आधी जनशक्ति अपंग न रहे

राष्ट्र की आधी शक्ति पंगु ही पड़ी रहेगी

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जब हम नारी की दयनीय स्थिति पर विचार करते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि आने वाला समय बड़ा संघर्ष का होगा। वर्तमान समय में नारी को किस तरह चार दीवारी के अन्दर रहना पड़ता है वह तो भुक्तभोगी ही जानता है।
भारत गांवों का देश है जहां कि 80 प्रतिशत जनता देहातों में निवास करती है जो नारी शिक्षा को बिलकुल महत्व नहीं देते हैं। आजादी मिले लगभग चौथाई शताब्दी गुजर गयी परन्तु आजादी की गंगा इनको छू भी नहीं सकी है। कारण कुछ भी हो नारी का पिछड़ापन, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, अशिक्षा आज भी समाज को कमजोर बना रही है।
समाज का आधा अंग पंगु बना रहे तो उन्नति असंभव है। नारी को घूंघट में ही पैदा होना पड़ता है और घूंघट में ही मर जाना पड़ता है। इस विषमता को हम जब तक दूर नहीं करेंगे समाज का पिछड़ापन हमेशा बना रहेगा।
ऐसा नहीं है कि नारी हमेशा से इसी तरह पीड़ित रही है। भारत में नारियों का स्वर्णकाल रहा है और उनको सबसे अधिक सम्मान इसी में मिला है। वैदिक काल में तो नारी को नर से भी अधिक अधिकार प्राप्त थे।
विवाह के सम्बन्ध में नारी न केवल स्वतन्त्र ही थी बल्कि कन्या ही वर को चुना करती थी। आज की तरह कन्या अपने अभिभावकों की कोई ऐसी सम्पत्ति नहीं थी जिसको वे अपनी मर्जी से जिसे चाहें सौंप दें।
स्वयंवर की प्रथा और गन्धर्व विवाहों के उदाहरण इस बात के जीते जागते उदाहरण हैं कि कन्या अपनी रुचि के अनुसार वर चुनने के सर्वथा स्वतन्त्र थी। सीता, सावित्री, दमयन्ती, शकुन्तला आदि अनेक नारियों के उदाहरण इतिहास में पाये जाते हैं, जिन्होंने वर अपने आप स्वतन्त्र इच्छा से चुने और बाद में अभिभावकों ने स्वीकृति दी।
इसका कारण यही था कि उस समय नारियों को शिक्षा तथा सामाजिकता की पूर्ण सुविधा होती थी कि अपना अच्छा-बुरा अपने आप कर सकें और जिम्मेदारी के साथ अपना जीवन साथी चुन सकें।
निःसन्देह वह युग नारी के लिये स्वर्ण युग ही रहा है। जिसका परिणाम उस समय माता की स्थिति के अनुसार उनकी सन्तानें भी धीर, वीर, त्यागी, दानी और विद्वान होकर देश का गौरव ऊंचा करती थीं।
आज हमारे सामने कई समस्यायें मुंह फाड़े खड़ी हैं, राष्ट्रनेता उन्नति की बड़ी-बड़ी योजनायें बना रहे हैं और चाहते हैं कि समाज से नेक, ईमानदार और होनहार नागरिक आगे आयें देश की बागडोर अपने हाथ में लें।
नारी जो राष्ट्र की जननी और निर्मात्री है वह अन्धेरे में भटक रही है। घर की चार दीवारी में सर पटक-पटक कर मर जाना ही उसके भाग्य में लिखा है। नारी को इस तरह कब तक छला जायेगा इसका उत्तर कहीं से भी नहीं मिलता।
