उपासना के दो चरण जप व ध्यान

ध्यान धारणा की दिव्यशक्ति

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ध्यान एक ऐसी विद्या है जिसकी आवश्यकता हमें लौकिक जीवन में भी पड़ती है और आध्यात्मिक अलौकिक क्षेत्र में भी उसका उपयोग किया जाता है। ध्यान को जितना सशक्त बनाया जा सके उतना ही वह किसी भी क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मनुष्य को जो कुछ प्राप्त है उसके ठीक-ठीक उपयोग तथा जो प्राप्त करना चाहिए, उसके प्रति प्रखरता—दोनों ही दिशाओं में ध्यान बहुत उपयोगी है। उपासना क्षेत्र में भी ध्यान की इन दोनों ही धाराओं का उपयोग किया जाता है। अपने स्वरूप और विभूतियों का बोध तथा अपने लक्ष्य की ओर प्रखरता दोनों ही प्रयोजनों के लिए ध्यान का प्रयोग किया जाता है।

हम अपने स्वरूप, ईश्वर के अनुग्रह—जीवन के महत्व एवं लक्ष्य की बात को एक प्रकार से पूरी तरह भुला बैठे हैं। न हमें अपनी सत्ता का ज्ञान है, न ईश्वर का ध्यान और न लक्ष्य का ज्ञान। अज्ञानान्धकार की भूल-भुलैयों में बेतरह भटक रहे हैं। यह भुलक्कड़पन विचित्र है। लोग वस्तुओं को तो अक्सर भूल जाते हैं, सुनी, पढ़ी बातों को भूल जाने की घटनाएं भी होती रहती हैं। कभी के परिचित भी विस्मृत होने से से अपरिचित बन जाते हैं, पर ऐसा कदाचित ही होता है कि अपने आपे को ही भुला दिया जाय। हम अपने को शरीर मात्र मानते हैं। उसी के स्वार्थों को अपना स्वार्थ, उसी की आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता मानते हैं। शरीर और मन यह दोनों ही साधन जीवन रथ के दो पहिये मात्र हैं, पर घटित कुछ विलक्षण हुआ है। हम आत्मसत्ता को सर्वथा भुला बैठे हैं। यों शरीर और आत्मा की पृथकता की बात कही सुनी तो अक्सर जाती है; पर वैसा भान जीवन भर में कदाचित ही कभी होता हो। यदि होता भी है तो बहुत ही धुंधला। यदि वस्तुस्थिति समझली जाती है और जीव-सत्ता तथा उसके उपकरणों की पृथकता का स्वरूप चेतना में उभर आता है तो आत्म-कल्याण की बात प्रमुख बन जाती है और वाहनों के लिए उतना ही ध्यान दिया जाता जितना कि उनके लिए आवश्यक था। आज तो ‘हम’ नंगे फिर रहे हैं और वाहनों को स्वर्ण आभूषणों से सजा रहे हैं। ‘हम’ भूखे मर रहे हैं और वाहनों को घी पिलाया जा रहा है। ‘हम’ से मतलब है आत्मा और वाहन से मतलब है शरीर और मन। स्वामी सेवकों की सेवकाई में लगा है और अपने उत्तरदायित्वों को सर्वथा भुला बैठा है यह विचित्र स्थिति है। वस्तुतः हम अपने आपे को खो बैठे हैं।

आध्यात्मिक ध्यान का उद्देश्य है, अपने स्वरूप और लक्ष्य की विस्मृति के कारण उत्पन्न वर्तमान विपन्नता से छुटकारा पाना। एक बच्चा घर से चला ननिहाल के लिए। रास्ते में मेला पड़ा और वह उसी में रम गया। वहां के दृश्यों में इतना रमा कि अपने घर तथा गन्तव्य को ही नहीं अपना नाम पता भी भूल गया।’ यह कथा बड़ी अटपटी लगती है, पर है सोलहों आने सच और वह हम सब पर लागू होती है। अपना नाम पता, परिचय पत्र, टिकट आदि सब कुछ गंवा देने पर हम असमंजस भरी स्थिति में खड़े हैं कि आखिर हम हैं कौन—कहां से आये और कहां जाना था? स्थिति विचित्र है इसे न स्वीकार करते बनता है और न अस्वीकार करते। स्वीकार करना इसलिए कठिन है कि हम पागल नहीं, अच्छे खासे समझदार हैं। सारे कारोबार चलाते हैं फिर आत्म-विस्मृत कहां हुए? अस्वीकार करना भी कठिन है क्योंकि वस्तुतः हम ईश्वर के अंश हैं—महान मनुष्य जन्म के उपलब्धकर्त्ता हैं तथा परमात्मा को प्राप्त करने तथा घोर अशान्ति की स्थिति में पड़े रहने की बात को भी जानते हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट है जो होना चाहिए वह नहीं है और जो करना चाहिए था वह कर भी नहीं रहे हैं। यही अन्तर्द्वन्द उभर कर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में छाया रहता है और हमें निरन्तर घोर अशान्ति अनुभव होती है।

जीवन का लक्ष्य पूर्णता प्राप्त करना है। यह पूर्णता ईश्वरीय स्तर की ही हो सकती है। आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए उस लक्ष्य पर ध्यान का एकाग्र करना आवश्यक है। महत्वपूर्ण इमारतें बनाने से पूर्व उनके नक्शे, छापे एवं मॉडल बनाये जाते हैं। इंजीनियर, कारीगर उसी को देख-देख कर अपना निर्माण कार्य चलाते हैं और समयानुसार इमारत बन कर तैयार हो जाती है। भगवान का स्वरूप और गुण, कर्म, स्वभाव कैसा हो इसकी ध्यान प्रतिमा विनिर्मित की जाती है और फिर उसके साथ समीपता, एकता—तादात्म्यता स्थापित करते हुए उसी स्तर का बनाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। ध्यान प्रक्रिया का सही स्वरूप है।

व्यक्तिगत जीवन में कितने ही व्याकुल विचलित कर देने वाले ऐसे प्रसंग आते हैं जो मनःस्थिति को उद्विग्न करके रख देते हैं। इन आवेश ग्रस्त क्षणों में मनुष्य संतुलन खो बैठता है—न सोचने योग्य सोचता है—न कहने योग्य कहता है और न करने योग्य करता है। गलती आखिर गलती ही रहती है और उसके दुष्परिणाम भी निश्चित रूप से होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मुसीबत अकेली नहीं आती अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेट कर लाती है। इस कथन में सचाई इसलिए है कि जिन कारणों से मानसिक संतुलन बिगड़ा था उनकी हानि तो प्रत्यक्ष ही थी। हानि न होती तो उद्वेग क्यों होता? अब उद्वेग के कारण जो असंगत चिन्तन कथन और क्रिया-कलाप आरम्भ हुआ उसने अन्यान्य कितनी ही नई समस्याएं उत्पन्न करके रख दीं। कई बार तो उद्विग्नता शारीरिक, मानसिक अस्वस्थता उत्पन्न करने से भी आगे बढ़ जाती है और आत्म-हत्या अथवा दूसरों की हत्या कर डालने जैसे संकट उत्पन्न करती है।

असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ध्यान एकाग्रता के कुशल अभ्यास से बढ़कर और कोई अधिक उपयोगी उपाय हो नहीं सकता। कई बार मन, क्रोध, शोक, कामुकता, प्रतिशोध, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में बेतरह फंस जाता है और उस स्थिति में अपना या पराया कुछ भी अनर्थ हो सकता है। उद्विग्नताओं में घिरा हुआ मन कुछ समय में सनकी या विक्षिप्त स्तर का बन जाता है। सही निर्णय कर सकना और वस्तु स्थिति को समझ सकना उसके बस से बाहर की बात हो जाती है। इन विक्षोभों से मस्तिष्क को कैसे उबारा जाय और कैसे उसे संतुलित स्थिति में रहने का अभ्यस्त कराया जाय, इसका समाधान ध्यान साधना के साथ जुड़ा हुआ है। मन को अमुक चिन्तन प्रवाह से हटाकर अमुक दिशा में नियोजित करने की प्रक्रिया ही ध्यान कहलाती है। इसका प्रारम्भ भटकाव के स्वेच्छाचार से मन को हटाकर एक नियत निर्धारित दिशा में लगाने के अभ्यास से आरंभ होता है। इष्टदेव पर अथवा अमुक स्थिति पर मन को नियोजित कर देने का अभ्यास ही तो ध्यान में करना पड़ता है। मन पर अंकुश पाने—उसका प्रवाह रोकने में—सफलता प्राप्त कर लेना ही ध्यान की सफलता है। यह स्थिति आने पर कामुकता, शोक संतप्तता, क्रोधान्धता, आतुरता, ललक, लिप्सा जैसे आवेशों पर काबू पाया जा सकता है। मस्तिष्क को इन उद्वेगों से रोक कर किसी उपयोगी चिन्तन में मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। कहते हैं कि अपने को वश में कर लेने वाला—सारे संसार को वश में कर लेता है। आत्म–नियन्त्रण की यह स्थिति प्राप्त करने में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। इसका लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से मिलता है। अभीष्ट प्रयोजनों में पूरी तन्मयता, तत्परता नियोजित करने से ही किसी कार्य का स्तर ऊंचा उठता है, सफलता का सही मार्ग मिलता है और बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियां पाने का अवसर मिलता है। आत्मिक क्षेत्र में भी यही तन्मयता प्रसुप्त शक्तियों के जागरण से लेकर ईश्वर प्राप्ति तक का महत्वपूर्ण माध्यम बनती है।

ध्यानयोग का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने स्वरूप के बारे में सोच विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है। यदि किसी प्रकार वह वापिस लौट सके तो लम्बा सपना देखकर डरे हुए व्यक्ति जैसी अन्तःस्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा कि मेले में खोये हुए बच्चे से—आत्म विस्मृत मानसिक रोगियों से—अपनी स्थिति भिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं घाटे में रहते हैं और अपने सम्बन्धियों को दुःखी करते हैं। हम आत्म-बोध को खोकर भेड़ों के झुण्ड में रहने वाले सिंह की तरह दयनीय स्तर का जीवन-यापन कर रहे हैं और अपनी माता—परमात्मसत्ता को कष्ट दे रहे हैं—रुष्ट कर रहे हैं।

विस्मरण का निवारण—आत्म–बोध की भूमिका में जागरण—यही है ध्यानयोग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है—अपने स्वरूप का भी अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की स्मृति फिर से ताजा की जाती है और यह अनुभव किया जाता है कि जिस दिव्य सत्ता से एक तरह सम्बन्ध विच्छेद कर रखा गया है, वही हमारी जननी और परम शुभ चिन्तक है। इतना ही नहीं वह कामधेनु की तरह इतनी सशक्त भी है कि उसका पयः पान करके देवोपम स्तर का लाभ ले सकें। कल्प-वृक्ष की छाया में बैठकर सब कुछ पाया जा सकता है, ईश्वरीय सत्ता से सम्पर्क, सान्निध्य, घनिष्ठता बना लेने के बाद भी ऐसा कुछ शेष नहीं रहता जिसे अभाव दारिद्रय अथवा शोक-संताप कहा जा सके। ध्यान-योग हमें इसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है। स्पष्ट है कि आत्म–बोध से बढ़कर मानव जीवन का दूसरा लाभ नहीं हो सकता। भगवान बुद्ध को जिस वट-वृक्ष के नीचे आत्म-बोध हुआ था उसकी डालियां काट-काट कर संसार भर में इस आशा से बड़ी श्रद्धापूर्वक आरोपित की गई थीं कि उसके नीचे बैठ कर अन्य लोग भी आत्म-बोध का लाभ प्राप्त करेंगे और दूसरे बुद्ध बनेंगे। किसी स्थूल वृक्ष के नीचे बैठकर महान जागरण की स्थिति प्राप्त कर सकना कठिन है। पर ध्यानयोग के कल्प-वृक्ष की छाया में सच्चे मन से बैठने वाला व्यक्ति आत्म-बोध का लाभ ले सकता है और नर-पशु के स्तर से ऊंचा उठकर नर-नारायण के समकक्ष बन सकता है।

मन जंगली हाथी की तरह है, जिसे पकड़ने के लिए पालतू प्रशिक्षित हाथी भेजने पड़ते हैं। सधी हुई बुद्धि पालतू हाथी का काम करती है। ध्यान के रस्से से पकड़-जकड़ कर उसे काबू में लाती है और फिर उसे सत्प्रयोजनों में संलग्न हो सकने योग्य सुसंस्कृत बनाती है।

पानी का स्वभाव नीचे गिरना है। उसे ऊंचा उठाना है तो पम्प, चरखी, ढेंकी आदि लगाने की व्यवस्था बनानी पड़ती है। निम्नगामी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों में ही हमारी अधिकांश शक्तियां नष्ट होती रहती हैं। उन्हें ऊपर उठाने के लिए मस्तिष्क में दिव्य-प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने की ध्यान की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

शक्ति को उपलब्ध करना बड़ी बात नहीं, उसे बिखराव के निरर्थक एवं अपव्यय की अनर्थ मूलक बर्बादी से भी बचाया जाना चाहिए। शक्ति की उपलब्धि का लाभ तभी मिलता है जब उसे संग्रहीत रखने और सत्प्रयोजन में लगाने की व्यवस्था बन पड़े।

