चेतना की प्रचण्ड क्षमता-एक दर्शन

​​​अद्भुत और विलक्षण मानवी काया

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मानवी शरीर यों उपेक्षित परिभाषा में एक ‘चलता-फिरता पेड़’ है। भौतिक दृष्टि से उसकी और कुछ व्याख्या हो भी नहीं सकती। वनस्पतियों में पाये जाने वाले रसायन ही न्यूनाधिक मात्रा में उसमें भी पाये जाते हैं। जन्म, वृद्धि और मरण के चक्र में घास-पात की तरह मनुष्य भी भ्रमण करता है आहार और सांस लेने की क्रिया ही पौधों की तरह उसे भी जीवित रखती है। फिर भी पौधे और मनुष्य के बीच पाये जाने वाले अन्तर पर दृष्टिपात करने से हमें दोनों के बीच हर क्षेत्र में मौलिक अन्तर दृष्टिगोचर होता है। विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या—पिछड़े स्तर के प्राणि—शरीरों में भी वे विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंका है।

शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की भाव सम्वेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। सोद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी? यह मात्र संयोग नहीं है और न इसे रचनाकार का कौतुक—कौतूहल कहा जाना चाहिए। मनुष्य को विशेष प्रयोजन के लिए बनाया गया। इस ‘विशेष’ को सम्पन्न करने के लिए उसका प्रत्येक उपकरण इस योग्य बनाया गया है कि उसके कण-कण में विशेषता देखी जा सके। इन साधन उपकरणों के सहारे ही वह आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण जैसे महान् प्रयोजन सम्पन्न कर सकने में समर्थ हो सकता है सृष्टा ने इसी साज-सज्जा से अलंकृत करके उसे इस संसार में अभीष्ट कर्त्तव्यों का निर्वाह करने के लिए भेजा है।

हृदय की धड़कन में सिकुड़ने की—सिस्टोल और फैलने की—डाइस्टोल क्रिया होती रहती है। इसी क्रिया के कारण रक्त-संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी नाले की तरह नहीं चलता, वरन् पम्पिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। पम्प में झटका मारने की क्रिया होती है। उससे गति मिलती है। नीचे की दिशा में तो प्रवाह अपने आप भी होता है, पर ऊपर की ओर ले जाना हो तो उसके पीछे शक्ति का दबाव होना आवश्यक है। आकुंचन-प्रकुंचन से झटका लगता है और उसके दबाव से रक्त-चक्र नीचे जाने और ऊपर आने की दोनों आवश्यकताएं पूरी कर लेता है। हृदय की धड़कन रक्त के परिभ्रमण में काम आने वाली गति की व्यवस्था करती है।

कोई यन्त्र लगातार काम करने से गरम हो जाता है। श्रम के साथ विश्राम भी आवश्यक है। श्रम में शक्ति का व्यय होता है, विश्राम उसको फिर से जुटा देता है। हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन से जहां झटके द्वारा शक्ति उत्पादन की आवश्यकता पूरी होती है वहां इन दोनों क्रियाओं के बीच मध्यान्तर की अवधि में विश्राम का लाभ भी उसे मिलता रहता है। एक-धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में सैकिण्ड के पांच बंटे छह भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान से प्रवाहित होती हैं। इन तरंगों के विद्युत आवेशों को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 घन इंच हवा को बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं। शरीर में दूषित वायु कार्बन-डाई-ऑक्साइड गैस को बाहर निकालना और शुद्ध वायु ऑक्सीजन को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराना यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों को निवाहना पड़ता है। फेफड़ों में आंख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाएं बहती हैं। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ—एयरसैक बनता है यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं। इनकी संख्या प्रायः 1600 होती है। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं।

