प्रकृति की मधुर-कटुक-सुन्दर-कुरूप-सुखद-दुःखद क्रिया-प्रक्रिया की विचित्रता ऐसी है जिसे देख कर सहज ही यह समझ सकना कठिन पड़ता है। यह सब क्यों और किस उद्देश्य के लिए हो रहा है? छोटे बच्चे रेत से घर और बालू का महल बनाते हैं, टहनियाँ गाड़ कर बगीचा खड़ा करते और उमंग उठने पर बात की बात में उस सारी संरचना को पैर से ठुकराते और तोड़ फोड़ कर बर्बाद करते देखे जाते हैं। इन परस्पर विरोधी सृजन और विनाश की गति विधियों में समान रूप से उत्साह प्रकट करने वाले बाल स्वभाव का क्या निष्कर्ष निकाला जाय? क्या विवेचन किया जाय? कारण ढूँढ़ न पाने पर भी तथ्य तो यथावत् ही बने रहते हैं। बाल-बुद्धि के साथ जुड़ी हुई यह विचित्र विसंगति बड़ों पर भी यदा-यदा अपना प्रभाव छोड़ती है। वे भी सृजन और तोड़ फोड़ की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का परिचय देते रहें है। आज की मित्रता कल शत्रुता में परिणत होती देखी जाती है। किसान को एक समय पौधे उगाने और उन्हीं को दूसरे समय काट कूट कर चूरा बना देने की की चित्र विचित्र क्रियाओं के बीच संगति कैसे मिल?
लगता है कि पुरातन को नवीन में बदलने के लिए एक गतिचक्र एक सुनिश्चित विधि विधान के साथ चल रहा है। अभिवृद्धि एक सीमा तक ही प्रौढ़ता है ताकि आरम्भ और अन्त का- और आरम्भ का गतिचक्र अपनी गोलाई एवं धुरी पर अनवरत रूप से अग्रगामी बना रह सके।
जन्म को न तो आदि समझा जाना चाहिए और न मरण को अन्त। चक्र में आदि अन्त कहाँ है इसकी कल्पना भर की जा सकती है। तथ्यतः गोलाई में आदि अन्त कहीं होता ही नहीं। जीवन का अन्त मरण समझा जाता है, यदि उसे नवीन जन्म का आरम्भ कहा जाय तो उसका खण्डन कैसे हो सकेगा? नवीन जन्म का आरम्भ गत जीवन के अन्त के साथ साथ ही होता है, मरण को जन्म का अदृश्य आरम्भ कहने में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पेड़ से फल टूट कर गिरने और उसकी गुठली फेंक दिये जाने को दुर्भाग्यपूर्ण अन्त ही समझा जाता है, पर नये वृक्ष का जन्म शुभारम्भ इस गुठली के छितराए जाने के दुर्भाग्य को क्यों न माना जाय? हर्ष और विषाद की- संयोग और वियोग की अविच्छिन्नता कितनी विचित्र है, इसे समझने में दार्शनिक बुद्धि भी हत-प्रभ हो जाती है।
प्रकृति भी इसी उपक्रम की अभ्यस्त मालूम पड़ती है। उसकी उर्वरता अद्भुत है। वनस्पतियों से लेकर जीवधारियों तक भी कोटि-कोटि जातियाँ किस प्रकार उगती और बढ़ती हैं यह सब देखते हैं। पंच तत्त्वों से बने हुए अगणित आकृति के पदार्थ भी बनने बढ़ने और जीर्ण शीर्ण होकर मरने की धुरी पर ही घूमते रहते हैं।
यह सब अकारण नहीं है। अभिवृद्धि के साथ विकृतियाँ भी घुसती जाती है। उनकी मात्रा में जब तक उपयोगिता का अंश अधिक बना रहता है। तब तक उसमें स्थायित्व बना रहता है, पर जब अनुपयोगिता का भाग बढ़ने लगा तो उसके परिवर्तन का अदृश्य क्रम चल पड़ता है। सामान्य क्रम से चल रहे परिवर्तन तो बहुत प्रभावित नहीं होते, पर जब रूपान्तरण का अन्तिम चरण आता है तो उसकी दृश्य विचित्रता चोंदती, विक्षोभ उत्पन्न करती है।
