छोटा बीज कुछ ही दिनों में बड़ा वृक्ष बन जाता है। शिलान्यास छोटे रूप में
ही होता है, पर समयानुसार वह भव्य भवन बनकर खड़ा हो जाता है। यह युगसन्धि
है। अभी जो छोटा दीख रहा है, वह अगले दिनों विशालकाय ऐसा बोधिवृक्ष बन
जाएगा, जिसके नीचे तपस्वी सिद्धार्थ को बोध हुआ, वे बुद्ध बने और जिसकी
शाखाएँ देश- विदेशों में दिव्य बोध का सन्देश देने पहुँचती रहीं।
बीज बोने का समय थोड़ा ही होता है। वृक्ष का अस्तित्व लम्बे समय तक स्थिर
रहता है। सन् १९९० से लेकर सन् २००० तक के दस वर्ष जोतने, बोने, उगाने,
खाद- पानी डालने और रखवाली करने के हैं। इक्कीसवीं सदी से वातावरण बदल
जाएगा; साथ ही परिस्थितियों में भी भारी हेर- फेर होगा। इस सभी के विस्तार
में एक शताब्दी ही लग जाएगी- सन् २००० से सन् २०९९ तक। इस बीच इतने बड़े
परिवर्तन बन पड़ेंगे, जिन्हें देखकर जनसाधारण आश्चर्य में पड़ जाएँगे। सन्
१९०० में जो परिस्थितियाँ थीं, वे तेजी से बदलीं और क्या- से हो गया, यह
प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी जानता है। जिनकी दृष्टि मोटी है, उनके लिए तो जमीन-
आसमान सदा एक से रहते हैं। अगले दिन इतने आश्चर्यजनक परिवर्तनों से भरे
होंगे, जिन्हें देखकर प्रज्ञावानों को यही विदित होगा जैसा कि युग बदल गया;
अनुभव होगा कि मनुष्य का शरीर तो पहले जैसा ही है, किन्तु उसका मानस,
चिन्तन व दृष्टिकोण असाधारण रूप से बदल गया और समय लगभग ऐसा आ गया, जिसे
सतयुग की वापसी कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
प्राचीनकाल में
समय की गति धीमी थी, परिवर्तन क्रमिक गति से होते थे, पर अबकी बार प्रवाह
तूफानी गति से आया है और दो हजार वर्ष में हो सकने वाला कार्य, मात्र एक सौ
वर्ष में पूरा होने जा रहा है। नई शताब्दी नए परिवर्तन लेकर तेजी से आ रही
है।
सन् १९९० से २००० तक का समय भारी उथल- पुथल का है। उसके
लिए मानवीय प्रयास पर्याप्त न होंगे। दैवी शक्ति की इसमें बड़ी भूमिका
होगी। इसी की इन दिनों ऐसी तैयारी चल रही है, जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।
नर- पशु नर- कीटक और नर- पिशाच स्तर का जीवनयापन करने वालों में से ही
बड़ी संख्या में ऐसे इन्हीं दिनों निकल पड़ेंगे, जिन्हें नर- रत्न कहा जा
सके। इन्हीं को दूसरा नाम दिव्य प्रतिभा- सम्पन्न भी दिया जा सकता है। इनका
चिन्तन, चरित्र और व्यवहार ऐसा होगा, जिसका प्रभाव असंख्यों को प्रभावित
करेगा। इसका शुभारम्भ शान्तिकुञ्ज से हुआ है।
युगसन्धि
महापुरश्चरण का श्रीगणेश यहाँ से हुआ है। इसका मोटा आध्यात्मिक स्वरूप जप,
यज्ञ और ध्यान होगा। इसे उस प्रक्रिया से जुड़ने वाले सम्पन्न करेंगे; साथ-
ही पाँच- पाँच दिन के दिव्य प्रशिक्षण- सत्र भी चलते रहेंगे। साधारण
प्रशिक्षणों में कान, नाक, आँखें ही काम करती हैं। इन्हीं के माध्यम से
जानकारियाँ मस्तिष्क तक पहुँचती हैं, वहाँ कुछ समय ठहरकर तिरोहित हो जाती
हैं, पर उपर्युक्त पाँच दिवसीय शिक्षण- सत्र ऐसे होंगे, जिनमें मात्र
शब्दों का ही आदान- प्रदान नहीं होगा वरन् प्राणशक्ति भी जुड़ी होगी। उसका
प्रभाव चिरकाल तक स्थिर रहेगा और अपनी विशिष्टता का ऐसा परिचय देगा, जिसे
चमत्कारी या अद्भुत कहा जा सके।
सन् १९९० के वसन्त पर्व से यह
सघन शिक्षण आरम्भ होगा और वह सन् २००० तक चलेगा। इन दस वर्षों को दो खण्डों
में काट दिया है। संकल्प है कि सन् १९९५ की वसन्त पंचमी के दिन एक लाख
दीप- कुण्डों का यज्ञ- आयोजन उन सभी स्थानों पर होगा, जहाँ प्रज्ञा पीठें
विनिर्मित और प्रज्ञाकेन्द्र संस्थापित हैं। किस स्थान पर कितने बड़े आयोजन
होंगे, इसका निर्धारण करने की प्रक्रिया अभी से आरम्भ हो गई है। प्रथम
सोपान सन् १९९५ में और दूसरा सोपान वसन्त २००० में सम्पन्न होगा। स्थान वे
रहेंगे, जहाँ अभी से निश्चय होते जाएँगे।
इस महायज्ञ के यजमान
वे होंगे, जो अगले पाँच वर्षों में नियमित रूप से साप्ताहिक सत्संगों का
आयोजन करते रहेंगे। आयोजनों में दीपयज्ञ, सहगान- कीर्तन नियमित प्रवचन और
युगसाहित्य का स्वाध्याय चलता रहेगा। स्वाध्याय में जो पढ़ नहीं सकेंगे, वे
दूसरों से पढ़वाकर सुन लिया करेंगे। इस प्रकार की प्रक्रिया नियमित रूप से
चलती रहेगी।
अपेक्षा की गई है कि सन् १९९५ तक एक लाख यज्ञ हो
चुकेंगे और शेष १ लाख सन् २००० तक पूरे होंगे- कुल दो करोड़ देव- मानव
इनमें सम्मिलित होंगे। यह तो आयोजनों की चर्चा हुई। इन आयोजनों में
सम्मिलित होने वाले अपने- अपने सम्पर्क- क्षेत्र में इसी प्रक्रिया को
अग्रगामी करेंगे और आशा की जाती है कि इन दस वर्षों में सभी शिक्षितों तक
नवयुग का सन्देश पहुँच जाएगा। इस प्रयोजन के लिए युगसाहित्य के रूप में बीस
पुस्तकें छाप दी गई हैं।
वाणी और लेखनी के माध्यम से अगले दस
वर्षों में जो प्रचार- कार्य होता रहेगा, उसका आलोक युगान्तरीय चेतना विश्व
के कोने- कोने में पहुँचा देगी, ऐसा निश्चय और संकल्प इन्हीं दिनों किया
गया है।