गायत्री योग

लययोग

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(10) लययोग



यो वात्मानं तु वै तस्मिन् मानवः कुरुते लयम् ।
भवबन्धविनिर्मुक्तो लययोगं स आप्नुते ।।1।।

(यः) जो (मानवः) मनुष्य (आत्मानं) अपने आपको (तस्मिन्) उसमें (लयं) लय (कुरुते) कर देता है, (सः) वह मनुष्य (भवबन्धविनिर्मिक्तः) सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर (लय योग) लययोग को (आपनुते) प्राप्त करता है।

लययोगस्तु स एषो येन संधौतकल्मषः ।
सच्चिदानन्दरूपेण साधकः सुखमाप्नुते ।।2।।

(एषः) यह (लययोगः) लययोग (सः) वह है (येन) जिस (सच्चिदानन्दरूपेण) सच्चिदानन्द रूपयोग से (संधौतकल्मषः) जिसके पाप नष्ट हो गये हैं इस प्रकार का (साधकः) साधक (सुखं) सुख को (आप्नुते) प्राप्त करता है।

गायत्री का स्वः शब्द ‘लययोग’ के लिए है। लय का अर्थ है लीन होना, किसी में घुल जाना विलीन हो जाना। आत्मा को परमात्मा में घुला देना, लीन कर देना लय योग का उद्देश्य है। मुक्ति या समाधि अवस्था में आत्म विस्मृति हो जाती है, द्वैत मिट जाता है और एकता की सायुज्यता का आनन्द प्राप्त होता है।

मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का चतुष्टय  यद्यपि आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशित है, उसी की शक्ति लेकर गतिवान है तो भी वह एक अलग इकाई के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जग में दिखाई देने वाला सूर्य का प्रतिबिम्ब यद्यपि सूर्य के कारण ही है तो भी उस प्रतिबिम्ब का अस्तित्व एक अलग सत्ता के रूप में भी दृष्टि गोचर होता है। इसी प्रकार मन-बुद्धि, चित्त, अहंकार का चतुष्टय अथवा एक प्रथक अस्तित्व बना लेता है जिसे ‘‘जीव’’ नाम से पुकारते हैं। अधिकांश मनुष्य अपने को जीव ही मानते हैं और जीव की जो इच्छा अभिलाषा तथा रुचि होती है उन्हें ही अपनी आकांक्षा समझते हैं और उसे पूरा करने में व्यस्त रहते हैं। इस प्रकार एक राज्य के दो राजा बन बैठते हैं, एक म्यान में दो तलवारें घुस पड़ती हैं। जैसे मनुष्य के शरीर में कोई रोग या भूत पिशाच घुस पड़ता है तो विविध प्रकार की अव्यवस्थाएं फैला देता है, अड़चनें उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार आत्मा के मंदिर में जब जीव नाम की एक कृत्रिम सत्ता अपना आधिपत्य अलग ही जमा लेती है तो उस मन्दिर में भी अव्यवस्था फैले बिना नहीं रह सकती। आज हम में से अधिकांशों के जीवन इसी प्रकार की अव्यवस्था से परिपूर्ण हो रहे हैं।

ईश्वर का पवित्र अंश आत्मा इसलिए शरीर धारण करता है कि प्रभु की इस दिव्य वाटिका में आनन्दमयी क्रीड़ा करे, प्रेम के अमृत रस का पान करे और इस स्वर्गादपि गरीयसी पुण्य भूमि में सर्वत्र—चारों ओर झरने वाले आनन्द मय झरनों में किलोल करे। अपनी श्रेष्ठ सत्ता को सूक्ष्म से स्थूल बना कर उसका चारू चरित्र देख देखकर विहंसे। अपने लिए तथा दूसरों के लिए शान्ति और सुख का सन्तोष प्रद उल्लास उद्भूत करे। परन्तु हम देखते हैं कि अधिकांश मानव प्राणी इस उद्देश्य से बिलकुल विपरीत दिशा में चल रहे हैं। उन्हें पग पग पर दुःख, दारिद्रय और क्लेश कलहों का अनुभव हो रहा है। उनकी मनोभूमि शोक, सन्ताप, चिन्ता, भय, विरह, विछोह, आशंका, ईर्ष्या, तृष्णा, घृणा, वासना, निराशा, कायरता, बेचैनी, लोलुपता आदि से मलीन हो रही है। वस्तुओं का संचय, अहंकार का पोषण, इन्द्रियों का भोग उन्हें पसंद है। इन तीनों बातों के लिए वे अपनी समस्त शक्तियां निचोड़े दे रहे हैं तो भी अभीष्ट पूरा नहीं होता, सन्तोष नहीं मिलता। उलटे अशान्ति की ही दिन दिन बढ़ोतरी होती चलती है। यह चीजें जितनी मात्रा में प्राप्त होती है तृष्णा की जलन उससे भी अधिक बढ़ जाती है।