सम्मति की अपनी उपयोगिता है और विपत्ति की अपनी। सफलता से मिलने वाला प्रसन्नता का जितना है उतना ही असफलता के कारण उत्पन्न हुई तड़पन का भी। प्रशंसा से उमंग, तुष्टि एवं स्फूर्ति बढ़ती है किन्तु निन्दा से भूल सुधार ने की प्रेरणा भी कम नहीं होती। भगवान् के अवतारों के साथ अधर्म के नाश और धर्म के अभिवर्धन का उद्देश्य जुड़ा रहता है। दुष्कृतों का विनाश और साधुता का परित्राण करने की अवतार प्रतिज्ञा के पीछे सृष्टि संतुलन का ही आश्वासन है। भगवान् इसीलिए बार बार शरीर धारण करते और लीलाएँ करते हुए जन साधारण को वस्तुस्थिति समझाने और तदनुकूल गति विधियाँ अपनाने की प्रेरणाएँ देते हैं
पृथ्वी पर प्रकृति की विकास व विनाश लीलाओं का क्रम अनवरत रूप से चलता रहता है। पृथ्वी अपने इर्द-गिर्द वायुमण्डल का एक कवच पहने हुए हैं। उसके तीन आवरण हैं। प्रत्येक से पृथ्वी को, इसके प्राणियों को तथा पदार्थों को बहुत कुछ मिलता है। किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि उसी के कारण अपनी दुनिया को विनाश का कष्ट भी कम नहीं भुगतना पड़ता।
हम सभी मनुष्य वातावरण के अदृश्य सागर के तले निवास करते हैं। प्रायः 99 प्रतिशत वातावरण का भार 5 अरब टन है और वह सिर्फ ऊपर के 30 मील के क्षेत्र में सिमटा है। इस सघनता का लाभ यह है कि वह अन्तरिक्षीय किरणों, उल्कापातों आदि के घातक प्रभावों से पृथ्वी के जीवन की रक्षा करता है। साथ ही प्राणवायु जल रसायन आदि देता है। तापमान को नियन्त्रित रखता है। इस तरह यह घनीभूत वातावरण अपनी पृथ्वी के लिए-हम सब प्राणियों के लिए-एक रक्षा कवच का काम करता है।
इस वातावरण में तनिक-सी भी उथल पुथल पृथ्वी तल पर भयंकर चक्रवातों, प्रलयंकर तूफानों और विक्षुब्ध विनाश लीला का कारण बनती है। सागर की विशाल जल राशि भी निरन्तर उफनती रहती है, धरती के ऊपर का वातावरण भी सदा धधकता रहता है। अभी तक ऐसा कोई यन्त्र नहीं बन पाया है, जो वातावरण की गहराई नाप सके और तथ्यों का सही एवं समग्र पता लगा सकें। धरती की छाती में तो विशाल ज्वालामुखियों का अविराम हाहाकार दबा ही रहता है।
भीतर चल रही उथल पुथल कभी कभी आकस्मिक विस्फोटों के रूप में अभिव्यक्ति होती है। यद्यपि कोई भी विस्फोट वस्तुतः आकस्मिक नहीं होता। वह एक क्रमिक प्रक्रिया की ही अनिवार्य परिणति होता है।
इस परिवर्तन के स्वरूप बहुत तरह के होते हैं सौर मण्डल की गति विधियों की एक दूसरे ग्रह पर भी पारस्परिक प्रतिक्रिया होती है व प्रभाव पड़ता है। ज्वालामुखियों के विस्फोट, तूफान, भूकम्प, ऊपरी वातावरण विषमता से उत्पन्न हलचलें अथवा सौर मण्डल की कोई भी असामान्य गतिविधि ऐसे तीव्र परिवर्तनों का कारण बन जाती हैं। अन्तरिक्ष में आवारागर्दी करने वाली कुछ उल्काएँ भी अपनी दुस्साहसिकता के कारण स्वयं को तो क्षति पहुँचाती ही है, पृथ्वी या कि अन्य ग्रहों को भी उथल पुथल से भर देती है। इन उद्दण्ड उल्काओं की आवारागर्दी की गाथाएँ दुनिया पर के पौराणिक साहित्य में रोचक ढंग से वर्णित हैं।
यूनान की पौराणिक गाथाओं में ‘इकोरस’ नाम के एक युवक की कथा है। यह सूर्य से मिलने की महत्त्वाकाँक्षा रख, नकली, पंख लगाकर चल पड़ा। पंख उसने मोम से चिपका लिए थे।
अधिक ऊँचे जाने पर उसके पंख को जोड़ने वाली मोम गर्मी के कारण पिघल गई और पंख नीचे गिर पड़े, ‘इकोरस’ भी औंधे मुँह नीचे समुद्र में आ गिरा तथा मर गया।
