मनुष्य की अन्तः शक्ति के विभिन्न प्रयोग

January 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

स्थूल के परिणाम स्वल्प हैं। सूक्ष्म की गहराई में उतरते हैं तो एक के बाद एक बहुमूल्य सम्पदाएँ उपलब्ध होती हैं। धरती की ऊपरी परत कूड़े कचरे और कंकड़ पत्थरों से भरी है। उसे जैसे जैसे गहरा खोदते हैं पानी से लेकर अनेकानेक प्रकार की बहुमूल्य खनिज सम्पदाएँ मिलती चली जाती हैं। रेत के अदृश्य जैसे परमाणु का स्थूल मूल्य नगण्य है। उसकी बाजारू कीमत नहीं के बराबर है, पर जब उसकी भीतरी शक्ति को कुरेदा जाता है तो पता चलता है कि उस पदार्थ के तुच्छाति तुच्छ घटक में कितनी महान् शक्ति के अजस्र भाण्डागार भरे पड़े है। विस्फोट के समय परमाणु शक्ति का प्रायः एक लाखवाँ भाग ही विनाशलीला में संलग्न हो पाता है, शेष तो तत्काल अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है यदि एक परमाणु से अन्तः निहित ऊर्जा का केन्द्रीकरण किया जा सके और उसे ध्वंस कृत्य में लगाया जा सके तो उतने से ही इस समस्त भू-मण्डल का विनाश हो सकता है। इसी प्रकार उस शक्ति का सृजन प्रयोजन में उपयोग हो सके तो धरती को प्रायः उतनी ही गर्मी मिल सकती है जितनी कि सूर्य से अपनी दुनिया को उपलब्ध होती है। ‘अणोरणीयान् महतो महीयान् के श्रुति वचन में इसी तथ्य की ओर इंगित किया गया है।

व्यक्ति की रहस्यमयी क्षमताओं को अनगढ़ स्थिति में उवार कर उसे शुद्ध एवं प्रखर बनाना ही योग साधना का उद्देश्य है। जो हमारे लिए आवश्यक एवं उपयोगी है। वह सब कुछ हम अपने ही भीतर से अपने ही पुरुष से आत्म नियन्त्रण की प्रक्रिया अपना कर सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। इसी तथ्य को प्रत्यक्ष करना योग साधना का उद्देश्य है।

योग साधना द्वारा कई प्रकार की अलौकिक क्षमताएँ उत्पन्न की जा सकती है और उसका उपयोग सत्प्रयोजनों में करने से उतना हित साधन हो सकता है जितना सामान्य भौतिक क्षेत्र में सम्पन्न किये जाने वाले पुरुषार्थ द्वारा सम्भव नहीं है।

व्यक्तिगत सामर्थ्य की दृष्टि से देखा जाय तो भी प्रतीत होगा कि सामान्य प्रयत्नों से शरीर बल-बुद्धि बल आदि की जितनी वृद्धि हो सकती है उसकी तुलना में साधना विज्ञान का आश्रय लेकर अधिक समर्थ एवं सुविकसित बना जा सकता है।

जापान में बौद्ध सम्प्रदाय की एक योगविद्या-जेन साधना के नाम से प्रख्यात है। इसके अभ्यासियों में कई प्रकार की अलौकिकताएँ पाई जाती है। मानसिक और आत्मिक दृष्टि से तो इस साधना में उच्चस्तरीय सिद्धियाँ पाई जाती है। साथ ही उसके कई अभ्यासी शारीरिक दृष्टि से भी प्रख्यात पहलवानों को भी अवाक् कर देने वाले कार्य कर दिखाते हैं।

जेन-साधना भारतीय योगविद्या का ही एक अंग है। पाँचवीं में बौद्ध भिक्षुओं के जत्थे भारत से जापान पहुँचे थे। उन्होंने धर्म प्रचार के साथ जिस योगविद्या का वहाँ विस्तार किया था उसकी विशेषता उस देश में अभी जेन साधना के रूप में मौजूद है।

