युगऋषि और उनकी योजना

सार्थक, शाश्वत प्रतीक चुनें

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         इष्ट, गुरु, ऋषि, संत आदि के व्यक्तित्व तो बड़े व्यापक होते हैं, किन्तु उन्हें याद करने, पहचानने के लिए प्रतीकों का प्रयोग करना पड़ता है। उनके लिए निर्धारित नाम-संबोधन तथा उनके स्वरूप, ये दोनों ही वे प्रतीक होते हैं, जिनके माध्यम से हम उनके व्यक्तित्व के बारे में अपनी अवधारणाएँ बनाते हैं। यदि हमें अपनी अवधारणाएँ उत्कृष्ट बनानी हैं, तो उनके लिए १-सार्थक संबोधन तथा २- शाश्वत स्वरूपों का चयन करना चाहिए। यहाँ हम अन्य उदाहरणों की चर्चा करने की अपेक्षा सीधे युगऋषि-पू.गुरुदेव के संदर्भ में चिंतन करते हैं।

    सार्थक संबोधन- संबोधन दो तरह के प्रचलित हैं। १-व्यक्ति वाचक संबोधन तथा २-भाववाचक या गुणवाचक संबोधन। युगऋषि के लिए व्यक्ति वाचक संबोधन है ‘श्रीराम शर्मा’ तथा भाव या गुणवाचक संबोधन है, ‘युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ’ आदि।

    व्यक्ति वाचक संबोधन तो पिता, माता या सगे संबंधियों की रुचि के अनुरूप रख दिया जाता है। यदि वे लोग कोई अन्य नाम ‘क, ख, ग आदि’ रख देते, तो व्यक्तिवाचक संबोधन बदल जाता; किन्तु उस संबोधन रूपी प्रतीक से जिस समर्थ चेतन सत्ता को व्यक्त किया जा रहा है, वह तो बदलती नहीं। व्यक्तिवाचक सम्बोधन ‘क, ख, ग आदि’ होने पर भी उनके लिए भाव या गुणवाचक सम्बोधन वही वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि आदि ही रहते। अस्तु, उनके प्रति अपनी अवधारणा को श्रेष्ठतर बनाने के लिए उनके यह गुणवाचक नाम अधिक सार्थक सिद्ध होते हैं। इसलिए अपनी अवधारणा हमें कुछ इस प्रकार बनाने, साधने का प्रयास करना चाहिए-

    हम वेदमूर्ति से जुड़े हैं, हमारे अंदर वेद, अर्थात् ज्ञान का स्तर बढ़ते रहना चाहिए। उन्होंने उज्ज्वल भविष्य के लिए जिस दिव्य ज्ञान की धारा को प्रवाहित किया है, हमें वेददूत-सत्परामर्शदाता बनकर अपने संपर्क के हर व्यक्ति तक उसकी आवश्यकता के अनुरूप ज्ञान का संदेश पहुँचाने में समर्थ होना चाहिए।

    हम तपोनिष्ठ से जुड़े हैं। उन्होंने प्रचण्ड तप से युग की धारा को उज्ज्वल भविष्य की ओर मोड़ने का पुरुषार्थ दिखाया है। हम इतना तप तो साध ही लें कि अपने और अपनों के चरित्र को बेहतर बनाते रह सकें।

    हम युगऋषि से जुड़े हैं। उन्होंने युग सृजन के लिए जो बीजरूप सूत्र तैयार कर दिये, उनको फलित होने के लिए अनुकूल मौसम की तरह सूक्ष्म प्रवाह पैदा कर दिया है। हम उन जीवन सूत्रों, बीजों को समय पर अपनी और अपनों की मनोभूमि में बो दें। अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, प्रतिभा एवं धन का कुछ अंश उनके विकास के लिए खाद-पानी की तरह लगाते रहें।

    इस प्रकार की अवधारणाएँ जिनके अंतःकरणों में प्रतिष्ठित होंगी, उनके अंदर युग साधक, युग सैनिक, प्रज्ञापुत्रों के अनुरूप प्रेरणाएँ उभरने लगेंगी। उनकी साधनाओं का स्वरूप कर्मकाण्ड की चिह्न-पूजा से ऊपर उठेगा तथा वे आत्म समीक्षा, आत्म शोधन, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए महामानवों, सौभाग्य-सम्पन्नों की उच्च श्रेणियों में शामिल हो सकेंगे।

    शाश्वत रूप- प्रतीकों में संबोधन के साथ रूप का भी महत्त्व है। हमें उनके लिए सार्थक संबोधनों की तरह उनके शाश्वत रूप पर विशेष ध्यान देना चहिए। उनकी काया को, उनके चित्रों को ही उनका रूप मानें, तो उनमें तो जीवन भर परिवर्तन होता रहा। फिर देहावसान के बाद बाह्य रूप रहा ही नहीं। उनके माध्यम से उनके विराट् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में हमारी अवधारणा कैसे सधेगी?

