(अ. ज्यो. अप्रैल २०१० -- परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी—आध्यात्मिक शिक्षण क्या है?)
गायत्री मंत्र हमारे साथ साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
देवियो भाइयो!
यह दुनिया बड़ी निकम्मी है। पड़ोसी के साथ आपने जरा सी भलाई कर दी, सहायता कर दी, तो वह चाहेगा कि और ज्यादा मदद कर दे। नहीं करेंगे, तो वह नेकी करने वाले की बुराई करेगा। दुनिया का यह कायदा है कि आपने जिस किसी के साथ में जितनी नेकी की होगी, वह आपका उतना ही अधिक बैरी बनेगा। उतना ही अधिक दुश्मन बनेगा; क्योंकि जिस आदमी ने आपसे सौ रुपये पाने की इच्छा की थी और आपने उसे पन्द्रह रुपये दिये। भाई, आज तो तंगी का हाथ है, पंद्रह रुपये हमसे ले जाओ और बाकी कहीं और से काम चला लेना। पंद्रह रुपये आपने उसे दे दिये और वह आपके बट्टे खाते में गये, क्योंकि आपने पचासी रुपये दिये ही नहीं। इसलिए वह नाराज है कि पचासी रुपये भी दे सकता था, अपना घर बेचकर दे सकता था। कर्ज लेकर दे सकता था अथवा और कहीं से भी लाकर दे सकता था; लेकिन नहीं दिया। वह खून का घूँट पी करके रह जायेगा और कहेगा कि बड़ा चालाक आदमी है।
मित्रो! दुनिया का यही चलन है। दुनिया में आप कहीं भी चले जाइये, दुनिया की ख्वाहिशें बढ़ती चली जाती हैं कि हमको कम दिया गया। हमको ज्यादा चाहिए। असंतोष बढ़ता चला जाता है। और यह असंतोष अन्ततः वैर और रोष के रूप में परिणत हो जाता है। मित्रो, यह ऐसी ही निकम्मी दुनिया है। इस निकम्मी दुनिया में आप सदाचारी कैसे रह सकते हैं? जब कि आपके मन में पत्थर की उपासना करने की विधि न आये। पत्थर की उपासना करने का आनन्द जब आपके जी में आ जायेगा, उस दिन आप समझ जायेंगे कि इससे कोई फल मिलने वाला नहीं है। कोई प्रशंसा मिलने वाली नहीं है और कोई प्रतिक्रिया होने वाली नहीं है। यह भाव आपके मन में जमता हुआ चला जाय, तो मित्रो! आप अन्तिम समय तक, जीवन की अंतिम साँस तक नेकी और उपकार करते चले जायेंगे, अन्यथा आपकी आस्थाएँ डगमगा जायेंगी।
साथियो! आपने हर हाल में समाज की सेवा की; लेकिन जब चुनाव में खड़े हुए, तो एमपी एमएलए के लिए लोगों ने आपको वोट नहीं दिया और दूसरे को दे दिया। इससे आपको बहुत धक्का लगा। आपने कहा कि भाई। हमने तो अटूट सेवा की थी; लेकिन जनता ने चुनाव में जीतने ही नहीं दिया। ऐसी खराब है जनता। भाड़ में जाये, हम तो अपना काम करते हैं। हमें चुनाव नहीं जीतना है। उपासना में भी ऐसी ही निष्ठा की आवश्यकता है। आपने पत्थर की एकांगी उपासना की और एकांगी प्रेम किया। उपासना के लिए, पूजा करने के लिए हम जा बैठते हैं। धूपबत्ती जलाते हैं। धूपबत्ती क्या है? धूपबत्ती एक कैंडिल का नाम है। एक सींक का नाम है। एक लकड़ी का नाम है। वह जलती रहती है और सुगंध फैलाती रहती है।