मास एक नाटा दुर्बल व्यक्ति था। जन्मा कोरिया में, पला जापान में। वहाँ उसने विशेष जापानी योगविद्या, जने साधना सीखी। इसी के अभ्यास से वह चमत्कारी योद्धा बन गया।

मास एक नाटा दुर्बल व्यक्ति था। जन्मा कोरिया में, पला जापान में। वहाँ उसने विशेष जापानी योगविद्या जेन साधना सीखी। इसी के अभ्यास से वह चमत्कारी योद्धा बन गया।

वह दो पकी हुई मजबूत ईंटें हथेलियों के बीच रख कर उँगलियों के खाँचे भिड़ाकर उन्हें दबाता और उन ईंटों का चूरा बना देता। दर्शक अवाक् रह जाते है

उसने जापान में कई पहलवानों को हरा दिया। तब उन सबने मिलकर उसे साँड से कुश्ती लड़ने की चुनौती दी। मास ने साफ मना कर दिया, पर उसे बार-बार चिड़ाया जाने लगा, तो वह तैयार हो गया। एक अत्यन्त क्रोधी, तेरह मन भारी विशालकाय साँड़ को नशा पिला कर दंगल में लाया गया। विशाल जन समुदाय और डाक्टरों पुलिस वालों के दल भी मौजूद थे। निहत्थे मास पर प्रशिक्षित साँड़ ने पहले प्रहार किया। मास अटल रहा और जवाब में जोरदार घूँसा मारा। घूँसा खाते ही 13 मन भारी साँड़ चक्कर खाकर गिर पड़ा और दम तोड़े दिया।

यही मास अमेरिका गया और वहाँ के प्रख्यात पहलवानों को चुनौती दी। अमरीका की तत्कालीन चैम्पियन पहलवान डिकरियल के साथ दंगल रखा गया। डिकरियल था 6 फुट 7 इंच ऊँचा और मास सिर्फ 4 फुट 1 इंच अखाड़े में दोनों की जोड़ी कतई नहीं जम रही थी। कई लोग देखते ही उठने लगे यह मानकर कि नतीजा तो साफ व निश्चित है, पर थोड़ी ही देर में मास ने डिकरियल को चित्त कर दिया और 1 हजार डालर का इनाम जीत लिया।

अमेरिका जनता इस बेतुकी-सी बात को हजम न कर सकी। मास पर आरोपों की बौछार होने लगी। मास खिन्न हो गया। अन्ततः उसने विज्ञापन द्वारा चुनौती दी कि उसे हटाने डालर सहर्ष लौटा देगा। दूसरा दंगल रचा गया। एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का पहलवान जो कि अमेरिकी पुलिस अफसर था मुकाबले में था, पर मास ने उसी भी ऐसी पटकारी मारी कि उसकी दो हड्डियाँ ही टूट गई, अमेरिकी विक्षुब्ध और उत्तेजित हो उठे।

मास अपनी इस शक्ति का कारण योगसाधना को बताता था। उसने जेन साधना में निष्णात महाभिक्षु फुना कोशी से दीक्षा ली और उनका अन्तेवासी बन योगाभ्यास करता रहा। पर्वतों की निर्जन गुफाएँ, बर्फ से ढकी कन्दराएँ उसका साधना स्थल थीं और वनस्पतियाँ उसका आहार। कई बाद वह जेन साधना में सिद्ध पुरुष बन कर लौटा।

तन्त्र ग्रन्थों के प्रख्यात लेखक और कलकत्ता के तत्कालीन प्रधान जज सरजान बुडरफ ने अपने एक संस्मरण में लिखा है, वे ताजमहल होटल के लाउँज पर बैठे थे उनके साथ एक भारतीय मित्र थे। संकल्प शक्ति की चर्चा चल रही थीं। उन मित्र ने इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए कहा- इतना तो मैं भी कर सकता हूँ कि सामने जो बीस के लगभग मनुष्यों का झुण्ड बैठा है उसमें से आप जिसे कहें उठा देने और बिठा सकने का जादू दिखा सकूँ। बुडकफ ने उनमें से एक व्यक्ति को चुन दिया। मित्र ने अपनी शक्ति का प्रयोग किया। फलतः ठीक वही व्यक्ति अकारण उठ खड़ा हुआ-चला और फिर अपने स्थान पर वापिस बैठ गया।