धूप, गर्मी से ढेरों पानी समुद्र तालाबों में से भाप बनकर उड़ता रहता है, चूल्हों से कितनी ही भाप उत्पन्न होती और उड़ती है। उसका कोई उपयोग नहीं। किन्तु इंजन में थोड़ा-सा पानी भाप बनाया जाता है। उस भाप को हवा में उड़ जाने से बचाकर एक टंकी में एकत्रित किया जाता है और फिर उसका शक्ति प्रवाह एक छोटे छेद में होकर पिस्टन तक पहुंचा दिया जाता है। इतने मात्र से रेलगाड़ी का इंजन चलने लगता है। चलता ही नहीं दौड़ता भी है। उसकी दौड़ इतनी सामर्थ्ययुक्त होती है कि अपने साथ-साथ बहुत भारी लदी रेलगाड़ी के दर्जनों डिब्बे घसीटता चला जाता है।

सेरों बारूद यदि जमीन पर फैलाकर माचिस से जलाई जाय तो थोड़ी-सी चमक दिखाकर भक् से जल जायगी। उसका कुछ भी उपयोगी परिणाम न निकलेगा न कोई आवाज होगी। किन्तु यदि उसे बन्दूक की छोटी-सी नली के भीतर कड़े खोल वाले कारतूस में बन्द कर दिया जाय और घोड़ा दबाकर नन्हीं-सी चिनगारी से स्पर्श कराया जाय तो वह एक तोले से भी कम वजन की बारूद गजब ढाती है। सनसनाती हुई एक दिशा विशेष की ओर प्रचण्ड गति से दौड़ती है। अपने साथ लोहे की गोली और छर्रों को भी घसीटती ले जाती है और जहां टकराती है, वहां सफाया उड़ा देती है। बिखरी हुई बारूद की निरर्थकता और उसकी संग्रहीत शक्ति को दिशा विशेष में प्रयुक्त किये जाने का सार्थकता में कितना अन्तर होता है इसे सहज ही समझा जा सकता है।

सूर्य की किरणें सुविस्तृत क्षेत्र में बिखरी पड़ी रहती हैं। रोज ही सूर्य निकलता और अस्त होता है। धूप थोड़ी-सी गर्मी, रोशनी पैदा करने जितना ही काम कर पाती है। पर यदि उन किरणों के एक दो इंच बिखराव को आतिशी-शीशे द्वारा एक केन्द्र पर केन्द्रित कर लिया जाय तो देखते-देखते आग जलने लगेगी और उसे किसी बड़े जंगल में डाल दिया जाय तो दावानल बनकर भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत कर सकती है।

स्थूल शक्तियों की तरह सूक्ष्म शक्तियों का लाभ भी उन्हें एकत्रित करने किसी दिशा विशेष में लगा देने से ही सम्भव हो सकता है। मस्तिष्क एक सशक्त बिजलीघर है। इसमें निरन्तर प्रचण्ड विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है और उसके शक्तिशाली कंपन ऐसे ही अनन्त आकाश में उड़ते, बिखरते नष्ट होते रहते हैं। यदि इस प्रवाह को केन्द्रित करके किसी विशेष लक्ष्य पर नियोजित किया जा सके तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम हो सकते हैं। एकाग्रता की चमत्कारी शक्ति कहीं भी देखी जा सकती है। सरकस में एक से एक बढ़कर आश्चर्यजनक खेल होते हैं। उनमें शारीरिक शक्ति का उपयोग कम और एकाग्रता का अधिक होता है। एक पहिये की साइकिल—एक तार पर चलना, एक से दूसरे झूले पर उछल जाना, तश्तरियां तेजी से लगातार एक हाथ से उछालना और दूसरे से पकड़ना जैसे खेलों में एकाग्रतापूर्वक कुछ अंगों को सधा लेने का अभ्यास ही कौतूहल उत्पन्न करता है।

द्रौपदी स्वयंवर में चक्र पर चढ़ी हुई नकली मछली की तीर से आंख भर वेध देना विजेता होने की शर्त थी। द्रोणाचार्य उसका पूर्व अभ्यास अपने शिष्यों को करा रहे थे। निशाने पर तीर छोड़ने से पूर्व वे छात्रों से पूछते तुम्हें क्या दीखता है? शिष्यगण मछली के आस-पास का क्षेत्र तथा उसका पूरा शरीर दीखने की बात कहते। द्रोणाचार्य उनकी असफलता पहले से ही घोषित कर देते थे। जब अर्जुन की बारी आई तो उसने प्रश्न के उत्तर में कहा—मुझे मात्र मछली की आंख दीखती है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। गुरुदेव ने उसके सफल होने की पूर्व घोषणा करदी और सचमुच वही स्वयंवर में मत्स्य वेध की शर्त पूरी करके द्रोपदी विवाह का अधिकारी बन सका।

एकाग्रता की शक्ति असाधारण है। भौतिक प्रयोजनों में उसका चमत्कारी उपयोग नित्य ही देखा जाता है। बहीखाता सही रखने और मीजान ठीक जोड़ने में एकाग्रता के अभ्यासी ही सफल होते हैं—अन्यथा सुशिक्षितों से भी पन्ने पर भूल होने और काट-फांस करने की कठिनाई उत्पन्न होती रहती है। वैज्ञानिकों की यही विशेषता है कि वे अपने विषय में तन्मय हो जाते हैं और विचार समुद्र में गहरे गोते लगाकर नई नई खोजों के रत्न ढूंढ़ लाते हैं।

लोकमान्य तिलक के जीवन का एक संस्मरण प्रसिद्ध है कि उनके अंगूठे का आपरेशन होना था। डॉक्टर ने दवा सुंघाकर बेहोश करने का प्रस्ताव रखा तो उनने कहा—‘मैं गीता के प्रगाढ़ अध्ययन में लगता हूं आप बे खटके आपरेशन कर लो।’ डॉक्टर को तब बहुत आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने बिना हिले-डुले शान्तिपूर्वक आपरेशन करा लिया। पूछने पर तिलक ने इतना ही कहा—तन्मयता इतनी प्रगाढ़ थी जिसमें आपरेशन की ओर ध्यान ही नहीं गया और दर्द भी नहीं हुआ।