पिछले दिनों इसी युवक की तरह का एक दुस्साहसी उल्का-पिंड भी देखा गया। इसका नाम भी ‘इकोरस’ ही रखा गया। यह ‘इकोरस’ उल्कापिंड कभी सूर्य के अधिक निकट जा पहुँचता है, इतना कि बस थोड़ा और पास जाए, तो भुती ही बन जाए। कभी लगता है वह बुध से कभी मंगल और कभी शुक्र से अब टकराया, तब टकराया। सूर्य के अति निकट पहुँच पहुँच कर वह आग का गोला ही बन जाता है। तो कभी सूर्य से इतनी दूर जा पहुँचता है कि शीत की अति ही हो जाती है। जून 1968 में इस उद्दण्ड क्षुद्र ग्रह के पृथ्वी के ध्रुव प्रदेश से आ टकराने की सम्भावना बढ़ गई थीं। यदि खगोल शास्त्रियों की यह आशंका सत्य सिद्ध होती, तो पृथ्वी में भीषण हिम तूफान आते, समुद्र उफनकर दुनिया का थल-भाग अपनी चपेट में ले लेता, साथ ही लाखों वर्ग मील भूमि में गहरा गड्ढा हो जाने की सम्भावना थी, जहाँ यह उफनता समुद्री जल भर जाता तथा कुल मिलाकर करोड़ों मनुष्यों का सफाया हो जाता। सन् 1908 में मात्र हजार फुट व्यास की एक उल्का साइबेरिया के जंगल में गिरी थी, तो वहाँ अणुबम विस्फोट जैसे दृश्य उपस्थित हो गये थे। इकोरस तो उस उल्का से हजारों गुना बड़ा है, अतः परिणाम का अनुमान किया जा सकता है।
सौभाग्यवश इकोरस पृथ्वी के समीप होकर गुजर गया और एक भीषण दुर्घटना टल गई। सौर मण्डल में ऐसे अनेक क्षुद्र ग्रह हिडालगो, इरोस, अलबर्ट, अलिण्डा, एयोर, अपोलो, एडोरस, हर्मेस आदि चक्कर काट रहे हैं, जो सहसा टकराकर कभी भी धरती के जीवन में उथल पुथल मचा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पर जो हर 11 वें वर्ष कुछ धब्बे से बन जाते हैं, उनका कारण सौरमण्डल के ग्रहों की गतिविधियाँ ही है। स्पष्ट है कि सौर मण्डलीय ग्रहों की प्रत्येक गतिविधि से सौर मण्डलीय ग्रह प्रभावित होते हैं। सभी ग्रह पश्चिम से पूर्व की ओर-सूर्य की परिक्रमा करते हैं और पृथ्वी की ही भाँति अपनी धुरी पर भी घूमते हैं। इस परिभ्रमण काल में जो अगणित प्रकार की उथल पुथल होती है उनसे पृथ्वी सहित सभी ग्रह उपग्रह प्रभावित होते हैं।
दो अमेरिकी खगोल विदों-जान ग्रिबन और स्टीफेन प्लेगमैन-ने जानकारी दी है कि सन् 1982 में सौर मण्डल के नौ ग्रह यानी मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, पृथ्वी, यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो सूर्य के बिलकुल एक तरफ एकत्र हो जाएँगे। इससे सूर्य पर कई बड़े धब्बे पड़ जाएँगे इनका परिणाम होगा विश्व के विभिन्न हिस्सों में भयानक भूकम्प, प्रलयंकर बाढ़ें, प्राकृतिक विपदाएँ। इन दोनों वैज्ञानिकों के अनुसार सन् 1982 में समुद्री ज्वारभाटे तीव्र प्रबलतर हो जाएँगे कैलीफोर्निया में एक प्रचंड भूकम्प आयेगा, जो कि 1906 में सेन्फ्रांसिस्को में आये भूकम्प से भी प्रबल और विनाशक हो सकता है। प्रकृति में समय समय पर प्रचण्ड उथल पुथल होती ही रहती है।
ऐसी उथल पुथल की स्मृतियाँ मानवीय इतिहास में सुरक्षित हैं। पुराण कथाओं में इनका रोचक वर्णन मिलता है। मात्र क्षुद्र नक्षत्रों के टकराने अथवा सूर्य या किसी बड़े नक्षत्र में व्यापक परिवर्तन होने, उथल, पुथल मचने से ही धरती में जलप्लावन आदि की घटनाएँ नहीं घटती बल्कि धरती के भीतर की हलचलें और उसके सिकुड़ने फैलने की विभिन्न प्रक्रियाएँ भी जल प्रलय आदि के दृश्य उपस्थित करती हैं।
