गायत्री का हर अक्षर शक्ति स्रोत

चौबीस अक्षर चौबीस प्रत्यक्ष देवता

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गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों की 24 देवताओं का शक्ति बीज मंत्र माना गया है। प्रत्येक अक्षर का एक देवता है। प्रकारान्तर से इस महामंत्र को 24 देवताओं का एवं संघ-समुच्चय या संयुक्त परिवार कह सकते हैं। इस परिवार के सदस्यों की गणना के विषय में शास्त्र बतलाते हैं—

गायत्री मन्त्र का एक-एक अक्षर एक-एक देवता का प्रतिनिधित्व करता है। इन 24 अक्षरों की शब्द-श्रृंखला में बंधे हुए 24 देवता माने गये हैं—

गायत्र्या वर्ण मेककं साक्षाता देवरूपकम् । तस्मात् उच्चारण तस्य त्राणयेव भविष्यति ।।
—गायत्री संहिता

अर्थात्—गायत्री का एक-एक अक्षर साक्षात् देव स्वरूप है। इसलिए उसकी आराधना से उपासक का कल्याण ही होता है।

देवतानि श्रृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः । आग्नेयं प्रथमं प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकम् ।। तृतीयं च तथा सौम्यमोशानं च चतुर्थकम् । सावित्रं पंचमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम् ।। बार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैत्रावरुणमष्टमम् । नवमं भगदवत्यं दशमं चार्यमैश्वरम् ।। गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकं स्मृतम् । पौष्णं त्रयोदशं प्रोक्तमैंद्राग्नं च चतुर्दशम ।। वायव्यं पंचदशकं वामदैव्यं च षोडशम् । मैत्रावरुण दैवत्यं प्रोक्तं सप्तदशाक्षरम् ।। अष्ठादशं वैश्वदेवामूनविंशतिमातृकम् । वैष्णवं विशतितम् वसुदैवतमीरितम् । एकविशतिसंख्याकं द्वाविशं रुद्रदैवतम् । त्रयोविशं च कौबेरे माश्विनं तत्वसंख्यकम् ।। चतुर्विशतिवर्णानां देवतानां च संग्रहः । —गायत्री तन्त्र प्रथम पटल

हे प्राज्ञ! अब गायत्री के 24 अक्षरों में विद्यमान 24 देवताओं के नाम सुनो—(

1) अग्नि (2) प्रजापति (3) चन्द्रमा (4) ईशान (5) सावित्री (6) आदित्य (7) बृहस्पति (8) मित्रावरुण (9) भग (10) ईश्वर (11) गणेश (12) त्वष्टा (13) पूषा (14) इन्द्राग्नि (15) वायु (16) वामदेव (17) मैत्रावरुण (18) वैश्वदेव (19) मातृक (20) विष्णु (21) वसुगण (22) रुद्रगण (23) कुबेर (24) अश्विनीकुमार।

छन्द-शास्त्र की दृष्टि से चौबीस अक्षरों के तीन विराम वाले पद्य को ‘गायत्री’ कहते हैं। मंत्रार्थ की दृष्टि से उसमें सविता-तत्व का ध्यान और प्रज्ञा प्रेरणा का विधान सन्निहित है। साधना-विज्ञान की दृष्टि से गायत्री मंत्र का हर अक्षर बीज मंत्र है। उन सभी का स्वतन्त्र अस्तित्व है। उस अस्तित्व के गर्भ में एक विशिष्ट शक्ति-प्रवाह समाया हुआ है।

गुलदस्ते में कई प्रकार के फूल होते हैं। उनके गुण, रूप, गंध आदि में भिन्नता होती है। उन सबको एक सूत्र में बांधकर, एक पात्र में सजाकर रख दिया जाता है तो उनका समन्वित अस्तित्व एक विशिष्ट शोभा-सौन्दर्य का प्रतीक बन जाता है। गायत्री मंत्र को एक ऐसा ही गुलदस्ता कहा जा सकता है, जिसमें 24 अक्षरों के अलग-अलग सामर्थ्य से भरे पूरे प्रवाहों का समन्वय है।

औषधियों में कई प्रकार के रासायनिक पदार्थ मिले होते हैं। उनके प्रथक-प्रथक गुण हैं, पर उनका समन्वय एक विशिष्ट गुणयुक्त बन जाता है। गायत्री को एक ऐसी औषधि कह सकते हैं, जिसमें बहुमूल्य शक्ति-तत्व घुले हैं।

मशीनें भिन्न-भिन्न छोटे-छोटे कल-पुर्जों से मिलकर बनती हैं। हार में अनेक मणि-मुक्तक गुंथे होते हैं। सेना में कितने ही सैनिक रहते हैं। शरीर में कितनी ही नस नाड़ियां हैं। कपड़े में कितने ही धागे होते हैं। इन सब में समन्वय से विशिष्ट क्षमता उत्पन्न होती है। गायत्री का हर घटक—महत्वपूर्ण है, पर उनका समन्वय जब संयुक्त शक्ति के रूप में प्रकट होता है तो उस समन्वय की सामर्थ्य असीम हो जाती है।

