महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण

परिष्कृत प्रतिभा, एक दैवी अनुदान-वरदान

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सैनिकों को युद्ध मोर्चों पर पराक्रम दिखाने के लिए तैयार कराने के लिए, उन्हें भेजने वाला तन्त्र यह व्यवस्था भी करता है कि उन्हें आवश्यक सुविधाओं वाली साज- सज्जा मिल सके, अन्यथा वे अपनी ड्यूटी ठीक प्रकार पूरी करने में असमर्थ रहेंगे। नव सृजन के दुहरे मोर्चे पर इसी प्रकार की व्यवस्था, युग परिवर्तन का सरंजाम जुटाने वाली सत्ता ने भी कर रखी है।

    सफलता के उच्च लक्ष्य तक पहुँचने में कितनी ही बाधाएँ पड़ सकती हैं, उन्हें पार करने के लिए- वांछित प्रगति के लिए अनेक आवश्यकताएँ पूरी करनी होती हैं। समझना चाहिए कि इस सन्दर्भ में किसी अग्रगामी आदर्शवादी को निराश न होना पड़ेगा, क्योंकि उसकी पीठ पर सर्वशक्तिमान सत्ता का हाथ जो रहेगा?

    तेज हवा पीछे से चलती है, तो पैदल वालों से लेकर साइकिल आदि के सहारे लोग कम परिश्रम में आगे बढ़ते जाते हैं और मञ्जिल सरल हो जाती है। इसी प्रकार नव सृजन का लक्ष्य, कल्पना करने वालों को कठिन दीखता तो है, पर उस स्रष्टा को विदित है कि उनकी नव सृजनयोजना को पूरा करने के लिए, जो अपने प्राण हथेली पर रखकर अग्रगमन का साहस दिखा रहे हैं, उन्हें सफलता का लक्ष्य प्रदान करने के लिए क्या- क्या आवश्यकताएँ जुटानी और क्या जिम्मेदारी निभानी चाहिए?

    माँगने वाले भिखमंगे दरवाजे- दरवाजे पर झोली पसारते, दाँत निपोरते, गिड़गिड़ाते और दुत्कारे जाते हैं। मनोकामनाएँ पूरी कराने वाले ईश्वर भक्ति का आडम्बर ओढ़कर इसी प्रकार निराश रहते हैं और उपेक्षा सहते हैं, पर जिन्हें ईश्वर का काम करना पड़ता है, उन्हें तो आदरपूर्वक बुलाया जाता है और अभीष्ट साधनों का उपहार भी दिया जाता है। इन दिनों गर्ज ईश्वर को पड़ी है। उसी का उद्यान समुन्नत करने के लिए कुशल माली चाहिए। उसी की दुनियाँ को समुन्नत, सुसंस्कृत, सुसम्पन्न बनाने के लिए कुशल कलाकारों और शूरवीर सैनिकों की आवश्यकता पड़ रही है। जो उसकी पुकार पर अपनी क्षमता को प्रस्तुत करेंगे, वे दैवी अनुग्रह से किसी प्रकार वंचित न रहेंगे, वरन् इतना कुछ प्राप्त करेंगे, जिसे पाकर वे निहाल बन सकें।

    हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे। भयभीत सुग्रीव के लिए दो वन आगन्तुकों का भेद लेने के लिए वे वेष बदलकर राम- लक्ष्मण के पास गए थे और सिर नवाकर विनम्रतापूर्वक पूछ- ताछ कर रहे थे। पर बाद में स्थिति बदली, सीता की खोज के लिए राम को हनुमान की जरूरत पड़ी। अनुरोध उन्होंने स्वीकारा तो बदले में इतनी सामर्थ्य के धनी बन गए, जो उनकी मौलिक विशेषताओं में सम्मिलित नहीं थी। समुद्र छलांगने, लङ्का को जलाने, पर्वत उखाड़कर लाने जैसे असाधारण काम थे, जो उन्होंने अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करके सम्पन्न किये।

