व्यक्तिवाद नहीं समूहवाद

जिस समाज में परमार्थ वृत्ति नहीं होगी, उसका अस्तित्व कायम रहना असंभव होगा । अभिभावकों द्वारा बच्चों की सेवा, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा का ध्यान न रखा जाए और यह वृत्ति समाज में व्यापक बन जाए तो मानव जाति का ह्रास होने लगेगा । परिवार, समाज के व्यावहारिक संबंधों में परस्पर प्रेम और सहानुभूतिजन्य आत्मीयता की भावनाएँ नष्ट हो जाएँ तो समाज के अविकसित, असमर्थ, अक्षम लोगों का जीवन-निर्वाह कठिन ही होगा और वृद्ध, अपंग, अपाहिज, रोगी, दुखी लोगों का जीवन दूभर हो जाएगा। मनुष्य की प्रवृत्तियाँ इस परमार्थ, परार्थ वृत्ति से जितनी ही शून्य होती जाएँगी उतनी ही सामाजिक व्यवस्था दोषयुक्त बनती जाएगी। व्यक्तिगत लाभ, स्वार्थ सिद्धि, समृद्धि के लिए मनुष्य कितना भी क्यों न करे, वह कितना ही संपन्न और वैभवशाली क्यों न बन जाए किंतु परमार्थ और दूसरों के प्रति प्रेम, सहानुभूति, सहायता, सौजन्यता के अभाव में वह समाज के लिए किसी भी तरह उपयोगी सिद्ध नहीं होता। उससे समाज के विकास में कोई योग नहीं मिलता। साथ ही उसका स्वयं का भी विकास रुक जाएगा । क्योंकि समाज के साथ ही व्यक्ति और व्यक्ति के द्वारा ही समाज का विकास संभव है। ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचकर वेद के ऋषि ने स्पष्ट कह दिया है-

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