साधारणतया उपलब्ध ऑक्सीजन का 4.5 प्रतिशत अंश ही शरीर ग्रहण कर पाता है यदि श्वास लम्बी और गहरी लेने का अभ्यास डाल लिया जाय तो तीन गुनी अर्थात् 13.5 तक ऑक्सीजन ग्रहण की जा सकती है। इस उपार्जन का लाभ भी शरीर पोषण के लिए तीन गुना अधिक प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार सफाई का कार्य तीन गुना बढ़ सकता है। जिस अनुपात से गहरी सांस द्वारा ऑक्सीजन अधिक ग्रहण की जा सकती है उसी प्रकार कार्बन-डाइ-ऑक्साइड को भी 4.5 प्रतिशत के स्थान पर 13.5 के अनुपात से बाहर निकाला जा सकता है। कहना न होगा कि शक्ति प्राप्त करने और विषाक्तता निकालने के अनुपात बढ़ जायं तो उससे आरोग्य वृद्धि में अत्यधिक लाभ मिलेगा। गहरी और लम्बी सांस लेने की सामान्य प्रणाली, डीप ब्रीदिंग, भौतिक विज्ञान की प्राणायाम प्रक्रिया कहलाती है। इसमें आध्यात्मिक आधारों को भी मिला दिया जाय तो फेफड़े स्वास्थ्य सम्वर्धन में अद्भुत भूमिका निभाने लगते हैं।

हृदय और फेफड़े ही नहीं अन्य छोटे दीखने वाले अवयव भी अपना काम अद्भुत रीति से सम्पन्न करते हैं। गुर्दों की गांठें देखने में मुट्ठी भर आकार की—भूरे कत्थई रंग की—सेम के बीज जैसे आकृति की—लगभग 150 ग्राम भारी हैं। प्रत्येक गुर्दा प्रायः 4 इंच लम्बा, 2.5 इंच चौड़ा और 2 इंच मोटा होता है। जिस प्रकार फेफड़े सांस को साफ करते हैं, उसी प्रकार जलअंश की सफाई इन गुर्दों के जिम्मे है। गुर्दे रक्त में घुले रहने वाले नमक, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम आदि पर कड़ी नजर रखते हैं। इनकी मात्रा जरा भी बढ़ जाये तो शरीर पर घातक प्रभाव डालती है। शरीर में जल की भी एक सीमित मात्रा होनी चाहिए। रक्त में क्षारीय एवं अम्लीय अंश न बढ़ने पाये इसका ध्यान भी गुर्दों को ही रखना पड़ता है। छानते समय इन सब बातों की सावधानी वे पूरी तरह रखते हैं। गुर्दे एक प्रकार की छलनी हैं। उसमें 10 लाख से भी अधिक नलिकाएं होती हैं। इन सबको लम्बी कतार में रखा जाय तो वे 110 किलोमीटर लम्बी डोरी बन जायेंगी। एक घण्टे में गुर्दे रक्त छानते हैं जिसका वजन शरीर के भार से दूना होता है। विटामिन अमीनो अम्ल, हारमोन, शकर जैसे उपयोगी तत्व रक्त को वापिस कर दिये जाते हैं। नमक ही सबसे ज्यादा अनावश्यक मात्रा में होता है। यदि यह रुकना शुरू करदे तो सारे शरीर पर सूजन चढ़ने लगेगी। गुर्दे ही हैं जो इन अनावश्यक को निरन्तर बाहर फेंकने में लगे रहते हैं।

दोनों गुर्दों में परस्पर अति सघन सहयोग है। एक खराब हो जाय तो दूसरा उसका बोझ अपने ऊपर उठा लेता है। गुर्दे प्रतिदिन प्रायः दो लीटर मूत्र निकालते हैं। मनुष्य अनावश्यक और हानिकारक पदार्थ खाने से बाज नहीं आता। इसका प्रायश्चित्त गुर्दों को करना पड़ता है। नमक, फास्फेट, सल्फेट, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, लोहा, क्रिएटाइनिन, यूरिया, अमोनिया, यूरिक, एसिड, हिप्पूरिक ऐसिड, नाइट्रोजन आदि पदार्थों की प्रचलित आहार पद्धति में भरमार है। गुर्दे इस कचरे को मूत्र मार्ग से बाहर करने और स्वास्थ्य सन्तुलन बनाये रखने का उत्तरदायित्व निवाहते हैं। यदि वे अपने कार्य में तनिक भी ढील करदें तो मनुष्य ढोल की तरह फूल जायगा और देखते-देखते प्राण गंवा देगा।

