रामकृष्ण परमहंस

परमहंस रामकृष्ण देव की अमृतवाणी

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परमहंस जी एक दिन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के घर पर उनसे मिलने गये। भेंट होने पर कहा- ''आज तो में सागर से आ मिला। इतने दिन खाई, सोता और अधिक से अधिक हुआ तो नदी देखी थी, पर अब सागर देख रहा हूँ ।। '' '' विद्यासागर ने कहा- ''तो इससे लाभ क्या हुआ, थोड़ा- सा खास पानी मिल जायेगा ।। '' '' परमहंस जी बोले ''नहीं जी, खारा पानी क्यो ?? '' तुम तो अविद्या के नही विद्या के सागर हो, तुम क्षीर- समुद्र हो। तुम्हारा कर्म सात्विक कर्म है। यह सब सत्व का रजोगुण है। सत्वगुण से दया होती है। दया से जो कर्म किया जाता है वह राजसिक कर्म हो सकता है, पर फिर भी वह सत्वगुण से सम्बन्धित है इसलिये उसमें कोई दोष नहीं बतला सकता। तुम विद्यादान, अन्नदान कर रहे हो यह भी अच्छा है। यह कर्म निष्काम भाव से करने से ईश्वर लाभ होगा ।। '' ''

ब्रह्म की चर्चा चलने पर परमहंस जी ने कहा कि ''आजकल वेद, पुराण, तंत्र षड्दर्शन सब के हो गये हैं। क्योंकि वे मुँह से पढ़े जाते है, मुँह से उच्चारित होते है. इसी से उनसे झूठा माना जायेगा। पर केवल एक वस्तु झूठी नहीं हुई है- वह वस्तु उस है। ब्रह्म क्या है यह बात आज तक कोई मुँह से बोल कर नहीं समझा सकता है ।। '' ''

''एक पिता के वे लड़के थे। ब्रह्म विद्या सीखने के लिये पिता ने न दोनों को आचार्य से सौंप दिया। कई वर्ष बाद वे गुरु गृह से लौटे और पर आकर पिता से प्रणाम किया। पिता कई इच्छा हुई कि देखे इन्हें कैसा ब्रह्मज्ञान हुआ है। बड़े लड़के से उन्होंने पूछा- ''बेटा तुमने तो सब कुछ पढ़ा है अब यह बताओ कि बस ब्रह्म कैसा होता है?' बड़ा लड़का वेदों से बहुत- से मन्त्रों की आवृत्ति करता हुआ ब्रह्म का स्वरूप समझाने लगा। पिता चुप रहे। फिर उन्होंने छोटे लड़के से वही प्रश्न किया पर वह सिर झुकाये चुप रहा, मुँह से कोई बात न निकली। तब पिता ने प्रसन्न होकर कहा- ''बेटा तुम्हीं ने कुछ समझा है, ब्रह्म क्या है- ''यह मुँह से नहीं कहा जा सकता।

''मनुष्य सोचता है कि हम ईश्वर के जान गये, एक चींटी चीनी के गोदाम में गई। 'एक दाना खाकर उसका पेट भर गया और दूसरा दाना मुँह में लेकर अपने घर को जाने लगी जाते समय सोच रद्दी थी कि अबकी बार समूचे गोदाम से ले आऊँगी? क्षुद्रजीव भी ब्रह्म के बारे मे इसी प्रकार की बाते सोचा करते हैं, वे नही जानते कि ब्रह्म वाणी और मन दोनों से परे है।

गीता का अर्थ क्या है '' जब चैतन्य देव दक्षिण में तीर्थ- भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक आदमी गीता पड़ रहा है। एक दूसरा आदमी थोड़ी दूर पर बैठे उसे सुन रहा है और सुनकर रो रह ?आँखों से आँसू बह रहे हैं। चैतन्य देव ने पूछा- '' 'क्या तुम यह सब समझ रहे हो '' '' उसने कहा- ''प्रभु ! इन श्लोकों का अर्थ तो मैं नहीं समझता हूँ ।। '' '' चैतन्य ने पूछ- ''तो फिर रोते क्यों हो ?? भक्त ने जवाब दिया- '' 'मैं देख रहा हूँ कि अर्जुन का रथ है और उसके सामने भगवान् और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हे। बस यही देखकर मैं से रहा हूं ।। '' '' इसलिये गीता केवल किताब से पढ़ी नहीं जाती, जब मन से आसक्ति दूर हो जाती है तभी उसका सच्चा आशय समझ मे आता है।

''ब्रह्म ज्ञान की चर्चा उठने पर परमहंस जी ने कहा- पहले हृदय मंदिर में उनके प्रतिष्ठ क्यों। भाषण, लेक्चर आदि जी चाहे तो उसके बाद मना। खाली 'ब्रह्म- ब्रह्म कहने से क्या लाभ यदि हृदय के भीतर विवेक- वैराग्य नहीं है।