    ईश्वर के लिए आड़े समय में काम आने वाले को भी ऐसे ही उपहार- अनुदान मिलते हैं। विभीषण को लङ्का का सम्राट बनने का सुयोग मिला। सुग्रीव ने अपना खोया राज्य पाया। भगवान के काम के लिए देवपुत्र माँगने वाली कुन्ती को उत्कृष्ट स्तर के पुत्र रत्न देने में उन्होंने आना- कानी नहीं की। भक्ति का प्रचार करने वाले नारद देवर्षि कहलाए। सूर- तुलसी ने ईश्वर के काम के लिए प्रतिज्ञारत होकर ऐसी प्रतिभा पाई, जिसके सहारे वे अनन्त कीर्ति पा सकने के अधिकारी बने।

    इन दिनों स्रष्टा ने ही विश्व- कल्याण के लिए, नवसृजन के लिए कर्मवीरों को पुकारा है। जो उस हेतु हाथ बढ़ाएँगे, वे खाली क्यों रहेंगे? भगीरथ, गाँधी, बुद्ध आदि को जो समर्थता मिली, वह इसलिए मिली कि परमार्थ प्रयोजन के काम आए।

    इस दुनियाँ में ऐसी भी सुविधा है कि जब- तब बहुत- सी उपयोगी वस्तुएँ बिना मूल्य भी मिल जाती हैं। हवा, पानी, छाया, खुशबू आदि हम बिना मूल्य ही पाते हैं; पर जौहरी या हलवाई की दुकान पर सुसज्जित रखी हुई वस्तुएँ उठाकर चल देने का कोई नियम नहीं है। उनका मूल्य चुकाना पड़ता है। गाय को घास न खिलाई जाए, तो दूध प्राप्त करते रहना कठिन है।

भगवान ने सुदामा को अपनी द्वारिकापुरी, टूटी सुदामापुरी के स्थान पर स्थानान्तरित कर दी थी, पर इससे पहले यह विश्वास कर लिया था कि इस अनुदान को उस स्थान पर कारगर विश्वविद्यालय चलाने के लिए ही प्रयुक्त किया जाएगा। चाणक्य की शक्ति चन्द्रगुप्त को ही मिली थी और वह चक्रवर्ती कहलाया था।

    भवानी की अक्षय तलवार शिवाजी को मिली थी। अर्जुन को दिव्य गाण्डीव धनुष एवं बाण देने वालों ने अनुदान थमा देने से पहले यह भी जाँच लिया था कि उस समर्थता को किस काम में प्रयुक्त किया जाएगा? यदि बिना जाँच- पड़ताल के किसी को कुछ भी दे दिया जाए, तो भस्मासुर द्वारा शिवजी को जिस प्रकार हैरान किया गया था, वैसी ही हैरानी अन्यों को भी उठानी पड़ सकती है।

    भगवान ने काय- कलेवर तो आरम्भ से ही बिना मूल्य दे दिया है, पर उसके बाद का दूसरा वरदान है ‘‘परिष्कृत प्रतिभा’’। इसी के सहारे कोई महामानव स्तर का बड़प्पन उपलब्ध करता है। इतनी बहुमूल्य सम्पदा प्राप्त करने के लिए वैसा ही साहस एकत्रित करना पड़ेगा, जैसा कि लोकमंगल के लिए विवेकानन्द जैसों को अपनाना पड़ा था। इन दिनों परीक्षा भरी वेला है, जिसमें सिद्ध करना होगा कि जो कुछ दैवी- अनुग्रह विशेष रूप से उपलब्ध होगा, उसे उच्चस्तरीय प्रयोजन में ही प्रयुक्त किया जायेगा। कहना न होगा कि इन दिनों नवयुग के अवतरण का पथ- प्रशस्त करना ही वह बड़ा काम है, जिसके लिए कटिबद्ध होने पर ‘परिष्कृत प्रतिभा’ का बड़ी मात्रा में, अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। उसे धारण करने पर ‘हीरे का हार’ पहनने वाले की तरह शोभायमान बना जा सकता है।

    ईश्वरीय व्यवस्था में यही निर्धारण है कि बोया जाए और उसके बाद काटा जाए। पहले काट लें, उसके बाद बोएँ, यही नहीं हो सकता। लोकसेवी उज्ज्वल छवि वाले लोग ही प्राय: वरिष्ठ, विश्वस्त गिने और उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं।