सुगंध फैलाने में भगवान् को क्या कोई लाभ हो जाता है? हमारा कुछ लाभ हो जाता है क्या? हाँ, हमारा एक लाभ हो जाता है और वह यह कि इससे हमें ख्याल आता है कि धूप बत्ती के तरीके से और कंडी के तरीके से हमको भी जलना होगा और सारे समाज में सुगंध फैलानी होगी। इसलिए हमारा जीवन सुगंध वाला जीवन, खुशबू वाला जीवन होना चाहिए। धूपबत्ती भी जले और हम भी जलें जलने से सुगंध पैदा होती है। धूपबत्ती को रखा रहने दीजिए और उससे कहिए कि धूपबत्ती सुगंध फैलाएँगी धूपबत्ती कहती है कि मैं तो नहीं फैलाती। क्यों? जलने पर सुगंध फैलाई जा सकती है। जलना होगा। इसीलिए मनुष्य को जीवन में जलना होता है। धूपबत्ती की तरह से सुगंध फैलानी पड़ती है।
मित्रो! आध्यात्मिक व्यक्ति बनने के लिए पूजा की क्रिया करते- करते हम मर जाते हैं। यह आध्यात्मिक शिक्षण है। यह शिक्षण हमको सिखलाता है कि धूपबत्ती जलाने के साथ साथ में हमको यह विचार करना है कि यह हमारे भीतर प्रकाश उत्पन्न करती है। दीपक लेकर हम बैठ जाते हैं। दीपक जलता रहता है। रात में भगवान् को दिखाई न पड़े, बात कुछ समझ में आती है; लेकिन क्या दिन में भी दिखाई नहीं पड़ता? दिन में भगवान् के आगे दीपक जलाने की क्या जरूरत है? इसकी जरूरत नहीं है। कौन कहता है कि दीपक जलाइए क्यों हमारा पैसा खर्च कराते हैं? क्यों हमारा घी खर्च कराते हैं। इससे हमारा भी कोई फायदा नहीं और आपका भी कोई फायदा नहीं। आपकी शक्ल हमको भी दिखाई पड़ रही है और बिना दीपक के भी हम आपको देख सकते हैं। आपकी आँखें भी बरकरार हैं; फिर क्यों दीपक जलाते हैं और क्यों पैसा खराब करवाते हैं?
मित्रो! सवाल इतना छोटा सा है, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ हैं। इसका सम्बन्ध भावनात्मक स्तर के विकास से है। दीपक प्रकाश का प्रतीक है। हमारे अंदर में प्रकाश और सारे विश्व में प्रकाश का यह प्रतीक है। अज्ञानता के अंधकार ने हमारे जीवन को आच्छादित कर लिया है। उल्लास और आनन्द से भरा हुआ, भगवान् की सम्पदाओं से भरा हुआ जीवन, जिसमें सब तरफ विनोद और हर्ष छाया रहता है; लेकिन हाय रे अज्ञान की कालिमा! तूने हमारे जीवन को कैसा कलुषित बना दिया? कैसा भ्रान्त बना दिया? स्वयं का सब कुछ होते हुए भी कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। सब कुछ तो हमारे पास है, पर मालूम पड़ता है कि संसार में हम ही सबसे ज्यादा दरिद्र हैं। हमारे पास किसी चीज की कमी है क्या? हमारे मन की एक एक धारा ऐसी निकलती है कि हमको हँसी में बदल देती है; लेकिन हमको हर वक्त रूठे रहने का मौका, नाराज रहने का मौका, शिकायतें करने का मौका, छिद्रान्वेषण करने का मौका, देश घूमने का मौका, विदेश घूमने का मौका ही दिखाई देता है। सारा का सारा जीवन इसी अशांति में निकल गया।
मित्रो! हमने दीपक जलाया और कहा कि ऐ दीपक! जल और हमको भी सिखा। ऐ कम हैसियत वाले दीपक, एक कानी कौड़ी की बत्ती वाले दीपक, एक छटाँक भर तेल लिए दीपक, एक मिट्टी की ठीकर में पड़े हुए दीपक! तू अंधकार में प्रकाश उत्पन्न कर सकता है। मेरे जप से तेरा संग ज्यादा कीमती है। तेरे प्रकाश से मेरी जीवात्मा प्रकाशवान हो, जिसके साथ में खुशियों के इस विवेक को मूर्तिवान बना सकूँ। शास्त्रों में बताया गया है तमसो मा ज्योतिर्गमय’’। ऐदीपक! हमने तुझे इसलिए जलाया कि तू हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चले