एक विशेष पर्वतीय प्रदेश की भूमि, वहां की वायु, वहां की वनस्पतियां रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण के कारण गंगोत्री से आरंभ होने वाला जल एक विशेष प्रकार के अद्भुत गुणों वाला बन गया। इसी प्रकार चौबीस अक्षरों से, उपयोगी तत्वों का कारणवश सम्मिश्रण हो जाने से अन्तरिक्ष आकाश में एक विद्युतमयी सूक्ष्म सरिता बह निकली। इस आध्यात्म गंगा का नाम गायत्री रखा गया। जिस प्रकार गंगा नदी में स्नान करने से शारीरिक व मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है, उसी प्रकार उस आकाशवाहिनी विद्युतमयी गायत्री शक्ति की समीपता से आन्तरिक एवं बाह्य बल तथा वैभवों की उपलब्धि होती है।

गायत्री-जप द्वारा उत्पन्न हुआ शक्तिशाली बर्तुल-प्रवाह केवल निखिल ब्रह्माण्ड में परिभ्रमण नहीं करता वरन् पिण्ड में—शरीर के भीतर भी ऐसी ही हलचल उत्पन्न होती है। महामन्त्र के 24 अक्षर शरीर के भीतर भी ऐसी परिभ्रमण बनाते हैं और 24 उपत्यिकाओं को बार बार स्पर्श करके उनमें हलका-हलका गुदगुदी जैसा स्पन्दन करते हैं। आन्तरिक जागृति का यह सुकोमल क्रिया-कलाप स्वसंचालित रीति-नीति से गतिशील रहता है और कालांतर में साधक को असाधारण आत्म-शक्ति से सम्पन्न कर देता है। ‘मार्कण्डेय पुराण’ में शक्ति-अवतार की कथा इस प्रकार है कि सब देवताओं से उनका तेज एकत्रित किया गया और उन सबकी सम्मिलित शक्ति का संग्रह—समुच्चय आद्य-शक्ति के रूप में प्रकट हुआ। इस कथानक से स्पष्ट है कि स्वरूप एक रहने पर भी उसके अन्तर्गत विभिन्न घटकों का सम्मिलन-समावेश है। गायत्री के 24 अक्षरों की विभिन्न शक्ति धाराओं को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि उस महा समुद्र में अनेक महानदियों ने अपना अनुदान समर्पित-विसर्जित किया है। फलतः उन सबकी विशेषताएं भी इस मध्य केन्द्र में विद्यमान है। 24 अक्षरों को अनेकानेक शक्तिधाराओं का एकीकरण कह सकते हैं। यह धाराएं कितने ही स्तर की हैं—कितनी ही दिशाओं से आई हैं। कितनी ही विशेषताओं से युक्त हैं। उन वर्गों का उल्लेख अवतारों—देवताओं दिव्य-शक्तियों ऋषियों के रूप में हुआ है। शक्तियों में से कुछ भौतिकी हैं, कुछ आत्मिकी इनके नामकरण उनकी विशेषताओं के अनुरूप हुए हैं। शास्त्र में इन भेद-प्रभेद का सुविस्तृत वर्णन है।

चौबीस अवतारों की गणना कई प्रकार से की गई है। पुराणों में उनके जो नाम गिनाये गये हैं उनमें एक रूपता नहीं है। दस अवतारों के सम्बन्ध में प्रायः जिस प्रकार की सहमान्यता है, वैसी 24 अवतारों के सम्बन्ध में नहीं है। किन्तु गायत्री के अक्षरों के अनुसार उनकी संख्या सभी स्थलों पर 24 ही हैं। उनमें से अधिक प्रतिपादनों के आधार पर जिन्हें 24 अवतार ठहराया गया है वे यह हैं—

[1] नारायण (विराट) [2] हंस [3] यज्ञपुरुष [4] मत्स्य [5] कूर्म [6] बारात [7] वामन [8] नृसिंह [9] परशुराम [10] नारद [11] धन्वन्तरि [12] सनत्कुमार [13] दत्तत्रय [14] कपिल [15] ज्ञषभदेव [16] हयग्रीव [17] मोहिनी [18] हरि [19] प्रभु [20] राम [21] कृष्ण [22] व्यास [23] बुद्ध [24] निष्कलंक-प्रज्ञावतार।

भगवान के सभी अवतार स्पष्टि सन्तुलन के लिए हुए हैं। धर्म की स्थापना और अधर्म का निराकरण उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है। इन सभी अवतारों की लीलाएं भिन्न-भिन्न हैं। उनके क्रिया कलाप, प्रतिपादन, उपदेश, निर्धारण भी प्रथक-प्रथक हैं। किन्तु लक्ष्य एक ही है—व्यक्ति की परिस्थिति और समाज की परिस्थिति में उत्कृष्टता का अभिवर्धन एवं निकृष्टता का निवारण इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भगवान समय-समय पर अवतरित होते रहे हैं। इन्हीं उद्देश्यों की गायत्री के 24 अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं के साथ पूरी तरह संगति बैठ जाती है। प्रकारान्तर से यह भी कहा जा सकता है कि भगवान के 24 अवतार गायत्री मन्त्र में प्रतिपादित 24 तथ्यों=आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में उतारने की विधि व्यवस्था का लोकशिक्षण करने के लिए प्रकट हुए हैं।