    इस असमंजस के निवारण के लिए युगऋषि ने स्वयं पर्याप्त निर्देश दिए हैं। समय-समय पर यह कहते रहे हैं कि मैं व्यक्ति (रूप) नहीं हूँ, शक्तिरूप हूँ, एक मिशन हूँ। दृश्य प्रतीकों-स्वरूपों के बारे में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि मुझे अखण्ड ज्योति (दीपक) के रूप में देखना। मुझे प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के रूप में देखना, मुझे लाल मशाल के रूप में देखना। इन प्रतीकों के माध्यम से उनके युगान्तरकारी दिव्य स्वरूप के बारे में हमारी अवधारणा उत्कृष्ट बन सकती है।

१. अखण्ड ज्योति- उन्होंने अपनी साधना स्थली पर जो अखण्ड ज्योति जलाई है, वह देव संस्कृति के सनातन-अखण्ड चेतन-प्रवाह की प्रतीक है, जिसके कारण भारत को देवभूमि, विश्वगुरु जैसे गौरव की प्राप्ति हुई। वे स्वयं को ऋषियों की सनातन चेतन धारा का ही रूप अनुभव करते रहे। इसलिए उन्होंने अपनी जीवनी को शीर्षक दिया ‘हमारी वसीयत और विरासत’। उनकी साधना जन्म-जन्मातरों से अखण्ड ज्योति की तरह अनवरत प्रकाशमान रही है।
    २. सजल श्रद्धा-प्रखर प्रज्ञा- मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने प्रियजनों, श्रद्धास्पदों की स्मृति बनाये रखने के लिए कुछ दृश्य प्रतीक स्थापित करना चाहता है। युगऋषि ने परिजनों की इस भावना का तो सम्मान किया, किन्तु अपने प्रतीक ‘व्यक्ति रूप’ में नश्वर काया की मूर्ति के रूप में स्थापित करने को मना कर दिया। उनके स्थान पर सनातन, शाश्वत सिद्धांतों के रूप में प्रतीकों की स्थापना के निर्देश दिए।

    वे ऋषिरूप हैं, तीर्थरूप हैं। प्रज्ञा की प्रखरता और श्रद्धा की सजलता का समन्वय व्यक्तियों को ऋषितुल्य और स्थलों को तीर्थतुल्य बनाता है। यह प्रतीक उनके गरिमामय व्यक्तित्व का बोध कराने में सक्षम है।

    ३. लाल मशाल- उन्होंने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि मैं अपने अभियान के अन्तर्गत किसी व्यक्ति विशेष को गुरु या दीक्षा देने वाले का दर्जा नहीं दे रहा हूँ। मेरे प्रतीक के रूप में लाल मशाल को स्थापित करके कोई भी नैष्ठिक साधक दीक्षा देने का कार्य सम्पन्न करा सकता है।
    अपने सहयोगियों के लिए लिखे गये निर्देश पत्रक ‘अपने अंग-अवयवों से’ में उन्होंने स्पष्ट लिखा है-‘‘आप सबकी समन्वित शक्ति का नाम ही वह व्यक्ति है, जो इन पंक्तियों को लिख रहा है।’’

    लाल मशाल के प्रतीक में कुल पाँच घटक हैं।

१. जन समुदाय-युग सृजन के लिए अनुकूल श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ विचारणा वाले सभी वर्गों के कर्मठ नर-नारी। २. उनकी समन्वित शक्ति का प्रतीक-हाथ। ३.सृजन के संकल्प के रूप में हाथ में थामी हुई मशाल। ४. सृजन की क्षमता, उमंग, सामर्थ्य के रूप में उठती ज्वाला तथा ५. परमात्मा के समर्थन-संरक्षण का प्रतीक प्रभामण्डल।

    युगऋषि के व्यक्तित्व के भी यही सब अंग रहे हैं। सबकी समन्वित शक्ति के रूप में ही वे स्वयं का परिचय देते रहे हैं। युगनिर्माण की ईश्वरीय योजना को मूर्त रूप देने के संकल्प और तप-सामर्थ्य उनके व्यक्तित्व की पहचान रहे हैं। ईश्वरीय दिव्य अनुग्रह तो जैसे उनके जीवन का अभिन्न अंग था। इसलिए उनके दृश्य प्रतीक के रूप में लाल मशाल को सार्थक और शाश्वत प्रतीक कहना सर्वथा उचित है।

    जब हमारी अवधारणाएँ उनके स्वरूप के बारे में उक्त प्रकार की बनेंगी, तो हमारे अन्दर भी अखण्ड ज्योति की तरह छोटी-सी ही सही, किन्तु अखण्ड साधना का प्रवाह उभरेगा। हम भी उन्हें अपने अंदर सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के रूप में विकसित-स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील होंगे। लाल मशाल के जनसमूह के एक पात्र, उनके एक अंग-अवयव के रूप में विकसित होने की हमारी अदम्य भावना उभरेगी। फिर हमारे लिए वे सभी कार्य सहज-स्वाभाविक लगने लगेंगे, जिन्हें अभी हम कठिन या असंभव कहकर टाल देते हैं और जिन्हें पूरा करने की उम्मीद वे हमसे करते हैं।

    उनसे भावनात्मक स्तर पर जुड़े प्रत्येक प्राणवान् परिजन के जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह उनकी उम्मीदों पर खरा-प्रामाणिक सिद्ध हो। उनके युगऋषि के स्वरूप को तथा उनकी योजना का स्वरूप समझने-समझाने, उसे अनुभव करने-कराने की हमारी क्षमता विकसित और फलित होती रहे। उनकी योजना है-मनुष्य मात्र को उज्ज्वल भविष्य तक पहुँचाने वाली सार्वभौम योजना युग निर्माण योजना। युगऋषि की यही चाह रही है कि जन-जन इस अभियान से जुड़े यह जन अभियान बने। हमें यही करके दिखाना है।
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