उच्चस्तरीय मानसिक सिद्धियां किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों को ही प्राप्त होती हैं क्योंकि उन्हें प्राप्त करने के लिए जिन साधन अभ्यासों की आवश्यकता पड़ती है, हर कोई न तो जानता है और न ही करने की स्थिति में रहता है। सामान्य रूप से ही कोई प्रसन्न पुलकित नहीं रह सकता तो उच्च स्तरीय साधना अभ्यास के लिए उपयुक्त आवश्यक मनोभूमि किस प्रकार बन सकती है।
मस्तिष्क को संपूर्ण रूप से जागृत करने और उसकी क्षमताओं का समग्र लाभ उठाने के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि यथासंभव उसे निश्चिंत, निर्भर, हल्का फुल्का और स्थिर बनाया जाय। सभी परिस्थितियों में प्रसन्न रहने की आदत यदि डाल ली गई तो समझना चाहिए कि चमत्कारी मस्तिष्कीय क्षमताओं को जागृत करने के राजमार्ग पर कदम रख दिया गया।
दिन और रात की तरह मनुष्य जीवन में प्रिय और अप्रिय घटना क्रम आते जाते रहते हैं। इन उभयपक्षी अनुभूतियों के कारण ही जीवन की शोभा और सार्थकता है। यदि एक ही प्रकार की परिस्थितियां सदा बनी रहें तो यहां सब कुछ रूखा और नीरस लगने लगेगा। सदा दिन ही रहे, कभी रात न हो, सदा मिठाई ही खाने को मिले कभी नमक के दर्शन न हों, सब की उम्र एक–सी रहे, न कोई छोटा हो न बड़ा, सर्दी या गर्मी की एक सी ऋतु सदा रहे, दूसरी बदले ही नहीं, तो फिर इस संसार की सुंदरता ही नष्ट हो जायगी। सदा प्रिय, अनुकूल और सुखद परिस्थितियां बनी रहें, कभी अप्रिय और प्रतिकूल स्थिति न आवे तो कुशलता, कर्मनिष्ठा और साहसिकता की जरूरत ही न पड़ेगी। लोग आलसी, निकम्मा और नीरस जीवन जीते हुए किसी प्रकार मौत के दिन पूरे किया करेंगे।
अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के कारण उत्पन्न होने वाली सुविधा असुविधा का उतना महत्व नहीं जितना मानवी सद्गुणों का। पुरुषार्थ, साहस, धैर्य, सन्तुलन, दूरदर्शिता जैसे सद्गुणों का विकास और परीक्षण प्रतिकूल परिस्थितियों में ही सम्भव है। यदि सदा अनुकूलता बनी रहे तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले लोग गुणों की दृष्टि से पिछड़े ही पड़े रहेंगे। इस प्रकार के विकास की उन्हें आवश्यकता ही अनुभव न होगी।
इस प्रकार के अगणित तथ्यों का ध्यान रखते हुए सृष्टि ने इस दुनिया में अनुकूलता उत्पन्न की है। अनुकूल स्थिति से लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ायें और प्रतिकूलता के पत्थर से घिस कर अपनी प्रतिभा पैनी करें यह उचित है और यही उपयुक्त।
कई व्यक्ति प्रतिकूल स्थिति में मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और वे बेहिसाब दुःखी रहने लगते हैं। एक बार प्रयत्न करने पर कष्ट दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो निराश हो बैठते हैं। कई व्यक्ति इससे भी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं और बैठे ठाले भविष्य में विपत्ति आने की आशंका करते रहते हैं। प्रस्तुत असुविधा के समाधान का पुरुषार्थ करें उपाय सोचें, इसकी अपेक्षा वे चिन्ता, भय, निराश आशंका, उद्विग्नता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फंसा लेते हैं और स्वनिर्मित एक नई विपत्ति गढ़ कर खड़ी कर लेते हैं। इस बौद्धिक अवसाद के खतरे को और उससे उत्पन्न हानियों को हमें समय रहते समझ लेना चाहिए ताकि उस दल-दल में फंसने की विपत्ति से बचा जा सके।