कथा है कि दत्तात्रय की जिज्ञासाओं का जब कहीं समाधान न हो सका तो वे प्रजापति के पास पहुंचे और सद्ज्ञान दें सकने वाले समर्थ गुरु को उपलब्ध करा देने का अनुरोध किया। प्रजापति ने गायत्री मन्त्र का संकेत किया। दत्तात्रय वापिस लौटे तो उन्होंने सामान्य प्राणियों और घटनाओं से अध्यात्म तत्वज्ञान की शिक्षा-प्रेरणा ग्रहण की। कथा के अनुसार यही 24 संकेत उनके 24 गुरु बन गये। इस अलंकारिक कथा वर्णन में गायत्री के 24 अक्षर ही दत्तात्रय के परम समाधान कारक सद्गुरु हैं।

तत्वज्ञानियों ने गायत्री मंत्र में अनेकानेक तथ्यों को ढूंढ़ निकाला है, और यह समझने-समझाने का प्रयत्न किया है कि गायत्री मन्त्र के 24 अक्षर में किन रहस्यों का समावेश है। उनके शोध निष्कर्षों में से कुछ इस प्रकार हैं—

(1) ब्रह्म-विज्ञान के 24 महाग्रन्थ हैं। 4 वेद, 4 उपवेद, 4 ब्राह्मण, 6 दर्शन, 6 वेदांग। यह सब मिलाकर 24 होते हैं। तत्वज्ञों का ऐसा मत है कि गायत्री के 24 अक्षरों की व्याख्या के लिए उनका विस्तृत रहस्य समझाने के लिए इन शास्त्रों का निर्माण हुआ है।

(2) हृदय को जीव का और ब्रह्मरंध्र को ईश्वर का स्थान माना गया है। हृदय से ब्रह्मरंध्र की दूरी 24 अंगुल है। इस दूरी को पार करने के लिए 24 कदम उठाने पड़ते हैं—24 सद्गुण अपनाने पड़ते हैं। इन्हीं को 24 योग कहा गया है।

(3) विराट ब्रह्म का शरीर 24 अवयवों वाला है। मनुष्य शरीर के भी प्रधान अंग 24 ही हैं।

(4) सूक्ष्म शरीर की शक्ति प्रवाहिकी नाड़ियों में 24 प्रधान हैं। ग्रीवा में 7, पीठ में 12, कमर में 5 इन सबको मेरुदण्ड के सुषुम्ना परिवार का अंग माना गया है। (5) गायत्री को अष्टसिद्धि और नवनिद्धियों की अधिष्ठात्री माना गया है। इन दोनों के समन्वय से शुभ गतियां प्राप्त होती हैं। यह 24 महान लाभ गायत्री परिवार के अन्तर्गत आते हैं।

(6) सांख्य दर्शन के अनुसार यह सारा सृष्टिक्रम 24 तत्वों के सहारे चलता है। उनका प्रतिनिधित्व गायत्री के 24 अक्षर करते हैं। ‘योगी याज्ञवल्क्य’ नामक ग्रन्थ में गायत्री के अक्षरों का विवरण दूसरी तरह लिखा है—

कर्म्मेन्द्रियाणि पंचैव पंच बुद्धीन्द्रियाणि च । पंच पंचेन्द्रियार्थश्च भूतानाम चैव पंचकम ।। मनोबुद्धिस्तथात्याच अव्येक्तं च यदुत्तमम । चतुर्व्विशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणितु ।। प्रणवं पुरुषं बिद्धि सर्व्वगं पंचविशकम ।

(1) पांच ज्ञानेन्द्रियां (2) पांच कर्मेन्द्रियां (3) पांच तत्व (4) पांच तन्मात्राएं। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श। यह बीस हुए इनके अतिरिक्त अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) यह चौबीस हो गये। परमात्म पुरुष इन सबसे ऊपर पच्चीसवां है।

ऐसे-ऐसे अनेक कारण और आधार हैं जिनसे गायत्री में 24 ही अक्षर क्यों हैं, इसका समाधान मिलता है। विश्व की महान विशिष्टताओं के कितने ही परिकर ऐसे हैं जिनका जोड़ 24 बैठ जाता है। गायत्री मन्त्र में उन परिकरों का प्रतिनिधित्व रहने की बात, इस महामन्त्र में 24 की ही संख्या होने से, समाधान करने वाली प्रतीत हो सकती है। ‘महाभारत’ का विशुद्ध स्वरूप प्राचीन काल में ‘भारत-संहिता’ के नाम से प्रख्यात था उसमें 24000 श्लोक थे—‘‘चतुर्विंशाति साहस्रीं चक्रे भारतम’’ में उसी का उल्लेख है। इस प्रकार महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचयिताओं ने किसी न किसी रूप में गायत्री के महत्व को स्वीकार करते हुए उसके प्रति किसी न किसी रूप में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है। बाल्मीकि रामायण में हर एक हजार श्लोकों के बाद गायत्री के एक अक्षर का सम्पुट है। श्रीमद् भागवत के बारे में भी यही बात है।