सभी जानते हैं कि कभी भू-मण्डल के सभी महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े थे। ग्रहों की हलचलों और आकुंचन प्रसार की प्रक्रियाओं से वे एक दूसरों से दूर हटते गए। हिमालय अभी भी लगातार उत्तर की ओर खिसक रहा है और भू-वैज्ञानिकों का कथन है कि 5 करोड़ वर्ष बाद सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिकांश इलाका हिमालय के पेट में समा जायेगा। इसी तरह सन् 1966 में मास्को में सम्पन्न द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रो० डा० ब्रूस सी० हीजेन और डा० नील यू० डाइक ने घोषणा की थी कि आज से लगभग 2 हजार 32 वर्ष बाद पृथ्वी के चुम्बकीय बल क्षेत्र अपना स्थान बदल देंगे साथ ही पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति घटेगी। इसमें मनुष्यों का आकार व जीवन भी प्रभावित होगा। वृक्ष वनस्पति, कीट पतंग आदि पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। प्रशांत महासागर की तलहटी से निकाली गई मिट्ठी और रेडियो सक्रियता एवं ‘लारिया’ नामक एककोशीय जीव में हो रहे क्रमिक परिवर्तन से पता चलता है कि सन् चार हजार तक चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होगा, जिससे ध्रुवों का स्थान भी परिवर्तित होगा। परिणामस्वरूप धरती में खण्डप्रलय की स्थिति हो जाएगी बर्फीले तूफान चारों ओर उठेंगे धरती में बेहद गर्मी और बेहद ठंडक की स्थितियाँ पैदा हुआ करेगी। समुद्रतल भी लगातार ऊपर उठ रहा है। इसका भी परिणाम अवश्य भावी है। ऐसी ही विशिष्ट प्राकृतिक उथल पुथल अतीत में भी जल प्रलय जैसी घटनाओं का कारण बनती रही है।
विश्व की अधिकांश प्राचीन सभ्यताओं के साहित्य में जलप्लावन तथा उनके बाद सृष्टि के नवीन क्रम का वर्णन मिलता है। इसे धार्मिक पुट दिया गया है। लेकिन भूगर्भ शास्त्रियों का भी अनुमान है कि समय समय पर पृथ्वी के विशेष खण्ड टूट जाते थे और धरती पर जल ही जल हो जाता था।
भू-गर्भ डा० ट्रिकलर के अनुसार हिमालय के आस-पास प्राप्त ध्वंसावशेषों से ज्ञात होता है कि जल प्रलय की घटना सत्य है।
यूनानी साहित्य में भी जलप्लावन की चर्चा है। एक कथा के अनुसार ‘अटिका’ जलमय हो गई थी। दूसरी कथा के अनुसार ‘जीयस’ ने अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए ‘ड्यूकालिय’ का विनाश करना चाहा। जब ड्यूकालियन अपनी पत्नी पैरहा के साथ जलयात्रा कर रहा था, जीयस ने भीषण जल-वृष्टि द्वारा पृथ्वी को डूबा दिया। नौ दिन तक ड्यूकालियन और पैरहा पानी में ही अपनी नाव द्वारा तैरते रहे। जब वे ‘पैरासस पहुँचे, तो जलप्लावन कुछ कम हुआ। तब उन दोनों ने अपने अंग रक्षक की देवताओं को बलि दे दी। इससे जीयस प्रसन्न हो गया और उनको सन्तान का वरदान दिया ड्यूकानियन और पैरहा ने वरदान पाकर जीयस पर पत्थरों की वर्षा की। जो पत्थर ड्यूकालियन ने फेंके वे पुरुष हो गये और जो पैरहा ने फेंके, वे नारी हो गए।