जर्मन मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तातुर लोगों से पूछ कर उन के कारणों का वर्गीकरण किया है तो पता चला है कि 40 प्रतिशत समस्याएं ऐसी थीं जिनकी केवल आशंका मात्र थी, वे सामने आई ही नहीं। 30 प्रतिशत ऐसी थीं जो बहुत मामूली थीं वे कारण थे तो पर सूझ-बूझ तथा परिस्थितियों ने उन्हें इस प्रकार सुलझा दिया कि समय पर किसी उलझन में नहीं पड़ना पड़ा 12 प्रतिशत स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं। वे उपचार से ठीक हो गईं न वे असाध्य थीं और न इनने प्राण संकट उत्पन्न किया। 10 प्रतिशत ऐसी थीं जिनके लिए दौड़ धूप करनी पड़ी दूसरों का सहारा लेना पड़ा और थोड़ी परेशानी भी सहनी पड़ी। केवल 8 प्रतिशत चिन्ताएं ही ऐसी थीं जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और पूरी तरह हल न किया जा सका उनके कारण नुकसान भी उठाना पड़ा।
चिन्ता ग्रस्त रहने वाले लोग निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। मन मौजी और मस्त लोगों को नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है पर चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा भला स्वास्थ्य भी गंवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना अधिक समस्याओं में उलझा हुआ रहेगा उतना ही वह समस्याएं सुलझाने में असमर्थ हो जायगा। क्रोधी आवेश ग्रस्त, उत्तेजित, आक्रोश में भरे हुए विभाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं। वे एक ही आवेश संचालित दिशा में सोचते हैं। कई तथ्यों पर ध्यान रखते हुए सही निष्कर्ष निकालना उनके काबू से बाहर की बात हो जाती है। चिन्ता का कारण दूर करना तो दूर ऐसे लोग शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गंवा कर दुहरी हानि उठाते हैं।
मनुष्य के समान न तो कोई बलवान प्राणी है न निर्बल। बलवान इसलिए है कि यदि वह सूझबूझ से काम ले, अपनी शक्तियों को ठीक तरह प्रयुक्त करे, अपने मधुर व्यवहार के कारण दूसरों का सद्भाव सहयोग संजोये रहे तो प्रगति के पथ पर द्रुतगति से आगे बढ़ सकता है। निर्बल इसलिए है कि हड़बड़ी उतावली और अदूरदर्शिता अपनाये तो बने काम बिगड़ते चले जायेंगे और सफलता की संभावना असफलता बनकर सामने आ खड़ी होगी। अपनी अप्रामाणिकता और अयोग्यता सिद्ध करके वह अपने को मित्रों से रहित एकांकी बना लेगा। यदि अधीरता प्रकट करके और ओदेपन का परिचय देगा तो परिस्थितियां उसके विपरीत होती चली जायगी और अनुभव करेगा कि दुर्भाग्य ग्रस्त और दुर्बल मैं ही हूं।
चिन्ता और चिता में थोड़ा ही अन्तर है। लिपि की दृष्टि से एक बिन्दु की न्यूनाधिकता है। चिता मरने के पश्चात मनुष्य को जलाती है किन्तु चिन्ता जीवित को ही जलाना आरम्भ कर देती है। इस जलन से शरीर का सबसे बहुमूल्य अंग-मस्तिष्क झुलसता है और उसके कोमल कण कठोर हो जाते हैं। प्रमाद, दीर्घसूत्रता और निर्णय करने में असमंजस बने रहने की नई व्यथा उठ खड़ी होती है। जलना गर्मी और खुश्की की बढ़ोतरी से कपाल में जाने वाला प्राण वायु विषैला बनता है और वहां धुआं सा घुमड़ता रहता है। उसकी स्वच्छ और पारदर्शी परतें धूमिल होकर बुद्धिहीनता उत्पन्न करती हैं—ऐसे व्यक्ति स्मरण शक्ति भी खो बैठते हैं और हर घड़ी असहाय, कातर असफल जैसे दीखते हैं। उन्हें आशा की किरणें कहीं से आती नहीं दीखतीं चारों ओर अन्धेरा ही प्रतीत होता है।