आमाशय का मोटा काम भोजन हजम करना माना जाता है पर यह क्रिया कितनी जटिल और विलक्षण है। इस पर दृष्टिपात करने से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है, इसे छोटी थैली की एक अद्भुत रसायनशाला की संज्ञा दी जाती है जिसमें सम्मिश्रणों के आधार पर कुछ से कुछ बना दिया जाता रहता है। कहां अन्न और कहां रक्त? एक स्थिति को दूसरी में बदलने के लिए उसके बीच इतने असाधारण परिवर्तन होते हैं—इतने अधिक रासायनिक सम्मिश्रण मिलते हैं कि इस स्तर के प्रयोगों की संसार भर में कहीं भी उपमा नहीं ढूंढ़ी जा सकती। आमाशय में पाये जाने वाले लवणाम्ल, पेप्सीन, रेन्नेट आदि भोजन को आटे की तरह गूंथते हैं। लवणाम्ल खाद्य-पदार्थों में रहने वाले रोग कीटाणुओं का नाश करते हैं। पेप्सीन के साथ मिलकर वे प्रोटीनों से ‘पेप्टोन’ बनाते हैं। पेन्क्रियाज में पाये जाने वाले इन्सुलिन आदि रसायन शकर को सन्तुलित करते हैं और आंतों के काम को सरल बनाते हैं इतने अधिक प्रकार के—इतनी अद्भुत प्रकृति के—इतनी विलक्षण प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने वाले रासायनिक प्रयोग मनुष्यकृत प्रयोग प्रक्रिया द्वारा सम्भव हो सकते हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आमाशय की रासायनिक प्रयोगशाला क्या-क्या कौतुक रचती है और क्या से क्या बना देती है? इसे किसी बाजीगर की विलक्षण जादूगरी से कम नहीं कहा जा सकता।

यों तो कर्त्ता की कारीगरी का परिचय रोम-रोम और कण-कण में दृष्टिगोचर होता है, पर आंख कान जैसे अवयवों पर हुई कारीगरी तो अपनी विलक्षण संरचना से बुद्धि को चकित ही कर देती है। आंख जैसा कैमरा मनुष्य द्वारा कभी बन सकेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कैमरों में नाभ्यान्तर—फोकल लेन्थ—को बदला जा सके ऐसे कैमरे कहीं नहीं बने। फोटो लेने के लिये अच्छे कैमरों के लेन्स भी पहले एक निश्चित नाभ्यान्तर पर फिट करने होते हैं। फिल्मों तक में फोटो दृश्य और कैमरे की दूरी का सन्तुलन मिलाकर फोकस सही करना पड़ता है। इस व्यवस्था को बनाये बिना अभीष्ट फोटो खिंच ही नहीं सकेगा। किन्तु नेत्र संरचना में ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। वे निकट से निकट और दूर से दूर को भी—आंखों को बिना आगे-पीछे हटाये—मजे में देखते रह सकते हैं। प्रिज़्म या थ्रीडाइमेन्शनल कैमरे अद्भुत माने जाते हैं। पर वे भी रंगों का वर्गीकरण उस तरह नहीं कर सकते जैसा कि आंखें करती हैं। सुरक्षा सफाई का ‘प्रबन्ध’ जैसा आंखें में है वैसा किसी कैमरे में नहीं। पहले उलटा फोटो लेते हैं, फिर दुबारा प्रिंट करके उन्हें सीधा करना पड़ता है किन्तु आंखें सीधा एक ही बार में यही फोटो उतार लेती हैं।

