पड़ा और वहीं ढेर हो गया। 13 मन भारी उस महादैत्य साँड़ को एक ठिगना सा दो मन से भी कम वजन का मनुष्य इस तरह गिर सकता है, यह दृश्य लोगों के लिए आश्चर्यचकित करने वाला था। कई तो इसे भूत-प्रेत की सिद्धि एवं जादू मंत्र का चमत्कार तक कहने लगें।
साँड़ - युद्ध से मास की प्रसिद्धि सम्पूर्ण जापान में फैल गई। यत्र-तत्र उसकी ही चर्चा होती सुनी जाती। ढेर सारे प्रशंसा पत्र उसके पास आने लगे। कितने ही लोग व्यक्तिगत रूप से भी उससे मिलने आते। घर पर ऐसे प्रशंसकों को ताँता लगा रहता। इन सबसे चिढ़कर पराजित पहलवानों ने उसके विरुद्ध कुचक्र रचना आरम्भ किया। वे सभी कोई ऐसा उपाय सोचने ले, जिससे मास को नीचा दिखाया और उसके मास को नीचा दिखाया और उसके गर्व को चूर-चूर किया जा सके। अचानक उन्हें एक युक्ति सूझी। कुछ ही दिन पूर्व ‘कुँग फू’ क्षेत्र से एक नरभक्षी शेर पकड़ा गया था। शेर बड़ा ही खूँखार और आकार-प्रकार में बड़ा था। उन्होंने मास के समक्ष इससे भिड़ने का प्रस्ताव रखा। मास पहले तो हिचका ; पर प्रस्ताव बाद में स्वीकार कर लिया। तिथि निश्चित कर दी गई। मुकाबले की तैयारी होने लगी। आयोजनकर्त्ताओं ने इसके लिए एक विशाल पिंजरा बनवाया। नियत तिथि को एक मैदान में शेर को लाया गया और इस पिंजरे में बन्द कर दिया गया। भीड़ बुरी तरह इस अद्भुत भिड़न्त को देखने के लिए उमड़ पड़ी थी। सभी के मन में कौतूहल और उत्सुकता थी। मास भी वहाँ पहुँच चुका था। शर्तों के अनुसार मास को शेर के गले में एक जंजीर बाँधनी जी। जब सम्पूर्ण तैयारी हो गई, तो मास दरवाजा खोल कर पिंजरे के अन्दर गया और पुनः उसे बन्द कर लिया। मनुष्य को अपने समीप देखते ही शेर गुर्राया और आक्रमण कर दिया। मास इसके लिए अभी पूरी तरह तैयार नहीं था। शेर उसके बायें कंधे का दो इंच माँस नोंच ले गया। अब मास सतर्क हो चुका था। नरभक्षी दोबारा उसकी और झपटा। इस बार उसने अपने को फुर्ती से एक तरफ हटा लिया और बार को निष्फल कर दिया। दूसरे ही पल उसने चीते की सी फुर्ती दिखायी और जब तक शेर सम्भल पाता, इसके पूर्व ही एक भरपूर घूंसा उसके नथुनों में जड़ दिया और बगल हट गया। शेर के नथुनों से खून की धारा फुट पड़ी। पीड़ा से वह बिलबिला उठा। जोर की दहाड़ लगायी और मास के ऊपर टूट पड़ा। इस बार उसने पुनः अपने को चतुराई पूर्वक बचा लिया और अगले आक्रमण से पूर्व ही उसके ताबड़तोड़ घूँसे बरसने लगे। इस बार प्रहार करारा था और सिर के ऊपर पड़ा था। शेर वहीं निढाल - सा पड़ गया। अब उसने जंजीर उठायी। और आसानी से शेर के गले में बाँध कर बाहर आ गया। सभी ने उसकी हिम्मत और बहादुरी की भूरि-भूरि प्रशंसा की और करतल ध्वनि से उसका स्वागत किया। इस बार षड्यंत्रकारी पहलवानों को भी उसकी शक्ति स्वीकारनी पड़ी।
अपनी शक्ति का रहस्य बतलाते हुए मास सदा अपनी योग-साधना का वर्णन विस्तारपूर्वक किया करता था।
जापान में ‘जेन’ साधना भूतकाल में भी बहुत प्रख्यात और सम्मानित रही है। बौद्ध धर्मानुयायी सन्त इसे अपने शिष्यों को बताते सिखाते रहे थे। इस आधार पर मनुष्य केवल आध्यात्मिक ही नहीं, वरन् भौतिक - शक्तियाँ भी प्राप्त कर सकता है। जेन-साधना को नट-विद्या नहीं, वरन् विशुद्ध योगाभ्यास ही समझा जाना चाहिए। जापान की ‘जुजुत्सु’ विद्या संसार भर में प्रसिद्ध थी। इसके आधार पर कोई मनुष्य अपने से कहीं अधिक बलवान प्रतिद्वंद्वी को बात-की-बात में धराशायी कर सकता था। इसकी पुष्टि करने वाली न केवल दन्त कथाएं ही वहाँ प्रसिद्ध थीं, वरन् जापानी उसमें निष्णात भी होते थे।
मास को बचपन से ही योग विद्या का शौक था। उसने जेन-साधना में कुशल महाभिक्षु फना कोशी से दीक्षा ली और उन्हीं के पास रह कर यह विद्या सीखने लगा। उस प्रयोजन के लिए उसने पर्वतों की निर्जन गुफाओं में डेरा डाला और बर्फ से ढकी कन्दराओं में वनस्पतियाँ खाकर साधना जारी रखी। कई वर्ष बाद वापस लौटा, तो उसकी जटाएँ और दाढ़ी बढ़ी हुई थी। लोगों ने उसे पागल समझा, पर इससे क्या वह धुन का धनी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता ही रहा और आखिर उसने अपने को जेन साधना का सिद्ध पुरुष ही बना लिया।
जापान आदि देशों में जेन साधना का बहुत सम्मान है। वह भारत की योगविद्या का ही एक अंग है। ईसा की पांचवीं शताब्दी में भारतीय बौद्ध-भिक्षु चीन गये। उनके नेता का नाम था - धरुम। यह नाम धर्म शब्द का अपभ्रंश ही हो सकता है। उन योगियों ने जहाँ धर्म, सदाचार, अध्यात्म आदि की शिक्षाएँ दीं, वहाँ एक विशेष प्रकार की योग साधना, जो तब से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में उस क्षेत्र में जीवित ही बनी हुई हैं।
जेन-साधना का मूल आधार मनःशक्ति, संकल्प-बल, एकाग्रता और निर्धारित प्रयोजन से संबंधित श्रद्धा के साथ तत्परता बरतना है। शारीरिक योग के लिए अपनी माँसपेशियों और नस-नाड़ियों पर एकाग्रतापूर्वक अधिकार करना पड़ता है। इससे वे फौलाद जैसी कठोर हो जाती हैं और आक्रमण सहने तथा करने में अपराजेय सिद्ध होती हैं। इसी आभार पर मनःशक्ति को केन्द्रित एवं समर्थ बना कर इस योग्य भी बनाया जाता है कि उससे दूसरे के मनः संस्थान को करारी टक्कर दी जा सके। यह टक्कर भले या बुरे किस प्रयोजन के लिए दी गई और उससे दूसरे का क्या हित - अनहित हुआ-यह प्रयोक्ता के उद्देश्य पर निर्भर है ; किन्तु इतना हर हाल में निश्चित ही रहता है कि योग-साधना के बल पर शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र में शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र में चमत्कारिक क्षमता उत्पन्न की जा सकती है।