तमसो मा ज्योतिर्गमय अंतरात्मा की भूली हुई पुकार को हमारा अंतःकरण श्रवण कर सके और इसके अनुसार हम अपने जीवन को प्रकाशवान बना सकें। अपने मस्तिष्क को प्रकाशवान बना सकें। दीपक जलाने का यही उद्देश्य है। सिर्फ भावना का ही दीपक जलाना होता, तो भावना कहती कि दीपक जला लीजिए तो वही बात है, मशाल जला लीजिए तो वही बात है, आग जला लीजिए तो वही बात है। स्टोव को जला लीजिए, बड़ी वाली अँगीठी, अलाव जलाकर रख दीजिए। इससे क्या बनने वाला है और क्या बिगड़ने वाला है? आग जलाने से भगवान् का क्या नुकसान है और दीपक जलाने से भगवान् का क्या बनता है? अतः ऐ दीपक! तू हमें अपनी भावना का उद्घोष करने दे।
साथियो! हम भगवान् के चरणारविन्दों पर फूल चढ़ाते हैं। हम खिला हुआ फूल, हँसता हुआ फूल, सुगंध से भरा हुआ फूल, रंग बिरंगा फूल ले आते हैं। इसमें हमारी जवानी थिरक रही है और हमारा जीवन थिरक रहा है। हमारी योग्यताएँ प्रतिभायें थिरक रही हैं। हमारा हृदयकंद कैसे सुंदर फूल जैसे है। उसे जहाँ कहीं भी रख देंगे, जहाँ कहीं भी भेज देंगे, वहीं स्वागत होगा। उसे कुटुम्बियों को भेज देंगे, वे खुश। जब लड़का कमा कर लाता है। आठ सौ पचास रुपये कमाने वाला इंजीनियर पैसा देता है, तो सोफासेट बनते हुए चले जाते हैं। माया घर में आती हुई चली जाती है। कौन मना करेगा? कोई नहीं करेगा। खिला हुआ फूल बीबी के हाथ में रख दिया जाय, तो बीबी मना करेगी क्या? नाक से लगाकर सूँघेगी छाती से लगा लेगी और कहेगी कि मेरे प्रियतम ने गुलाब का फूल लाकर के दिया है। मित्रो! फूल को हम क्या करते हैं? उस सुगंध वाले फूल को हम पेड़ से तोड़कर भगवान् के चरणों पर समर्पित कर देते हैं और कहते हैं कि हे परम पितापरमेश्वर! हे शक्ति और भक्ति के स्रोत! हम फूल जैसा अपना जीवन तेरे चरणारविन्दों पर समर्पित करते हैं। यह हमारा फूल, यह हमारा अंतःकरण सब कुछ तेरे ऊपर न्यौछावर है।
हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं और तेरे पर बलि बलि जाते हैं। हे भगवान्! तू धन्य है। सूरज तेरी आरती उतारता है, चाँद तेरी आरती उतारता है। हम भी तेरी आरती उतारेंगे। तेरी महत्ता को समझेंगे, तेरी गरिमा को समझेंगे। तेरे गुणों को समझेंगे और सारे विश्व में तेरे सबसे बड़े अनुदान और शक्ति प्रवाह को समझेंगे। हे भगवान्! हम तेरी आरती उतारते हैं, तेरे स्वरूप को देखते हैं। तेरा आगा देखते हैं, तेरा पीछा देखते हैं, नीचे देखते हैं। सारे मुल्क में देखते हैं। हम शंख बजाते हैं। शंख एक कीड़े की हड्डी का टुकड़ा है और वह पुजारी के मुखमंडल से जा लगा और ध्वनि करने लगा। दूर दूर तक शंख की आवाज पहुँच गयी। हमारा जीवन भी शंख की तरीके से जब पोला हो जाता है। इसमें से मिट्टी और कीड़ा जो भरा होता है, उसे निकाल देते हैं। जब तक इसे नहीं निकालेंगे, वह नहीं बजेगा मिट्टी को निकाल दिया, कीड़े को निकाल दिया। पोला वाला शंख पुजारी के मुख पर रखा गया और वह बजने लगा। पुजारी ने छोटी आवाज से बजाया, छोटी आवाज बजी। बड़ी आवाज से बजाया, बड़ी आवाज बजी। हमने भगवान् का शंख