फ्राँस की एक लड़की एनेट फ्रेलन की विचित्रता भी अपने समय में बहुत प्रख्यात रही। जब वह बारह वर्ष की थी तभी वह अविज्ञात प्रश्नों के उत्तर देती थी। यह उत्तर उसकी चमड़ी पर इस तरह उभरते थे, मानो किसी ने कागज पर स्याही से लिखे जाने की तरह उन्हें लिख दिया हो। यह अक्षर अपने आप ही उभरते थे और कुछ ही मिनट में गायब हो जाते थे।

28 जुलाई 1969 को दक्षिण अफ्रीका के न्यूकेसिल नगर में असंख्य जन समूह के सम्मुख योगविद्या का चमत्कार प्रदर्शन अन्तर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना रहा।

बात यह थी कि एक चाय का होटल चलाने वाला साधारण सा युवक-पीटरवान डेनवर्ग-योगविद्या के चमत्कारों के बारे में बहुत कुछ सुनता, पढ़ता रहा था। उसने भारत को योगियों के देश के नाम से जाना था। अस्तु अपनी सारी जगा पूँजी समेट कर भारत चल पड़ा और तिब्बत हिमालय क्षेत्र में भ्रमण करके चमत्कारी विद्याएँ बहुत समय तक सीखता रहा।

जब वह अपने देश वापस लौटा तो लोगों ने उसे चमत्कार दिखाने के लिए विवश कर दिया। अन्ततः वैसे प्रदर्शन की व्यवस्था की गई। एक लम्बे चौड़े चबूतरे पर पत्थर के दहकते कोयलों की लपटों में डेनवर्ग को देर तक चहलकदमी करनी थी। प्रदर्शन के लिए जोरदार विज्ञापन किया गया। अस्तु उसे देखने के लिए दूर दूर से भारी संख्या में एकत्रित हुए लोगों से प्रदर्शन का विस्तृत मैदान खचाखच भर गया। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ और ज्वालाओं के बीच युवक नंगे पैरों बहुत समय तक टहलता रहा। निकला तो उसके शरीर पर कहीं एक छाला भी नहीं था।

मंत्र साधना के नाम पर चल रही ठगी भी कम नहीं है। उस आड़ में धूर्तों का काला बाज़ार भी खूब पनपता है, इतने पर भी यह नहीं मान बैठना चाहिए कि इस क्षेत्र में तथ्य कुछ नहीं है। यदि गहराई उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि साधना विज्ञान की भी अपनी उपलब्धियाँ हैं और उनके सहारे दिव्य क्षमताओं के अभिवर्धन की दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है।

एक अँगरेज शिकारी डेविड लेजली ने अपने अफ्रीकी शिकार यात्राओं के विवरणों की एक पुस्तक लिखी है "जंतुओं के बीच” उसमें एक घटना यह है कि उसके साथी हाथियों की शिकार के लिए घेराबंदी करते हुए कहीं गायब हो गये और बहुत ढूँढ़ने पर भी उनका कहीं कुछ भी पता न चला। इस तलाश में एक ‘जुलु’ तान्त्रिक की सहायता ली गई। उसने उन सभी साथियों की शक्लें। वस्तुएँ आदि का ब्यौरा बताते हुए यह भी कहा कि वे इस समय अमुक स्थान पर है। बताये हुए स्थान पर जाकर उन्हें खोज लिया गया।