ऋषि, छन्द और देवता परक गायत्री विनियोग

गायत्री के समग्र विनियोग में सविता देवता, विश्वामित्र ऋषि एवं गायत्री छन्द का उल्लेख किया गया है, परन्तु उसके वर्गीकरण में प्रत्येक अक्षर एक स्वतंत्र शक्ति बन जाता है। हर अक्षर अपने आप में एक मंत्र है। ऐसी दशा में 24 देवता, 24 ऋषि एवं 24 छन्दों का उल्लेख होना भी आवश्यक है। तत्वदर्शियों ने वैसा किया भी है। गायत्री-विज्ञान की गहराई में उतरने पर इन विभेदों का स्पष्टीकरण होता है। नारंगी ऊपर से एक दीखती है पर छिलका उतारने पर उसके खण्ड घटक स्वतंत्र इकाइयों के रूप में भी दृष्टिगोचर होते हैं। गायत्री को नारंगी की उपमा दी जाय तो उसे अन्तराल में चौबीस अक्षरों के रूप में 24 खण्ड घटकों के दर्शन होते हैं। जो विनियोग एक समय गायत्री मंत्र का है, वैसा ही प्रत्येक अक्षर का भी आवश्यक होता है। चौबीस अक्षरों के लिए चौबीस विनियोग बनने पर उनके 24 देवता 24 ऋषि एवं 24 छन्द भी बन जाते हैं।

ऋषि गुण हैं, देवता प्रभाव, छन्द को विधाता कह सकते हैं। मोटे रूप में पद्यों की संरचना को छन्द कहते हैं। पिंगल-शास्त्र के अनुसार वह संरचना जिस विधि-व्यवस्था में गूंथी गई होती है, उसी आधार पर उसका नाम करण कर दिया जाता है। यह शब्द-शास्त्र की साहित्यिक विवेचना हुई। इसी प्रकार मोटे रूप से ऋषियों को व्यक्ति विशेष माना गया है। इनकी ऐतिहासिक चरित्र चर्चा कथा-पुराणों में स्थान-स्थान पर विस्तार पूर्वक लिखी मिलती है। देवताओं को स्वर्ग लोक के निवासी दिव्य शरीरधारी माना जाता है और समझा जाता है कि अर्चना, आह्वान करने पर वे कृपापूर्वक उपासकों के समीप पधारते हैं और उनकी प्रार्थना, कामना को पूरा करने में सहायता करते हैं। यह सामान्य स्तर की बालबोध जानकारी है।

गम्भीर अवगाहन में गहरे उतरने पर विनियोग का गहरा अर्थ उभरता है। ऋषि सद्गुणों के प्रतीक हैं और देवता उनकी अवधारणा के प्रतिफल। स्पष्ट है कि सद्गुण ही मनुष्य के व्यक्तित्व को महान् बनाते हैं और उन्हीं के आधार पर उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व बन पड़ता है आन्तरिक आत्मिक स्तर और बहिरंग पुरुषार्थ का समन्वय अनेकानेक सिद्धियों और विभूतियों के रूप में प्रतिक्रिया स्वरूप सामने आता है। ऋषि आस्थावान पुरुषार्थ को कहते हैं। प्रकारान्तर से इसी को गुण कर्म स्वाभावनी उत्कृष्टता कह सकते हैं। पवित्र और प्रखर व्यक्तित्व ऋषि है। ऋषियों की संख्या अगणित है। गायत्री-साधना से सभी का सीधा सम्बन्ध रहा है किन्तु 24 ऋषि गायत्री-विद्या शोध स्तर के विशेषज्ञ माने गये हैं। ऐतिहासिक विवेचना की दृष्टि से यों कहा जा सकता है कि विश्वामित्र की ही तरह अपने-अपने समय में अपने-अपने प्रयोजन के लिए इन चौबीसों ऋषियों ने गायत्री साधना की थी और सिद्धावस्था प्राप्त की थी। तत्वदर्शन की दृष्टि से ऋषि का मानवी अस्तित्व अस्वीकार न करते हुए भी उन्हें सद्गुणों का प्रतीक माना गया है।

ऋषियों और देवताओं का परस्पर समन्वय है। ऋषियों की साधना से विष्णु की तरह सुप्तावस्था में पड़ी रहने वाली देवसत्ता को जाग्रत होने का अवसर मिलता है। देवताओं के अनुग्रह से देवताओं को उच्चस्तरीय वरदान मिलते हैं। वे सामर्थ्यवान बनते हैं और स्वपर कल्याण की महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं।