हम चाहते हैं अच्छी सन्तानें उत्पन्न हों पर यह तभी सम्भव है जब कि नारी को शिक्षित तथा पूर्ण स्वतन्त्रता का मौका दिया जाय। कानून की दृष्टि से आज भी नारी को स्वतन्त्र बताया जाता है परन्तु समाज की नजर में वह एक दासी है, जिसका अपना न कोई अस्तित्व है और न कोई अधिकार।
पुरुष वर्ग वर्षों से नारी पर अत्याचार करता रहा है, वह चाहे वेश्यागामी, शराबी, जुआरी रहे, पत्नी यह मानकर सब सहन करती रहे कि पति परमेश्वर के समान है। वर्षों से यही पुराना अलाप अलापा जा रहा है।
नारी ने जब-जब भी आगे कदम बढ़ाने की कोशिश की तो परम्पराओं रूपी जहर ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए काल के गाल में पहुंचा दिया। कई रीति-रिवाज ऐसे हैं जो नारी की बौद्धिक क्षमता को बड़ी ठेस पहुंचाते हैं। उन्हें पिंजरे के पक्षी की तरह तड़फड़ाते हुए प्राण गंवा देने के लिए विवश किया जाता है।
शिक्षा, सामाजिकता आदि में हिस्सा बढ़ाने में पुरुष ही आगे आता है नारी को अयोग्यता का चोला पहनाकर जड़ मुर्ती के समान एक ही जगह रखना अपनी शान समझता है। नारी का सारा जीवन ही इसी तरह निकल जाता है।
यों कहने के लिए तो नारी के विकास के लिए अवसरों की कानूनी तथा औपचारिक व्यवस्था की गई है। किन्तु यथार्थ में उनका कोई उपयोग है नहीं। जब घर में उसका स्वामी बना हुआ पुरुष उसे अवकाश ही न देगा, उसका पढ़ना-लिखना सहन नहीं करेगा तो नारी किस प्रकार से अवसरों का लाभ उठा सकती है। यह तभी तो सम्भव हो सकता है कि नर उनके प्रति उदार बने और न केवल अपना विकास करके ही सन्तुष्ट रहे वरन नारी के लिए भी प्रगति के साधन जुटायें।
लड़कियों को लड़कों की तरह ही पढ़ाने लिखाने और योग्य बनाने में एक स्थायी रुचि को स्थान दिया जाये और मान लिया जाये कि लड़कों की तरह ही लड़कियों का विकास भी अनिवार्य एवं अपरिहार्य है।
नारी के अपने ऐसे कोई परपंख नहीं है जिनके आधार पर स्वयं ऊंची उठ सके। निम्न-स्तर के परिवारों में नहीं उच्च स्थिति के घरों में भी नारियों को पुरुषों के संकेतों का यन्त्र बनकर चलना पड़ता है। सुविधा होने पर भी वे न तो स्वेच्छा से पढ़-लिख सकती हैं और न सामाजिक पथ पर आगे बढ़ सकती हैं।
रोटी कपड़े से लेकर सुरक्षा तक पुरुष पर निर्भर रहना पड़ता है। उनका जीवन, उनकी सुख-शान्ति, उनका भरण-पोषण सब कुछ पुरुष वर्ग की प्रसन्नता का अनुगामी है। पुरुष प्रसन्न है वह रानी है। पुरुष नाराज है उसकी दशा दासी से भी गई गुजरी है।
पति को स्वामी की पदवी छोड़कर साथी का सा व्यवहार करना चाहिए। जब तक हमारी पत्नियां समान रूप से विकसित तथा अधिकारिणी नहीं होंगी तब तक न तो हमारा परिवार और न समाज ठीक-ठीक उन्नति कर सकता है। एक लम्बे अरसे तक गुलामी बनी तथा अन्याय एवं अत्याचार सहती आ रही है।