कहते हैं कि भृंग नाम का उड़ने वाला कीड़ा-झींगुर पकड़ लाता है और उसके सामने निरन्तर गुंजन करता रहता है। उस गुंजन को सुनने और छवि देखते रहने में झींगुर की मनःस्थिति भृंग जैसी हो जाती है। वह अपने को भृंग समझने लगता है अस्तु धीरे-धीरे उसका शरीर भी भृंग रूप में बदल जाता है। कीट विज्ञानी इस किम्वदंती पर सन्देह कर सकते हैं, पर यह तथ्य सुनिश्चित है कि एकाग्रतापूर्वक जिस भी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति का देर तक चिन्तन करते रहा जाय, मनुष्य की सत्ता उसी ढांचे में ढलने लगती है। यह सब इच्छा या अनिच्छा से किसी केन्द्र बिन्दु पर अपने चिन्तन को केन्द्रित करने का परिणाम है।

असंख्य विशेषताएं और क्षमताएं मानवी सत्ता के कण-कण में भरी पड़ी हैं। दशों इन्द्रियां जादू की पिटारियां हैं। उन्हें रचनात्मक दिशा में नियोजित रखा जा सके, भटकाव से—बिखराव से बचाया जा सके तो अभीष्ट सफलता की दिशा में द्रुतगति से बढ़ा जा सकता है। मन ग्यारहवीं इन्द्रिय है। मस्तिष्कीय क्षमता का कोई अन्त नहीं। उसके विचार-पक्ष और बुद्धि-पक्ष का ही थोड़ा-सा प्रयोग होता है शेष चित्त, अहंकार वाला अचेतन समझा जाने वाला, किन्तु चेतन से लाखों गुना अधिक शक्तिशाली चित्त और अहंकार कहा जाने वाला भाग तो अविज्ञात स्थिति में निष्प्रयोजन ही पड़ा रहता है। अचेतन का अर्थ यहां उपेक्षित कहना ही उचित है। मन और बुद्धि वाले भाग का जितना उपयोग किया जाता है उतना ही चित्त, अहंकार का भी प्रयोग होने लगे तो मनुष्य दुनियादार बुद्धिमानों की तुलना में असंख्य गुनी विचारशीलता, प्रज्ञा, भूमा प्राप्त कर सकता है और मात्र समझदार न रहकर तत्व दृष्टा की स्थिति में पहुंच सकता है।

बिखराव को रोकने को—उपलब्ध शक्ति को संग्रहीत रखकर अभीष्ट प्रयोजन में प्रयुक्त कर सकने की कुशलता को आध्यात्मिक एकाग्रता कहते हैं। अध्यात्म शास्त्र में मनोनिग्रह अथवा चित्त निरोध इसी को कहते हैं। ‘मेडीटेशन’ की योग-प्रक्रिया में बहुत चर्चा होती है। इसे एकाग्र हो सकने की कुशलता भर ही समझना चाहिए। सुनने, समझने में यह सफलता नगण्य जैसी मालूम पड़ती है, पर वस्तुतः वह बहुत ही बड़ी बात है। इस प्रयोग में प्रवीण होने पर मनुष्य अपनी बिखरी चेतना को एकत्रित करके किसी एक कार्य में लगा देने पर जादू जैसी सफलताएं—उपलब्धियां प्राप्त कर सकता है।

एक मोटा लोहा लेकर उसे किसी कड़ी वस्तु में धंसाया जाय तो उसमें भारी कठिनाई पड़ेगी। किन्तु यदि उसकी नोक पतली कर दी जाय तो साधारण दबाव से ही वह गहराई तक धंसता चला जायगा। मोटे तार और सुई की पतली नोंक का अन्तर सहज ही देखा जा सकता है। तार को कपड़े या कागज की तह में ठूंसना कठिन पड़ेगा किन्तु पतली नोक वाली सुई सरलतापूर्वक प्रवेश करती चली जायगी। लकड़ी, पत्थर, लोहे जैसे कड़े पदार्थों में छेद करने के लिए नोकदार बरमे ही काम देते हैं। नोक की इस चमत्कारी शक्ति का इतना ही रहस्य है कि बड़ी परिधि की अपेक्षा छोटी परिधि में जब दबाव केन्द्रित होता है तो उसकी शक्ति सहज ही बढ़ जाती है।

जमीन देखने में मिट्टी, धूलि की निरर्थक-सी वस्तु प्रतीत होती है पर यह उसकी ऊपरी परत का ही मूल्यांकन है। उसे खोदने पर एक से एक बहुमूल्य वस्तुएं मिलती चली जाती हैं। थोड़ा खोदने पर पानी निकल आता है। उससे दैनिक उपयोग के सारे काम चलते हैं। पेड़-पौधों की सिंचाई तथा कल कारखाने चलते हैं। इससे गहरे उतरने पर अनेक रासायनिक पदार्थ, धातुएं, रत्न, गैस, तेल जैसी बहुमूल्य वस्तुएं हाथ लगती हैं। स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह गहरी खुदाई नोकदार बरमे ही कर सकते हैं। एकाग्रता की शक्तियों का एकीकरण कर सकते हैं। इससे अन्तःक्षेत्र में छिपी हुई विभूतियां और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई सम्पत्तियां प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हो सकती हैं और सामान्य-सा जीवन असामान्य विशेषताओं और तज्जनित सफलताओं से भरा-पूरा दृष्टिगोचर हो सकता है जिस प्रकार जमीन खोदने में एक से एक बढ़कर बहुमूल्य खनिज सम्पदाएं निकलती हैं, उसी प्रकार एकाग्रता की शक्ति में व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टताएं और बल, बुद्धि, विद्या, मैत्री, कीर्ति, प्रतिभा जैसी विशेषताएं प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती रह सकती हैं।

एकाग्रता का एक चमत्कार मैस्मरेज्म हिप्नोटिज्म भी है। प्रयोग कर्त्ता अपनी दृष्टि को एक बिन्दु पर एकत्रित करने का अभ्यास करता है। अपनी इच्छा शक्ति को समेट कर लक्ष्य केन्द्र में समाविष्ट करता है। फलस्वरूप जादुई शक्ति उत्पन्न होती है और उससे दूसरों को सम्मोहित करके उन्हें इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। उनमें मानसिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं तथा प्रखरता के नये बीज बोये जा सकते हैं। प्राण-विद्या के द्वारा शारीरिक, मानसिक चिकित्सा के अनेक कठिन कार्य पूरे किये जाते हैं। यह सब एकाग्रता का ही चमत्कार है।