बजाया और कहा कि मैंने तेरी गीता गाई। भगवान्! तूने सपने में जो संकेत दिये थे, वह सारे के सारे तुझे समर्पित कर रहे हैं। शंख बजाने का क्रियाकलाप मानव प्राणियों के कानों में, मस्तिष्कों में भगवान् की सूक्ष्म इच्छाएँ आकांक्षाएँ फैलाने का प्रशिक्षण करता है। मित्रो! भावनाओं से भरी हुई, भावनाओं से रंगी हुई जब कभी भी आपकी जिंदगी होगी, तब रामकृष्ण परमहंस की तरह से आपको सर्वत्र काली नजर आयेगी। मीरा की तरह से एक छोटे वाले पत्थर में आपको भगवान नजर आयेगा तब मीरा दस बारह साल की एक छोटी बच्ची थी। एक बाबा जी आये थे। उससे उसने कहा कि हमको भगवान् के दर्शन करा दीजिए। मीरा ने कहा कि भगवान् मिलेगा? महात्मा जी ने कहा कि हाँ, मिल जायेगा। तो हमको भी दर्शन करा दीजिए। बाबा जी ने अपने झोले में से पत्थर का एक बड़ा सा टुकड़ा निकाला, जो हाथ से छेनी द्वारा तराशा गया था। ऐसा भी चिकना नहीं था, जैसी कि मूर्तियाँ मिलती हैं। गोल सफाचट पत्थर को खोदकर मूर्ति बना दी गयी थी। बाबा जी ने वही मूर्ति मीरा के हाथ में थमा दिया। उसने कहा कि ये कौन हैं? ये तो भगवान् हैं। तो इन भगवान् को मैं क्या मानूँ? उन्होंने कहा कि जो तेरे मन में आये, मान सकती है।
मीरा ने कहा कि मेरे ब्याह शादी की जिरह चल रही है। मैं इनसे ब्याह कर लूँ तो? बाबा ने कहा कि कर लो। फिर तो वह तुम्हारा पति हो जायेगा तेरा भगवान्। बस मीरा का पति हो गया भगवान्। उस गोल वाले पत्थर के टुकड़े को लेकर गिरिधर गोपाल मानकर के मीरा जब घुँघरू पहन करके नाचती थी और जब गीत गाती थी, तो भगवान् का कलेजा गीत में बस जाता था और मीरा का हृदय गीत गाता था। मित्रो! यह भावनाओं से भरी उपासना जब कभी भी आपके जीवन में आयेगी, तब भगवान् आयेगा और भगवान एवं भक्त दोनों तन्मय हो जायेंगे, तल्लीन हो जायेंगे।
लेकिन हाय रे अभागे लोग! जिनको हम केवल कर्मकाण्ड सिखाते रहे और यह सिखाते रहे कि चावल फेंकते रहना, रोली फेंकते रहना, धूप जलाते रहना, फूल चढ़ाते रहना और चंदन चढ़ाते रहना। लेकिन चंदन जैसे सुगंधित जीवन जीने का ख्याल नहीं आया। चंदन हमने सिर पर लगाया था तो जरूर, पर कभी यह ख्याल नहीं आया कि चंदन जैसा जीवन जियें। सारे मस्तक को हम चंदन से लेप लेते हैं, लेकिन यह कभी नहीं सोचते कि तेरी जैसी उपमा, तेरे जैसा जीवन बनाने का शिक्षण हमारे मस्तिष्क को दे। सुगंध से भरा हुआ चंदन, साँप को छाती से लपेटे रहने वाला चंदन, आस पास उगे हुए छोटे छोटे पौधों को अपने समान बनाने वाला चंदन, घिसे जाने पर भी सुगंध फैलाने वाला चंदन, जलाये जाने पर भी सुगंध देने वाला चंदन, क्या मजाल कि उसे गुस्सा आ जाय। चंदन, हम तो तुम्हें जलायेंगे। जला लो, पर मुझमें तो सुगंध निकलेगी। लेकिन सुगंध न निकली तब? गालियाँ दीं तब? चंदन कहता है कि ऐसा होना बड़ा कठिन है। मैं कैसे गालियाँ दूँगा। गालियाँ मेरे पेट में हैं कहाँ? मेरे पेट में तो केवल सुगंध है। चंदन को हम जलाते रहे, गालियाँ देते रहे और चंदन खुशबू फैलाता रहा। उसको गुस्सा कहाँ आया? उसके मन में क्रोध कहाँ आया? उसके मन में ईर्ष्या कहाँ आई?
