समाज की अभिनव रचना

समाज की अभिनव रचना विश्व-मानव की अखंड अंतरात्मा विश्व मानव की आत्मा एक और अखंड है । समस्त जड़-चेतन उसी के अंतर्गत अवस्थित हैं । इस आत्मा में अपनी एक दिव्य आभा, स्वर्गीय ज्योति जगमगाती है । अनेक मल आवरणों ने उसे ढ़क रखा है । यदि वह ज्योति इन आवरणों को चीरकर अपने शुद्ध स्वरूप में जगमगाने लगे, तो उसका आलोक जहाँ भी पड़े वहीं आनंद का परम आह्लादकारी दृश्य दिखाई दे सकता है । इस प्रकाश की सीमा में आने वाली हर वस्तु स्वर्गीय बन सकती है । ऐसी बहुमूल्य ज्योति हमारे अंदर मौजूद है । स्वर्ग की सारी साज-सज्जा हमारे भीतर प्रस्तुत है, पर अविद्या के प्रतिरोधी तत्त्वों ने उसे भीतर ही अवरुद्ध कर रखा है । फलस्वरूप मानव प्राणी स्वयं नारकीय स्थिति में पड़ा हुआ है और वैसा ही नरक तुल्य वातावरण अपने चारों ओर बनाए बैठा है । आत्मा स्वार्थ की संकुचित सीमा में अवरुद्ध होकर आज खंडित हो रही है । हर व्यक्ति अपने को दूसरों से अलग खंडित देखता है, फलस्वरूप चारों ओर संघर्ष और कलह का वातावरण उत्पन्न होता है । वस्तुत: हम सब एक हैं, अखंड हैं, सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक का सुख-दुःख, दूसरे का सुख-दुःख है । उठना है तो सबको एक साथ उठना होगा, सुख ढूँढना है तो सबको उसे बाँटना होगा । खंडित व्यक्ति स्वार्थ की संकुचित सीमा में रहकर अपने शरीर के लिए कुछ भी कितना ही इकट्ठा क्यों न कर ले, पर इससे

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