अपने उदार व्यवहार से नर को चाहिए कि वह नारी में आत्म विश्वास जगायें। उसे आश्वस्त एवं विश्वस्त करे। अपने व्यवहार से जब तक पुरुष वर्ग नारियों के हृदय पर यह छाप नहीं छोड़ेंगे कि वे उनकी दासी नहीं बल्कि संगिनी है, परिवार एवं समाज के लिए उनका बहुत कुछ मूल्य एवं महत्व है तब तक नारियों में न आत्म विश्वास उत्पन्न होगा और न उनका मन हीन भावना से मुक्त होगा। जब तक नारी के हृदय से इन दोनों निराशाओं को दूर न किया जायगा सुविधा, साधन तथा अवसर पाकर भी वे किसी योग्य न बन जायेगी।
पुरुष वर्ग को चाहिए कि जो बुराइयां आज घर कर रही हैं कल वही हमारा घर जला डालेंगी। इसलिए नारी वर्ग को आगे लाने में तन, मन, धन से जुट जाना चाहिए तभी हमारी चतुर्दिक उन्नति सम्भव है।
नारी की आज जो स्थिति है, उसे किसी भी प्रकार न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के कुछ जन्म सिद्ध अधिकार हैं। प्रत्येक मानव प्राणी को अपनी मर्जी का नैतिक जीवन जी सकने की स्वतन्त्रता रही है और रहनी चाहिये। मैत्री के आधार पर कोई किसी के लिए कुछ भी त्याग कर सकता है पर कैदी के अतिरिक्त अन्य किसी को बन्धन में बांधने का—उसको बलात् उपयोग करने का अधिकार नहीं है। पर नारी इस मूलभूत मानवी अधिकार से भी वंचित है। कन्या का उसके अभिभावक कहीं भी किसी के साथ भी ब्याह कर सकते हैं या बेच सकते हैं। पति उसे बलपूर्वक अपने अधिकार में रख सकता है और अनिच्छा होते हुए भी जो चाहे सो अपनी मर्जी के अनुसार करा सकता है। उसके साथ चाहे जैसा व्यवहार कर सकता है, यह स्थिति मनुष्य के मूल अधिकारों के विपरीत है। स्वेच्छा जीवन जीने पर इतने कड़े प्रतिबन्धों का होना किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं है। पर्दा-प्रथा के अनुसार जिस स्थिति में नारी को रहना पड़ता है उसे मानवोचित नहीं कहा जा सकता। किन्तु शताब्दियों से चल रही अवांछनीय परम्पराओं ने इन्हीं विडम्बनाओं को ‘‘मर्यादा’’ के रूप में मान्यता दे दी है। अब लोग, उन बातों को अन्याय तक नहीं मानते वरन् उचित आवश्यक तक कहते हैं और उन्हीं तर्कों का—धर्म प्रचलनों का सहारा लेकर उन प्रतिबन्धों का समर्थन करते हैं।
इस स्थिति में चिरकाल से सहती चली आ रही नारी धीरे-धीरे अपनी मानवी उपलब्धियों से वंचित होती चली गई और आज की दुखद स्थिति में आ पहुंची। घर के छोटे से पिंजड़े में आजीवन कैद रहने के कारण उसका स्वास्थ्य चौपट हो गया। खुली हवा, धूप, हाथ पांव हिलाने की स्थिति न मिलने पर स्वास्थ्य का सर्वनाश होता ही है। छोटी आयु में विवाह हो जाने पर किशोरावस्था और नव यौवन के दिनों होने वाले शारीरिक विकास की जड़ें ही कट जाती हैं। शरीर शास्त्र का स्पष्ट निष्कर्ष है कि बीस वर्ष से कम आयु में कामोपभोग और पच्चीस वर्ष से कम आयु में सन्तानोत्पादन नारी के स्वास्थ्य को मटियामेट करके रख देता है। उसे छोटी-बड़ी अनेकों बीमारियां आरम्भ से ही घेर लेती हैं और मरते दम तक साथ रहती हैं। पेडू का दर्द, कमर का दर्द, पेट दुखना, मासिक धर्म की अनियमितता, श्वेत प्रदर, पेशाब में जलन जैसे रोग स्पष्टतः शक्ति से अधिक मात्रा में जननेन्द्रिय का दुरुपयोग किये जाने के ही