कान जैसा ‘साउण्ड फिल्टर’ यन्त्र कभी मनुष्य द्वारा बन सकेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। रेडियो और वायरलैस की आवाजें एक निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ पर ही सुनी जा सकती हैं। कानों के सामने इस प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। वे किसी भी तरफ की—कोई भी ऊंची हलकी आवाज सुन सकते हैं। कई आवाजें एक साथ सुनने या कोलाहल के बीच अपने ही व्यक्ति की बात सुन लेने की क्षमता हमारे ही कानों में होती है। ध्वनि साफ करने के लिए ‘रेक्टीफायर’ का प्रयोग किया जाता है। कुछ यन्त्रों में ‘वैकुऊम सिस्टम’ एवं ‘गस सिस्टम’ से ध्वनि साफ की जाती है। उसमें लगे धन प्लेट ‘एनोड’ और ऋण प्लेट ‘कैथोड’ के साथ ‘ग्रिड’ जोड़ना पड़ता है तब कहीं एक सीमा तक आवाज साफ होती है। किन्तु कान की तीन हड्डियां स्टेयिम, मेलियस और अंकस में इतनी स्वच्छ प्रणाली विद्यमान है कि वे आवाज को उसके असली रूप में बिना किसी कठिनाई के सुन सके। न मात्र सुनने की है उस सन्देश के अनुरूप अपना चिन्तन और कर्म निर्धारित करने के लिए प्रेरणा देने वाली विद्युत प्रणाली कानों में विद्यमान है। सांप की फुंसकार सुनते ही यह प्रणाली खतरे से सावधान करती है और भाग चलने की प्रेरणा देने के लिए रोंगटे खड़े कर देती है। ऐसी बहुद्देशीय संरचना किन्हीं ध्वनि-ग्राहिक यन्त्रों में सम्भव नहीं हो सकती।

शरीर पूरा जादू घर है। उसकी कोशिकाएं, तन्तुजाल किस प्रकार जीवन-मरण की गुत्थियां स्वयं सुलझाते हैं और समूची काया को समर्थ बनाये रहने में योगदान करते हैं, यह देखते ही बनता है। अन्नमय कोश जिसे स्थूल शरीर भी कहते हैं। परमेश्वर की विचित्र कारीगरी से भरा-पूरा है। उसके किसी भी अवयव पर दृष्टिपात किया जाय उसमें एक से एक बढ़ी-चढ़ी अपने-अपने ढंग की विलक्षणताएं प्रतीत होंगी।

अवयव ही नहीं इकाई भी अद्भुत

शरीर के यह अंग अवयव ही नहीं, जिन घटकों से वह बना है वे भी कम विलक्षण और अद्भुत नहीं हैं। जीवन की मूल इकाई कोशिका है जिसे सैल या कोशा भी कहते हैं। यह शरीर का सबसे छोटा किन्तु मूल घटक है, जिस प्रकार पदार्थ का मूल घटक परमाणु होता है उसी प्रकार कोशा को जीवन का मूल घटक कहा जाता है। यों शरीर-अरबों खरबों कोशिकाओं से बना होता है लेकिन प्रत्येक कोशिका अपने आप में अद्भुत विलक्षणता लिये रहती है। कोशा रासायनिक पदार्थों से मिलकर बनती है पर उसके मध्य में जो ‘नाभिक’ है उसी को कोशा ब्रह्माण्ड का बिजली घर कह सकते हैं यहीं से सारी हलचलों का प्रवाह चलता है। अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि रासायनिक खोखला कलेवर मात्र है, उसका मूल जीवन नाभिक के केन्द्र में सन्निहित है और वह ‘विद्युत’ रूप है। इस प्रकार अब जीवन की व्याख्या एक विशिष्ट विद्युत प्रवाह के रूप में की जाने लगी है और यह माना जाने लगा है कि यह बिजली सामान्य विद्युत जैसी दिखाई पड़ने पर भी उसके भीतर एक सुव्यवस्थित क्रम व्यवस्था ही नहीं जीवनोपयोगी चेतना भी विद्यमान है। जड़ के अन्तर्गत इस चेतना की विद्यमानता इन्हीं दिनों मूर्धन्य वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकार की गई है। अब मनुष्य सर्वथा जड़—मात्र रासायनिक संयोग नहीं रहा। वह चिन्मय स्वीकार कर लिया गया।

