बच्चों की शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी आवश्यक

बच्चों की शिक्षा और दीक्षा दोनों आवश्यक

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
संसार में निर्बल और प्रभावहीन रहकर जीने में कोई मजा नहीं है। जो निर्जीव अथवा प्रभावहीन होता है उसे कोई पूछता नहीं सभी उसे अपना शिकार बनाने की कोशिश किया करते हैं। जीवन में निर्बल होने का अर्थ है संसार के कुटिल तथा स्वार्थी लोगों का भोजन बन जाना।

निर्बलता और प्रभाव हीनता का कारण है, अज्ञान, और अज्ञान का कारण है अशिक्षा और संसार की गतिविधि से दूर रहना। जो अशिक्षित है वह किसी से ठीक तरह बात कर सकने में असमर्थ रहता है और दूसरों की बात भी ठीक प्रकार से नहीं समझ सकता। अध्ययन द्वारा महापुरुषों के विचारों तथा अनुभवों का लाभ नहीं उठा सकता इसलिए ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिक्षा बहुत आवश्यक है।

केवल शिक्षा ही ज्ञान की संवाहिका नहीं हो सकती। किसी ने एम.ए. बी.ए. तक शिक्षा भी प्राप्त करली किन्तु वह समाज से दूर-दूर संसार की गतिविधियों से विरत आत्मलीन जैसा रहता है, न लोगों के सम्पर्क में आता है और न विचारों का आदान प्रदान ही करता है तो उसकी शिक्षा उसके क्या काम आ सकती है? इस प्रकार एकाकी रहकर वह अपनी विद्या का लाभ न स्वयं उठा पाता है और न किसी दूसरे को दे पाता है। संसार में कहां क्या हो रहा है? लोगों की विचारधारा किस ओर बह रही है, वर्तमान परिस्थितियों में हमें क्या और कैसे करना चाहिए? इसका ज्ञान प्राप्त किये बिना अपनी दिशा, कार्य-पद्धति और साधनों का निर्णय नहीं किया जा सकता जिसे अपने आस-पास की गतिविधि तथा परिस्थिति की जानकारी नहीं वह शिक्षित होने पर भी अज्ञानी ही माना जायगा। इसलिए ज्ञान प्राप्त करने के लिए शिक्षा पाना और संसार का अध्ययन करते रहना कुछ आवश्यक है।

शिक्षा का समारम्भ बचपन से होता है। पांच छः वर्ष की आयु में जब कि प्रायः शिक्षा प्रारम्भ की जाती है, बच्चों के पास अपनी स्वयं की समझ नहीं होती। वे अपना अच्छा बुरा भी नहीं समझ पाते। साथ ही उनमें पढ़ने की स्वतः प्रेरणा नहीं होती। उस समय तो उन्हें खेलना और शरारत करना ही पसन्द होता है। पढ़ने के लिए जिस दिन वे बिठाले जाते हैं उस दिन तक उनका एक मात्र खेलना ही होता है। पढ़ाई उनके लिए सर्वथा नवीन तथा स्वभाव अथवा अभ्यास के विरुद्ध होती है। तभी वे उस विषय के अभिभावकों तथा अध्यापकों को काफी दिनों तक परेशान करते रहते हैं। किन्तु जब धीरे-धीरे अन्य बच्चों के साथ अभ्यस्त हो जाते हैं फिर अपने आप पाठशाला जाने लगते हैं। उनका अभ्यास उस दिशा में ढल जाता है। किन्तु इसके लिये अभिभावकों को काफी परिश्रम करना पड़ता है। उन्हें उस सम्बन्ध में बड़ा सावधान तथा सतर्क रहना होता है। बच्चे की गाड़ी जब चल निकलती है तो फिर वे असावधान अथवा उदासीन हो जाते हैं।

पढ़ाई के सम्बन्ध में बच्चों को गाड़ी चल निकलने के बाद अभिभावकों का तटस्थ हो जाना अथवा सोचकर असावधान हो जाना कि अब तो वह स्कूल जाने ही लगा है, अपने को परेशान होने की क्या जरूरत, अब बच्चा और अध्यापक आप निपटते रहेंगे, ठीक नहीं। अभिभावकों को इस उदासीनता से बच्चों की शैक्षणिक प्रगति मंद हो जाती है। अभिभावकों को, जब तक बच्चे पूरी तरह आत्म-प्रबुद्ध न हो जायें उनकी पढ़ाई और उनकी प्रगति में पूरी-पूरी दिलचस्पी लेते रहना और प्रेरणा देते रहना चाहिए। इससे वे उत्तरोत्तर तेजी से बढ़ते चले जाते हैं।

अभिभावकों को चाहिए कि वे नित्यप्रति सायंकाल घन्टा आध घन्टा बच्चों की पढ़ाई लिखाई देखने के लिए बैठा करें। इस समय वे उनसे स्कूल में क्या पढ़ाई चल रही है, कितना पाठ्य-क्रम हो चुका है और कितना शेष है, इसका पता लगाया करें, साथ ही उससे पढ़े पाठों के विषय में प्रश्न करके यह पता लगाया करें कि बच्चे जो पाठ पढ़ चुके होते हैं। वह याद भी करते हैं या नहीं? उनकी कापियां देखा करें और पता लगाया करें कि वे अपना काम ठीक से कर रहे हैं या नहीं? जो गलतियां ठीक की जाती हैं उन्हें बार-बार लिख कर अभ्यास कर लेते हैं या यों ही छोड़ देते हैं।

इस देखा-भाली के अतिरिक्त अभिभावकों को चाहिए कि वे उस समय बच्चों से पढ़ाई के विषय में इस प्रकार बात-चीत किया करें जिससे वे शिक्षा की गरिमा अनुभव करें और प्रेरणा पायें। इसी समय बच्चों को स्वयं भी कुछ न कुछ पढ़ाना चाहिए और कभी-कभी उनकी परीक्षा लेकर यह पता भी लगाना चाहिए कि वे किस गति से प्रगति कर रहे हैं। इस प्रकार बच्चों की पढ़ाई में स्वयं भाग लेकर उनकी अभिरुचि बढ़ाते रहना चाहिए। जो अभिभावक बच्चों की पढ़ाई में स्वयं रुचि नहीं लेते, उनके बच्चे प्रायः पढ़ने लिखने में कम ही रुचिवान हो पाते हैं।

बच्चों को शिक्षा के लिये केवल मात्र अध्यापकों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए। अध्यापकों के लिये कोई एक ही विद्यार्थी तो नहीं होता उन्हें तो पचासों विद्यार्थियों के साथ माथापच्ची करनी पड़ती है। पचास जगह बटा हुआ उनका ध्यान तथा समय बच्चों को अधिक लाभ नहीं पहुंचा पाता। इसलिए अभिभावकों को बच्चों को स्वयं भी थोड़ा समय देकर उस कमी को पूरा करते रहना चाहिये।

यह तो रही पुस्तकीय शिक्षा की बात। इसके अतिरिक्त एक शिक्षा और भी है जिसे अनुभवी अथवा यथार्थ शिक्षा कहा जा सकता है। वह कि बच्चों को अपने साथ बाजार, सभा सोसाइटियों तथा मेलों, उत्सवों में ले जाना चाहिए। ऐसे अवसरों पर अभिभावक बाजार की चीजों उनके भावों तथा उपयोग के विषय में बतलावें और दिखलावें कि लोग एक दूसरे से किस प्रकार वर्तते तथा व्यवहार करते हैं यह भी उन्हें बतलाना तथा समझाना चाहिए। व्यावहारिक ज्ञान के लिये बच्चे बड़े ही उत्सुक तथा जिज्ञासु होते हैं। अभिभावकों को अपने प्रयत्न से उनको उनके इस गुण का लाभ पहुंचाना ही चाहिए।