मित्रो! ईसा को फाँसी पर चढ़ाया गया। उन्होंने कहा कि ये लोग नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं? हे परमपिता परमात्मा! इन्हें क्षमा करना। ईसामसीह उनके लिए क्षमा की भीख माँगते रहे और उन्हें सूली पर टाँगा जाता रहा। खून टपकता रहा और कीलें गाड़ी जाती रहीं। चंदन जैसे हड्डियों को निचोड़ा जाता रहा। चंदन को भी पत्थर पर घिसा जा रहा था। हमने उस चंदन से पूछा कि तुम्हें दर्द नहीं होता। चंदन ने कहा कि यह तुम्हारा काम है और वह तुमको मुबारक हो। तुम्हारी प्रक्रिया और तुम्हारी गतिविधियाँ तुम्हारे पल्ले में, लेकिन मेरे शरीर को और मेरे आदर्श को व्यथित नहीं किया जा सकता। घिसो जितना घिस सकते हो। मैंने भी घिसा। घिसते घिसते पसीना निकाल दिया। वह एक रत्ती मात्र रह गया। उसकी सारी की सारी हड्डियों को लोगों ने पीस डाला, लेकिन चंदन सुगंध फैलाता रहा। जब ऐसा महान देवत्व लकड़ी में है, यदि ऐसा ही इंसान में हो जाये तब? तब हम लकड़ी के चंदन को घिसेंगे मस्तक पर लगायेंगे और सोचेंगे कि हे चंदन!अपनी जैसी वृत्तियाँ कुछ हमारे मस्तिष्क में भी ठोंक, जिसमें कि कषाय कल्मष भरे पड़े हैं। ईर्ष्या और द्वेष भरे पड़े हैं। डाह और छल भरे पड़े हैं। आकांक्षाएँ, इच्छाएँ भरी हुई पड़ी हैं। हमारे सामने न कोई आदर्श है, न कोई उद्देश्य। हे चंदन! आ और घुस जा हमारे दिमाग में अपनी वृत्तियों सहित। हमने तुझे हरदम लगाया, पर भावना रहित होकर लगाया।
मित्रो! पूजा का उद्देश्य बहुत ही विशेष और महत्त्वपूर्ण है। पूजा के पीछे न जाने क्या क्या विधान और उद्देश्य भरे पड़े हैं। पर क्या कभी यह हमारे दिमाग में आया? कभी नहीं आया। केवल लक्ष्यविहीन कर्मकाण्ड, भावनारहित कर्मकाण्ड करते रहे, जिनके पीछे न कोई मत था न उद्देश्य। जिनके पीछे न कोई भावना थी न विचारणा। केवल क्रिया और क्रिया...। ऐसी क्रिया की मैं निन्दा करता हूँ और ऐसी क्रिया के प्रति आपके मन में अविश्वास पैदा करता हूँ, बाधा उत्पन्न करता हूँ। बेटे, सही क्रिया के प्रति मैं निराशा क्यों उत्पन्न करूँगा? मैंने क्रियाशीलता को जीवन में उतारा है। मैंने माला जपते जपते सन् १९५१ में इतना बड़ा तंत्र खड़ा किया है। मैंने अपने जीवन देवता को सँवारा है। मेरा बेशकीमती समय, सबसे बढ़िया और बेहतरीन समय पूजा में खर्च हुआ है, कर्मकाण्डों में खर्च हुआ है। सबसे बेहतरीन समय और सबसे बढ़िया सवेरे का समय होता है, जो मेरा पूजा में खर्च हुआ है, कर्मकाण्डों में खर्च हुआ है। सवेरे वाले प्रातःकाल के समय जब गुरुदीक्षा दी जाती है, पढ़ने वाले विद्यार्थी पढ़ाई किया करते हैं और पहलवान लोग अखाड़े में पहलवानी किया करते हैं। संसार के इस सबसे बेहतरीन समय को मैंने कर्मकाण्डों में लगाया है। कर्मकाण्डों के प्रति आपकी आस्था को मैं क्यों कम करूँगा? आपके मन को क्यों डगमगाऊँगा और यह कहूँगा कि फेंक दो माला? न, मैं नहीं कह सकता।