किंग्स कालेज लन्दन के डा. विल्किंस ने अपने अन्वेषण का निष्कर्ष बताया कि—कोशिका अपने आप में उतनी आश्चर्यजनक नहीं है जितनी उसके अन्दर के दूसरे कण और क्रियायें महत्वपूर्ण हैं, इनमें से नाभिक का केन्द्रक (न्यूक्लियस) और उसमें लिपटे हुये क्रोमोसोम, स्पूतनिक की तरह कोशिका के आकाश में स्थिति ‘सेन्टोसोम’ जो कोशों के विकास में सहायक होता है, पारदर्शी गुब्बारे जैसा वह भाग जो भोजन को शक्ति में बदलता है, वह भी एक से एक बढ़ कर आश्चर्य जनक हैं। न्यूक्लियस कोशिका का वह गुम्बदाकार भाग है, जहां से पूरे शरीर का सूत्र संचालन होता है। गुण सूत्र (क्रोमोसोम) की जटिलता और भी अधिक है, क्योंकि उन पर व्यक्ति के गुण, शारीरिक विकास और अनुवांशिकता आधारित है, इसलिए इनकी खोज में वैज्ञानिक तीव्रता से जुट गये।

‘जीन्स’ जिन्हें आज का वैज्ञानिक जीवन की इकाई मानता है, इन्हीं गुण-सूत्रों का ही एक अत्यन्त सूक्ष्म अवयव है। जिस प्रकार एक डोरे में थोड़ी-थोड़ी दूर पर गांठें लगा देते हैं। इन गुण सूत्रों में भी गांठें लगी हुई हैं, इन गांठों को ही ‘जीन्स’ कहते हैं। एक कोशिका के जीन्स जो कुण्डली मारे बैठे रहते हैं, उन्हें यदि खींच कर सीधा कर दिया जाय तो 5 फीट तक लम्बे पहुंच सकते हैं। हमारा शरीर चूंकि कोशिकाओं की ईंटों से बना हुआ होता है और एक युवक के शरीर में यह कोशिकायें 600 खरब तक होती हैं, इसलिए यदि सम्पूर्ण शरीर के ‘जीन्स’ को खींच कर रस्सी बनाई जाये तो वह इतनी बड़ी होगी, जिससे सारे ब्रह्माण्ड को नाप लिया जाना सम्भव हो जायगा।

आत्मा सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है। सम्भवतः यह जीन्स उस भारतीय मत की पुष्टि करें। पर जीन्स को ही आत्मा नहीं मान लेना चाहिए। वह चेतन आत्मा का एक अणु हो सकता है, पर आत्मा नहीं। सूर्य एक आत्मा है, उसकी एक किरण वहां से चलती है और किसी स्थान पर वहां की ऊर्जा पहुंचाती रहती है, बहुत सम्भव है उसी तरह उस किरण जाल से सूर्य भी स्थान-स्थान की खोज-खबर लेता रहता हो। यह किरणें भी प्रकाश के छोटे अणु (एटम) से बने हैं और प्रत्येक अणु में सूर्य जैसी क्षमतायें विद्यमान् होती हैं, उतनी ही ऊर्जा (एनर्जी) उतनी ही चमक और वैसी ही आकृति, पर वह सूर्य नहीं हो सकता वह तो सूर्य का एक अणु मात्र है। अणु को पकड़ा, तोड़ा और मरोड़ा जा सकता है पर सूर्य को तोड़ डालने की शक्ति विज्ञान ने कहां पाई है। सूर्य अपने आप में एक स्वतन्त्र सत्ता है।