साथ ही अभिभावकों को चाहिये कि वे नित्य-प्रति प्रातः सायं बच्चों को बस्ती से दूर कुछ देर के लिये घुमाने ले जायें। ऐसे अवसर पर उन्हें प्राकृतिक दृश्यों, पक्षियों, सामान्य वनस्पतियों तथा यदि कोई मिल सकें तो पशुओं के बावत बतलायें। साथ ही सूर्य चन्द्र, ग्रह-नक्षत्रों, तथा एकान्त शून्य आदि के आधार पर आध्यात्मिक जिज्ञासा भी जगाते चलना चाहिए। इस प्रकार बच्चों में पुस्तकीय ज्ञान के साथ व्यावहारिक जगत और अध्यात्म ज्ञान का क्रम बढ़ता चलेगा। एक बुद्धिमान अभिभावक ने अपनी इस व्यावहारिक विधि का वर्णन करते हुये एक स्थान पर लिखा है—

‘‘मैं अपने दोनों किशोर बच्चों को अपरिचित सड़कों पर भेजता हूं और निर्देश देता हूं कि एक घन्टे घूमकर आओ और मुझे बताओ कि तुमने कहां क्या देखा? जब वे लौटकर आते हैं तब में उनसे उनकी जानकारी के विषय में प्रश्न करता हूं। उत्तर संतोषजनक न होने पर दूसरे दिन उन्हें फिर निर्देश के साथ भेजता हूं कि वे रास्ते की हर चीज और घटना को खूब ध्यान से देखते चलें और उनका महत्व तथा विशेषतायें हृदयंगम करते जायें। वे जाते और वैसा ही करते हैं। वापस आने पर मेरे प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर देते हैं। इस प्रकार मैं देख रहा हूं कि मेरे दोनों बच्चों का सांसारिक तथा व्यावहारिक ज्ञान दिन-दिन बढ़ता जा रहा है, जो उन्हें आगे चलकर जीवन यात्रा में बहुत सहायक तथा उपयोगी सिद्ध होगा ऐसा मेरा पूरा विश्वास है।’’

निस्सन्देह यह अभिभावक एक बुद्धिमान अभिभावक हैं और बच्चों के प्रति किसी पिता का क्या कर्तव्य है इसको अच्छी तरह जानते तथा पालन करते हैं। जिन बच्चों को हर चीज तथा घटना को ध्यान से देखने का अभ्यास हो जाता है वे आगे चलकर बड़े अनुभवशील तथा व्यवहार कुशल नागरिक बनते हैं। उनका यह गुण हर बात और हर समस्या को ठीक से समझने और उसका हल निकालने में बड़ा सहायक होता है। शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकें पढ़कर परीक्षा पास कर लेना भर ही तो नहीं है। परीक्षा पास करना अनिवार्य है और उसके लिए स्वाध्याय करते रहना भी नितान्त आवश्यक है जो प्रत्येक छात्र को करते ही रहना चाहिए। तथा सच्चा ज्ञान जब तक नहीं होता जब तक विद्यार्थी परमात्मा के इस विशाल विश्व-विद्यालय में सूक्ष्मदर्शिता के साथ पदार्थों तथा गतिविधियों का अध्ययन नहीं करता। इसके अभाव में स्कूली शिक्षा अधूरी रह जाती है।

यदि बच्चों में जीवन के हर क्षेत्र में सावधान तथा जिज्ञासु बन कर उत्सुक आंख लेकर हर चीज को ठीक से देखते और समझते चलने की आदत का विकास कर दिया जाये तो समझो उनके लिए ज्ञान के साथ सफलता का द्वार ही खोल दिया। पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, नदी, पर्वत, आकाश तथा प्रकृति के सुन्दर दृश्य अपनी मुखरता एवम् मौनता से महानतम शिक्षा का भंडार भरे रहते हैं। जो शिक्षा का लाभ उठाने की पात्रता प्राप्त कर लेता है वह विद्वान होने के साथ-साथ यथार्थ ज्ञान से परिपूर्ण अनुभवी मनुष्य बन जाता है। उसका प्रभाव बढ़ जाता उसकी मनोशक्ति का विकास हो जाता, उसकी आत्मा प्रकाशित हो उठती और वह सफलता के सोपानों पर कदम रखता हुआ दिन-दिन आगे बढ़ता जाता है।

हारवर्ड विश्व-विद्यालय के महान् जीव शास्त्री प्रोफेसर श्री ऐगाजिस के पास जब कोई नया छात्र आता तब वे उसे एक मछली देते और कहा करते थे कि आधे या एक घंटे तक इसे अच्छी तरह देखो। जब छात्र मछली देखकर वापस आता तो वे उसके विषय में पूछते और कहते कि तुमने अभी मछली को ऊपरी तथा सरसरी नजर से देखा है। इसे गहरी नजर से गहराई तक देखकर आओ। ऐसा वे अनेक बार करते थे और जब छात्र में किसी चीज को गहराई के साथ देखने और समझने की बुद्धि का विकास हो जाता था तब उसकी शिक्षा प्रारम्भ करते थे। ऐसा करने से उनके सभी छात्र न केवल परीक्षा में ही अच्छे अंकों में पास होते थे बल्कि शिक्षा के बाद एक सफल नागरिक सिद्ध होते थे।

अभिभावकों को चाहिये कि उनके बच्चे जब तक शिक्षा के क्षेत्र में अपनी बुद्धि तथा पैरों के बल खड़े होने लायक न हो जायें उनकी शिक्षा तथा सांसारिक दीक्षा में पूरी रुचि लेते रहें। उन्हें अनुभव देते और उनका अनुभव बढ़ाते रहें। जो अभिभावक ऐसा स्वयं न करके बच्चों को पुस्तकों, शिक्षालयों तथा अध्यापकों पर छोड़ देते हैं वे उनकी शिक्षा के बाद भी कच्चा रह जाने देने की भूल करते हैं। अभिभावक होना उतना सुख नहीं जितना कि उत्तरदायित्व है। जब अभिभावक बने हैं अथवा बनने की तैयारी कर रहे हैं तो इस उत्तरदायित्व के प्रति सदा सजग, सावधान तथा सक्रिय रहना ही होगा।