मनुष्य शरीर की सामान्य विद्युत शक्ति से दैनिक जीवन का क्रिया कलाप चलता है किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिए कि मानवी ऊर्जा की मात्रा इतनी ही सीमित है। यदि वह किसी प्रकार बढ़ सके तो मनुष्य शरीर चलते फिरते बिजली घर के रूप में परिणत हो सकता है। इस शक्ति को योगीजन भले कार्यों में और दुष्ट प्रकृति के लोग दुष्प्रयोजनों में लगाते हैं। आग का भोजन बनाने और घर जलाने में कुछ भी प्रयोग हो सकता है। यही बात साधना द्वारा उत्पन्न हुई आत्म शक्ति के सम्बन्ध में भी हैं।

एक अन्य रूसी महिला ‘नेल्या भिखायलोक’ में सहसा असामान्य इच्छा शक्ति उस समय विकसित हो गई, जब वह युद्ध के दिनों में सैनिक के रूप में मोर्चे पर लड़ते हुए शत्रु के गोले से गम्भीर रूप में आहत होकर अस्पताल में आरोग्य लाभ कर रही थी।

मास्को विश्वविद्यालय के जीवविज्ञान शास्त्री एडवर्ड नोमोव ने नेल्या का परीक्षण विश्लेषण किया। प्रयोगशाला में उसने मेज पर बिखरी माचिस की तीलियों को बिना छुए, तनिक ऊपर से हाथ घुमा कर जमीन पर गिरा दिया। फिर वही तीलियाँ काँच के डिब्बे में बन्द कर दी गई। नेल्या ने शब्द के ऊपर हाथ घुमाया, तो तीलियों में हलचल मच गई।

इसी तरह सोवियत लेखक बदिममारीन के साथ भोजन करते समय नेल्या ने मेज पर थोड़ी दूर पड़े रोटी के टुकड़े पर अपना ध्यान एकाग्र किया, तो वह टुकड़ा खिंचकर नेल्या के पास आ गया। फिर उसने झुककर मुँह खोला, तो वह टुकड़ा नेल्या के मुँह में उछलकर समा गया। नेल्या का परीक्षण भली-भाँति रूसी वैज्ञानिकों ने किया और पाया कि उसके मस्तिष्क में विद्युत शक्ति सी कौंधती है और देह से चुम्बकीय शक्ति निकलती है।

बिजली के भले बुरे परिणाम सभी को विदित हैं। तान्त्रिक वर्ग के लोगों में से कितने उसका दुष्प्रयोजनों में व्यय करते और अपने प्रति पक्षियों को हानि पहुँचाते भी देखे गये है।

युगाँडा के एक भूमिगत संगठन ‘दिनी बा मसाँब्बा के कार्यों की जानकारी के लिए नियुक्त एक ब्रिटिश गुप्तचर अधिकारी ने अपनी संस्मरण पुस्तक में विभिन्न घटनाओं का उल्लेख किया है। ये ब्रिटिश अफसर जान क्राफ्ट प्रगतिशील अन्धविश्वासों से सर्वथा मुक्त, कुशाग्र बुद्धि साहसी व प्रशान्त मस्तिष्क से काम करने वाले हैं। उन्हें जादू टोना पर तनिक भी विश्वास नहीं था, पर जब वे गुप्त संगठन का पता लगाने में सक्रिय हुए, तो उन्हें चेतावनी दी गई कि वे इस काम से हाथ खींच लें। जब वे न माने, तो उनके ऊपर सर्वथा अप्रत्याशित व अस्वाभाविक तौर पर महाविषैले सर्पों से आक्रमणों की योजना बनाई गई। वे एक भोज में गए। वहाँ से लौटते समय, आगे अनेक अतिथि तो निरापद चले गए, पर जब जानक्रिफ्ट सीढ़ियों पर उतरने लगे, तो वह भयंकर विषधर घात लगाए बैठा था। भेजवान ने जानक्रिफ्ट को एकदम से धक्का देते बने, न ठेल दिया होता, वह उन्हें डसने ही वाला था।