जीन्स भी ऐसे ही हैं। मनुष्य का कुछ छोटा या बड़ा होना, उसके बाल काले, भूरे या घुंघराले होना, नाक चौड़ी या पतली होना, आंखें नीली, काली या भूरी होना यह सारी बनावट जीन्स की बनावट पर निर्भर है, यदि विस्तृत खोज की जाय तो गर्भस्थ शिशु का एक दिन इच्छानुवर्ती निर्माण संभव हो जायेगा। अनुवांशिक (हेरेडेटरी) रोगों का इलाज भी तब सम्भव है, जीवधारी के पृथ्वी पर आने से पहले ही कर दिया जा सके, बहुत सम्भव है। आदम, ईसा या कर्ण जैसा अमैथुनी मनुष्य भी बनाया जा सके पर यह सब मनुष्य की इच्छा पर नहीं, किसी पर्दे में काम करने वाली शक्ति की इच्छा पर ही होगा। मनुष्य जीवों का विकसित रूप नहीं वरन् वह अमैथुनी क्रिया द्वारा ही पैदा हुआ है, यह भारतीय दर्शन की मान्यता है। जो आज की वैज्ञानिक दृष्टि में सत्य सिद्ध हो रहा है पर वह मनुष्य के लिए नितान्त सम्भव नहीं।

यह बात हम नहीं वह वैज्ञानिक भी जिन्होंने जीन्स का भी रासायनिक विश्लेषण कर लिया है, मानने लगे हैं। डा. बिल्किंस ने बताया कि जीन्स सर्पिल आकार के अणुओं से बने होते हैं, यह अणु ‘डी आक्सी राइबो न्यूक्लिइक एसिड’ (संक्षेप में डी.एन.ए.) के नाम से जाने जाते हैं। इन्हें केवल एक लाख गुना बढ़ा कर दिखाने वाली (मैग्नीफाइंग पावर) खुर्दबीन (माइक्रोस्कोप) से ही देखा जाना सम्भव है। इस दिशा में हारवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका के डा. जेम्स वाट्सन और कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी की कैकेंडिश लैबोरेटरी के डा. फ्रांसिस क्रिक ने विस्तृत अनुसन्धान किये। उन्होंने चार प्रमुख नाइट्रोजन योगिकों 1. एडीनाइन, 2. साइटो साइन, 3. गुएनाइन और थाइमाइन और फास्फेट व एक प्रकार की शर्करा के रासायनिक संयोग से प्रयोगशाला में ही डी.एन.ए. अणु (मालेक्यूल) का मॉडल बनाकर सारे संसार को आश्चर्य-चकित कर दिया। यह जीवन-जगत् में हलचल पैदा करने वाली खोज थी। उसके आधार पर अमैथुनी कृत्रिम गर्भाधान ही संभव न हुआ वरन् चिकित्सा और शरीर विकास की अनेक अद्भुत सफलताओं का स्रोत खुल गया। डी.एन.ए. की सफलता एक दिन ऐसे शरीर बना सकेगी, जो बाजारों में साधारण मनुष्यों की तरह घूमा-फिरा करेंगे, फिर भी कोई समझ न पायेगा कि क्या ये कृत्रिम मानव हैं।

1962 में इन तीन वैज्ञानिकों को जब इस सम्बन्ध में नोबुल पुरस्कार दिया गया तो उन्होंने ही कहा—‘‘सूत्र हाथ में आ गया है सूत्रधार नहीं’’ सम्भव है, एक दिन वह भी हाथ लग जायेगा और तब आज जो मनुष्य प्रकृति के इशारे पर नाचता है तब प्रकृति उसके इंगित पर चलने लगे; पर अभी तो स्थिति यह है कि मनुष्य जीवन की सारी गतिविधियां जिनका आदेश जीन्स के द्वारा मिलता है, वह किसी और की हैं। जीन्स तो उसके आदेश कोशिका तक पहुंचाते रहते हैं। एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक सारे शरीर का कार्य संचालन जीन्स के द्वारा दिये गये आदेशों पर चलता है। यह आदेश भी किसी भाषा में नहीं होते वरन् उसकी भी एक रासायनिक पद्धति है।

