अतींद्रिय सामर्थ्य संयोग नहीं तथ्य

मनुष्य में काम करने और सोचने की क्षमता है । इन्हीं दोनों के समन्वय से अनेकानेक प्रकार की कलाओं और कुशलताओं का स्वरूप सामने आता है । उपार्जनों और उपलब्धियों के पीछे इन्हीं क्षमताओं का संयोग-उपयोग काम कर रहा होता है । समृद्धि और वैभव के जो कुछ चमत्कार दीखते हैं, उनके पीछे मनुष्य की यह शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ ही काम कर रही होती हैं । अतिरिक्त क्षमताएँ इससे आगे की भूमिका में उत्पन्न होती हैं । इन्हें विभूतियाँ कहते हैं और इनके पीछे दैवी अनुकंपा काम करती समझी जाती हैं । ऋद्धि सिद्धियों का क्षेत्र यही है । योगाभ्यास-तपश्चर्या, तंत्र प्रयोग, भक्ति-साधना आदि अनुष्ठानों का आश्रय लेकर इन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है । चेतना की गहरी खोज-बीन करने पर पता चलता है कि यह बाह्य उपार्जन नहीं, आंतरिक उद्भव है । मानवी सत्ता का बहुत थोड़ा अंश ही प्रयोग में आ सका है । जितना ज्ञात है और जिसका प्रयोग होता है वह बहुत थोड़ा अंश है । इससे कितनी ही गुनी संभावनाएँ मानवी सत्ता के गहन अंतराल में छिपी पड़ी हैं । धरती की ऊपरी सतह पर तो घास-पात उगाने की क्षमता ही दीख पड़ती है । कहीं धूलि कहीं पत्थर बिखरे दीखते हैं, पर गहराई

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