मानव-जीवन को सुविधा की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है—पूर्वार्द्ध दूसरा उत्तरार्द्ध। यदि सौ वर्ष की आयु मानी जाय तो प्रथम पचास वर्षों को पूर्वार्द्ध और इक्यावन से सौ वर्ष की आयु को उत्तरार्द्ध कहा जा सकता है।
मनीषियों ने इन दो खण्डों को दो कार्यक्रमों में विभक्त किया है। प्रथम पचास वर्ष का समय समाज के सहयोग एवं अनुदान के आधार पर वह अपनी व्यक्तिगत शक्तियों और सुविधाओं को बढ़ाते हुए सुखोपभोग करता है। धन, मान, विनोद, परिवार आदि वैभव प्राप्त करते हुए विभिन्न प्रकार के लाभ एवं आनन्द लेता है। उत्तरार्द्ध में इस ऋण-अनुदान को चुकाता है ताकि उसे इस संसार से ऋणी होकर विदा न होना पड़े। इस जगत में ईश्वर की विधि-व्यवस्था पूर्ण तथा नियमबद्ध है। जो व्यक्ति ऋणी बनकर मरते हैं, वे उस ऋण भार को अगले जन्मों में चुकाते हैं। 84 लाख योनियों में से एक मनुष्य योनि को छोड़कर शेष सभी भोग योनियां हैं। उनमें नया विचारपूर्ण कर्तृत्व सम्भव नहीं। बुद्धि के अभाव में जो विधान उनके साथ जुड़ा हुआ है, उसके अनुसार वे अपनी जिन्दगी के दिन पूरे करते हैं।