''किसी गाँव में पद्यलोचन नाम का एक लड़का था लोग उसे पदुआ कह कर पुकारते थे। उसी गाँव में एक जीर्ण मदिर था, पर उसके भीतर इस समय देवता की कोई मूर्ति न थी। मन्दिर कई दीवारों पर पीपल और तरह- तरह के पेड़ पैदा हो गये थे। मन्दिर के भीतर चमगादड़ अड्डा जमाये ये। फर्श पर भूल और चमगादड़ों मई विष्ठा पड़ी रहती थी। मन्दिर में कोई आता- जाता न था ''एक दिन संध्या के बाद लोगों ने मंदिर की तरफ से शंख की आवाज सुनी। मंदिर कई तरफ से भों- भों शंख बज रहा था। गाँव वालों ने सोचा कि किसी ने मदिर में देवता की मूर्ति पधरा दी होगी और संध्या के बाद आरती हो रही होंगी। लड़के, बुढ़े, औरतें, मर्द सब दौड़ते हुए मदिर की तरफ चले कि देवता के दर्शन करेंगे, आरती देखेंगे। उनमें से एक ने मंदिर का दरवाजा धीरे से खोला तो देखा कि पघलोचन एक तरफ खड़ा हुआ भों- भों शंख बजा रहा है। देवता की प्रतिष्ठा नहीं हुई थी, मंदिर में झाडू तक नहीं लगाया गया था। चमगादड़ों की विष्ठा भी पड़ी हुई थी। तब उस मनुष्य ने चिल्लाकर कहा-

''तेरे मंदिर में माधव कहाँ हैं, पदुआ तूने तो व्यर्थ ही में शंख फुँककर हुल्लड़ मचा दिया ।। '' ''

''इसी प्रकार यदि हृदय- मदिर में माधव की प्रतिष्ठा करनी हो, यदि ईश्वर का लाभ करना चाहो, तो सिर्फ भो- भो शंख फूँकने से क्या होगा। पहले चित्त शुद्ध करना चाहिये। मन शुद्ध हुआ तो भगवान् उस पवित्र आसन पर स्वयं आ विराजेंगे ।। '' ''

भक्तों ने पूछ कि हम ईश्वर को किस उपाय से देख सकते हैं ?? परमहंस जी ने क्या कि ''जब तुम उनके लिये व्याकुल होकर रोना सीख लोगे तो वे अपने आप मिल जायेंगे जिस प्रकार कोई सी अपने छोटे बच्चे के खिलौनों से बहलाकर घर के काम- काज में लगी रहती है। पर जब बालक खिलौने फेंक कर जोर- जोर से रोने लगता है तो मां रोटी बनाना बन्द कर दौड़ आती है- बच्चे से गोद में उठा लेती है। उसी प्रकार भक्त जब ईश्वर को सच्चे हृदय से पुकारते हैं तो वे स्वयं उनके पास आ जाते हैं ।

दूसरे भक्त ने पूछ- ''महाराज, ईश्वर के स्वरूप पर इतने भिन्न- भिन्न मत क्यों हैं। कोई कहता है साकार और कोई कहता है निराकर। साकारवादियों में तो अनेकों रूपों की चर्चा सुनाई पड़ती है, यह कैसा गोरखधन्धा है '''

परमहंस जी ने कहा- '' 'जो भक्त जिस प्रकार देखता है वह वैसा ही समझता है। वास्तव में गोरखधन्धा कुछ भी नहीं है। यदि कोई ईश्वर को एक बार प्राप्त कर सके तो वे स्वयं समझा देते है। जब तुम किसी मुहल्ले में गये ही नहीं तो उसकी खबर कैसे जान सकते हो '' इस सम्बन्ध में एक सना है कि एक आदमी शौच के लिये जंगल मे गया। उसने देखा कि पेड़ पर एक बड़ा सुन्दर- सा कीड़ा बैठा है। लौट कर उसने अपने एक साथी से कहा- ''देखो जी आज हमने अमुक पेड़ पर एक बड़ा सुन्दर लाल रंग का कीड़ा देखा था ।। '' '' दूसरे आदमी ने जवाब दिया कि ''जब मैं शौच के लिये गया था तो मैंने भी उसे देखा था। पर उसका रंग लाल नहीं था वरन् हरा था। '' तीसरे ने कहा- ''उसे तो हमने भी देखा है, पर उसका रंग तो पीला है ।। '' '' इसी प्रकार कुछ लोग और भी थे जिनमें से किसी ने कीड़े का रंग भूरा किसी बैंगनी किसी ने आसमानी बतलाया। इस पर सबके सब लड़ने लग गये। तब इसका फैसला करने को सब मिलकर ठस पेड़ के पास पहुँचे। वहाँ एक आदमी बैठा था। पूछने पर उसने कहा '' मैं इसी पेड़ के नीचे रहता हूँ। इस कीड़े को मैं खूब पहचानता हूँ। तुमने जो कुछ कहा यह सब सत्य है। यह कभी लाल, कभी हरा, कभी पीला, कभी आसमानी न जाने कितने रग बदलता है। यह बहुरूपिया है और कभी मैं देखता हूँ कि इसका कोई रंग ही नहीं है।

''आशय यह कि जो मनुष्य सर्वदा ईश्वर चिन्तन करता है, वही जान सकता है कि उसका स्वरूप क्या है। वही यह भली प्रकार जानता है कि भगवान् तरह- तरह के रूपों मे दर्शन देते हैं, अनेक भावी में देख पाते हैं, वे सगुण भी है और निर्गुण भी। अर्थात् ईश्वर को कोई किसी खास रंग या रूप में बाँध नहीं सकता।

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