चिन्तित दीखने वाला व्यक्ति प्लेटो की दृष्टि में एक आविष्कारक है। अन्तर इतना ही है कि वैज्ञानिक आविष्कारक किसी ठोस आधार को पकड़ते और कुछ उपलब्धियां प्राप्त करते हैं, जब कि चिन्तित व्यक्ति काल्पनिक आशंकाएं रचता और गढ़ता रहता है। वह अपने लिए एक उलझी हुई दुनिया बनाता है और उसी में ताने बाने बुनता हुआ अपनी क्षमता खोता गंवाता चला जाता है।
अपने आपको असमर्थ, अपंग और अनाथ मानने से ही चिन्ता ग्रस्त मनःस्थिति बनती है। साहसी व्यक्ति कठिनाइयों को अपने पौरुष के लिए एक चुनौती मानता है और खिलाड़ी लोग जिस तरह साहस और उत्साह के साथ गेंद के साथ गुंथ जाते हैं उसी तरह आत्मविश्वासी अपने पुरुषार्थ के बल पर बड़ी दीखने वाली कठिनाइयों को तुच्छ सिद्ध करते हैं।
संगीत शास्त्री हेडेल को लकवा मार गया। दांया अंग बेकार हो गया। केवल बांया अंग ही दैनिक कृत्यों में सहायता करता था। पैसा पास में रहा नहीं। चिकित्सा तो दूर पेट भरने का भी प्रबंध नहीं रहा। क्या किया जाय। उसे एक बात सूझी। सामूहिक गानों की उन दिनों विद्यालयों में बहुत मांग थी। हेडेल ने कुछ सामूहिक गान रचे और उनकी स्वर लिपियां बनाईं। एक महीने में वह पुस्तक तैयार हो गई। उसे लेकर घिसटता हुआ प्रकाशक के पास गया। पुस्तक छपी और उसकी रायल्टी से वह शेष जीवन अर्थ चिन्ता से मुक्त होकर बिताने में सफल हो गया। दुर्भाग्य का रोना रोने, भीख मांगने या दीनता प्रकट करने की अपेक्षा हेडेल ने यही उचित समझा कि जो शक्ति शेष है उसे रचनात्मक काम के लिए प्रयुक्त क्यों न करें? कठिनाई से ग्रस्त व्यक्ति भी यदि धैर्य और संतुलन से काम लें तो उन्हें कोई न कोई रास्ता अवश्य मिल सकता है।
आत्म हत्या करने वाले उतावले लोगों में से बहुतों के सामने इतनी बड़ी कठिनाई नहीं होती जितनी कि वे भावुकता वश अनुभव करते हैं। इसी अवास्तविक कल्पना में उलझे हुए वे लोग तिल का ताड़ बना कर अपने प्राण खो बैठते हैं।
न्यूयार्क में एक युवक संगीतकार ने इसलिए आत्म हत्या करली कि वह अपना प्रिय वायलिन गिरवी से छुड़ाने के लिए आवश्यक कमाई न कर सका। परीक्षा में फेल होने वाले विद्यार्थी, प्रेम प्रणय में असफल होने वाले प्रेमी लोग, परिवार में कलह कटुता आ जाने जैसे प्रसंगों पर कितने ही लोग हत्या या आत्म हत्या जैसे उद्धत कार्य कर डालते हैं। यह आवेश की स्थिति है। चिन्ता भी लगभग ऐसी भी भावुकता है जो निराशा जैसी मन्द आत्म हत्या के गर्त में धकेल कर व्यक्ति को अपंग बना देती है।