ध्यानयोग का उद्देश्य मस्तिष्कीय बिखराव को रोककर एक चिन्तन बिन्दु पर केन्द्रित कर सकने की प्रवीणता प्राप्त करना है। इस प्रयोग में जिसे जितनी सफलता मिलती जाती है उसकी अन्तःचेतना में उसी अनुपात से वेधक प्रचण्डता उत्पन्न होती जाती है। शब्दवेधी बाण की तरह लक्ष्यवेध कर सकना उसके लिए सरल हो जाता है। यदि अध्यात्म उसका लक्ष्य होगा तो उस क्षेत्र में आशाजनक प्रगति होगी और विभूतियों से—दिव्य ऋद्धि-सिद्धियों से उसका व्यक्तित्व भरा-पूरा दिखाई पड़ेगा। यदि लक्ष्य भौतिक उन्नति है तो भी इस एकाग्रता का समुचित लाभ मिलेगा और अभीष्ट प्रयोजनों में आशाजनक सफलता मिलती चली जायगी। शक्ति का जब—जिस भी दिशा में प्रयोग किया जायगा उसी में सत्परिणाम प्रस्तुत होते चले जायेंगे।

एकाग्रता मस्तिष्क में उत्पन्न होते रहने वाली विचार तरंगों के निरर्थक बिखराव को निग्रहीत करना है। छोटे से बरसाती नाले का पानी रोककर बांध बना लिए जाते हैं और उसके पीछे सुविस्तृत जलाशय बन जाता है। इस जलराशि से नहरें निकालकर दूर-दूर तक क्षेत्र हरा-भरा बनाया जाता है। वही नाला जब उच्छृंखल रहता है तो किनारों को तोड़-फोड़कर इधर-उधर बहता है और उस बाढ़ से भारी बर्बादी होती है। मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली विचारधारा को किसी विशालकाय विद्युत निर्माण कारखाने से कम नहीं आंका जाना चाहिए। बिजली घरों की शक्ति सीमित होती है और वे अपनी परिधि के छोटे से क्षेत्र को ही बिजली दे पाते हैं, पर मस्तिष्क के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसकी आज की क्षमता अगले दिनों अनेक गुनी हो सकती है और प्रभाव क्षेत्र, जो आज घर-परिवार तक सीमित है, वह कल विश्व व्यापी बन सकता है। बिजली घर के तार निर्धारित वोल्टेज की क्षमता ही धारण किये रहने के लिए बाध्य हैं, पर मस्तिष्क की प्रचण्ड सत्ता परिस्थिति के अनुसार इतनी अधिक क्षमता सम्पन्न हो सकती है कि क्षेत्र, समाज की सीमा को पार करते हुए अपने प्रभाव से समस्त संसार को प्रभावित कर सके और वातावरण को बदल देने में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

ध्यान की अद्भुत क्षमताओं के कारण उसका उपयोग ईश्वर प्राप्ति जीवन लक्ष्य प्राप्ति जैसे महानतम उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है। उपासना के साथ ध्यान को अविच्छिन्न रूप से जोड़ा जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों तथा विधियों में उसके प्रकारों में थोड़ा बहुत अन्तर भले ही हो पर ध्यान का समावेश हर पद्धति में हैं अवश्य।

उपासना क्षेत्र में ध्यान साकार और निराकार दो प्रकार के कहे गये हैं। एक में भगवान की अमुक मनुष्याकृति को मान कर चला जाता है दूसरे में प्रकाश पुंज की आस्था जमाई जाती है। तात्विक दृष्टि से यह दोनों ही साकार हैं। सूर्य जैसे बड़े और प्रकाश बिन्दु जैसे छोटे आकार का ध्यान रखना भी तो एक प्रकार का आकार ही है, अन्तर इतना ही तो हुआ कि उसकी मनुष्य जैसी आकृति नहीं है। ध्यान के लिए ईश्वर की—परम लक्ष्य की—आकृति बनना आवश्यक है। यों नादयोग, स्पर्शयोग, गन्धयोग को आकृति रहित कहा जाता है पर ऐसा सोचना अनुपयुक्त है। नादयोग में शंख, घण्टा, घड़ियाल, वीणा आदि की ध्वनियां सुनी जाती हैं, पर अनचाहे ही वे वाद्य यन्त्र कल्पना में आते रहते हैं जिनसे वे ध्वनियां निसृत होती हैं। इस प्रकार गन्ध ध्यान में मात्र गन्ध पर ही चिन्तन एकाग्र नहीं हो सकता, जिस पुष्प की वह गन्ध है उसकी आकृति अनचाहे ही सामने आती रहेगी। ध्यान में आकृति से पीछा नहीं छूट सकता। मस्तिष्क की बनावट ही ऐसी है कि वह निराकार कहलाने वाले चिन्तन की भी आकृतियां बना कर ही आगे चलता है। वैज्ञानिक के गहरे चिंतन को निराकार कहा जाता है, पर वस्तुतः वह भी जो सोचता है, उसमें कल्पना क्षेत्र की एक पूरी प्रयोगशाला सामने रहती है और प्रयोगात्मक हलचलें आंधी तूफान की तरह अपना काम कर रही होती हैं। अन्तर इतना ही होता है कि वह स्थूल प्रयोगशाला के उपकरण छोड़कर वही सारा प्रयोग कृत्य काल्पनिक प्रयोगशाला में कर रहा होता है। ध्यान में आकृति से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं हो सकता। अस्तु किसी को साकार-निराकार के वितंडावाद में न पड़ कर ध्यान धारणा के सहारे आत्म चिन्तन का प्रयोजन पूरा करना चाहिए।

मानसिक ध्यान की सफलता के लिए मस्तिष्कीय विकास सामान्य स्तर की अपेक्षा कुछ अधिक ऊंचा होना चाहिए। यदि उसे अध्ययन, चिन्तन, मनन आदि के द्वारा गहरा गोता मारने, कोमल सम्वेदनाओं को उभारने-किसी बात पर देर तक गम्भीर चिन्तन कर सकने योग्य विकसित न किया गया होगा तो समुचित ध्यान कर सकना सम्भव ही न हो सकेगा। अविकसित मानसिक स्तर के लोग इन्द्रिय सम्वेदना भर अनुभव करते हैं, वे कान या आंख की सहायता से देख या सुनकर कुछ सोच-समझ सकते हैं। कवियों, वैज्ञानिकों एवं दृष्टाओं जैसा सूक्ष्म चिन्तन उनके लिए सम्भव नहीं होता। अस्तु उन्हें उनकी स्थिति के अनुरूप दृश्य प्रतिमाओं के आधार पर परमात्मा की समीपता का उपासना-उद्देश्य पूरा कराना होता है।