दुष्परिणाम हैं। छोटी आयु से ही कच्चे अंग अवयवों पर जब दाम्पत्य हलचलों का अमर्यादित भार पड़ेगा तो उससे स्वास्थ्य की जड़ें खोखली होनी हैं। स्त्रियों में से अधिकांश को अपच, सिरदर्द, अनिद्रा, हाथ पैरों में भड़कन, आंखों में जलन, मुंह में छाले, थकान सुस्ती, बेचैनी, उदासी जैसी शिकायतें बनी रहती हैं। इसका कारण उनकी जीवनी शक्ति का क्षीण हो जाना ही होता है। जिन लड़कियों का अपना शरीर ही सुविकसित नहीं हो पाया उनके ऊपर समय से पहले बच्चे पैदा करने का भार पड़ेगा तो वह शक्ति जो अपना शरीर पुष्ट कर सकती है—सहज ही समाप्त हो जायगी। बच्चे का शरीर आखिर माता का शरीर काट कर ही तो बनता है। उसका रक्त मांस हड्डी आदि जो कुछ है वह स्पष्टतः माता के पास जो शरीर सम्पत्ति थी उसी का एक टुकड़ा अलग से टूट कर खड़ा हो गया है। जो दूध बच्चा पीता है वह माता के रस के अतिरिक्त और क्या है? उसे बच्चा पीता रहेगा तो माता के शरीर में उसकी कमी पड़ेगी ही। जो रक्त मांस लड़कियों के अपने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आवश्यक था वही यदि सन्तान में निकलता चला जाय तो स्पष्ट है कि इस कारण उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल, रुग्ण और गई गुजरी स्थिति में रहना पड़ेगा। दुर्बल के पास न रूप बचता है, न यौवन, न सौन्दर्य, न उत्साह, न स्फूर्ति, न ताजगी न मुस्कान। लड़कियों को छोटी आयु से ही दाम्पत्य जीवन के दबाव में जिस प्रकार पिसना पड़ता है वह उनकी अकाल मृत्यु का बहुत बड़ा कारण है। प्रसव पीड़ा से लाखों महिलाएं हर साल बेमौत मरती हैं इसका कारण उनके प्रजनन अंगों की दुर्बल स्थिति होते हुए भी असह्य दबाव पड़ना ही एक मात्र कारण है। प्रसव काल में जितना रक्त जाता है, जितना कष्ट होता है उसे परिपुष्ट माता का स्वास्थ्य ही सहन कर सकता है। कमजोर शरीर वाली लड़कियों के लिए तो यह बेमौत मारे जाने जैसा अभिशाप है। स्वास्थ्य की दृष्टि से अविवाहिताएं तथा विधवाएं—सुहागिनों की तुलना में कहीं अच्छी पाई जाती हैं इसका कारण यही है कि उन्हें दाम्पत्य कर्म का बोझ नहीं सहना पड़ा।
यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि विवाह नहीं करना चाहिए—दाम्पत्य-जीवन अनावश्यक है और बच्चे उत्पन्न नहीं करने चाहिए। यह सब बातें सहज स्वाभाविक रीति से होनी चाहिए। स्त्री का स्वास्थ्य जितना सहन कर सके उस पर उतना ही दबाव पड़ना चाहिए। किन्तु इस क्षेत्र में नारी सर्वथा असहाय है वह इस सन्दर्भ में मुंह नहीं खोल सकती। पति की इच्छा पूर्ति के लिए उसे विवश रहना पड़ता है सन्तानोत्पादन के लिए शरीर में गुंजायश न होने पर भी उसे वह भार बलात् उठाना पड़ता है। अपना स्वास्थ्य नष्ट होने—दुर्बलता, रुग्णता और अधिक बढ़ने, अस्वस्थ सन्तानें जनने, गर्भपात आदि होने रहने, असह्य प्रसव पीड़ा न सह सकने, अकाल मृत्यु को गले न बांधने जैसे विचार उसके मन में उठते रह सकते हैं, पर वह कह कुछ नहीं सकती—कुछ कर नहीं सकती। पराधीन की स्वेच्छा क्या? उसकी अपनी मर्जी कहां? बन्दी को मालिकों की मर्जी पर ही चलना पड़ता है। उसे अपने स्वास्थ्य की बात सोचने का अधिकार ही किसने दिया है।