वर्तमान की चिन्ता करना और हल खोजने में स्थिर चित्त से तन्मय होना यह उपयुक्त है। भूतकाल की उधेड़ बुन में खोये रहना, बेकार है। ऐसा क्यों हुआ, किसने किया, भूल कहां रही जैसे प्रश्नों की उखाड़ पछाड़ करते रहने से क्या लाभ? जो बीत गया सो गया अब वह लौट नहीं सकता। उसके लिए माथा पच्ची करना बेकार है। इसी प्रकार भविष्य में क्या कठिनाई आवेगी, किस संकट में होकर गुजरना पड़ेगा जैसी बातें सोचते हुए समय से पूर्व चिन्ताएं समेटना बेकार है। अपने लिए वर्तमान ही पर्याप्त है। उसी को देखा, समझा जाय और जो आज की स्थिति में सर्वोत्तम कदम उठाया जा सकता है उसी के लिए साहस समेटा जाय। वर्तमान पर केन्द्रित रहना सीख लिया जाय तो चिन्ता करने के लिए न तो अवसर ही मिलेगा और न आवश्यकता ही प्रतीत होगी।
हमें हर घड़ी व्यस्त रहना सीखना चाहिए। जार्ज बर्नाडशा कहते थे दुखी और चिन्तित होने के लिए मनुष्य के पास फालतू वक्त होना चाहिए। जिसके पास करने के लिए ढेरों काम पड़ा है उसे इतनी फुरसत कहां होगी कि बेकार बातें सोचे और चिन्ता और दुःख में डूबे।
ईश्वर प्रदत्त सौन्दर्य किसी-किसी को ही मिलता है। पर हर कोई अपने हाथों अपना प्राकृतिक सौन्दर्य बना और बढ़ा सकता है। सहज मुस्कान का अभ्यास करने पर यह दिव्य उपलब्धि किसी को भी मिल सकती है। दांत कितने ही कुरूप क्यों न हो जब वे कमल पुष्प की तरह खिलते हैं तो अतीव सुन्दर लगते हैं। मुस्काते हुए होठों की तुलना अन्य किसी सौन्दर्य प्रसाधन से नहीं हो सकती। चेहरे को सुसज्जित करने के लिए केश सज्जा एवं रंग-रोगन के कितने ही प्रकार उपाय प्रचलित हैं, पर उन सबसे उत्कृष्ट एवं बिना मूल्य का उपाय सहज मुसकान से बढ़ कर और कुछ भी हो नहीं सकता। यह ऐसा चुम्बकत्व है जिससे हर किसी का मन आकर्षित होता चला आता है। खिले हुए पुष्प पर भौंरे, तितली, मधुमक्खी के झुण्ड मंडराते रहते हैं। उस पर हर किसी की ललचाई दृष्टि पड़ती हैं। मुस्काते होठों की भी ऐसी शोभा विशेषता है।
हंसते-मुसकराते व्यक्ति के पास बैठने का, उससे बातें करने का, मित्रता साधने का, हर किसी का मन करता है। समझा जाता है कि जो अपने से सन्तुष्ट है, जो सफल है, जो समृद्ध है वही प्रसन्न दिखाई दें सकता है। ऐसे व्यक्ति से कुछ पाने की आशा हर किसी को होती है। जो अपनी समस्याएं हल कर चुका वह दूसरों को भी वैसे समाधान में सहायता दें सकता है। जो प्रसन्न है वह दूसरों को प्रसन्नता दें सकता है। जो स्वयं हंसता है वह दूसरों को भी हंसा सकता है। इन्हीं बातों के लिए हर कोई तरसता है। इसलिए प्रसन्न चित्त के प्रति आकर्षित होने और उससे सम्बद्ध रहने के लिए यदि लोगों का मन ललचाये तो इसे स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए। कहना न होगा कि जिसके मित्र और प्रशंसक अधिक होते हैं वह सहयोग का आदान-प्रदान करके न केवल स्वयं आगे बढ़ता, ऊंचा उठता है, वरन् दूसरों के लिए भी वैसी ही सुखद परिस्थितियां उत्पन्न करने में समर्थ रहता है।
स्वयं प्रसन्न रहना ऐसा सद्गुण है जिसके सहारे प्रसन्नता का प्रसाद दूसरों को भी वितरण किया जा सकता है। यह धन दान से भी बड़ा अनुदान है। हर कोई प्रसन्नता चाहता है। इसलिए समय लगाता, भागता, दौड़ता, दरवाजे खटखटाता और पैसा खर्च करता है। यह अनुदान जहां से भी मिलेगा वे वहीं होंगे जो स्वयं स्वाभाविक अथवा कृत्रिम रूप से प्रसन्न, हंसते-पिघलते दीखते हैं। गायक, वादक, अभिनेता नर्तक भीतर जैसे भी रहते हों—बाहर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। सिनेमा, थियेटरों