हर व्यक्ति नये क्षेत्र में प्रवेश करते समय बालक ही होता है चाहे वह अन्य विषयों में कितना ही सुयोग्य क्यों न हो? कोई अच्छा वकील अपने विषय का विशेषज्ञ हो सकता है पर उसे नया शिल्प सीखते समय बाल कक्षा के छात्र की तरह ही आरम्भ करना होगा। उपासना जिनका विषय नहीं रहा है वे अन्य विषयों के विद्वान होते हुए भी इस क्षेत्र में नौसिखियों की तरह ही प्रवेश करते हैं। अस्तु उन्हें ध्यान-प्रक्रिया का अभ्यास करने के लिए प्रतीक पूजा का आश्रय लेना सुविधाजनक ही रहता है। छतों पर सीमेन्ट, गिट्टी, लोहे का सलैव ढालने के लिए उसके नीचे ‘सहारे’ खड़े करने होते हैं। छत कड़ी हो जाने पर ‘सहारे’ निकाल दिये जाते हैं और फिर वह अपने आप खड़ी रहती है, इतना ही नहीं अपने ऊपर वजन भी उठा लेती है। किन्तु आरम्भ में जबकि वह ढलाई गीली थी तो बिना सहारे के काम नहीं चल सकता था। प्रतीक पूजा की आरम्भिक अवस्था में आवश्यकता पड़ती ही है। निराकारवादी व्यक्ति रूप में न सही अन्य किसी प्रतीक को माध्यम बनाकर अपना काम चलाते हैं। नमाज पढ़ते समय कावा की तरफ मुंह किया जाता है। कावा अर्थवत् ईश्वरीय शक्ति का विशेष प्रतिनिधित्व करने वाली इमारत है। दूसरे लोग सूर्य आदि की प्रकाश ज्योति को आधार बनाते हैं। कुण्डलिनी जागरण, चक्र वेधन आदि योगाभ्यासों में भी अमुक स्थानों को दिव्य शक्ति का केन्द्र मानकर वहां अपनी इच्छाशक्ति नियोजित करनी पड़ती है। यह भी ध्यान के ही रूप हैं और इनमें आकृति का सहारा लेना होता है।

ध्यान में केवल रूप देखते रहना भर पर्याप्त नहीं उसमें गहरी तन्मयता पैदा करनी होती है। साकार उपासना में ईष्ट देव के समीप अति समीप होने और उनके साथ लिपट जाने—उच्चस्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। इसमें भगवान और जीव के बीच माता-पुत्र, पति-पत्नी; सखा सहोदर, स्वामी-सेवक जैसा कोई भी सघन सम्बन्ध माना जा सकता है इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में सहायता मिलती है। लोक व्यवहार में स्वजनों के बीच आदान-प्रदान उपहार और उपचार की तरह चलते हैं। मन, वचन कर्म से घनिष्ठता एवं प्रसन्नता व्यक्त की जाती है। भेंट उपहार में कई तरह की वस्तुएं दी जाती हैं। नवधा भक्ति में ऐसे ही आदान-प्रदान की वस्तुपरक अथवा क्रिया परक कल्पना की गई है। वस्तुतः यहां प्रतीकों को माध्यम बना कर भावनात्मक आदान-प्रदान की गहराई में जाया जाना चाहिए। भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति उत्पन्न करने वाला आदान-प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी अहंता को क्रिया, विचारणा, भावना एवं सम्पत्ति को भगवान के चरणों पर अर्पित करते हुए सोचता है, यह सारा वैभव उसी दिव्यसत्ता की धरोहर है। इसका उपयोग व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के लिए नहीं ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। वह स्वयं तो मात्र खजांची—स्टोरकीपर भर है।

ध्यान का एक मात्र उद्देश्य भगवान और भक्त के बीच एकात्म भाव की स्थापना करना है; मात्र किसी आकृति का ध्यान चित्र देखते भर रहने से काम नहीं चलता। भक्त अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को—क्रिया, विचारणा और भावना को ईश्वर अर्पण करके उसे मात्र दिव्य प्रयोजनों में नियोजित रखने का संकल्प सघन करता है। इसके साथ-साथ भौतिक धन सम्पत्ति तो अर्पित हो ही जाती है। समर्पण का तात्पर्य है—व्यक्तिगत-भौतिक महत्वाकांक्षाओं की समाप्ति और उसके स्थान पर ईश्वर इच्छा की—उच्च आदर्शों की अपने ऊपर नियन्त्रण करने वाली स्थापना। इसी मान्यता को अन्तःकरण में यथार्थवादी निष्ठा के साथ स्थापित करने को आत्म समर्पण कहते हैं। ध्यान के द्वारा इसी निष्ठा को परिपक्व किया जाता है।

भक्त का समर्पण, बदले में भगवान का अनुग्रह आश्वासन। इसी के तरह-तरह के लौकिक स्वरूप चित्र कल्पित किये जा सकते हैं। साकार ध्यान में अपनी रुचि की कल्पनाएं करते रहने और उस दृश्यावली में डूबे रहने की पूरी छूट है। ध्यान की एकाग्रता इसी सीमा तक है कि उसमें भक्त और भगवान के बीच होने वाले आदान-प्रदान की कल्पनाएं ही चलनी चाहिए, भौतिक लाभ या प्रयोजन आड़े नहीं आने चाहिए। पूर्ण एकाग्रता जिन्हें शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं, बहुत ऊंची स्थिति है। मन कहीं जाये ही नहीं एक बिन्दु पर केन्द्रित रहे ऐसा हो सकने को ही तुरीयावस्था या समाधि कहते हैं। यह आरम्भिक साधना में लगभग असम्भव ही है, उसकी बात नहीं सोची जानी चाहिए। ध्यान साधना का व्यावहारिक रूप इतना ही है कि भक्त और भगवान के बीच उच्चस्तरीय आदान-प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी समस्त आकांक्षाओं और सम्पदाओं को ईश्वर के लिए समर्पित करता है और इसके बदले में वह सब कुछ पाता है जो ईश्वर स्वयं है। मनुष्य को स्पष्ट करने वाली ईश्वरीय सत्ता अपनी अनुभूति, आनन्द और उल्लास के रूप में छोड़ती है। भगवान से कुछ मिला या नहीं इसकी परख इस रूप में की जा सकती है कि उल्लास-आदर्शवादिता के प्रति उत्कण्ठा भरा अन्तःकरण में उमंगना आरम्भ हुआ या नहीं। सद्भावना और सत्प्रवृत्ति अपनाने वाले को सहज ही मिलते रहने वाला आत्म-सन्तोष—आनन्द—अनुभव में आता है या नहीं।

ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में यह भ्रान्त धारणा निरस्त की जानी चाहिए कि सपने में या जागृति में इष्ट देव की किसी आकृति की झांकी मिलती है अथवा प्रकाश आदि दीखने जैसा कोई चित्र-विचित्र दृश्य दिखाई पड़ता है। यदि ऐसा किसी को होता हो तो उसे झाड़ी का भूत, रस्सी का सांप दीखने की तरह अपने संकल्पों की मानसिक प्रतिक्रिया भर समझना चाहिए। जब चेतना की कोई आकृति हो ही नहीं सकती तो फिर उसका निर्भ्रान्त दृश्य दिखाई ही कैसे दे सकता है? इस तथ्य को हजार बार हृदयंगम कर लिया जाना चाहिए कि ईश्वर का जीवन में समावेश श्रेष्ठ वृत्तियों के रूप में होता है। आदर्शवादी आकांक्षाएं प्राणप्रिय प्रतीत होने लगने और तदनुरूप गति-विधियां अपनाने पर मिलने वाले आनन्द उल्लास की अनुभूति का स्तर ही ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र प्रमाण है।