सोने उठने का कोई समय नहीं। मर्द रात को 12 बजे आवें तो उसी समय चूल्हा फूंकना चाहिए। सब लोग खा जायं उसके पीछे खाना चाहिए। सबसे पीछे सोना और सबसे जल्दी उठना चाहिए। विश्राम के लिए समय की मांग न करनी चाहिए। रुग्ण रहते हुए दिन-रात पिसना चाहिए। यही आज की नारी का धर्म कर्तव्य बताया गया है। इससे कम में कोई ‘अच्छी बहू’ नहीं कहला सकती। यह सब धकापेल चलता रहे—चले—पर प्रकृति किसी को बख्शती नहीं। उसे अपने नियमों से काम। दुरात्मा हो या पुण्यात्मा बिजली के खुले तार जो भी छूएगा वही मरेगा। स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन निरन्तर करते रहने पर प्रकृति दंड देगी ही। दुर्बलता, रुग्णता, अकाल मृत्यु के चक्र में उसे पिसना ही पड़ेगा। नारी ने यह व्यतिक्रम स्वेच्छा से किया या उसे विवशता में करना पड़ा यह सोचने की प्रकृति को फुरसत नहीं है नारी नर की तुलना में शारीरिक दृष्टि से कितनी दीन, दुर्बल बनकर रह रही है वह सहज स्वाभाविक स्थिति नहीं है। सभ्य देशों की महिलायें हर क्षेत्र में—स्वास्थ्य में भी पुरुष के समतुल्य है। यह अभागा भारत ही है जिसने नारी को मानवोचित अधिकारों से वंचित किया। फलस्वरूप जो परिस्थिति उत्पन्न हुई उनने नारी के स्वास्थ्य को खा लिया। इसे भाग्य का—भगवान का दोष कहकर मन समझाया जा सकता है, पर वस्तुतः यह हमारे ही अनाचार अत्याचार का दुष्परिणाम है जिसे रोते-कराहते नारी तो भुगतती है, पर इस स्थिति में नर भी कुछ अधिक प्रसन्न नहीं रह सकता है, इसमें उसे भी कुछ लाभ उठाने का अवसर नहीं है। शोषित तो मिटता ही है—शोषक को भी विधि का विधान सुख की सांस नहीं लेने देता। नारी को अस्वस्थ बनाकर उसके मालिक-पालने हारे भी इस स्थिति में क्या सुख सन्तोष अनुभव कर रहे हैं। रोते-कराहते स्वर, आखिर उन्हें भी कुछ तो कष्ट देंगे ही। सहानुभूति समाप्त हो गई हो तो भी खीज और झूंझल तो सताती ही रहेगी उससे तो पीछा नहीं ही छूटेगा।
शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य से भी नारी को वंचित रहना पड़ रहा है। जिसकी अपनी कोई इच्छा, महत्वाकांक्षा, मर्जी पसन्दगी न हो—जिसे जन्म से मरण तक बिना उचित-अनुचित का अन्तर किये केवल आज्ञापालन ही करना है उसके लिए अपना भविष्य निर्माण करने की बात सोचना ही निरर्थक है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के विकास में स्वतन्त्र चिन्तन का, महत्वाकांक्षाओं का कुछ कर सकने का, परिस्थिति का प्रधान योगदान होता है। वह न मिले तो खाद, पानी न मिलने वाले पौधे की तरह ज्वलंत सम्भावनाएं भी नष्ट हो जाती हैं। ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा कितनी ही क्यों न हो—पालने वालों की मर्जी के बिना उसका उपयोग कर सकने का नारी के लिए कोई अवसर नहीं। इच्छा तो आखिर हर किसी की कुछ न कुछ होती ही है। उन्हें फलवती करने का जब अधिकार ही नहीं तो आकांक्षाओं की चिता और राख मनः क्षेत्र में घुटन की दुर्गन्ध ही भरे रहेगी।