केबीलोनिया में भी ऐसी ही एक दन्त कथा है। तीन सौ ईस्वी पूर्व वहाँ वेरासस नामक पुरोहित था। उसने लिखा है- आरडेटस की मृत्यु के बाद उसके पुत्र ने 18 ‘सर’ तक राज्य किया। एक सर 36 सौ वर्षों का होता है। इसी अवधि में एक बार भीषण बाढ़ आईं। इसकी सूचना राजा को स्वप्न द्वारा पहले ही मिल चुकी थी। अतः उसने अपने लिए नाव बनवा ली थी। नाव में बैठकर वह जलप्लावन देखता घूमता रहा। जब जलप्लावन का वेग कम हो गया, तो उसने नाव में ही बैठे बैठे तीन बार पक्षी उड़ाए। अन्तिम बार जब पक्षी लौट कर नहीं आये, तो उसने देवताओं को बलि दी। इससे देवता प्रसन्न हुए और शान्ति का वातावरण बना।
बाइबिल के अनुसार-जल देवता ‘नूह’ को खबर मिली कि धरती पर जल प्रलय होगी। फिर ऐसा ही हुआ। चराचर इस भीषण जल प्रलय में समाहित हो गये। जल देवता। ‘नूह’ तथा उनके कुछ साथी नौका में बच निकले। नौका द्वारा आराकान पर्वत पहुँचे। वहाँ दसवें महीने के पहले दिन जल कम होना शुरू हुआ धीरे धीरे पर्वत श्रेणियाँ दीखने लगी। फिर अन्य हिस्से भी। हजरत ‘नूर’ ने ही मानवता का विकास किया। सुमेरियन ग्रन्थों में भी जलप्लावन का विकास किया है। चीनी पुराण-साहित्य में भी जल प्लावन की कथाएँ विद्यमान् हैं।
भारत में तो शतपथ ब्राह्मण से लेकर महाभारत और विविध पुराणों तक जल प्रलय का वर्णन मिलता है। महाभारत के वन-पर्व मत्स्योपाख्यान के अंतर्गत यह कथा है कि विवस्वान् मनु ने दस हजार वर्ष हिमालय पर तपस्या की। उस समय एक मछली की प्रार्थना पर उन्होंने उसकी जीवन रक्षा की। तब मछली ने उनको आगामी भीषण जलप्लावन की अग्रिम जानकारी दी। साथ ही यह कहा कि तुम सप्त ऋषियों के साथ नौका में मेरी प्रतीक्षा करना। अन्य पर्वों में भी इस जलप्लावन का सुविस्तृत वर्णन हैं।
सम्पूर्ण प्राचीन विश्व साहित्य में जल प्रलय की ये कथाएँ निश्चय ही किसी घटित घटना की ही स्मृतियाँ है। अभिव्यक्ति की शैली भिन्न भिन्न सभ्यताओं के परिवेश और साँस्कृतिक चेतना के अनुरूप अलग अलग हैं। किन्तु उनमें एक आन्तरिक अविच्छिन्नता है। जल प्रलय की बात बड़ी है, पर उसके छोटे छोटे रूप अन्य प्रकार से भी दृष्टिगोचर होते रहते हैं। भूकम्प विस्फोट, बाढ़ आना, वृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी आदि कारणों से कम विनाश नहीं होता है। आये दिन जहाँ तहाँ होते रहने वाले युद्ध और महायुद्ध भी सम्पत्ति और प्राणियों की कम हानि नहीं करते।
एक ओर यह विनाशकारी घटनाएँ होती हैं दूसरी ओर उत्पादन और अभिवृद्धि का उपक्रम देख कर भी आश्चर्यचकित रहना पड़ता है। वनस्पति के सहारे ही जीव धारियों का आहार निर्वाह होता है उसका खर्च जितना है उसे देखते हुए उत्पादन की मात्रा कम नहीं वरन् बढ़ी चढ़ी ही रहती है। खाने वाले प्राणी और ग्रीष्म जैसी नष्ट करने वाली परिस्थितियों का सामना करते रहने पर भी वन सम्पदा और वनस्पति की सुषमा पृथ्वी पर छाई ही रहती है। हरीतिमा के लिए प्रस्तुत सभी चुनौतियाँ अन्ततः निरस्त ही होती हैं और अपनी धरती की हरियाली में धट भर होता है, पर अन्त उसका कभी भी नहीं होता।
तनिक-सी दीखने वाली भिनभिनाती मक्खी एक ही ग्रीष्म ऋतु में 40 हजार सन्तानें पैदा कर सकती है, यदि उसकी आकस्मिक मृत्यु न हो जाए। इन 40 हजार मक्खियों की तीन पीढ़ी में उत्पन्न सन्तानों को एक कतार में रखा जाय, तो पृथ्वी से सूरज तक की दूरी से कई गुनी लम्बी कतार बन जाए।
