जूलबर्न का एक उपन्यास है- फ्राम द अर्थ टू द मून।’ इसका पात्र एक प्रचण्ड संहार गोला बना लेता है। ठीक उसी अवधि में दूसरा पात्र इस गोले से बचने लायक सुदृढ़ रक्षा-कवच बना चुकता है।
एलोपैथी दवाओं के संसार में भी जूलेबर्न के इसी उपन्यास की- सी दशा देखी जा रहो है। रोगाणुओं को निस्तेज और नष्ट कर डालने के लिए नित नूतन दवाओं की खोज जारी है और कुछ ही समय में रोगाणु अपने भीतर इन दवाओं की प्रतिरोधी-क्षमता विकसित कर लेते हैं, जिससे कि ये दवाएँ उनके लिए बेअसर हो जाती हैं फिर ज्यादा असरदार दवाएँ तैयार की जाती हैं, फिर रोगाणु और अधिक प्रतिरोध-शक्ति अर्जित कर उन नई दवाओं को भी बेअसर कर देते हैं।
सल्फा औषधियों से शुरू में कई तरह के जीवाणु मरते देखे गये। एण्टीबायोटिक दवाइयों का और जोरदार प्रभाव परिलक्षित हुआ। पेन्सिलीन के प्रभाव से पहले तो अंत्रिका शोथ, न्यूमोनिया, रक्तदोष आदि अनेक रोगों पर नियन्त्रण सम्भव हुआ, पर कुछ ही वर्षों में ऐसे जीवाणु सक्रिय पाये गये जो इन पेन्सिलीन आदि के विरुद्ध पर्याप्त प्रतिरोध क्षमता से सम्पन्न थे। इधर नित्य नवीन औषधियों की खोज, उधर जीवाणुओं में और अधिक ओज के साथ प्रतिरोध सामर्थ्य का विकास।
यह ठीक है कि सामूहिक-टीका अभियान ने बच्चों को विभिन्न रोगों से बचाया। पर इससे एलर्जी की नई समस्या पैदा हो गई। शरीर में इन टीकों के प्रति अति संवेदन शीलता की प्रवृत्ति पैदा होने लगी।
डिपथीरिया, कुकरखाँसी, अधरंग, टेट्नस, चेचक, प्लेग आदि अनेक संक्रामक रोगों में कमी आई है। लेकिन श्वास तथा अन्तरीय संक्रमणों के लगभग 1 लाख मामले अभी भी प्रति वर्ष सामने आ रहे है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देश लाक्षणिक रोगों की लपेट में हैं। इन्फ्लुएञ्जा, संक्रामक हैपेटाइटिस आदि से सम्बन्धित प्रभावपूर्ण पगों की दिशा में आज भी नई खोजो की जरूरत है।
“आस्ट्रेलियन साइन्स न्यूज़लेटर नामक पत्रिका के अनुसार एस्पिरिन का अधिक प्रयोग गैस्ट्रिक अल्सर (पेट का फोड़ा ) का कारण बनता है।
इस रोग से ग्रस्त 17 रोगियों का अध्ययन किया गया। इन सभी ने एस्पिरिन का अत्यधिक मात्रा में सेवन किया था।
न्यू साउथ वेल्स के रायल न्यू कैसिल अस्पताल के जोन ड्रगन ने पेट के फोड़े के 30 रोगियों का अध्ययन किया। इसमें से 349 के रोग का कारण एस्पिरिन का अति सेवन पाया गया।
आमाशय-ग्रहिणी के रक्तस्राव से पीड़ित 568 रोगियों में से 29 प्रतिशत भी एस्पिरिन दवाओं के नियमित प्रयोगकर्ता पाये गये।
दवाएँ जिन पदार्थों से बनती है वे हमारे स्वाभाविक खाद्य नहीं है। उनमें मानवी प्रकृति के प्रायः प्रतिकूल तत्त्व ही भरे रहते हैं। उत्तेजना उत्पन्न करने और अन्धे हाथी के तरह अपनी तथा शत्रु की सेना को कुचल डालने की क्षमता भर उनमें होती है। आवश्यकतानुसार दवाओं के मारण मन्त्र का प्रयोग इस मान्यता के साथ किया जा सकता है कि जहाँ उनसे रोमांच मरेगा वहाँ जीवन-रस को भी समान रूप से क्षति पहुँचेगी। अस्तु आपत्ति धर्म की तरह यदि दवाओं का उपयोग भी करना पड़े तो अनिवार्य आवश्यकता के समय, सीमित मात्रा और सीमित समय यह ध्यान रखा जाय कि रोगों की जड़ काटने के लिए संगृहीत मलों को बाहर निकालने वाले उपवास, वस्ति जैसे शोधक उपाय ही स्थायी समस्या हल करते हैं। आहार-विहार का संयम अपनाकर ही हम खोये स्वरूप को वापिस ला सकते हैं। औषधि सेवन तो संकट कालीन आपत्ति धर्म मात्र है उसे आदत में सम्मिलित न किया जाय।