निश्चय ही ये अभिभावक खेद किये जाने के पात्र हैं जो बच्चों के प्रति अपना यह उत्तरदायित्व निर्वाह नहीं करते बल्कि इसके विपरीत आचरण किया करते हैं। बच्चे की पढ़ाई-लिखाई में रुचि लेना तो दूर उल्टे उनका हर्ज ही किया करते हैं। जिस समय बच्चे स्कूल से और अभिभावक काम से आकर घर इकट्ठे होते हैं, उनके आदेशों तथा अनुपालन का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है और बच्चों का सारा पढ़ाई-लिखाई का समय उनका काम करते ही व्यतीत हो जाता है। अभिभावक महोदय एक कुरसी अथवा चारपाई पर बैठ गये और लग पानी, पान तथा खान-पान यथा स्थान। और कहीं यदि वे बैठक में दोनों के साथ शतरंज ताश या चौरस जमाये बैठे हैं तब तो बच्चे न केवल बाप के ही बल्कि मुंह बोले चाचा, ताऊ के भी अरदली बन जाते हैं। क्षण-क्षण पर उनकी आवाज पड़ती रहती है। पानी लाना, पान ले आ भाई, देखो चाय बन गई, दौड़कर बर्फ तो ले आ जा, अपने ताऊ को सिगरेट तो ला दो। अम्मा से कहो कि क्या चाय बिना नाश्ते की चलेगी? जिस सामान की जरूरत हो दौड़कर बाजार से ले आओ, जरा घर तक तो चले आओ बेटा अपनी चाची से कह आओ कि चाय भाई साहब के यहां पी ली है मेरे लिए न बनाए और देखो दूध न हो तो चाची को ला देना, आदि अनेकों काम करते-करते बेचारे बच्चे चूर हो जाते हैं। खाते-पीते तक नींद घर दबाती है और फिर कहां की पुस्तकें और कहां की पढ़ाई। सायंकाल तो ऐसा रहता ही है, इस प्रकार के न जाने कितने निरर्थक काम उनके लिए सवेरे भी लगे रहते हैं। इनके अतिरिक्त माता क्या उन्हें कुछ कम घर-गृहस्थी के कामों में लगाये रहती है? यह अभिभावकत्व नहीं है। वह अन्याय है।

सेवा भाव का विकास भी आवश्यक है।

जिन बच्चों में आरम्भ से सेवा की भावना का स्वस्थ विकास कर दिया जाता है वे आगे चलकर अपने सेवा-भाव से समाज प्रतिष्ठा के पात्र बन जाते हैं। सेवा-पथ से चल कर हजारों ऐसे व्यक्ति उन्नति के महान शिखरों पर पहुंचे हैं, जिनके पास साधन नाम की कोई वस्तु ही न थी। उनके परिवार निर्धन और निरक्षर थे।

तन, मन और वाणी से दूसरों की सेवा में तत्पर रहना स्वयं इतना बड़ा साधन है कि उसके सम्मुख किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही नहीं रहती। साथ ही अन्य सारे साधन इस एक साधन के अनुगामी रहते हैं। क्योंकि जो व्यक्ति सेवा में सच्चे मन से लग जायेगा उसकी सीमा के भीतर के भीतर के सारे साधन अवश्य ही प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार प्रत्येक की सेवा तत्पर रहने से प्रत्येक के साधन सुलभ रहने से साधनों की प्रचुरता हो जायेगी।

किन्तु, जो निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए ही सेवा करता है वह दूसरे के साधन का अपनी निजी आवश्यकता अथवा उन्नति के लिए उपयोग नहीं करता। और सच बात तो यह है कि उसको किसी के साधनों की आवश्यकता ही नहीं रहती। सच्चा सेवा-भाव रखने वाले के लिये पथ के अवरोध स्वयं हटते और सफलताओं के द्वार खुलते चले जाते हैं। हर आदमी उसके सेवा-भाव से प्रसन्न हो, विनिमय रूप में कुछ न कुछ सहायता एवं सहयोग करने के लिए लालायित रहते हैं।

अस्तु समाज के सुन्दर निर्माण और भविष्य में उन्नति के लिए बच्चे में सेवा-भाव का विकास करना अत्यन्त आवश्यक है। इस सेवा-भाव को विकसित करने के लिए परिवार सबसे सुन्दर संस्था है। धीरे-धीरे गुरुजनों की सेवा से प्रारम्भ करके सारे परिवार की सेवा करने के भाव का जागरण करना चाहिए।

किन्तु यह शिक्षण प्रारम्भ करने से पूर्व सेवा के स्वरूप को भी समझ लेना चाहिए। साधारणतः सेवा के दो स्वरूप होते हैं। एक तो अपनी सुख-सुविधा और आराम के लिए सेवा लेना, दूसरी वह सेवा जो सहायता, सहयोग और सहानुभूति के रूप में की जाती है। जैसे लेटकर थकान दूर करने या नींद आने के लिए हाथ-पैर दबाना, शरीर की मालिश करना अथवा नहाने-धोने में उससे सहायता लेना। यह प्रथम प्रकार की सेवा है, जिससे बच्चे में वांछित सेवा-भाव का उदय न होगा। कदाचित इस प्रकार की सेवा दूसरों को प्रदान करने में उसे संकोच भी होगा और न कोई अन्य व्यक्ति इस प्रकार की सेवा लेने का अधिकारी ही होता है और न वह पसन्द ही करेगा।

विपत्ति के समय सहायता करना किसी काम में सहयोग करना और दुःख में सहानुभूति देना—जैसे असम्भाव्य घटना के दौड़ जाना, ब्याह-शादी आदि उत्सवों में हाथ बटाना, रोगादि कष्टों में औषधि उपचार आदि का ध्यान रखना और कारुणिक अवसरों पर शान्ति और धैर्य देना दूसरे प्रकार की सेवा है। जिसको प्रदान करने में न तो बच्चे को संकोच होगा और न कोई दूसरा अपने को अधिकारी समझेगा। इन दोनों प्रकार की सेवाओं में जो एक अन्तर है वह यह है कि प्रथम प्रकार की सेवा में सामान्यतः दास भाव है और दूसरे प्रकार की सेवा में परोपकार-भाव।

अपनी व्यक्तिगत सेवा लेने का अधिकार होते हुए भी अभिभावकों को बच्चे में परोपकार-भाव ही जाग्रत करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसका प्रारम्भ घर की व्यवस्था ठीक करते समय चीजों को उठाने धरने में अपना हाथ बटवाकर, छोटे भाई-बहिनों को पढ़ाने-लिखाने और पाठशाला जाने-आने में सहयोग करा कर तथा ऐसी सेवायें लेकर किया जा सकता है जिससे उसे उसका अभ्यास हो और रुचि उत्पन्न हो।

सेवा का अभ्यास कराने के साथ-साथ उसे उसकी प्रेरणा भी देना चाहिए। उसे नित्य-प्रति परोपकार की महत्ता और उससे होने वाले लाभों को बतलाना चाहिए। उसको असहायों की सहायता और आवश्यकता के समय दूसरों के काम आने के नैतिक कर्तव्य और उसके ढंग का ज्ञान कराना चाहिये।

यद्यपि बच्चों को पाठशाला और अनेक अन्य अवसरों पर परोपकार की शिक्षा दी जाती है, किन्तु उनका कोई यथार्थ लाभ नहीं होता। उसका कारण है कि औपचारिक रूप से कार्यक्रमों के अनुसार उसे मौखिक उपदेश-भर दे दिया जाता है। वास्तविक प्रेरणा नहीं दी जाती। वास्तविक प्रेरणा तो बच्चों को ठीक-ठीक अभिभावकों से ही प्राप्त हो सकती है। क्योंकि ऐसे कामों के लिए अन्यों की अपेक्षा माता-पिता के कथन का अधिक प्रभाव पड़ता है।

सामाजिक प्राणी होने के कारण बच्चे से लेकर बूढ़े तक प्रत्येक मनुष्य में सेवा और सहयोग के कुछ सहज संस्कार भी होते हैं, किन्तु वे जगाये न जाने के कारण प्रत्यक्ष नहीं हो पाते। माता-पिता की प्रेरणा से वे संस्कार शीघ्र जाग सकते हैं। क्योंकि उनके कथन में बच्चे को अधिक विश्वास रहता है। वह जानता है कि माता-पिता उसे जिस बात के लिए कहेंगे उसमें उसका हित ही निहित होगा।