में ऐसे दृश्यों की भरमार रहती है जिनमें पात्रों को प्रसन्नता व्यक्त करते देखा जाता है। वृक्ष उद्यान, नदी-सरोवर, बादल, बिजली आदि में प्रकृति की प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती है और निहारने वाले को भी सन्तोष होता है। विवाह-शादियों, प्रीतिभोजों, हर्षोत्सवों और मेले-ठेलों में लोग इसीलिए जाते हैं कि वहां विनोद उल्लास का वातावरण रहता है। इस सम्पर्क में जो पहुंचता है वह भी प्रसन्नता साथ लेकर लौटता है। इस प्रसन्नता के अनुदान को वह व्यक्ति सहज ही बांटता, बखेरता रहता है जिसने अपना स्वभाव हंसने-मुस्काने का बना लिया है।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रसन्न रहने की आदत का उत्साह वर्धक प्रभाव पड़ता है। खीजते रहने वाले—मुंह लटकाये और झल्लाते रहने वाले अन्य सुविधाएं होते हुए भी अपना स्वास्थ्य गिराते, गंवाते चले जाते हैं। निराश, खिन्न, क्षुब्ध, उद्विग्न मनुष्य अपने आपको दुःखी बनाते हैं, निरानन्द नीरस जिन्दगी जीते हैं और सम्बद्ध मनुष्यों को अपनी इस दुष्प्रवृत्ति के कारण दुःखी करते हैं। ऐसे लोगों से हर कोई बचना चाहता है। हम प्रसन्न रहें—प्रसन्नता बांटें और हंसी-खुशी का वातावरण बनायें इसी में जीवन की सार्थकता है।
हास से मानसिक स्वास्थ्य का विकास
भारत और पाकिस्तान के बीच लड़े गये एक युद्ध में किसी अधेड़ महिला का पति मर गया। भारतीय नारी के लिए वैधव्य मरण से भी अधिक दुःखदायी है। सो उस विदुषी को न केवल वैधव्य का दुःख ही सहना पड़ा, वरन् उस दुःख के भार से वह खिन्न, उदास रहने लगी और कुछ रोगों ने भी उसे आ घेरा। सहानुभूति व्यक्त करने के लिए भी जब कोई उसके पास आता तो स्वजन, सम्बन्धी से लेकर परिचित और मित्रगण गम्भीरता से बात करते थे। उसकी जीवन-यात्रा भी अपने दिवंगत पति के पास पहुंचने के लिए मौत के निकट लगी।
आखिर उसे न जाने क्या सूझी कि एक बार वह अपनी सहेलियों के साथ फोटोग्राफर के यहां फोटो खिंचवाने पहुंची। सब सहेलियों के चेहरे पर तो प्रफुल्लता थी और उनके बीच विधवा सैनिक पत्नी ऐसी लग रही थी जैसे खिले हुए फूलों के बीच एक मुरझाया पुष्प। फोटो-ग्राफर ने उक्त विधवा को सम्बोधित करते हुए कहा—‘मैडम जरा आंखों पर चमक लाइये।’
महिला ने प्रयत्न तो किया, पर उसका मुख मण्डल उसी प्रकार म्लान बना रहा और बुझा-बुझापन दीखता रहा। फोटोग्राफर ने दुबारा कहा—‘मैडम, जरा प्रसन्न दीखने की कोशिश कीजिए।’
सहेलियों में से एक स्त्री उठी और उसने फोटोग्राफर को अलग ले जाकर कुछ समझाया। फोटोग्राफर और वह स्त्री कुछ क्षणों के बाद यथास्थान आ गये। फोटोग्राफर अपना कैमरा ठीक करने लगा और कैमरा ठीक करते-करते ही उसने कोई ऐसी बात कही जिससे सभी स्त्रियां खिल-खिलाकर हंस उठी। अब तो उस महिला से भी नहीं रुका जा सका और उसने भी अपनी सहेलियों का साथ दिया।