ऋषि सद्गुण हैं और देवता उनके प्रतिफल। ऋषि को जड़ और देवता को वृक्ष कहा जा सकता है। ऋषित्व और देवत्व के संयुक्त प्रभाव का परिणाम फल-सम्पदा के रूप में सामने आता है। ऋषि लाखों हुए हैं और देवता तो करोड़ों तक बताये जाते हैं। ऋषि पृथ्वी पर और देवता स्वर्ग में रहने वाले माने जाते हैं। स्थूल दृष्टि से दोनों के बीच ऐसा कोई तारतम्य नहीं है जिससे उनकी संख्या समान ही रहे। उस असमंजस का निराकरण गायत्री के 24 अक्षरों से सम्बद्ध ऋषि एवं देवताओं से होता है। हर सद्गुण का विशिष्ट परिणाम होना समझ में आने योग्य बात है। यों प्रत्येक सद्गुण परिस्थिति के अनुसार अनेकानेक सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकता है, फिर भी यह मान कर ही चलना होगा कि प्रत्येक सत्प्रवृत्ति की अपनी विशिष्ट स्थिति होती है और उसी के अनुरूप अतिरिक्त प्रतिक्रिया भी होती है। ऋषि रूपी पुरुषार्थ से देवतारूपी वरदान संयुक्त रूप से जुड़ा रहने की बात हर दृष्टि से समझी जाने योग्य है।

मूर्धन्य ऋषियों की गणना 24 है। इसका उल्लेख गायत्री तंत्र में इस प्रकार मिलता है—

वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठः शुक्रः कण्वः पराशरः । विश्वामित्रो महातेजाः कपिलः शौनको महान् ।।13।।
याज्ञवल्क्यो भरद्वाजो जमदग्निस्तपोनिधिः । गौतमो मुद्गलश्चैव वेदव्यासश्च लोमशः ।।14।।
अगस्त्यः कौशिको वत्सः पुलस्त्यो मांडुकस्तथा । दुर्वासास्तपसां श्रेष्ठो नारदः कश्यपस्तथा ।
इत्येते ऋषयः प्रोक्ता वर्णांनां क्रमशोमुने ।

गायत्री के 24 अक्षरों के दृष्टा 24 ऋषि यह हैं—

(1) वामदेव (2) अत्रि(3) वशिष्ठ (4) शुक्र (5) कण्व (6) पारासर (7) विश्वामित्र (8) कपिल (9) शौनक (10) याज्ञवल्क्य (11) भारद्वाज (12) जमदग्नि (13) गौतम (14) मुद्गल (15) वेदव्यास (16) लोमश (17) अगस्त्य (18) कौशिक (19) वत्स (20) पुलस्त्य (21) माण्डूक (22) दुर्वासा (23) नारद (24) कश्यप।

गायत्री तन्त्र प्रथम पटल

इन 24 ऋषियों को सामान्य जन-जीवन में जिन सत्प्रवृत्तियों के रूप में जाना जा सकता है, वे यह हैं—

(1) प्रज्ञा (2) सृजन (3) व्यवस्था (4) नियंत्रण (5) सद्ज्ञान (6) उदारता (7) आत्मीयता (8) आस्तिकता (9) श्रद्धा (10) शुचिता (11) संतोष (12) सहृदयता (13) सत्य (14) पराक्रम (15) सरसता (16) स्वावलम्बन (17) साहस (18) ऐक्य (19) संयम (20) सहकारिता (21) श्रमशीलता (22) सादगी (23) शील (24) समन्वय। प्रत्यक्ष ऋषि यही 24 हैं।

इन ऋषियों की कार्यपद्धति छन्द है। मोटे रूप से इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि—स्वर संहिता कह सकते हैं। सामवेद में मंत्र-विद्या के महत्वपूर्ण आधार उच्चारण-विधान-स्वर संकेतों का विस्तारपूर्वक विधान, निर्धारण मिलता है। प्रत्येक वेद मंत्र के साथ उदात्त-अनुदात्त-स्वरित के स्वर संकेत लिखे मिलते हैं। यह जय एवं पाठ प्रक्रिया का सामान्य विधान हुआ। पर यह वर्णन भी बालबोध जैसा ही है। वस्तुतः छन्द उस साधना प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें प्रगति के लिए समग्र विधि-विधानों का समावेश हो।