बहुत अभिभावक बच्चों को पैसे का लोभ देकर सेवा करने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे—‘‘तुम मेरे एक घंटा पैर दबाओ तो मैं तुम्हें दो आने दूंगा।’’ या ‘‘तुम मेरा अमुक कर दो तो मैं तुम्हें अमुक दूंगा।’’ यद्यपि इसमें एक स्नेह और बच्चों को सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करने की भावना छिपी रहती है, तथापि इस प्रकार सेवाओं का सौदा करने से बच्चों के लोभी बन जाने का भय होता है। फिर वे हर जगह और हर व्यक्ति से अपनी सेवा का मूल्य चाहने लगेंगे।

किसी बच्चे द्वारा काम किये जाने पर, सभ्यता के नाते हर व्यक्ति यह प्रयत्न करता है कि उसे इसके बदले में कुछ दिया अवश्य जाये। किन्तु बच्चे में इतनी निःस्वार्थता अवश्य होनी चाहिए कि वह विनम्रतापूर्वक उसे लेने से इन्कार कर दे। जो बच्चे अपनी सेवाओं का मूल्य ले लेते हैं वे दूसरों की सहज सद्भावना और स्नेह से वंचित हो जाते हैं।

निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले बच्चे सबको प्यारे लगते हैं। सबके हृदय में उनके लिए एक आशीर्वाद का भाव रहता है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा से उनके कल्याण की कामना करता है। इस प्रकार बच्चे के साथ ज्यों-ज्यों उसका सेवा कार्य बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसी अनुपात में समाज में अधिक से अधिक उसके प्रति सद्भावना का कोष बढ़ता जाता है और एक दिन ऐसा आता है कि उसकी उपयोगिता इतनी बढ़ जाती है कि अधिक से अधिक जन-समुदाय उस पर निर्भर रहने लगता है। और तब वह राष्ट्र और समाज का एक स्वस्थ नेतृत्व करने योग्य व्यक्ति मान लिया जाता है।

संसार के इतिहास में एक नहीं हजारों ऐसे उदाहरण हैं कि साधारण से साधारण व्यक्ति सामान्य सेवा मार्ग से चलते हुए राष्ट्रों के महान से महान नेता हुए हैं। किन्तु यह होता तब ही है जब किसी का सेवा-भाव निःस्वार्थता की चरम सीमा पर होता है। बड़ी से बड़ी पदवी पर पहुंच कर भी वहां उसके सेवा-भाव में दोष आया नहीं कि वहीं से उसका पतन आरम्भ हो जाता है। जहां अनन्त उन्नति के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं, वहां इस प्रकार के पतनों के उदाहरणों की भी कमी नहीं है।

अतएव जहां बच्चे में सेवा-भाव का विकास किया जाए वहां निःस्वार्थ भावना के संस्कार भी डाले जाएं। निःस्वार्थ सेवा करने से दिनों-दिन उसके प्रति उत्साह की वृद्धि होती है। इसके विपरीत स्वार्थपूर्ण सेवा-भाव आगे चलकर कुछ समय में अपने पर एक बोझ बन जाता है। जिसको वहन कर सकना सामर्थ्य से बाहर हो जाता है।

सेवा का कोई तात्कालिक मूल्य न लेते हुए भी यदि भविष्य की उन्नति का भी ध्यान रक्खा जायेगा तो यह भी एक प्रकार का स्वार्थ ही होगा। क्योंकि इस प्रकार तो यह भाव अपने सेवा-मूल्यों को समाज में संचित करते रहने और आगे चल के नेतृत्व आदि के रूप में इकट्ठा वसूल कर लेने के समान ही होगा, जो उसकी सहज और सच्ची उन्नति में बाधक होगा।

अस्तु, बच्चों को क्या वर्तमान और क्या भविष्य में होने वाले किसी लाभ की भावना से मुक्त रखते हुए उनमें निःस्वार्थ सेवा का भाव सदा के लिए ही उत्पन्न किया जाना चाहिए।

बच्चों को व्यवहार कुशल बनाइये

बच्चों को व्यवहार कुशल बनाने के लिये उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास करना बहुत आवश्यक है। जिन बच्चों में उत्तरदायित्व का भाव जाग जाता है वे हर काम बड़ी होशियारी से करते हैं। हर समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनसे कोई काम बिगड़ न जाये। उन पर कोई उंगली न उठा सके अथवा किसी समय वे उपहासास्पद न बन जायें।

व्यवहार कुशलता का सीधा अर्थ है कोई ऐसी बात या कोई ऐसा काम न करना जिससे किसी को कोई तकलीफ पहुंचे अथवा वे आलोचना या उपहास के पात्र बन सकें। यद्यपि सारे क्षेत्रों में किसी का पूर्ण रूपेण कुशल हो सकना असम्भव के समकक्ष जैसी बात है, तथापि समाज के साधारण व्यवहार कुशलता प्राप्त कर लेना सबके लिए सुसाध्य एवं आवश्यक है। जो सामान्य सामाजिक व्यवहार में कुशल नहीं होते वे अन्दर से अच्छे होते हुए भी समाज के उचित स्थान नहीं पा सकते। लोग उनके विषय में यह कहकर आलोचना किया करते हैं कि अमुक व्यक्ति हो सकता है अन्दर से अच्छा हो किन्तु व्यवहार से अच्छा प्रतीत नहीं होता और समाज में इस प्रकार की धारण लोगों को उसके प्रति शंकालु ही बनाये रखती है।

समाज में विनियम, वार्तालाप, सम्बन्ध एवं सामंजस्य चार ऐसी बातें हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर ही सारे सामाजिक व्यवहार आधारित रहते हैं। इन चार बातों को ठीक से व्यवहार कर सकने की योग्यता प्राप्त कर लेना ही व्यवहार दक्षता है।

विनिमय का अर्थ है, आदान-प्रदान अथवा लेन-देन। जो पैसे का, भावनाओं का अथवा विचारों का हो सकता है। विनिमय व्यवहार में जहां तक हो सके सीमान्त स्पष्टता एवं ईमानदारी रखनी चाहिए। जैसे कोई वस्तु खरीदते समय अपनी चतुरता अथवा हीलोहुज्जत से दुकानदार को साधारण भाव से कम कीमत देने का प्रयत्न न करना चाहिए। क्यों कि इससे दुकानदार अपना नुकसान तो करेगा नहीं उलटे अच्छा ग्राहक न समझ कर ऐसे व्यक्ति के हाथ कोई चीज बेचना पसन्द न करेगा। और यदि एक बार, वह ग्राहक बनाने के लिये दब भी जायेगा तो दूसरी बार एक पैसे के दो पैसे वसूल कर लेगा और सबसे पहले घटिया चीज भिड़ाने की कोशिश करेगा। बार-बार ऐसा करने वाले व्यक्ति की साख ग्राहक के रूप में बाजार में कम हो जाती है और हजारों रुपये का सामान खरीदने पर भी वह आदर नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिये।

अब रही कोई चीज बेचने की बात। कोई वस्तु बेचते समय सामान्य भाव से अधिक पैसे लेने के लिये बढ़ा चढ़ा कर मूल्य बतलाना, घटिया चीज भिड़ाना या असन्तोषजनक ढंग से विक्रय करने वाले की, दुकानदार के रूप में साख खराब हो जाती है और वह एक बड़ा दुकानदार होने पर भी न तो अपेक्षित बड़प्पन पा सकता है और न अधिक समय तक अपनी स्थिति बनाये रखता है। धीरे-धीरे ग्राहक संख्या कम करता हुआ छोटा सा दुकानदार रह जाता है।