इस उपहास प्रसंग से महिला में कुछ ऐसा प्रेरणा भाव आया कि उसने भी हंसना सीख लिया। फोटोग्राफर के यहां उसकी हंसी विधवा होने के बाद पहली हंसी थी। इसके बाद के अनुभवों का उल्लेख करते हुए उक्त महिला ने बताया है—‘जिस क्षण मैं हंसी उस क्षण मुझे ऐसा लगा कि मेरे हृदय पर छायी बोझिलता समाप्त हो गयी और मुझ में एक नई जीवनी-शक्ति का संचार होने लगा। इसके बाद हंसने के किसी भी अवसर पर मैंने अपने हृदय को मुक्त कर दिया और मैंने जी खोलकर हंसना अपना स्वभाव बना लिया। हमारे परिवार के लोग कहा करते हैं कि विधवा स्त्री को हंसना नहीं चाहिए, परन्तु हंसी के महत्व को मैं समझने लगी क्योंकि उसने मेरा नया कायाकल्प कर दिया था। न जाने क्यों धीरे-धीरे स्वास्थ्य सम्बन्धी वे शिकायतें जिनके कारण मैं स्वयं को मौत के मुंह में समझने लगी थी—वे भी दूर होने लगीं।
वस्तुतः हंसी—जो प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति है अपने आप में एक चिकित्सा और एक टानिक है। संयुक्त राज्य अमेरिका के महानगर फ्रांसिस्को में घटी एक घटना जो पिछले दिनों ही समाचार पत्रों में छपी और वैज्ञानिकों, चिकित्सकों के लिए भी चर्चित रही इसी प्रकार की है। उक्त घटना के सन्दर्भ में प्रकाशित किया गया था कि—नगर की प्रख्यात, धनाढ्य महिला मिसेज एडवर्ड को हृदयवेधी पीड़ा की शिकायत थी। उसे इसी रोग के कारण अनिद्रा, अपच तथा साथ ही चिन्ता शोक और उद्वेग के शारीरिक, मानसिक विकारों ने भी घेर लिया था। हृदय रोग की चिकित्सा के लिए वह बड़े-बड़े अस्पतालों में सिद्ध हस्त डाक्टरों के पास गई तो उन्होंने महिला का स्वास्थ्य परीक्षण कर उसे सामान्य रूप से सही पाया। फिर क्या कारण था कि उसे हृदयशूल, अनिद्रा और अपच जैसी शिकायतें थीं। डॉक्टर इसका कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहे थे।
तभी उसे किसी मनोरोग चिकित्सक के पास जाने की सलाह दी। मनोचिकित्सक ने उसे प्रफुल्लचित रहने के लिए कहा और निर्देश दिया कि अचानक यह होना स्वाभाविक नहीं है इसलिए वह दिन में कम से कम तीन बार हंसने का नियम बनाले। भले हंसी का प्रसंग हो या न हो तो भी उसे तीन बार तो हंसना ही चाहिए।
महिला ने तीन बार हंसने के निर्देश का पालन किया। प्रातः मध्यान्ह और सांध्यान्ह वह हंसने का प्रयत्न करने लगी। धीरे-धीरे हंसी उसका स्वभाव बनने लगी। पति भी अपनी ओर से प्रयत्न करता कि हंसे। कोई विनोद प्रसंग न सूझ पड़ता तो वह यह कहकर खिल-खिला उठता कि आज तुमने अपना निर्धारित कोर्स (हंसी का) पूरा किया है या नहीं। कुछ ही दिनों में इस प्रारम्भिक प्रयास का चमत्कारी परिणाम दिखाई देने लगा और उसका स्वास्थ्य सुधरने लगा। कुछ ही महीने में वह इस स्थिति तक पहुंच गई कि न उसे हृदयशूल होता और न कोई पीड़ा। समय पर नींद भी आती और खुलकर भूख भी लगती।
क्या कारण है कि मुक्त हास्य असाध्य रोगों को भी ठीक कर देता है। अपनी प्रयोगशाला में लम्बे परीक्षण के बाद डा. बटलर जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह उल्लेखनीय है। इस सम्बन्ध में लन्दन से प्रकाशित होने वाली चिकित्सा विज्ञान की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘लैन्सेट’ में भी छपा था—मुक्त हास्य की प्रवृत्ति रोगियों और दुर्बलों के लिए चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करती है। रोगियों में वह फिर से प्राण फूंक देती है और दुर्बल के लिए जीवन की सम्भावना में वृद्धि करती है।