मित्रो! माला मेरे प्राणों से प्यारी है। इसको मैं अपने सीने से लगाए रखता हूँ, हृदय में रखता हूँ। हनुमान् जी के पास भी यह माला थी। सीताजी ने जब उन्हें मोती की माला पहनाई, तो हनुमान् जी ने उसके मोती को तोड़ तोड़कर, घुमा घुमाकर देखा कि इस माला में मेरे रामजी कहाँ हैं। सीता जी घबराईं। उन्होंने कहा कि राम कहीं माला में होते हैं क्या? हनुमान् जी ने कहा कि वह मेरे हृदय में रहते हैं। उन्होंने कहा कि हृदय चीरकर दिखाओ? हनुमान् जी ने अपना हृदय चीरकर दिखाया। हृदय में सीताराम बैठे हुए थे।
मित्रो! मेरी माला के हर मोती में मेरा राम बैठा हुआ है। उसके हर मनके को मैं घुमाता रहता हूँ और अपने मन की विचारणा को बनाता रहता हूँ। अपने मन के पहिए को घुमाता रहता हूँ और कहता रहता हूँ कि रे मन के पहिए। लौट, सारे संसार का प्रवाह इस तरह से उलटा पुलटा बह रहा है। मुझे माला वाले प्रवाह की ओर लौट जाने दें। मुझे अपना रास्ता बनाने दे। मुझे अपने ढंग से विचार करने दें और मुझे वहाँ चलने दें, जहाँ मेरा प्रियतम मुझे आज्ञा देता है। इसीलिए पूजा के सारे के सारे उपक्रम मेरे सामने खड़े हो जाते हैं। हैं तो वे निर्जीव, पर बड़ा अद्भुत शिक्षण करते हैं। मेरे सामने बहुत उपदेश करते हैं। वे सात ऋषियों के तरीके से बैठे रहते हैं। पत्थर का भगवान् बैठा रहता है, मुस्कराता रहता है। मेरे सामने कागज की तस्वीर वाला भगवान् बैठा रहता है और जाने क्या क्या सिखाता रहता है और यह भगवान्! जिसका पूजन करने के लिए हमने फूल रख लिये थे, चंदन रख लिया था, चावल रख लिये थे, रोली रख ली थी, उनको भी मैं देखता रहता हूँ, जाने कैसी कैसी भावनायें आती रहती हैं।
मित्रो! एक हल्दी का टुकड़ा और एक चूने का टुकड़ा है। चूने का टुकड़ा अगर खा लिया जाये तो दिमाग फट जाये और हल्दी? हल्दी, जो साग, दाल में काम आती है, कपड़े में लगा ले, तो वह खराब हो जाये। लेकिन हल्दी और चूने को मिला देते हैं तो रोली बन जाती है। रंग बदल जाता है। मैं विचार करता रहता हूँ कि चूने जैसे निकम्मे प्राण को अपने प्रियतम की हल्दी के साथ घुला मिला दें, ताकि वह रोली बन जाये। और वह रोली भगवान के ऊपर लगा लूँ और अपने ऊपर लगा लूँ, तो मैं धन्य हो जाऊँगा। निहाल हो जाऊँगा। श्री कहलाऊँगा ‘‘श्री’’ कहते हैं रोली को। चूना और हल्दी मिलकर श्री बन जाते हैं, पवित्र लक्ष्मी बन जाते हैं। उसे हम देवता पर चढ़ाते हैं। हम विचार करते रहते हैं कि कलुषित चूने जैसा, लोगों को खा डालने वाला; दीवार पोतने के काम आने वाला; जहाँ भी डाल दें, वहीं खाली जमीन बना देने वाला बेकार का चूना कपड़े पर डाल दें तो कपड़े को जला दें। मेरा ऐसे चूने जैसा निकृष्ट जीवन यदि हल्दी के साथ मिल गया होता तो रोली बन गया होता। रोली, जिसे हम रोज मस्तक में लगाते हैं और इन्हीं भावनाओं में बहते हुए चले जाते हैं और हमारी उपासना न जाने क्या से क्या हमें दे जाती है?