पग-पग पर प्रतिबन्ध, क्षण-क्षण में तिरस्कार जिसके भाग्य में लिखा हो, वह दुर्भाग्य के आंसू ही बहाता रह सकता है। नारी निष्प्राण मशीन रही तो अच्छा था। पर जानदार प्राणी होने के कारण उसका अपना निज का मन भी है और निज की कुछ इच्छाएं भी। स्वभावतः वे फैलने, फूलने का—फूलने फलने का अवसर चाहती हैं, पर इसके लिए अधिकार रहित नारी के लिए गुंजाइश कहां चौबीसों घण्टे उसे मन को मारना पड़ता है और उस दुष्ट को देखो जो मरता तो है नहीं उलटे विद्रोही बनकर नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। इन्हें तरह-तरह के मनोरोगों के—मनोविकारों के रूप में देखा जा सकता है। मृगी-हिस्टीरिया से ग्रसित रोगियों में तीन चौथाई नारी और एक चौथाई मर्द होते हैं। तरह तरह की सनकें, चिड़चिड़ापन, लड़-झगड़, अनुदारता, दुराव, असन्तोष, आशंका, दोषारोपण जैसी मानसिक विकृतियां उन्हें घेरे रहती हैं। सनकी, जिद्दी अव्यवस्थित नासमझ बेवकूफ, स्वार्थी आदि न जाने कितने दोष उन पर लगाये जाते रहते हैं। जो किसी कदर ठीक भी होते हैं। निराशा, चिन्ता, भय भीरुता, आशंका, अविश्वास से ग्रसित उनमें से बहुतों को देखा जाता है। सन्तोषजनक मुस्कान किसी के चेहरे पर हर घड़ी खेलती हुई देखी जायगी। यह आदत जिनमें बचपन से भी थी बस गृहस्थ की चक्की में पिसने के कुछ ही दिन बाद समाप्त हो जाती है। असन्तोष और क्षोभ से उद्विग्न और खिन्न मुद्रा में ही प्रायः उन्हें देखा जाता है। मन कैसा छलिया है। उसे जहां उद्विग्न करता है वह खिलौने देकर पुचकारता भी है। श्रृंगार सजधज, फैशन की भोंड़ी तरकीब बताकर कहता है कुछ न सही तो इस  खिलौने से ही मन बहलाओ-अपना जी हलका करो। प्रायः विकृत मन वाली महिलाएं ही शृंगार प्रसाधन अपनाकर अपना खोया सम्मान इस बनावट के सहारे किसी हद तक प्राप्त कर लेने की बात सोचती हैं और उस तरह के आडम्बर बनाती हैं। इसमें उन्हें मिलता कुछ नहीं। पैसा और समय तो गंवाती ही है मूर्ख, उपहासास्पद और छिछोरी भी बनती है। प्रशंसा पाने चली थीं, पर उपहास लेकर लौटती हैं। व्यंग रूप में ही कोई मसखरा उनके मुंह पर उस सजधज की शायद प्रशंसा भी कर देता होगा। यह विडम्बनाएं वे स्वेच्छा से नहीं छलिया मन के विचित्र बहकावे में फंसकर रचती हैं। असन्तोष को सन्तोष में परिणत करने का कुछ भी औंधा-सीधा मार्ग वे खोजती हैं। इन्हीं में से एक शृंगारिक सजधज, भी है। अन्यथा शालीन नारी का व्यक्तित्व तो स्वच्छ सभ्य और सज्जनोचित सरलता के—सादगी के साथ ही जुड़ा रहता है। विवेक और उद्धत शृंगार का प्रत्यक्ष बैर है जहां एक रहेगा वहां से दूसरे को पलायन करना ही पड़ेगा।