हंसी फेफड़ों और आमाशय को वक्षस्थल में सुदृढ़ता से संयुक्त रखने और उन्हें सशक्त बनाने में बड़ी सहायक होती है। क्योंकि इसका आरम्भ वहीं से होता है। हंसी यकृत, आमाशय और शरीर के अन्य भीतरी अवयवों को तीव्रता से आलोड़ित करती है। यह आलोड़न एवं मंथन चेतना को सुखानुभूति प्रदान करता है। घुड़सवारी से जितना लाभ शरीर को मिलता है उतना ही लाभ और व्यायाम हास्य से भी हो जाता है। पाचन-क्रिया के दौरान आमाशय की चेष्टा ठीक वैसी ही होती है, जैसी कि दही मथते समय। जब आप ठठाकर हंसते हैं तब उदर को वक्षस्थल से जोड़ने वाली पेशी नीचे की ओर सरकती है और आमाशय पर अतिरिक्त दबाव डालकर उसे झकझोर-सी डालती है। प्रायः हंसते रहने से आमाशय नृत्य सा कर उठता है। जिससे पाचन-क्रिया में तेजी आ जाती है और आमाशय नृत्य-सा कर उठता है। इससे हृदय का स्पन्दन अपेक्षाकृत तीव्र हो उठता है और पूरे शरीर में रक्त-संचार तेजी से होने लगता है।
शरीर के आन्तरिक अवयवों पर हंसी के होने वाले प्रभाव जानने के लिए डा. ग्रीन का निष्कर्ष भी ज्ञातव्य है। उन्होंने बताया है—‘मानव शरीर की सूक्ष्मातिसूक्ष्म रक्त शिराओं का कोई भी छोर ऐसा नहीं है जिसे अट्टहास झकझोर न दें और उस पर हंसी का प्रभाव न हो। चिकित्सा विज्ञान की भाषा में कहें तो हंसी रक्त-संचार केन्द्रों को अनुप्रेरित करती है और उनकी मालिश कर रक्त वेग को तीव्र करती है। हंसी का प्रभाव श्वसन क्रिया पर भी पड़ता है। वह श्वसन तन्त्र को सतेज बनाती है जिससे सम्पूर्ण शरीर यन्त्र को ऊष्मा और कान्ति प्राप्त होती है।
चिकित्सा-वैज्ञानिकों का यह अध्ययन निष्कर्ष भी अदृश्य है कि निरन्तर हंसते रहने वाले प्रफुल्ल चित्त लोग अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा देर तक श्रम करने में समर्थ होते हैं। यह छाती को चौड़ा करती है, कम प्रयोग में आई हुई विषाक्त वायु को फुफ्फुस कोषों से निकाल बाहर करती है और उसमें सन्तुलन को, जो शरीर के सभी क्रिया-व्यापारों के सम्यक् रूप से सम्पन्न होने के फलस्वरूप उत्पन्न होता है स्थापित करने का प्रयास करती है। इसी को हम स्वास्थ्य कहते हैं जो हंसी के द्वारा बिना मूल्य प्राप्त होता है।
ह्रास का होने वाला शरीर पर प्रभाव किसी भी चमत्कारी दवा से कम नहीं है। हंसने से पहले और हंसने के बाद की अपनी स्थिति का हम स्वयं अध्ययन करें तो यह आसानी से पता चल सकता है। छाती से लेकर पेट तक की मांस-पेशियों में जो सिकुड़न और शिथिलता होती है वह शायद ही अन्य किसी व्यायाम से अनुभव होता हो। हंसने के बाद मुखमण्डल आसक्त हो उठता है और मस्तिष्क ऐसा लगता है जैसे एक खिंचाव के बाद ढीला हुआ हो। खिल-खिलाकर हंसना, पेट और वक्ष का अच्छा व्यायाम है। कहा जाता है—हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गये। वस्तुतः ऐसा होता भी है। अधिक हंसने से पेट में दर्द सा होने लगता है। इसका कारण यह है कि पेट की मांस पेशियों पर हंसी व्यायाम जैसा ही प्रभाव डालती है। अधिक व्यायाम की तरह अधिक हंसी भी दर्द और ऐंठन लायेगी ही। अतः हंसने में सन्तुलन तो रखना चाहिए, पर हंसने का अवसर भी हाथ से न जाने देना चाहिए।
