हमारा स्वास्थ्य जिस प्रकार आहार पर निर्भर है, उसी प्रकारवस्त्रों-पोशाकों
का भी उस पर काफी प्रभाव पड़ता है पर लोगों नेइस समय इस दृष्टिकोण को
बिल्कुल भुला रखा है । वे पोशाक का उद्देश्य लज्जा निवारण या शान-शौक मात्र
समझते हैं । अब तोधीरे-धीरे यह मानव-जीवन का ऐसा अविच्छिन्न अंग बन गई है
कि हमवस्त्रहीन मनुष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । अधिकांश लोग तोइसे इतना
ज्यादा महत्व देते हैं और ऐसा अनिवार्य समझते हैं मानो मनुष्य वस्त्रों
सहित ही पैदा हुआ है और उनके बिना उसका अस्तित्वही नहीं रह सकता ।
पर सच तो यह है कि मनुष्य नंगा ही पैदा हुआ है और हजारों वर्ष तक यह उसी
दशा में प्रकृति माता की गोद में निवास कर चुकाहै । उस समय उसका चमड़ा भी
कुछ कड़ा था । बहुत अधिक ठण्डे स्थानों के निवासी चाहे शीत के प्रकोप से
बचने के लिए भालू आदि जैसे किसी पशु के चर्म का उपयोग भले ही कर लेते हों,
अन्यथा उस युगमें सभी मनुष्य दिगम्बर अवस्था में ही जीवन यापन करते थे ।
फिर जैसे-जैसे रहन-सहन के परिवर्तन से शारीरिक अवस्था में अन्तर पड़ता गया
और लिंग-भेद (सैक्स) सम्बन्धी मनोवृत्तियाँ वृद्धि पाती गयीं, मनुष्य
लँगोटी,