साधना की विधियां वैदिकी भी हैं और तांत्रिकी भी। व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उनके क्रम-उपक्रम में अन्तर भी पड़ता है। किस स्तर का व्यक्ति किस प्रयोजन के लिए, किस स्थिति में क्या साधना करे, इसका एक स्वतंत्र शास्त्र है। इसका स्पष्ट निर्देश ग्रन्थ रूप में करा सकना कठिन है। इस प्रक्रिया का निर्धारण अनुभवी मार्ग दर्शक की सूक्ष्म दृष्टि पर निर्भर है। रोगों के निदान और उनके उपचार का वर्णन चिकित्सा ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक मिल जाता है। इतने पर भी अनुभवी चिकित्सक द्वारा रोगी की विशेष स्थिति को देखते हुए उपचार का विशिष्ट निर्धारण करने की आवश्यकता बनी ही रहती है। यह चिकित्सक की स्वतंत्र सूझबूझ पर ही निर्भर है। इसके लिए कोई लक्ष्मण रेखा खिंच नहीं सकती, जिसके अनुसार चिकित्सक पर यह प्रतिबन्ध लगे कि वह अमुक स्थिति के रोगी का उपचार अमुक प्रकार करने के लिए ही प्रतिबन्धित है। चिकित्सक की सूझ-बूझ को मौलिक कहा जा सकता है। ठीक इसी प्रकार ‘छन्द’ को अनुभवी मार्ग दर्शक द्वारा किया गया दूंगित कहा जा सकता है। साधना विधियों का वर्णन एक ही प्रक्रिया का अनेक प्रकार से हुआ है। उसमें से किस परिस्थिति में क्या उपयोग हो सकता है इसकी बहुमुखी निर्धारण प्रज्ञा को ‘छन्द’ कह सकते हैं। समस्त गायत्री साधना का स्वतंत्र विधान है। यों स्थिति के अनुरूप उस विधान के भी भेद और उपभेद हैं। किन्तु 24 अक्षरों में सन्निहित किसी शक्ति विशेष की साधना करनी हो तो व्यक्ति के स्तर तथा प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए जो निर्धारण करना पड़े, उसका संकेत ‘छन्द’ रूप में किया गया है। अच्छा तो यह होता कि पिंगलशास्त्र में जिस प्रकार छन्दों के स्वरूप का स्पष्ट निर्धारण कर दिया गया है, उसी प्रकार साधना की छन्द-प्रक्रिया का भी शास्त्र बना होता, भले ही उसका विस्तार कितना ही बड़ा क्यों न करना पड़ता यदि ऐसा हो सका होता तो सरलता रहती। किन्तु इतने पर भी स्वतंत्र निर्धारण की आवश्यकता से छुटकारा नहीं ही मिलता।

जो भी हो आज स्थिति यही है कि छन्द रूप में यह संकेत मौजूद हैं कि उपचार की दिशा-धारा क्या होनी चाहिए। यह सांकेतिक भाषा है। पारंगतों के लिए इस अंगुलि निर्देश से भी काम चल सकता है और प्राचीन काल में चलता भी रहा है। पर आज की आवश्यकता यह है कि ‘गुरुपरम्परा’ तक सीमित रहने वाली रहस्यमयी विधि-व्यवस्था को अब सर्व सुलभ बनाया जाय। प्राचीन काल में ऐसे प्रयोजन गोपनीय रखे जाते थे। आज भी अणु-विस्फोट जैसे प्रयोगों की विधियां गोपनीय ही रखी जा रही हैं। राजनैतिक रहस्यों के सम्बन्ध में भी अधिकारियों को गोपनीयता की शपथ लेनी पड़ती है। पर एक सीमा तक ही यह उचित है। ‘छन्द’ के सम्बन्ध में भी एक सीमा तक गोपनीयता बरती जा सकती है, फिर भी उसका उतना विस्तार तो होना ही चाहिए कि उसके लुप्त होने का खतरा न रहे।

गायत्री मंत्र के हर अक्षर का एक स्वतंत्र छन्द स्वतंत्र साधना विधान है, जिसका संकेत—उल्लेख ‘गायत्री-तंत्र’ में इस प्रकार मिलता है—

गायत्र्युष्णिगनुष्ट्रुप् च बृहती पंक्तिरेव च ।। त्रिष्ट्रुभं जगती चैव तथाऽतिजगती मता । शक्वर्यतिशक्वरी च धृतिश्चातिघृतिस्तथा ।। विराट् प्रेस्ता रपंक्तिश्व कृतिः प्रकृतिराकृतिः । विकृतिः संकृतिश्चवाक्षरपंक्तिस्तथैव च ।। भूर्भुवः स्वरिति छंदस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम् । इत्येतानि च छंदासि कीर्तितानि महामुने ।।

हे नारद! गायत्री के 24 अक्षरों में 24 छन्द सन्निहित हैं—

(1) गायत्री (2) उष्णिक्र (3) अनुष्टुप् (4) वृहती (5) पंक्ति (6) त्रिष्टुप् (7) जगती (8) अतिजगती (9) शक्वरी (10) अतिशक्विरी (11) धति (12) अतिघृति (13) विराट् (14) प्रस्तार पंक्ति (15) कृति (16) प्रकृति (17) आकृति (18) विकृति (19) संकृति (20) अक्षर पंक्ति (21) भूः (22) भुवः (23) स्वः (24) ज्योतिष्मती।

छन्द-विद्या के अन्तर्गत साधना-विधान का जो उल्लेख मिलता है, उसे मुद्रा कहा जाता है। मुद्राओं में यों कई ग्रन्थों में मात्र उंगलि संचालन की सामान्य क्रियाओं को ही पर्याप्त मान लिया गया है और गायत्री उपासकों को उन्हें ही कर लेने पर काम चल सकने का आश्वासन दिया गया है। पर यह आरंभ है। वास्तव में मुद्रा-विज्ञान अपने आप में एक समग्र शक्ति है। उसमें उंगलियों का ही नहीं शरीर के विभिन्न अवयवों का—श्वसन-संस्थान का तथा मन के विशिष्ट भाव प्रवाहों का समावेश होता है। 24 मुद्रा साधनाओं को गायत्री के 24 अक्षरों के लिए किस प्रकार उपयोग किया जाना चाहिए इसका निर्धारण अनुभवी मार्गदर्शक के परामर्श से ही हो सकता है। मुद्राओं का उल्लेख ‘‘घेटण्डसंहिता’’ में इस प्रकार है—