पाप करना—पाप का फल दुःख पाना। यह चक्र चलता है। दुःख से जल्दी छुटकारा पाने के लिए पाप करना और उस पाप के फलस्वरूप अधिक दुःख उत्पन्न होना, यह चक्रव्यूह दिन दिन उलझता जाता है। जाल में फंसा पंछी जितना फड़फड़ाता है उतना ही वह और भी अधिक फंदों में जकड़ता जाता है। इस उलटी गति पर विचार करते हुए बड़ी हैरानी होती है कि आत्मा ने शरीर जिस उद्देश्य के लिए धारण किया था उससे बिलकुल उलटे दृश्य क्यों दिखाई पड़ते हैं? इस गुत्थी पर गंभीर विचार करने से यह पता चल जाता है कि मानव जीवन पर आत्मा का आधिपत्य नाम मात्र का रह गया है और वास्तविक शासक एक नकली पलीत बन बैठा है। उस पलीत के कुशासन के कारण ही मनुष्य की ऐसी दुर्दशा हो रही है उसे बाह्य और आन्तरिक अनेकों नष्ट कर उलझनों में फंस जाना पड़ा है। इस उलझन का, इस विपन्न अवस्था का, इस भूलभुलैया का नाम ही ‘माया’ है। माया में ग्रस्त हो जाने से ही दुःखों के जंजाल में गला फंसाना पड़ता है।

जिनमें थोड़ी बहुत आत्म चेतना बाकी है वे अपनी स्थिति पर विचार करते हैं। वे सोचते हैं कि हमें न भीतर चैन है न बाहर। इस बेचैनी का कारण जीव भाव की प्रधानता है। जीवन अपने को शरीर तक सीमाबद्ध मानता है और शरीर के सुखों तथा लाभों को जुटाने के लिए प्रयत्न शील रहता है, भले ही इससे आत्मा का उद्देश्य समूल नष्ट होता हो। यह जीव भाव जब तक प्रबल है तब तक तृष्णा, पाप और दुख के त्रिविधि चक्र से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं। उससे छुटकारा तभी मिल सकता है जब जीव भाव की विस्मृति और आत्मभाव की जागृति हो जाय।

जीव भाव को आत्मभाव में घुला देने, द्वैत को अद्वैत बना देने, बंधन से मुक्त होने का तरीका यही है कि अपने सीमित अहंकार को सर्व व्यापक परमात्म भाव में घुला दिया जाय। आत्म त्याग, आत्म दान, आत्म उन्नति, आत्म दर्शन, आत्म कल्याण, आत्म साक्षात्कार आदि शब्द इसी स्थिति के लिए प्रयोग किये जाते हैं जिसमें हमारा ‘अहं’ सीमित ‘अहं’ न रहकर असीमित हो जाता है। सबमें अपनी आत्मा और अपनी आत्मा में सब प्राणी दिखाई देने लगते हैं। तब सबका स्वार्थ ही अपना स्वार्थ बन जाता है। इस अद्वैत स्थिति का नाम आत्म विस्मृति या लय अवस्था भी है। इसकी साधना के लिए आत्म दर्शियों ने ‘‘लययोग’’ की स्थापना की है।

लय योग में अपने मन को भुलाने का अभ्यास किया जाता है। जिससे वर्तमान स्थूल स्थिति में रहते हुए भी उसका विस्मरण हो जाय और ऐसी किसी स्थिति का अनुभव होता रहे जो यद्यपि स्थूल रूप से नहीं है पर मन जिसे चाहता है। जो स्थूल स्थित है उसका अनुभव न करना और जो बात भले ही प्रत्यक्ष रूप से नहीं है पर उसे अपनी भावना के बल पर अनुभव करना—यही कार्य प्रणाली लय योग में होती है। इस अभ्यास में प्रवीण हो जाने पर मनुष्य वर्तमान परिस्थितियों को सांसारिक दृष्टि से देखना भूल जाता है, फल स्वरूप वे बातें भी उसे दुखदायी प्रतीत नहीं होती जिनके कारण साधारण लोग बहुत भयभीत और दुःखी रहते हैं। लययोग का साधक कष्ट, पीड़ा या विपत्ति में भी आनन्द एवं कल्याण का अनुभव करता हुआ संतुष्ट रह सकता है।

लययोग का आरंभ पंच इन्द्रियों की, पंच तत्वों की, तन्मात्राओं पर काबू करने से होता है, धीरे धीरे यह अभ्यास बढ़ कर आत्मविस्मृति की पूर्ण सफलता तक पहुंच जाता है और जीवभाव से छुटकारा पाकर आत्म भाव की दिव्य स्थिति का आनन्द लेता है।

नीचे पांच अभ्यास लययोग के दिये जाते हैं। इनसे शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श की तन्मात्राओं पर अधिकार होता है और पंच तत्वों से बने हुए स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर आत्मा का नियंत्रण स्थापित हो जाता है। तब अपने आप वह आनन्दमयी स्थिति प्राप्त होने लगती है जो आत्म जागृति की दशा में होनी चाहिए। यह पांच साधनाएं हम अपनी ‘प्रत्यक्षफल दायिनी साधना’ पुस्तक में भी दे चुके हैं।

शब्द साधना—‘नाद योग’ को शब्द साधना कहते हैं। यद्यपि यह आत्मविस्मृति के लययोग के अन्तर्गत ही आता है। परन्तु वह बड़ा और विस्मृत होने के कारण है इसलिए उस स्वतंत्र रूप से ‘नाद योग’ कहा जाता है। आगे के पृष्ठों पर उसकी प्रथक् विवेचना करेंगे।


इस विषय पर वृहद चर्चा हम नाद योग में करेंगे।








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