निराकार ध्यान में प्रायः सर्वत्र सूर्य के प्रकाश को ही माध्यम बनाया जाता है। प्रभात काल के उदीयमान सूर्य का सविता देवता के प्रतीक रूप में दर्शन—उसकी दिव्य किरणों का शरीर मन और अन्तरात्मा में प्रवेश—उस प्रवेश की सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में प्रतिक्रिया। इसी परिधि में निराकार ध्यान धारणा परिभ्रमण करती है। यज्ञाग्नि रूपी ईश्वर में आहुति द्रव्य की तरह जीव सत्ता का समर्पण नाले का गंगा में बूंद का समुद्र में सम्पादन—दीप ज्योति का सूर्य ज्योति में विलय—अर्घ्य जल का भाप बनकर व्यापक क्षेत्र में विस्तार पतंगे का दीपक को समर्पण जैसे कितने ही दृश्य-चित्र कल्पना क्षेत्र में बनाये जा सकते हैं और उनके सहारे एकात्म भाव की अनुभूति का आनन्द लिया जा सकता है।

यहां यह तथ्य स्मरणीय है कि ध्यान में एकाग्रता का महत्व तो है किन्तु एकाग्रता ही ध्यान है यह भ्रम मन से निकाल देना चाहिए। एकाग्रता का अभ्यास क्रमशः होता है और वह समय साध्य है। इसलिए उसमें उतावली बरतने की आतुरता प्रदर्शित करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। निरन्तर जीवन लक्ष्य का ध्यान रखा जाय तो उस धारा प्रवाह को ‘एक दिशा’ कहा जा सकता है और उससे एकाग्रता का वास्तविक प्रयोजन पूरा हो सकता है।

ध्यान धारणा में एक बिन्दु पर मन एकाग्र करने की बात बहुत आगे की है। पहले तो साकार ध्यान में साकार की ध्यान प्रतिमाएं बनानी पड़ती हैं। निराकारवादी भी सूर्य आदि का कोई न कोई रूप बनाते हैं अथवा नादयोग में विभिन्न शब्दों को सुनते हैं रूप या शब्द का ध्यान करने के माध्यम से एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है। पर विचार पूर्वक देखा जाय तो प्रतीत होगा कि उस ध्यान प्रक्रिया में भी बिखराव ही बिखराव भरा पड़ा है। इष्टदेव की प्रतीक छवि में उनके अंग-प्रत्यंग वस्त्र-आभूषण, आयुध, वाहन आदि का बड़ा आवरण रहता है और उस विस्तृत क्षेत्र में यहां से वहां उड़ते फिरने की मन को पूरी छूट रहती है। इष्ट देव यदि शिव हैं तो ध्यान करते समय साधक को छूट है कि वह उनके शिर पर टंगे चन्द्रमा को, गंगा के उद्भव को, लिपटे हुए सर्पों को, कटिप्रदेश में पहने व्याघ्र चर्म को, गले की मुण्डमाला को, नन्दी वाहन की छवि को देखे और उस सीमित ध्यान क्षेत्र में कहीं ही दौड़ लगाता रहे। फिर यह एकाग्रता कहां हुई?

निराकारवादी प्रायः सूर्य किरणों का शरीर के रोम-रोम में प्रवेश करने का अथवा चित्र-विचित्र ध्वनियां सुनने का अभ्यास करते हैं। इसमें भी चिन्तन विस्तार का उतना ही क्षेत्र विद्यमान है जितना साकारवादी मान्यताओं में। जब मन को इतनी दौड़-धूप करने और इतने भिन्न प्रकार के अनुभव करने की छूट रही तो वह एकाग्रता कैसे बनी?

वस्तुतः जिसे हम एकाग्रता कहते हैं वह सब चित्त की भाग दौड़ को असीम से रोककर एक सीमित क्षेत्र में प्रतिबन्धित करना है। मन बार-बार भागता है और उसे पकड़-पकड़ कर बार-बार निश्चित ध्यान परिधि में लाया जाता है। यही प्रयोग चलता रहता है पूर्ण एकाग्रता समाधि अवस्था है और वह पूर्णता तक जा पहुंचने पर ही मिलती है। उसके लिए किसी को भी अधीर नहीं होना चाहिए।

हजार बार इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि पूर्ण एकाग्रता साधना काल की आरम्भिक प्रक्रिया या आवश्यकता किसी भी दृष्टि से नहीं है। उसके लिए न तो लालायित होना चाहिए न खिन्न। प्रयत्न करते रहना भर पर्याप्त है। मीरा, सूर, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस आदि भक्तजनों की भावस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे एकाग्रता नहीं तन्मयता प्राप्त कर सके और उसी में उनका लक्ष्य मिल गया। भक्त सम्प्रदाय में प्रणय, वियोग, अश्रुपात, समर्पण आलिंगन जैसे भावोन्मादों की घटाएं ही उमड़ती रहती हैं। उस मनःस्थिति में एकाग्रता किसी भी प्रकार संभव नहीं। यदि एकाग्रता ही सर्वोपरि रही होती तो भक्तजनों पर हर घड़ी छाया रहने वाला भावोन्माद तथा उसके उभार में उठने वाले हास्य, रोदन, नृत्य, अवसाद आदि की उद्विग्नता लक्ष्य प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा बन गई होती, पर ऐसा हुआ नहीं।

यहां एकाग्रता का महत्व घटाया नहीं जा रहा है और न उसे त्याज्य या उपेक्षणीय कहा जा रहा है। एकाग्रता की उपयोगिता में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए इतने पर भी सर्वसाधारण के मन में जमी हुई इस भ्रान्ति का निराकरण होना ही चाहिए कि—‘‘भजन में मन लगाना अर्थात् चित्त का एकाग्र होना आवश्यक है वह है, तो भजन की सफलता—नहीं है तो असफलता’’ इस चिन्तन को हटाकर यों सोचना चाहिए कि चित्तनिरोध नहीं ‘चित्तवृत्तियों का निरोध’ आवश्यक है। एकाग्रता नहीं ‘एक दिशा’ अभीष्ट है। यदि ऐसा बन पड़े तो समझना चाहिए कि ध्यान साधना की सही पृष्ठभूमि बन चली।

