प्रत्येक साधक की सर्वमान्य सोच यही रहती है कि यदि किसी तरह सद्गुरु कृपा हो जाय तो फिर जीवन में कुछ और करना शेष नहीं रह जाता है। यह सोच अपने सारभूत अंशों में सही भी है। सद्गुरु कृपा है ही कुछ ऐसी- इसकी महिमा अनन्त- अपार और अपरिमित है। परन्तु इस कृपा के साथ एक विशिष्ट अनुबन्ध भी जुड़ा हुआ है। यह अनुबन्ध है शिष्यत्व की साधना का। जिसने शिष्यत्व की महाकठिन साधना की है, जो अपने गुरु की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरा है- वही उनकी कृपा का अधिकारी है। शिष्यत्व का चुम्बकत्व ही सद्गुरु के अनुदानों को अपनी ओर आकर्षित करता है। जिसका शिष्यत्व खरा नहीं है- उसके लिए सद्गुरु के वरदान भी नहीं हैं।
गुरु पूर्णिमा के परम दुर्लभ क्षणों में इस पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर प्रत्येक शिष्य टटोलें अपने आप को, करें स्वयं का आत्मावलोकन, करें सच्ची समीक्षा स्वयं अपने आपकी। क्या आप तैयार हैं शिष्य बनने के लिए? क्या आपके पास है वह साहस और हौसला जो शिष्यत्व की साधना की कठिन राह पर आपको चला सके? यदि हाँ- तो शिष्य संजीवनी हम सभी के साधना पथ पर अपना उजाला बिखेरने के लिए आप के हाथों में है। इसके सभी अक्षर अनुभव के अक्षर हैं। जिन्हें मैंने परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सान्निध्य में रहकर अर्जित किया है।
- डॉ. प्रणव प्रण्ड्या
गुरु पूर्णिमा, ७ जुलाई २००९