मित्रो! जब मैं पूजा पाठ करता हूँ, तो इतना हलका फील करता हूँ कि आप जानते नहीं। भावनाओं के प्रवाह, भावनाओं की तरंगें मेरे अंदर बहती रहती हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि मेरा सारे का सारा मस्तिष्क भाव विभोर होता हुआ चला जाता है। मेरा भगवान् हँसता हुआ जाता है और मैं भगवान् की गोदी में बैठा बैठा पूजा करता रहता हूँ। जब मैं कर्मकाण्ड में बैठा रहता हूँ, तो उसमें भावनाओं का सम्मिश्रण होने के बाद क्या मजा आता है? यही पूजा करने की विधि मैं आपको सिखाने वाला था।
मित्रो! उपासना अगला वाला हिस्सा नाम जप के बाद शुरू होता है। इसमें नाम जप के साथ साथ ध्यान का समावेश होता है। ‘धी’ मन की एकाग्रता का प्रतीक है। मस्तिष्क में न जाने कितनी धारायें बहती रहती हैं, कितने कंपन बहते रहते हैं। इसके भीतर जितने प्रशांत प्रवाह बहते हैं, उनका यदि एकीकरण कर लिया जाये, तो न जाने क्या से क्या चमत्कार उत्पन्न हो जाये। बेटे, हमने चमत्कार देखा है। काँच का चमत्कार हमने देखा है। एक छोटा सा आतिशी शीशा लिया और उसे धूप में रखा। धूप की किरणों को एकत्र किया, एक बिन्दु पर फोकस कर दिया और आग जलने लगी। एक इंच के शीशे ने आग पैदा कर दी। इस आग का इस्तेमाल किया होता तो, नीड़ के नीड़ और जंगल के जंगल साफ हो गये होते। यह एक इंच शीशे की आग का कमाल है।
मित्रो! देव प्रदत्त सत, रज, तम से युक्त यह देववृक्ष हमारा मस्तिष्क रूपी आतिशी शीशा इतनी शक्तियों को प्रवाहित करता है कि मैं आपसे क्या कहूँ? हमारा मस्तिष्क सारी शक्तियों, सारी विद्याओं का भाण्डागार है, स्रोत है। इसका एक हिस्सा डार्क एरिया कहलाता है, जिसके बारे में अभी पता नहीं लगाया जा सका है। यह एक बेकार निकम्मा वाला हिस्सा पड़ा हुआ है। इसका उपयोग किया जा सके, तो न जाने क्या से क्या चमत्कार पैदा हो सकते हैं। अभी मैं गीता का विश्वकोश लिखने वाला हूँ। इसमें मैं सारे विश्व को बदलकर रख दूँगा। वह इतना महान ग्रंथ है जिसमें न जाने कहाँ कहाँ से कितने भ्रम भरे पड़े हैं, जिनका अर्थ मैं लिखने वाला हूँ। इसका एक एक कोटेशन ऐसा होगा और ऐसे ग्रंथों से होगा, पुस्तकों से होगा, जो देखने में नहीं आयी और जो पढ़ी नहीं गयीं। जिनके हवाले मैं दूँगा, वे कहीं से नकल किये हुए नहीं होंगे। आकाश में न जाने कितना ज्ञान घूमता रहता है। हमारे मस्तिष्क का एक एक कण दुनिया में बिखरे हुए ज्ञान को कहीं से भी पकड़ता हुआ चला जाता है। इतना शक्तिशाली है हमारा मस्तिष्क। ध्यान साधना के द्वारा मस्तिष्क को साधा जा सके, तो वह सारे चमत्कार, सारी सिद्धियाँ आप हस्तगत कर सकते हैं, जिनके बारे में आपने केवल सुना भर है और जिन्हें प्राप्त करने के लिए हरदम लालायित रहते हैं।
आज की बात समाप्त
ॐ शान्तिः