स्मरण शक्ति की कमी, आवेश-ग्रस्तता, जिद्दीपन, शंकालु, अनुदारता, अदूरदर्शिता, मन्द बुद्धि आदि मानसिक त्रुटियां स्त्रियों में बहुत अधिक होने की बात कही जाती है। यदि यह सच है तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह उनकी आन्तरिक घुटन की प्रतिक्रिया है अन्यथा मानसिक बनावट और प्रखरता में वे नर से पीछे नहीं आगे ही रहती हैं। स्कूल, कालेजों के परीक्षा फल इसके प्रमाण में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लड़के अधिक और लड़कियां कम फेल होती हैं। अच्छे डिवीजन लड़कियों के हिस्से में आते हैं। वे छुरे चाकू, हाकी लेकर नकल के बल पर पास होने की उद्दंडता भी नहीं बरततीं, अपनी सहज प्रतिभा और स्वाभाविक श्रमशीलता के आधार पर अच्छे नम्बरों से पास होती रहती है। अन्य क्षेत्रों में भी नारी को जब भी—जितना भी अवसर मिला है सदा उसने अपनी बौद्धिक प्रखरता का ही परिचय दिया है। न वे शरीर की दृष्टि से दुर्बल हैं और न मानसिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं। परिस्थितियों ने ही उन्हें दुर्दशा ग्रस्त बना दिया है। आज तो ने दुर्बल और रुग्ण ही नहीं, मन्द बुद्धि और मानसिक रोगों की व्यथा भी बेतरह सहन कर रही हैं।
इस शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता ग्रसित स्थिति से नारी को उबारा जाना चाहिए अन्यथा वह अपने लिए परिवार के लिए समाज के लिए कुछ महत्वपूर्ण योगदान दे सकना तो दूर पिछड़ेपन के कारण भारभूत ही बनी रहेंगी। रुग्ण व्यक्ति अपनी बेकारी, पीड़ा, परिचर्या, चिकित्सा आदि के कारण स्वयं दुखी रहता है और अपने सम्बन्धियों को दुखी करता है। नारी की शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता हर दृष्टि से—हर क्षेत्र के लिए दुखद दुष्परिणाम ही प्रस्तुत कर रही है।
राजनैतिक दृष्टि से पराधीन रहने वाला देश आर्थिक दृष्टि से ही शोषित नहीं होता वरन् सांस्कृतिक, मानसिक, और बौद्धिक दृष्टि से पंगु हो जाता है ठीक इसी प्रकार सामाजिक दृष्टि से पराधीन बनाई गई नारी भी अपनी प्रखरता और उपयोगिता खो बैठी है। तथ्य को समझा जाना चाहिए और विष वृक्ष के पत्ते तोड़ने की अपेक्षा उसकी जड़ काटी जानी चाहिए। नारी को हर क्षेत्र में विकास का अवसर मिलना चाहिए और उसके पिछड़ेपन को मिटाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाना चाहिए। अपहरणकर्ता के रूप में पुरुष का दोष अधिक है इसलिए प्रायश्चित, परिमार्जन, प्रतिकार की दृष्टि से उसी को आगे आना चाहिए। आघात पहुंचाने वाले को उसका हर्जाना भी देना चाहिए और क्षति पूर्ति के लिए प्रबल प्रयास करके कलंक कालिमा को धो डालने के लिए तत्पर होना चाहिए। यदि पुरुष वर्ग अपनी इस जिम्मेदारी को समझलें तो कोई भी कारण नहीं कि देश की आधी जनशक्ति यों अपंग रही आए।

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