इसी प्रकार पैसा लेने देने में समय और परिणाम में यथा सम्भव हेर फेर करने का प्रयत्न न करना चाहिए। और यदि किसी भ्रम, भूल या परिस्थिति वश ऐसा हो जाये या करना पड़े तो ईमानदारी से उनका स्पष्टीकरण करने में संकोच न करना चाहिये।

वार्तालाप में सत्यता, शिष्टता एवं देशकाल का विचार रखना चाहिए। सत्य यदि शिष्ट नहीं है अथवा शिष्टता, सत्यता से परे है या यह दोनों बातें देश काल के अनुकूल नहीं हैं तो अनुचित ही मानी जायेंगी।

सम्बन्ध मूलतः छोटे, समान, बड़े, पद, योग्यता एवं विशेषता के अनुसार छः प्रकार के होते हैं। जो जिस योग्य हो उससे उसी प्रकार का व्यवहार अपेक्षित है। इसके प्रतिकूल व्यवहार करना किसी भी दशा में ठीक नहीं है। जो जिस योग्य है उसको उसके अनुरूप स्थान देना बहुत बड़ी व्यवहार कुशलता है। छोटों से स्नेहिल, समानों से निःसंकोच और बड़ों से आदरपूर्वक वार्तालाप करना चाहिए। पद में बड़े और आयु में छोटे व्यक्ति भी आदर अदब के अधिकारी होते हैं। अपने से अधिक योग्यता अथवा किसी क्षेत्र में विशेषता वाला (जैसा कला आदि) व्यक्ति भी अपने से बड़े अथवा उच्च पद पर न होते हुये भी सम्मान एवं सद्व्यवहार के पात्र होते हैं। उनसे व्यवहार करने में इन बातों का ध्यान रखना न केवल आवश्यक ही अपितु अनिवार्य भी है।

सामंजस्य का अर्थ है अपने को इस तरह का बनाना कि हर व्यक्ति हर परिस्थिति तथा हर स्थान में समुचित समानता दिखला सके। जैसे दूसरे के दुःख में दुःख, सुख में सुख, परिस्थिति से अनुकूलता स्थान से निरपेक्षता का भाव प्रकट करे सकें। किसी के सुख-दुःख में उदासीन रहना, प्रतिकूल परिस्थिति में अधैर्य अथवा अरोग्य स्थान पर क्षोभ अथवा घृणा व्यक्त करना ठीक नहीं है। अपने अवांछित मानसिक आवेगों पर नियन्त्रण रखना व्यवहार कुशलता की महत्वपूर्ण शर्त है।

इस प्रकार इन व्यवहार सम्बन्धी आवश्यक बातों की शिक्षा देते हुए यदि बच्चों का पालन किया जाये तो कोई कारण नहीं कि वे व्यवहार कुशल न बन जायें। प्रारम्भ से ही बच्चों में इसकी चेतना का विकास किया जाना चाहिए जिससे वे स्वतन्त्र व्यवहार करने को आयु तक पहुंचते-पहुंचते दक्षता प्राप्त कर लें। जिन बच्चों में इन बातों का विकास प्रारम्भ से नहीं किया जायेगा वे बच्चे उस आयु तक आवश्यक दक्षता प्राप्त न कर सकेंगे जिसमें पहुंच कर उनका कोई भी व्यवहार महत्व रखता है और अच्छा या बुरा माना जाता सकता है।

बच्चे जब कुछ समझदार होने लगें यह कार्यक्रम तभी से शुरू कर दिया जाना चाहिये। सबसे पहले उन्हें परिवार के सदस्यों का परिचय कराया जाना चाहिए और उसी अनुसार उनसे व्यवहार का अभ्यास। यह माता है, यह पिता है, वह बड़ी बहन है, यह बड़े भाई हैं, आदि बतलाते हुए यह भी बतलाना चाहिए कि उनके चरण छूना, उनके प्रति आदर रखना उनकी आज्ञा मानना उसका परम कर्तव्य है। जो अपने से बड़े हैं, शिष्ट और और अच्छे बच्चे उनसे तुम नहीं आप कहकर बोलते हैं। उनसे गुस्सा नहीं करते और न कभी उनका तिरस्कार करते हैं। इसका अभ्यास कराने के लिये जब भी इसमें से किसी को बुलायें या उसे उनके पास किसी काम से भेजें तब कभी ऐसा निर्देश न दिया जाना चाहिये जिससे उसमें कोई अनादर का भाव पैदा होने की सम्भावना रहे। जैसे ‘‘मुखिया को बुला लाओ’’ ‘‘विमलेश को आवाज देना’’ या ‘‘देखना, अम्मा क्या करती है?’’ इसके विपरीत कहना इस तरीके से चाहिए कि ‘‘अपनी दीदी जी को बुला लाइये’’ ‘‘अपने दद्दा बड़े भाई साहब या दादाजी को आवाज दीजिये’’ ‘‘जरा देखकर आइये कि आप की माताजी क्या कर रही हैं?’’ कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार निर्देश देने से उसमें उस समय आदर की भावना ताजी हो उठेगी और उन्हीं शब्दों में उनसे बोलेगा क्योंकि बच्चों में प्रारम्भिक शब्द सम्बोधन परिवार के गुरुजनों के ही दिये होते हैं। इस प्रकार हर समय हर बात का ध्यान रखने से वह कुछ ही समय गुरुजनों से आदर पूर्वक व्यवहार करना सीख जायेगा।

व्यवहार में वार्तालाप का एक प्रमुख स्थान है। जिन बच्चों को शुरू से ही शब्दों और स्वर के संयम का अभ्यास करा दिया जाता है वे आगे चलकर बड़े मधुर तथा उपयुक्त भाषी हो जाते हैं। शब्दों का गलत उच्चारण करना स्वर को अनावश्यक रूप से ऊंचा नीचा करके बोलना अथवा वाक्यों को पूर्ण और ठीक न बोलना सम्भाषण का आकर्षण समाप्त कर देता है, जिससे दूसरों को उसकी बात न समझ से ठीक से आती है और न वे पसन्द ही करते हैं। अस्तु, शब्द स्वर और वाक्य विन्यास ठीक रखने के लिये उसे बहुत पहले से प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

सम्भाषण में नम्रता तथा देश काल और सम्बन्ध का विशेष ध्यान रखना चाहिये। किन्तु जिस भाषण में अधिक से अधिक सत्यता का समावेश नहीं है, वह नम्र और संयत होने पर भी अच्छा नहीं है। इससे बच्चा दूसरे की नजर में झूठा, गप्पी और अविश्वस्त हो जाता है और समाज में उसका आदर नहीं होता है।

इस प्रकार जो बच्चे, विनिमय, वार्तालाप, सम्बन्ध और सामंजस्य के ज्ञान से परिपूर्ण कर दिये जाते हैं वे निःसन्देह व्यवहार कुशल होकर समाज में अच्छे नागरिक बनकर अपना निश्चित स्थान प्राप्त कर लेते हैं।