एक बार वे अकस्मात् एक सहयोगी के यहाँ पहुँचें, तो वहाँ भी एक भयंकर फणिधर ने तीखी विषधार उनकी आँखों की और छोड़ी। सहकर्मी सतर्क व चुस्त था, उसने उन्हें तत्काल नीचे गिरा दिया और जहरीली धार ऊपर निकल गई। अन्यथा उनका प्राणान्त हो जाता या फिर वे जन्मभर के लिए अन्धे हो जाते।

फिर एक बार मोटर के दरवाजे के पास दूसरी बार बिस्तर पर ही भयंकर विषैले सर्प दिखे एकबार क्रिफ्ट के दफ्तर के अँधेरे कोने में दुबका बैठा था। घटनाओं का विश्लेषण स्पष्ट बताता था कि यह संयोग मात्र नहीं हो सकता। उनके अकस्मात् दूर कहीं पहुँचने की सूचना उनके शत्रुओं को भी नहीं मिल सकती थी, अतः यह सम्भावना भी नहीं मानी जा सकती थी कि वे लोग चुपके से ये सर्प छोड़ जाते रहे होंगे। फिर भोज में आये अनेक नागरिकों में से सिर्फ क्रिफ्ट पर ही प्रहार की चेष्टा सर्प ने क्यों की? घटनाएँ इस तथ्य को मानने को विवश करती है कि वहाँ प्रचलित यह मान्यता सही हो सकती है कि वहाँ प्रचलित यह मान्यता सही हो सकती है कि वहाँ के तांत्रिक सर्पों को वंश में कर उनका इस तरह मनचाहा प्रयोग करते हैं।

नवभारत टाइम्स के 30 जून 1976 के अंक में प्रकाशित की राजकुमार मिश्र के एक लेख के अनुसार-” मध्यप्रदेश में सरगुजा में सन् 1934-35 में सरगुजा-नरेश के दरबार में एक महिला की पेशी हुई, जिस पर आरोप थे कि दरबार में एक महिला की पेशी हुई, जिस पर आरोप थे कि मारण-मन्त्र प्रयोग था।

उस आदिवासी युक्ती ने भरे दरबार में अपना अपराध स्वीकार कर लिया। क्योंकि यह आदिवासियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है कि वे अपने द्वारा किये कामों को स्पष्ट स्वीकार कर लेते हैं। जब महाराजा ने मारणं मन्त्र की शक्ति का प्रदर्शन देखना चाहा तो एक स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट मुर्गा एक राज-कर्मचारी के हाथ में रखा गया। युक्ती ने एक निश्चित दूरी पर खड़े होकर एक तिनका टूटने के साथ ही राज-कर्मचारी के पास रखा स्वस्थ मुर्गा सहसा ऐंठा, छटपटाया और निष्प्राण हो गया।

इस घटना से यह भी स्पष्ट है कि उसका मारण मन्त्र एक निश्चित सीमा के भीतर ही प्रभावी हो सकता था। उक्त युवती ने बताया भी कि जब ग्रामीणों को उस पर शक हो गया और वे उससे दूर-दूर ही रहने लगे तो उसने छटपटाकर मरते प्राणी को देखने में आनन्द की अनुभूति होने की अपनी प्रवृत्ति को परितुष्ट करने के लिए अपने पति, अपने ससुर और डेढ़ वर्षा के अपने मासूम बच्चे पर ही मारण-मन्त्र का प्रयोग किया। स्पष्ट है कि अविकसित मस्तिष्क को प्राप्त यह विलक्षण शक्ति भी उसके लिए नशा बन गई थी। उसमें आत्म-नियन्त्रण नहीं था और अपनी शक्ति के प्रभाव को देखने के लिए उसमें उन्माद जगा करता था।

शक्ति एवं सम्पत्ति का भला या बुरा उपयोग करना प्रयोक्ता के लिए ही प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। इससे इन क्षमताओं की उपयोगिता किसी प्रकार कम नहीं होती, उनका उपार्जन एवं अभिवर्धन होना ही चाहिए


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118