एक परिपक्व पोस्त में 3 हजार बीज होते हैं। यदि हर बीज से एक पौधा उगने दिया जाय और फिर उनमें से हर पौधे में कम से कम एक पोस्त लगने पर फिर उनमें से हर एक के कम से कम एक पोस्त लगने पर फिर उनमें से हर एक के तीन हजार बीजों को उपयोग भी पौधे ही पैदा करने के लिए किया जाय, तो इस क्रम से 50 वर्षों में एक ही वृक्ष के वंश विकास द्वारा पूरी पृथ्वी ढक सकती है।
प्रकृति की गतिविधियों का जितना ही अधिक निरीक्षण-विश्लेषण किया जाए, यह ज्ञात होता चलेगा कि वह अत्यन्त दयामयी व कुशल है। किन्तु इस दया में आवश्यक उग्रता व रौद्र रूप भी सम्मिलित है। वस्तुतः सन्तुलन ही प्रकृति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व सार्वभौम अन्तःसूत्र है। सन्तुलन की यह प्रकृति प्रवृत्ति हमें विभिन्न पशु पक्षियों की प्राकृतिक संरचना में भी दिखाई पड़ती है।
दक्षिणी अमेरिका का ‘स्लाथ’ पक्षी सम्पूर्ण जीवन पेड़ पर औंधे मुँह लटके लटके काट लेता है। उसका आहार हरे पत्ते टहनियाँ आदि है। प्रकृति ने उसे ऐसे बाल दिये है, जिनके कारण वर्षा ऋतु में भी उल्टे लटके रहने पर भी बरसात का पानी नीचे टपक जाता है, यानि उसके बाल भी उल्टे होते हैं, उसके औंधे लटकने पर वे नीचे झूलते रहते हैं। यदि ऐसा न होता तो बरसात का पानी निरन्तर ऊपर टपकते रहने के कारण अपना वंश चलाते रहने के लिए वह बच न पाता।
संसार के गतिचक्र को देखते हुए हम विकास और विनाश के साथ जुड़े हुए प्रकाश को हृदयंगम कर सकते हैं और उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अनुपयोगिता और अवांछनीयता बढ़ाने वाली विकृतियों को हम अधिक तत्परता पूर्वक स्वयमेव निरस्त करने के लिए प्रयत्नशील रहें ताकि वाहन शक्तियों को बलपूर्वक हमारा असन्तुलन ठीक करने के लिए घायल या विनष्ट करने जैसे कठोर कदम न उठाने पड़े। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ, मानसिक दृष्टि से संतुलित, आर्थिक दृष्टि से सुसम्पन्न और सामाजिक दृष्टि से सम्मानास्पद बने रहने के लिए आवश्यक है कि अंतःक्षेत्र में जन्मे हुए कषायों और बाह्य क्षेत्र में घुसे हुए कल्मषों के निराकरण के लिए हम स्वयं ही कुल्हाड़ा चलाये यह आत्म-परिशोधन-बाह्य दण्ड-व्यवस्था की तुलना में कहीं अधिक हलका पड़ेगा।
उत्पादन, अभिवृद्धि, सुरक्षा के लिए हम भरपूर प्रयास करें किन्तु साथ ही यह ध्यान रखें कि परिवर्तन और विनाश भी इस सृष्टि की ऐसी अनचाही गतिविधियाँ हैं जिनसे हम बच नहीं सकते। अस्तु तैयार इसके लिए भी रहें कि विक्षोभकारी परिवर्तनों के समय उत्पन्न होने वाली विपन्नता को धैर्य और साहसपूर्वक सहन कर लेने की साहसिकता कभी नष्ट न होने पाये।
जड़ता की यहाँ कहीं गुँजाइश नहीं। नगण्य से परमाणु भी अपनी धुरी एवं कक्ष में सक्रिय है। हम हम अपनी आन्तरिक सजगता और बाह्य सक्रियता को बनाये रह कर ही अपने अस्तित्व को प्रखर बनाये रह सकते हैं। परिवर्तन इस विश्व का अकाट्य तथ्य है। हम परिवर्तन के लिए तैयार रहें। प्रगति के पथ पर आगे बड़े और मार्ग की कठिनाइयों को विकास का साधन मानते हुए उनसे जूझने की तैयारी करते रहे।
प्रकृति हम से निर्माण की अपेक्षा करती है और उसमें सहयोग देने के लिए तैयार हों। किन्तु साथ ही यह भी कहती है कि पकड़ कर कुछ न बैठा जाय, जो वह सभी टूटने और बदलने के लिए है इसलिये जो हाथ में है उसका अति दूर-दर्शिता पूर्वक श्रेष्ठतम सदुपयोग कर लिया जाय, इसी में बुद्धिमानी हैं।