बच्चों के मित्र बनिए

समय के सिर छोड़े हुये बच्चों का विकास जंगली झाड़ियों की तरह होता है। जिस में फूल कम और कांटे अधिक होते हैं, उसमें भी अधिकतर फूल निर्गन्ध और गन्ध वाले फूल भी निरर्थक निरुपयोगी रह जाते हैं। इसके विपरीत जिन बच्चों का पालन, पालन के रूप में किया जाता है वे एक चतुर माली के व्यवस्थित उद्यान की भांति सुन्दर और सुगन्धित होते हैं।

कुछ अभिभावक स्वभाव से बड़े सख्त और प्रभावशाली होते हैं। उनके आते ही घर में एक कोने से दूसरे कोने तक सन्नाटा छा जाता है। बच्चे जहां के तहां सहम कर ठिठक जाते हैं। सब खामोश हो जाते हैं। अगर बात भी करते हैं तो बहुत धीरे जैसे कोई अपराध कर रहे हों। सब एक दूसरे की ओर आश्रय की दृष्टि से देखने लगते हैं। सारे काम निर्जीव यन्त्र की तरह होने लगते हैं। घर के पूरे वातावरण में एक निरुल्लास परिवर्तन आ जाता है।

मानने को तो इसे अनुशासन माना जा सकता है किन्तु इस प्रकार का नियन्त्रण होता है कुछ आतंक की जाति बिरादरी का। इसमें अदब से अधिक भय का अंश रहता है और भय की अनुभूति न किसी को पसन्द होती है और न उससे कुछ बनता है।

गृह-स्वामी के आने से जो एक प्रसन्नता पूर्ण कृतज्ञता परिवार में फैलानी चाहिए उसके स्थान पर सारे सदस्य एक प्रकार की परेशानी अनुभव करने लगते हैं। बच्चों को खास तौर से अपने मन में मस्तिष्क पर दबाव पड़ता मालूम होता है जिससे वे बड़े अस्त व्यस्त हो जाते हैं।

होना तो यह चाहिये कि पिता के आते ही सारे बच्चे पुलकित होकर पिताजी! पिताजी! कहते हुए चारों ओर से घेर लें और अपनी अपनी कहने सुनने लगें और पिताजी अच्छा, ‘‘हां’’ ‘‘यह बातें’’ कहते हुए हंसते मुस्कराते बच्चों से घिरे कमरे में पहुंचें किन्तु होता है इसके विपरीत। उनके प्रवेश की आहट पाते ही खेलते और हंसते हुए बच्चे सहसा चुप होकर कतराने लगते हैं। उनके अर्धचेतन में कुछ इस प्रकार की प्रतिक्रिया झलक मारती है अच्छा होता पिताजी अभी थोड़ी देर न आये होते। उनके देर से आने में जल्दी आ जाने का आभास अनुभव होता है। यह अनुभूतियां श्रेयस्कर नहीं। इससे स्वाभाविक स्नेहिल प्रवृत्तियों को ह्रास हो जाता है।

कुछ अभिभावक बाहर की खीझ घर उतारा करते हैं। मानिये, उन्हें दफ्तर अथवा व्यावसायिक स्थान पर कुछ ऐसी स्थिति को सहन करना पड़ा है जिससे उनके मन में एक क्षोभ पैदा हो गया है। उन्हें कोई गलत बात सुनकर सहन करनी पड़ी है अथवा कुछ नुकसान उठाना पड़ा है, जिससे उन्हें एक मानसिक व्यग्रता है। यह ठीक है कि इस स्थिति में कुछ अच्छा नहीं लगता, फिर भी इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका बदला घर आकर बच्चों से लिया जाये, उन्हें बोलते या पास आते ही झिड़का और डांटा जाये। क्षोभ का स्थान घर नहीं है, न बच्चे इसके दोषी हैं। बाहर का वातावरण बाहर और घर का वातावरण घर बनाये रखना व्यवहार कुशलता है। इनको एक दूसरे से बदलना या इनका संमिश्रण कर देना अनुचित है। इससे परिस्थिति संभलती नहीं ओर बिगड़ जाती है। इसीलिये देश काल का विचार रखने की रीति पर जोर दिया गया है। अपने भावावेगों पर इतना नियन्त्रण अवश्य रखना चाहिये कि वे अयुक्त देशकाल में न प्रकट होने पावें।

बच्चों से ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये कि वे आपके आने पर प्रसन्न हो उठें और आने के समय आपकी प्रतीक्षा करें। जब वे अपनी अपनी बातें, शिकायतें और मुकदमे आदि आदि आपके सामने रक्खें तो उनको सुनिये और चतुरता से उनका निराकरण करिये। उनके हंसने बोलने में हिस्सा लीजिए बात करिये, कुछ प्रसन्न होइये उनको प्रसन्न कीजिये। जिससे आपकी उपस्थिति से घर का वातावरण आतंक पूर्ण न होकर प्रसन्नतापूर्ण ही रहे।

अनेक अभिभावक बच्चों की रुचि को कोई महत्व ही नहीं देते, सदैव ही उनकी रुचि पर अपनी रुचि स्थापित किये रहते हैं। उनकी छोटी से छोटी रुचि में अपना संशोधन किये बिना नहीं मानते। वे अपने इस विश्वास के वशीभूत रहते हैं कि बच्चा तो अक्ल का कच्चा होता ही है उसकी पसन्द हर हालत में गलत होगी इसलिये उसमें उनका संशोधन आवश्यक है। यद्यपि उस संशोधन में एक आदत के सिवाय कोई गम्भीरता नहीं होती तथापि वैसा करेंगे अवश्य।

जैसे बच्चे ने कहा पिताजी मेरे लिये पीले रंग की पेंसिल लाइयेगा कि तुरन्त पिताजी ने व्यवस्था दी ‘‘तुम तो बेवकूफ हो, पीले रंग की कहीं अच्छी होती हैं। पेंसिल तो नीले रंग की ही ठीक होती है।’’ जहां उसने कहा मेरे लिये ‘‘जी’’ निब लाइयेगा कि तत्काल बोले कि तभी तो तुम्हारा लेख खराब है, रिलीफ निब से लिखना चाहिये। इस प्रकार अन्य बड़ी-बड़ी चीजों और पसन्दगी की बात तो क्या वे ऐसी जरा-जरा सी चीजों में भी संशोधन किये बिना नहीं मानते और उनके इस संशोधन में कोई स्थायी दृष्टि-कोण नहीं रहता। उसके कहने से कभी ठीक बताई हुई चीज खराब और खराब बताई हुई चीज अच्छी बतला देंगे। जिससे वह कभी भी यह नहीं जान पाता कि कौन सी चीज ठीक है और कौन सी खराब। इससे किसी चीज का चुनाव करने में उसे उलझन होने लगती है। वह हर चीज खराब समझने लगता है। कुछ निर्णय करने में उसे आत्म-विश्वास नहीं रहता।

हर अभिभावक को बच्चों पर कुछ करना ही होता है। उनके लिये चीजें खरीदनी होती हैं, उनकी, आवश्यक मांग की पूर्ति करनी होती है। इसके लिये अभिभावक अधिकतर करते यह हैं कि वे बहुत दिन तक बच्चों की मांगों और आवश्यकताओं को सुनते रहते हैं फिर एक दिन सारी चीज लाकर ढेर लगा देते हैं। इस प्रकार एक दिन बाद उनकी इच्छायें और रुचियां जाग्रत होने लगती हैं और तब वे आवश्यक न होने पर नई चीजें चाहने लगते हैं, जो ठीक नहीं होता।