समूची ब्रह्म सत्ता को समझा जा सकना मनुष्य की छोटी बुद्धि के लिए असम्भव है। ब्रह्माण्ड बहुत बड़ा है, उसका विस्तार हमारी कल्पना शक्ति से बाहर है। अपनी पृथ्वी पर प्रकृति की जो कार्य पद्धति है, अन्य लोकों में उससे भिन्न है। पृथ्वी के प्राणधारियों की आकृति प्रकृति चिन्तन एवं जीवन यापन पद्धति में आकाश पाताल जैसा अन्तर है। फिर अन्य लोक वासी चैतन्य प्राणियों की रीति-नीति के बारे में तो कहा ही क्या जा सकता है? समूचा ब्रह्म न तो हमारी समझ में भी आ सकता है और न उसे समझने की आवश्यकता है। मानवी चेतना के साथ ब्रह्म चेतना का जितना अंश सम्बन्धित है उस भाग को ईश्वर या परमेश्वर कहते हैं। हमारे आनन्द एवं उत्थान में उसी की भूमिका रहती है। अस्तु साधना के लिए उसी छोटी ब्रह्म परिधि के साथ हमारा सम्पर्क मिला लेना पर्याप्त माना गया है। उपासना का केन्द्र बिन्दु यह ईश्वर ही रहता है।

आवश्यकतानुसार विशेष सूक्ष्म शक्ति उपार्जन करने के लिए अमुक देवी-देवताओं की उपासना की भी खण्ड साधना भी की जा सकती है, पर अपना अनुभव और परामर्श यह है कि समग्र ब्रह्म की साधना ही सर्वोत्तम है। आहार वही आदर्श माना जाता है जिसमें पोषण के सभी तत्व मौजूद हों। प्रोटीन कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो, अकेले उसी को खाना लाभदायक न रहेगा। अमुक देवता की उपासना अकेली प्रोटीन, अकेली कैल्शियम खाने की तरह है। आवश्यकता पड़ जाने पर चिकित्सा उपचार की तरह कोई विशेष तत्व अमुक मात्रा में लिया जाता है, इसी प्रकार विशेष प्रयोजन के लिए कोई देव-साधना उपयोगी हो सकती है, पर सर्वतोमुखी प्रगति के लिए—सर्वकालिक साधना समग्र ब्रह्म की ही होनी चाहिए।

कई तरह के देवी-देवताओं की—कई प्रकार की आकृतियों का संग्रह करने में ध्यान बंटता है और निष्ठा विकेन्द्रित होती है। पूजास्थली एवं ध्यान प्रक्रिया में चित्र-विचित्र, साज-सज्जा इकट्ठी इसलिए की जाती है कि कई देवता कई तरह के वरदान देंगे और सभी से थोड़ा-थोड़ा सम्बन्ध बना रहने से पंचमेल स्वाद मिलेगा और कई तरह के लाभ होंगे। पर यह मान्यता उपासना क्षेत्र में उलटी बैठती है। ध्यान और निष्ठा को केन्द्रित रखना उपासना का महत्वपूर्ण आधार है। उसे बखेरना नहीं चाहिए। हमने एक ही रूप को पर्याप्त माना है और परामर्श मानने वालों को अपनी ही भांति एक ही ध्यान के लिए अनुरोध किया है। सविता देवता के रूप में परब्रह्म की उपासना सर्वोत्तम है। ‘प्रकाश’ की साधना साकार और निराकारवादी दोनों ही पक्षों के लिए समाधान कारक है। सभी धर्म सम्प्रदायों ने किसी न किसी रूप में प्रकाश ध्यान की महत्ता स्वीकार की है। हर साधक उसे अपने इष्टदेव का चेतनात्मक रूप मान सकता है। इसलिए उसे सार्वभौम भी कह सकते हैं। गायत्री मन्त्र का देवता सविता है। छवि स्थूल, विचारणा सूक्ष्म, भावना कारण इन तीनों का समन्वय करते हुए अपना उपास्य सद्ज्ञान रूपी सूर्य हो, उसकी किरणों में गायत्री मन्त्र की सदाशयता और अन्तराल में अनन्य प्रेम से ओत-प्रोत मातृ सत्ता की झांकी की जा सकती है। इस ध्यान में तीनों शरीरों की आवश्यकता पूरी कर सकने जैसे सभी तथ्य विद्यमान हैं। साकार, निराकार का भी इसमें समन्वय है। उच्चस्तरीय उपासना के लिए यही ध्यान प्रतिमा सर्वोत्तम समझी गई है।

ईश्वर सत्-चित-आनन्द रूप है। सत् और चित् का भाव प्रकाश और अपने परम हितैषी के रूप में उसका ध्यान करने से आता है। आनन्द रूप में उसकी गहन अनुभूति के लिए प्रकाश की अपेक्षा रसरूप में उसका ध्यान अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। खेचरी मुद्रा द्वारा भगवान का ध्यान रसरूप में किया जाता है। शास्त्र वचन है ‘रसोवै सः’। हमारे जीवन में अतृप्ति, भटकाव, शुष्कता इसीलिए है कि हम ईश्वर को रस रूप—आनन्द रूप में अनुभव नहीं कर पाते।

खेचरी मुद्रा में जीभ तालू से लगाकर भगवान को रस प्रवाह के रूप में अवतरित किया जाता है। हमारा मस्तिष्क शिव का कैलाश है—विष्णु का क्षीर सागर है, ब्रह्मा का सहस्रदल कमल—सहस्रार चक्र भी यही है। विश्वव्यापी सूक्ष्म चेतना से हमारा यही केन्द्र सम्पर्क बनाता है। अस्तु रस रूप में—आनन्द रूप में ईश्वरीय चेतना के प्रवाह की अनुभूति भी इसी केन्द्र से हो सकती है। उपासना में जप और ध्यान के अतिरिक्त खेचरी मुद्रा का भी समावेश इसी दृष्टि से किए जाने का निर्देश दिया गया है।

प्रकाश का—इष्टदेव की शक्ति से अपने रोम रोम के प्रभावित होने का ध्यान जप के साथ भी चल सकता है तथा स्वतंत्र रूप से भी इसे किया जा सकता है। खेचरी मुद्रा में जीभ की विशिष्ठ स्थिति रखी जाने से जप नहीं चल सकता इसलिए यह ध्यान अलग से ही करना पड़ता है।

ध्यान का सही स्वरूप हम समझें तथा इसका उपयोग ठीक ढंग से कर सके तो हमारी और पारलौकिक प्रगति के अनेक व्यवधान दूर हो सकते हैं। इसका महत्व समझते हुए अपने जीवन में इसका नियमित और संतुलित क्रम बिठाया जाना हर दृष्टि से कल्याणकारी है।

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*समाप्त*
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