ऊपर चिकित्सा शास्त्रियों के जो उदाहरण दिये गये हैं वे अपने स्वयं के अध्ययन से भी किसी न किसी रूप में अनुभव किये जा सकते हैं। जैसे कहा गया है कि हंसी शरीर की विषैली वायु को प्रश्वास के द्वारा बाहर निकाल देती है। हंसने के बाद शरीर में अनुभव होने वाले हल्केपन का यही कारण है।
हास्य का शारीरिक ही नहीं मानसिक प्रभाव भी है। अशुभ समाचार सुनकर शोकाकुल, चिन्तातुर, व्यग्र, उद्विग्न और क्रुद्ध व्यक्तियों को कभी हंसी नहीं आती। इसका कारण यह है कि ये मनोविकार सर्व प्रथम चित्त की प्रफुल्लता को अपना शिकार बनाते हैं और मानसिक क्रियाओं के साथ-साथ शरीर व्यवस्था को गड़बड़ा देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को किसी प्रसंग वश हंसी आ जाय तो फिर न सन्ताप रहता है न शोक, न चिन्ता सताती है और न व्यग्रता। चमत्कारी ढंग से निरुद्वेग, शान्ति और निश्चिन्त होकर विकार जन्य शारीरिक व मानसिक असन्तुलन को हंसी नष्ट कर देती है। यही कारण है कि सफलतम डाक्टरों ने मानस रोगों का उपचार हंसी बताया है। एक ऐसे ही प्रख्यात चिकित्सक का कहना था—वह सन्तुलन जो किसी निद्राविहीन रात्रि, अशुभ समाचार या दुःख सन्ताप अथवा चिन्ता के कारण बिगड़ सकता है एक बार जी खोलकर हंस लेने से पूरी तरह पुनः स्थापित हो जाता है।
अमेरिका के एक मानसिक चिकित्सालय—‘बटलर मेण्टल हास्पिटल’ में तो पागल लोगों को हंसी द्वारा ठीक करने के सफल प्रयोग किये जा चुके हैं। जो लोग कोई अप्रिय घटना या भावनाओं को आघात पहुंचने से विक्षिप्त हो जाते हैं, प्रायः गम्भीर और उदास बने रहते हैं। हास्योपचार उनके लिए सफल चिकित्सा सिद्ध हुई है। उक्त अस्पताल के प्रबन्धक डॉक्टर रे तो मानसिक स्वास्थ्य के लिए हंसी को अनिवार्य आवश्यकता मानते हैं। उनका कथन है—‘‘मानसिक स्वास्थ्य के लिए तार्किक शक्ति के विकास की अपेक्षा हृदय से उठा हास अधिक वांछनीय है।’’
मुख-मण्डल पर निरन्तर खेलती रहने वाली मुस्कान और हंसी का कोई अवसर न चूकना निरोग व्यक्तियों के लिए भी उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने और स्वस्थ रखने के लिए एक टानिक से अधिक ही प्रभावकारी रहता है। रोगी और हताश व्यक्तियों के लिए तो वह एक बिना मूल्य मिलने वाली अमूल्य दवा है ही।
प्रफुल्लता और हल्का-फुल्का जीवन जीते हुए यदि मानसिक सन्तुलन को स्थिर रखा जा सके तो मस्तिष्क से निस्सन्देह कल्पवृक्ष जैसा लाभ उठाया जा सकता है। शास्त्रों में उल्लेख आता है कि कल्प-वृक्ष एक ऐसा पेड़ है जिसके नीचे जाने पर जो भी कामना की जाती है वही पूरी हो जाती है। पता नहीं ऐसे किसी वृक्ष का अस्तित्व पृथ्वी पर है अथवा नहीं, परन्तु यह निश्चित है कि मस्तिष्क से जो कुछ भी मांग की जाती है वह उसे तुरन्त प्रस्तुत करता है।
कहा जा सकता है कि कौन व्यक्ति दुःख, कष्ट तथा कठिनाइयों को पसन्द करता है। निश्चित ही कोई भी व्यक्ति उन्हें पसन्द नहीं करता लेकिन जिस ढंग का जीवन वह जीता है, जिस तरह अपने मस्तिष्कीय सन्तुलन को बिगाड़ता है उसे देखकर दुःख कष्टों को आमन्त्रण देने की बात ही चरितार्थ लगती है। आवश्यक है कि मानसिक सन्तुलन को बनाये रहते हुए ऐसा साफ सुथरा जीवन जिया जाय, जिससे मस्तिष्कीय कल्पवृक्ष आह्लाद और आनन्द ही आनन्द प्रस्तुत करे।