अभिभावकों को चाहिये कि वे बच्चों की मांग पूरी करने के कार्यक्रम को इस प्रकार विभाजित करें कि उनका हर्ज भी न हो और प्रतिदिन या दूसरे तीसरे दिन एक न एक नई चीज घर में आती रहे। इस प्रकार बच्चों को प्रति-दिन प्रसन्न और खुश होने का अवसर रहता है और घर का वातावरण प्रफुल्लित रहा करता है जो पारिवारिक जीवन के लिये बहुत शुभ है। जिन परिवारों में प्रसन्नता और प्रफुल्लता रहती है वे परिवार धनवान् न होते हुये भी सम्पन्न दिखाई देते हैं।

अभिभावकों को यथा सम्भव बच्चों की रुचि की रक्षा करनी चाहिये। उनकी रुचि पर अपनी रुचि को आदतन हठ पूर्वक नहीं थोपना चाहिये। इससे पैसा खर्च करने पर भी बच्चे को सन्तोष नहीं होता। बच्चों की रुचि और प्रौढ़ों की रुचि में बहुत अन्तर होता है। चूंकि बच्चे की अपेक्षा अभिभावकों का उत्तरदायित्व अधिक होता है, इसलिये उन्हें बुद्धिमत्ता पूर्वक बच्चों की रुचि से अपनी रुचि का साम्य स्थापित करना चाहिये। जिन बातों में वे समझें कि बच्चे की रुचि ठीक नहीं रहेगी या तो उसमें उनकी रुचि को अवसर ही न दीजिये या उसे ठीक ठीक पता रहे कि पापा सही कहते हैं। इससे उसमें यह भावना न आने पायेगी कि छोटा होने के कारण उसकी बात नहीं मानी जाती है। अभिभावक के संशोधन में उपयोगिता, लाभ अथवा हित का समावेश अवश्य होना चाहिये। यों ही अकारण संशोधन ठीक नहीं, क्योंकि इस प्रकार की आदत स्वयं एक बचपना है जो अभिभावक को शोभा नहीं देता।

बहुत बार बच्चों की बहुत सी ऐसी उलझनें हो जाती हैं जो उनके सुलझाये नहीं सुलझतीं। जैसे उनका किन्हीं दो वस्तुओं में से एक के लिये ही भाई-बहनों का उलझना। साथियों से झगड़ा हो जाना, हर काम बिगड़ जाना, पाठ और प्रश्न समझ में न आना, अध्यापक व अन्य गुरुजनों की नाराजगी दूर करना कोई आशंका अथवा भय दूर करना।

ऐसी उलझनें आ जाने पर यह कर कर निराश नहीं छोड़ देना चाहिये कि तुम्हारा मामला है, तुम समझो या तुमने खुद जैसा किया उसको भरो। अपितु उनकी उलझन को ध्यान पूर्वक सुनिये और उनको पूरी तरह समझ कर और उसे समझा कर दूर करने में उसकी सहायता कीजिये। अपनी पुस्तकें, चीजें और कपड़े लत्ते आदि रखने, उठाने धरने और पहनने आदि में उनकी इस प्रकार सहायता कीजिये कि वे उनमें एक व्यवस्था की शिक्षा पा सकें। बच्चों को कपड़े लत्ते पहनने, पेटी लगाने, नाड़ा बांधने, पतलून पहनने, बूट बांधने उतारने और खोलने में उनकी तब तक मदद कीजिये जब तक वे कायदे के साथ ठीक-ठीक पहन ओढ़ और बांध खोल न पायें। क्योंकि यदि उन्हें शुरू में इसका ठीक ठीक अभ्यास नहीं हो जाता तो उनकी वह आदत जीवन भर नहीं जाती और परेशानी होती है। गलत गांठ लगाने और खोलने से कमरबन्द में फन्दा पड़ जाना, बनियान का सर से उलझ जाना, उल्टी कमीज उतारना, गलत कोट पहनना, बटन टूट जाना, पेटी उतर जाना आदि रोजमर्रा की बात हो जाती है। इससे सदैव परेशानी भी होती है और देखने वाले इन्हें बेवकूफ और बेशऊर समझते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन की साधारण से साधारण बातों में उनकी तब तक अवश्य मदद की जानी चाहिये जब तक वे ठीक से इसके अभ्यस्त न हो जायें। यह छोटी-छोटी उलझनें कभी-कभी बड़े-बड़े हर्ज और हानियों की कारण बन जाती हैं।

बच्चों की दीक्षा के लिए दमनात्मक रवैया नहीं अपनाना चाहिए। अपितु मैत्रीपूर्ण मार्ग दर्शन द्वारा ही उन्हें दीक्षित करना चाहिए।

साधारणतः माता पिताओं का यह विश्वास होता है कि उनकी सन्तान, उनको ईश्वर प्रदत्त, ऐसी सम्पत्ति है जिसको वे जिस तरह चाहें उपयोग में ला सकते हैं। अपने सिवाय, और तो और स्वयं बच्चे का भी अधिकार उस पर नहीं समझते। और अपने इस अधिकार के प्रति सबसे अधिक जागरूक भी रहते हैं। वे सदैव यही चाहते हैं कि उनके बच्चे यन्त्रवत् ही आज्ञानुसारी रहें, और यदि किसी प्रकार वे उनके मौन मनोभावों के अनुसार परिचालित हो सकें तब तो उनके संतोष का ठीक ही न रहे।

किन्तु वे यह नहीं सोचते कि जहां कोई बच्चा उनकी सन्तान है, वहां वह एक स्वतन्त्र इकाई भी है। जहां उस पर उनका अधिकार है, वहां कुछ अधिकार समाज और राष्ट्र का घटक भी है। किसी का बच्चा होने के साथ-साथ वह समाज का एक भी है। यदि आज वह अपने माता-पिता के सहारे समाज में चलता है तो कल उसे एक स्वतन्त्र सदस्य ही हैसियत से समाज में व्यवहार करना होगा। यदि उसको व्यावहारिक तैयारी कर समाज में न उतारा गया तो अवश्य ही वह अयोग्य विद्यार्थी की तरह असफल हो जायेगा। और भले ही अनिवार्य आवश्यकतायें उसे कुछ सिखा लें, तथापि वह प्रारम्भ से तैयारी किये हुये व्यक्ति की भांति कुशल न हो सकेगा। निःसन्देह वह समाज में पिछड़ा हुआ और घिसट-घिसट कर चलने वाला पंगु सदस्य होगा। जो न तो समाज से ही कुछ लाभ उठा सकेगा और न समाज को ही उससे कुछ लाभ हो सकेगा। अतएव अपना समझने के साथ-साथ बच्चे को एक स्वतन्त्र मान कर पालन-पोषण किया जाना चाहिये।

उससे ठीक-ठीक वैसा ही व्यवहार करना श्रेयस्कर है जैसा एक सभ्य नागरिक से करना है। उसे जन्म-जात अपना अधिशासित समझकर हर समय आदेश की भाषा में न बोला जाय। इससे उसके मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर समय आदेश की भाषा सुनते-सुनते उसमें खिन्नता और मलीनता का प्रादुर्भाव होने लगता है। उसे हाथ का बरतन मानकर मिनट-मिनट पर छोटे-छोटे कामों के लिये दौड़ना ठीक नहीं। इससे कर्तव्यों के प्रति अरुचि और गुरुजनों के प्रति अश्रद्धा होने लगती है, जिससे वह उनसे मुंह छिपाने की कोशिश करने लगता है।

