मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ

यों कहने को तो सभी कहते हैं कि जो जन्मा है सो मरेगा । इसलिए किसी की मृत्यु पर दुःख मनाते हुए भी यह नहीं कहा जाता है कि यह अनहोनी घटना घट गई । देर-सबेर मेंआगे-पीछे मरना तो सभी को है, यह मान्यता रहने के कारण रोते-धोते अंतत: संतोष कर ही लेते हैं । जब सभी को मरना है तो अपने स्वजन-संबंधी ही उस काल-चक्र से कैसे बच सकते हैं ?

लोक मान्यताओं की बात दूसरी है, पर विज्ञान के लिए यह प्रश्न काफी जटिल है । परमाणुओं की तरह जीवाणु भी अमरता के सन्निकट ही माने जाते हैं । जीवाणुओं की सरचना ऐसी है, जो अपना प्रजनन और परिवर्तन क्रम चलाते हुए मूलसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रहती है । जब मूल इकाई अमर है तो उसका समुदाय-शरीर क्यों मर जाता है? उलट-पुलटकर वह जीवित स्थिति में ही क्यों नहीं बना रहता ? उनके बीच जब परस्पर सघनता बनाए रहनेवाली चुंबकीय क्षमता का अविरल स्रोत विद्यमान है, तो कोशाओं के विसंगठित होने और बिखरने का क्या कारण है? थकान से गहरी नींद आने और नींद पूरी होने पर फिर जग पड़ने की तरह ही मरना और मरने के बाद फिर जी उठना क्यों संभव नहीं हो सकता ?

बैक्टीरिया से लेकर अमीबा तक के दृश्यमान और अदृश्य जीवधारी अपने ही शरीर की उत्क्रांति करते हुए अपनी ही परिधिमें जन्म-मरण का चक्र चलाते हुए प्रत्यक्षत: अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रहते हैं । फिर बड़े प्राणी ही क्यों मरते हैं ? मनुष्यको ही क्यों मौत के मुँह में जाने के लिए विवश होना पड़ता है?

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