महामुद्रा नभोमुद्रा उड्डियानं जलन्धरम् । मूलबन्धो महाबन्धो महाषेधश्च खेचरी ।।1।। विपरीत फरणी योनिबज्रोलो शक्ति चालिनी । ताडकी माण्डवी मुद्रा शम्भवी पंचधारणा ।।2।। अश्विनी पाशिनी काकी मातंगी च भुजंगिनी । चतुर्विंशति मुद्राणि सिद्धदानीह योगिनाम् ।।3।।

(1) महामुद्रा (2) नभोमुद्रा (3) उड्डीयान (4) जालन्धर बन्ध (5) मूलबन्ध (6) महाबन्ध (7) खेचरी (8) विपरीत करणी (9) योनिमुद्रा (10) वज्रौली (11) शक्ति चालनी (12) तडागी (13) माण्डवी (14) शांभवी (15) अश्विनी (16) पाशिनी (17) कात्की (18) मातंगी (19) भुजगिंनी (20) पार्थिवी (21) आपभ्भरी (22) वैश्वानरी (23) वायवी (24) आकाशी। यह चौबीस मुद्रा साधनाएं योग साधकों को सिद्धियां प्रदान करने वाली हैं।

तन्त्र प्रकरण में दोनों हाथों की उंगलियों को मिलाकर कुछ विशेष प्रकार की आकृतियां बनाई जाती हैं। इन्हें मुद्राएं कहते हैं। मुद्राओं की संख्या 24 है। प्रत्येक अक्षर की एक मुद्रा है। अक्षरों के क्रम से मुद्रा निर्धारण निम्न प्रकार किया गया है। इन्हें किसी अभ्यासी विज्ञजन से अथवा उपासना ग्रन्थों में उपलब्ध चित्रों के माध्यम से जाना जा सकता है—

अतः परं प्रवक्ष्यामि वर्णामुद्राः क्रमेण तु । सुमुखं सम्पुटं चैव, विततं विस्तृतं तथा ।।1 द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुःपंचमुखं तथा । ष मुखाधोमुखं चेव व्यापकांजलिकं तथा ।।2 शकटं यम पाशं च ग्रन्थितं सन्भुखोन्मुखम् । प्रलम्बं मुष्टिक चैव मत्स्यकूर्म वराहकम् ।।3 सिंहाक्रान्तं, महाक्रान्तं, मुद्गरं, पल्लव तथा । चतुर्विशतिमुद्राक्षज्जपादौ परिकीर्तितः ।।4।।

अर्थात् गायत्री के अनुसार 24 मुद्राएं इस प्रकार हैं—1. सुमुख 2. सम्पुट 3. वितत 4. विस्तृत 5. दिमुख 6. त्रिमुख 7. चतुर्मुख 8. पंचमुख 9. षड़मुख 10. अधोमुख 11. व्यापकांजलि 12. शकट 13. यम पाश 14. ग्रन्थित 15. सन्मुखोन्मुख 16. प्रलम्ब 17. मुष्टिक 18. मत्स्य 19. कूर्म 20. बराहक 21. सिंहाक्रान्त 22. महाक्रान्त 23. मुद्गर 24. पल्लव।

गायत्री-विनियोग में सविता देवता का उल्लेख है। 24 अक्षरों के 24 देवताओं की नामावली अन्यत्र दी गई है। उन देवताओं को अष्टसिद्धि, नव निद्धि एवं सप्त विभूतियों के रूप में गिना गया है। 8+9+7= का योग 24 होता है गायत्री से प्राचीन काल के साधकों को उन चमत्कारी विशिष्टताओं की उपलब्धि होती होगी। आज के सामान्य साधक सामान्य व्यक्तित्व के रहते हुए जो सफलताएं प्राप्त कर सकते हैं, उन्हें इस प्रकार समझा जा सकता है—

1. प्रज्ञा 2. वैभव 3. सहयोग 4. प्रतिभा 5. ओजस् 6. तेजस् 7. वर्चस् 8. कान्ति 9. साहसिकता 10. दिव्य दृष्टि 11. पूर्वाभास 12. विचार संचार 13. वरदान 14. शाप 15. शान्ति 16. प्राण प्रयोग 17. देहान्तर सम्पर्क 18. प्राणाकर्षण 19. ऐश्वर्य 20. दूर श्रवण 21. दूर दर्शन 22. लोकान्तर सम्पर्क 23. देव सम्पर्क 24. कीर्ति। इन्हीं को गायत्री की 24 सिद्धियां कहा जाता है।