बच्चों को महत्त्वहीन समझ कर व्यवहार करने से वे अपने को नगण्य और अनुपयोगी समझने लगते हैं जिससे आगे चलकर उनमें आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है। किसी काम के न कर सकने अथवा बिगड़ जाने पर उनकी खिल्ली उड़ाना अथवा उनके किसी बचपन से मनोरंजन करना उचित नहीं है। इससे वे हतप्रभ और चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी किसी निर्णय में दी हुई राय, कही हुई बात को, भले ही वह कोई अर्थ न रखती हो एक दम बहिष्कृत कर देने से उनकी हिम्मत टूट जाती है, जिससे ठीक बात कह सकने में भी हिचकने लगते हैं। उनसे बात-बात पर कहना— ‘अजी तुम क्या जानो अभी बच्चे हो’ अच्छा स्वभाव नहीं है। उससे आगे बढ़ते हुये उनके बुद्धि-तत्व को धक्का लगता है, जिससे उनमें अयोग्यता अंकुरित हो सकती है।

इस प्रकार के और न जाने कितने व्यवहार हैं जो बच्चों से नहीं किये जाने चाहिये। किन्तु अभिभावक अपनी गुरुता के गर्व में बच्चों सम्बन्धी व्यवहार में सोच-विचार करना अपने गौरव के अनुरूप नहीं समझते, जब कि यही सबसे बड़े गौरव की बात है कि उनके व्यवहार से बच्चे होनहार बन कर समाज में अपना स्थान निर्धारित कर सकें। बच्चों की सहज अनुकरण बुद्धि और सुकुमार मानसिक धरातल को ध्यान में रखकर ही व्यवहार करना चाहिये। जिससे यदि वे अनुकरण करें तो अच्छी बातों का और यदि कोई संस्कार उनके मन पर पड़े तो अच्छा ही पड़े।

बच्चों के पालन-पोषण का अर्थ केवल यही नहीं है कि भूख लगने पर रोटी खिला दी जाये, कपड़े फटने पर कपड़े बनवा दिये जायें, मांगने पर पैसे दे दिये जायें और जरूरत पड़ने पर पुस्तकें आदि ले दी जायें और इससे अधिक कुछ किया तो स्कूल की ओर खदेड़ दिया। बाकी अपना खेलो-कूदो, पढ़ो-लिखो और बड़े होते रहो।

बच्चों का पालन-पोषण केवल अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझकर ही नहीं, राष्ट्र एवं समाज की धरोहर मान कर करना चाहिये। समाज की आगामी आवश्यकता को ध्यान में रखकर उसका निर्माण ठीक उस जिम्मेदारी से करना चाहिये जिस प्रकार एक शिल्पी कोई भवन बनाता है अथवा कोई ईमानदार इंजीनियर पुल का निर्माण कराता है। बच्चों को क्षमता पर सुन्दर से सुन्दर वातावरण में रखना चाहिये। उनसे आदर पूर्वक बात की जानी चाहिये जिससे उनके मन पर ऊंचे संस्कारों की छाप पड़े। जहां तक हो अधिक से अधिक उस स्तर की परिमार्जित भाषा में बात करनी चाहिये जिस स्तर की कक्षा में वे पढ़ रहे हों। इससे उन्हें अच्छी भाषा बोलने समझने का अभ्यास होगा और उनका शब्द-कोश बढ़ेगा। उनसे दिन में अवकाश के समय नियमित रूप से देश-विदेश के ऐसे विषयों पर कुछ न कुछ बात अवश्य करनी चाहिये जिसको वे किसी हद तक समझ सकें और जिनमें उनकी रुचि और हित सन्निहित हो। इससे उनकी विचार परिधि का प्रसार होगा और उनमें सार्वदेशिक एवं सार्वभौमिक चेतना का स्फुरण होगा। बच्चों को अदब सिखाने के लिये आवश्यक है कि उनका भी अदब किया जाये। उन्हें साधारण सामाजिक शिष्टाचार की शिक्षा दी जाये और परिवार में गुरुजनों तथा भाई-बहिनों के साथ अभ्यास कराया जाये, उनकी झिझक दूर करने और मिलनसार बनाने के लिये घर आये अतिथियों और मित्रों का स्वागत करते समय उनके बच्चों का स्वागत बच्चों से कराना अधिक श्रेयस्कर होगा। आगन्तुकों के समक्ष उनसे ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे वे अपने को परिवार का महत्वपूर्ण अंग अनुभव कर सकें। इससे परिवार के माध्यम से उनमें सद्भावना का भाव बढ़ेगा और दूसरों के मन में उनके प्रति आदर उत्पन्न होगा। नवागन्तुकों के साथ परिचय कराते समय ऐसी शैली का प्रयोग किया चाहिये जैसे वे एक दूसरे के पूरक हों।

कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चों को ऐसे व्यवहार और वातावरण के बीच रखा जाना चाहिये जिससे उनमें बड़प्पन और विनम्रता की भावना बढ़े। अवसर आने पर उन्हें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सुन्दर स्थानों पर साथ ले जाना चाहिये। इससे उनमें ज्ञान की वृद्धि होने के साथ-साथ नवीन स्थानों के आचार-विचार और रहन-सहन से भी परिचय होगा जो आगे चलकर उनको बहुत काम देगा।

इस प्रकार यदि प्रयत्न करके बच्चों की वर्तमान पीढ़ी को सभ्य सामाजिक बनाकर जीवन-क्षेत्र में उतारा जाये तो कोई कारण नहीं है कि आज का सड़ा-गला समाज सुन्दर और स्वस्थ रूप में न बदल जाये।

बच्चों में इस सामाजिक शिक्षा के लिये परिवार ही सबसे उपयुक्त संस्था है। क्योंकि इसके सब सदस्य एक दूसरे के स्वभाव से भली-भांति परिचित होते हैं और एक नैसर्गिक सम्बन्ध सूत्र में बंधे होते हैं। भाई-बहनों के बीच अपने अभिभावकों की सहायता से वे जितना सुन्दर और स्थायी शिक्षण परिवार में पा सकते हैं। उतना किसी बाहरी शिक्षा केन्द्र में नहीं। परिवार में छोटे-बड़े, तरुण, वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के सदस्य स्वभावतः उपलब्ध रहते हैं जिनके बीच क्या मौखिक और क्या व्यावहारिक दोनों प्रकार की शिक्षा सहज रूप में दी जा सकती है। परिवार के शिक्षण के सारे उपादान और साधन पहले से ही मौजूद रहते हैं, उनको नये सिरे से संचय करने अथवा जानबूझ कर शिक्षण के लिये अनुकूल अवसर और अवस्थायें तैयार करने की आवश्यकता नहीं है। परिवार में सब कुछ एक प्राकृतिक प्रवाह में चलता रहता है। कृत्रिमता से रहित जिस सहज स्वाभाविक सामाजिकता की आवश्यकता है, उसका ठीक-ठीक शिक्षण परिवार के अतिरिक्त और कहीं नहीं दिया जा सकता।

इस प्रकार कहना असत्य न होगा कि समय और समाज के अनुकूल जिस नागरिक ने अपना एक भी बच्चा सभ्य-सामाजिकता के साथ आज राष्ट्र को दे दिया, उसने मानो एक अश्वमेध यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त कर लिया।

शिक्षा और दीक्षा दोनों के सन्तुलित समन्वय से विकसित व्यक्तित्व को राष्ट्र की सेवा में अर्पित करना सचमुच एक महान पुण्य है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118