जीन्स से कोई तत्त्व कोशिका में गया तो वह भाग खाली होते ही ऊपर से कोई और तत्त्व को पहुंचाने की आवश्यकता प्यास रूप में प्रकट हुई। किसी ने कहा नहीं पर हम उठे और पानी पिया।पानी पीने की प्रेरणा जीन्स ने कोशिकाओं को दी, हाथ ने उठा कर पी लिया पर जीन्स को वह आदेश किसने दिया। क्या जीन्स ही की इच्छा थी वह। यदि ऐसा होता तो प्रयोगशाला में बनने वाला डी.एन.ए. भी अपनी इच्छा से विकसित होने लगता।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक मुलर ने 17 वर्ष तक मक्खियों पर विविध प्रयोग करके देखा कि जीव का प्रत्येक ‘कोश’ प्रोटीन से बना है और जब इस प्रोटीन का रासायनिक विश्लेषण किया जाता है तो उसमें अनेक प्रकार के ‘एसिड्स’ और रासायनिक द्रव्य पाये जाते हैं। जो बदलते, घटते और बढ़ते भी रहते हैं। उसने ऐसे अनेक प्रयोग किए और यह प्रयत्न किया कि रासायनिक स्थिति में परिवर्तन करके क्या शारीरिक रचना में कोई परिवर्तन किया जा सकता है। इसमें उसे कोई सफलता न मिली। क्योंकि इस तत्वों के मूल में जो ‘जीन’ नामक तत्व था उस पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। अर्थात् उस पर ताप, विष, शीत आदि का भी प्रभाव नहीं हो रहा था। ऐसे प्रयोग पहले भी हो चुके थे। इस बार जब मुलर ने एक्स किरणों का प्रयोग किया और वे गुण-सूत्रों को भेद कर ‘जीन’ तक पहुंचीं तो उसमें असाधारण हलचल हुई और तब जो नई मक्खियां पैदा हुईं उनका आकार-प्रकार बिल्कुल ही भिन्न निकला और इस तरह इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ कि ‘जीन’ ही जीवन से सम्बन्धित कोई तत्व है और उससे अधिक कोई जानकारी वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सके।

हां यह अवश्य हुआ कि उन्होंने कोश के मूल को जब सूक्ष्म दर्शी यंत्रों से देखा तो उस परमाणु में ही उन्हें विशाल ब्रह्माण्ड की झांकी अवश्य मिली। यह देखा गया कि वहां कई सूर्यों जितनी ऊर्जा और चमक विद्यमान है तो भी जीन के उस कारण शरीर की अभी तक कोई जानकारी वैज्ञानिक प्राप्त नहीं कर सके।

अभी इस जीन्स से भी कोई अति सूक्ष्म और सर्वव्यापी सत्ता है, इसका प्रमाण उसी की संरचना से मिल जाता है। उदाहरणार्थ डी.एन.ए. पर ही लगभग एक अरब अमीनो एसिड क्रम से लगे रहते हैं, इन्हें वह अक्षर कह सकते हैं जो मिल कर जीन्स की आकांक्षा को व्यक्त करते हैं। जैसे भूख-प्यास, बोलना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, सोना, स्वप्न देखना आदि। इनका ही क्रम मनुष्य के गुणों का निर्धारण करता है। मरोड़ी हुई सीढ़ी की शक्ल में यह अणु एक जीन्स की शक्ल में दिखाई देते हैं। उन सब की अनुभूतियां अलग-अलग हैं, इससे यह पता चलता है कि जीन्स जहां कोशिका की आत्मा है, वहां वह शरीर गत् सम्पूर्ण चेतना का एक अंग भर है और उससे अधिक कुछ नहीं।

शरीर को सामाजिकता के अधीन रहना पड़ता है, ऐसा न होता, प्रत्येक जीन्स एक स्वतन्त्र अस्तित्व होता तो वह शरीर के प्रत्येक अंग से मनुष्य पैदा करना आरम्भ कर देता। ऐसा वह नहीं कर सकता, मनुष्य भी परमात्मा का एक अंश है, वह अपने दायरे में निर्माण, पालन और संहार के कार्य किया करता है, पर वह विश्व-इच्छा के अधीन है। उसकी अपनी सत्ता उस सामाजिकता से अलग रही होती तो वह अपनी इच्छा से जन्म और मृत्यु का स्वामी हो जाता।
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