गायत्री उपासक पर देव अनुग्रह की निरन्तर वर्षा होती है। उसमें ऋषि-तत्व बढ़ता है। छन्द-पुरुषार्थ में—साधना प्रयोजन में श्रद्धा रहती है। मन लगता है। फलतः उसकी भाव भरी अन्तरात्मा का चुम्बकत्व उन देवताओं का अजस्र वरदान प्राप्त करता है, जिनका इन महामन्त्र के साथ सघन सम्बन्ध है। कहा भी है— चतुर्विशति-त्वा सा यदा भवति शोभना ।

गायत्रीं सवितुः शम्भो गायत्रीं मदनात्मिकाम् ।। गायत्रीं विष्णुगायत्री गायत्री त्रिपदात्मनः । गायत्री दक्षिणामूर्ते र्गायत्रा शम्भुयोषितः ।।

गायत्री के चौबीस अक्षर, चौबीस तत्व हैं। गायत्री, सविता, शिव, विष्णु, दक्षिणामूर्ति, शम्भु शक्ति और काम बीज है।

सृष्टि की पदार्थ-सम्पदा का वर्गीकरण करने की दृष्टि से जिन पंच तत्वों की चर्चा की जाती है, उसे भौतिक-जगत की सृजन-सामग्री कहा जाता है। उस सामान्य वर्गीकरण विज्ञान-वेत्ताओं ने अधिक गम्भीर विश्लेषण किया है तो उनकी संख्या 100 से भी अधिक हो गई है। यह भौतिक जगत की तत्व चर्चा हुई। आत्मिक क्षेत्र में चेतना ही सर्वस्व है। इस चेतना को जिन जिन माध्यमों की अपने आस्तित्व का परिचय देने संवेदनाएं ग्रहण करने तथा अभीष्ट प्रयोजन सम्पन्न करने में आवश्यकता पड़ती है, उन्हें तत्व कहा गया है। ऐसे चेतन तत्व 24 हैं। इसी गणना में भौतिक पंचतत्वों की भी गणना की जाती है।

सांख्य दर्शन में जिन 24 तत्वों का उल्लेख है, वे पदार्थ परक नहीं, वरन् चेतना को प्रभावित करने वाली तथा चेतना से प्रभावित होने वाली सृष्टि-धाराएं हैं। ऐसी धाराओं की गणना 24 की संख्या में की गई हैं। इन्हें प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति की सृष्टि-संचालन एवं जीवन-प्रवाह में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करने वाली दिव्य-धारायें सम्पदाएं-सृष्टि-प्रेरणाएं कहा जा सकता है। प्रवाह परिकर को गायत्री महाशक्ति की सशक्त स्फुरणायें समझा जा सकता है। गायत्री तत्वदर्शन की विवेचना इसी रूप में होती रही है।

गायत्री महाशक्ति के 24 अक्षरों के साथ जुड़े हुए 24 तत्व इस प्रकार हैं— पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एवं च ।।10 गन्धो रसश्च रूपम् च शब्दः स्पर्शस्तथैव च उपस्थम् पायुपादम च पाणी बागपि च क्रमात् ।।11।। प्राथम् जिह्वा च चक्षुश्चत्बक्श्रोत्रम च नत पर । प्राणोऽपानस्त या व्यानः समानश्च ततः परम ।।12।। तत्त्वान्येतानि वर्णानां क्रमशः कीर्तितनितु ।

गायत्री तन्त्र द्वितीय पटल

(1) पृथ्वी (2) जल (3) अग्नि (4) वायु (5) आकाश (6) गन्ध (7) रस (8) रूप (9) शब्द (10) स्पर्श (11) उपस्थ (12) पायु (13) पाद (14) पाणि (15) वाणी (16) घ्रण (17) जिह्वा (18) चक्षु (19) त्वचा (20) श्रोत (21) प्राण (22) अपना (23) व्यान (24) समान।

इसके अतिरिक्त 24 तत्वों का एक अन्य प्रतिपादन इस प्रकार मिलता है—

(1) पृथ्वी (2) जल (3) तेज (4) वायु (5) आकाश (6) गन्ध (7) रस (8) रूप (9) स्पर्श (10) शब्द (11) वाक् (12) पैर (13) गुदा (14) जननेन्द्रि (15) त्वचा (16) नेत्र (17) कान (18) जीभ (19) नाक (20) मन (21) बुद्धि (22) अहंकार (23) चित्त (24) ज्ञान।

सच्ची गायत्री उपासना का माहात्म्य और प्रतिफल शास्त्रकारों ने जिस प्रकार बताया है, उसे देखते हुए यही प्रतीत होता है कि पर्वतों प्राण-प्रगति के पथ पर बढ़ने के लिए गायत्री विद्या का महत्व असाधारण है। कहा गया है—

परब्रह्मा स्वरूपा च निर्वांण पददायिनी । ब्रह्म तेजो मयी शक्ति स्तधिष्ठातृ देवता ।। अर्थात् गायत्री परब्रह्म स्वरूप तथा निर्वाण पद देने वाली है। वह ब्रह्म तेज शक्ति की अधित्ठातृ देवी हैं।



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