राजा राम मोहन राय

उन्नीसवीं सदी का समय भारतवर्ष के इतिहास में महान् परिवर्तनों का था ।। मुसलमानों का भारतव्यापी शासन- कटकर लगभग निर्जीव हो चुका था और उसका स्थान दूरवर्ती इंग्लैण्ड ग्रहण कर रहा था ।। अंग्रेज शासक अपनी सेना और तोप के साथ अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म को भी लाये थे इस बात के प्रयत्न में थे कि यहाँ के निवासियों में इनका प्रचार करके अपनी जड़ मजबूत की जाये ।। मुसलमानों ने भी हिंदुओं को अपने धर्म में दीक्षित करने की चेष्टा की थी, पर उनके साधन मुख्यतः: तलवार और तरह- तरह के उत्पीड़न थे ।। इसके विपरीत अंग्रेजों ने अपने धर्म को शस्त्र- बल से थोपने की नीति से काम नहीं लिया, वरन युक्ति, तर्क और प्रमाणों से ईसाई- धर्म की श्रेष्ठता और हिन्दू की हीनता सिद्ध करने का प्रयत्न किया और उनको अपने इस प्रयत्न में सफलता भी मिली ।।

इसका कारण यह नहीं था कि ईसाई- धर्म के सिद्धांत अथवा उसका तत्त्वज्ञान हिंदू- धर्म की अपेक्षा उच्च कोटि का था ।। जो धर्म हजारों वर्ष पहले वेदांत सिद्धांत के रूप में रचना के एकमात्र कारण परब्रह्म की विवेचना कर चुका था इस अखिल विश्व के अनादि और अनंत होने की घोषणा कर चुका था, उसकी तुलना ईसाई धर्म से कैसे की जा सकती थी ?? जो एक शरीरधारी द्वारा पाँच हजार वर्ष पहले सात दिन के भीतर इस दुनिया का निर्माण किए जाने पर विश्वास रखता था ।। भारतीय मनीषियों ने संसार को वेद और उपनिषदों का जो गंभीर ज्ञान दिया, उसकी समता बाईबिल की कथाओं से, जिनमें ईसा के थोड़े से चमत्कार और राजाओं के किस्से ही पाये जाते हैं, कैसे की जा सकती थी ??


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