    विशिष्ट पुरुषार्थ का परिचय देने के उपरान्त ही पुरस्कार मिलते हैं। परिष्कृत प्रतिभा ऐसी सम्पदा है, जिसकी तुलना में मनुष्य को गौरवान्वित करने वाला और कोई साधन है नहीं। उसे प्राप्त करने के लिए यह सिद्ध करने की आवश्यकता है कि मानवी गरिमा को गौरवान्वित करने वाली धर्म- धारणा के क्षेत्र में कितनी उदारता और कितनी सेवा- साधना का परिचय देने का साहस जुटा पाया।

    दूसरों के हाथ रचाने के लिए, मेंहदी के पत्ते पीसने पर अपने हाथ स्वयमेव लाल हो जाते हैं। समय की माँग के अनुरूप पुण्य- परमार्थ का परिचय देने वालों को भी सदा नफे में ही रहने का सुयोग मिलता है। बाजरा, मक्का आदि का बोया हुआ एक दाना हजार दाने से लदी बाल बनकर इस तथ्य को प्रमाणित और परिपुष्ट करता है। भगवान के बैंक में जमा की हुई पूँजी इतने अधिक ब्याज समेत वापस लौटती है, जितना लाभ अन्य किसी व्यवसाय या पूँजी- निवेश में कदाचित् ही हस्तगत होती हो।

    किसी की वरिष्ठता उसके पारमार्थिक पौरुष के आधार पर ही आँकी जाती है। श्रेष्ठों- वरिष्ठों का आँकलन इसी एक आधार पर होता रहा है। साथ ही यह भी विश्वास किया जाता है कि बड़े कामों को सम्पन्न करने में उन्हीं की मनस्विता काम आती है। पटरी पर से उतरे इंजन को उठाकर फिर उसी स्थान पर रखने के लिए मजबूत और बड़ी क्रेन चाहिए। उफनती नदी में जब भँवर पड़ते रहते हैं, तब बलिष्ठ नाविकों के लिए ही यह सम्भव होता है कि वे डगमगाती नाव को खेकर पार पहुँचाएँ। समाज की सुविस्तृत, संसार की उलझन भरी बड़ी समस्याओं को सही तरह सुलझा सकना, उन साहसी और मेधावीजनों से ही बन पड़ता है, जिन्हें दूसरे शब्दों में प्रतिभावान भी कहा जा सकता है। युग परिवर्तन जैसे महान प्रयोजनों को हाथ में लेने के लिए अपनी साहसिकता का गौरवभरी गरिमा का परिचय दे सकने वाले व्यक्ति चाहिए। आड़े समय में ऐसे ही प्रखर प्रतिभावानों को खोजा, उभारा और खरादा जाना है।

    एक सम्भावना यह है कि सञ्चित अनाचारों का विस्फोट इन्हीं दिनों हो सकता है। उसे रोका न गया, तो कोई महायुद्ध भड़क सकता है। बढ़ता हुआ प्रदूषण, भयावह बहुप्रजनन, बढ़ता हुआ अनाचार मिल- जुलकर महाप्रलय या खण्डप्रलय जैसी स्थिति- उत्पन्न कर सकते हैं। उसे रोकने के लिए सशक्त अवरोध चाहिए। ऐसा अवरोध, जो उफनती हुई नदियों पर बाँध बनाकर उस जल- सञ्चय को नहरों द्वारा खेत- खेत तक पहुँचा सके। वह साधारणों का नहीं असाधारणों का काम है।

    ताजमहल, मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, पीसा की मीनार, स्वेज और पनामा नहर, हालैण्ड द्वारा समुद्र को पीछे धकेलकर उस स्थान पर सुरम्य औद्योगिक नगर बसा लेने जैसे अद्भुत सृजन- कार्य जहाँ- तहाँ विनिर्मित हुए दीख पड़ते हैं, वे आरम्भ में किन्हीं एकाध संकल्पवानों के ही मन- मानस में उभरे थे। बाद में सहयोगियों की मण्डली जुड़ती गई और असीम साधनों की व्यवस्था बनती चली गई। नवयुग का अवतरण भी इन सबमें बढ़ा- चढ़ा कार्य है, क्योंकि उसके साथ संसार के समूचे धरातल का, जन समुदाय का, सम्बन्ध किसी न किसी प्रकार जुड़ता है। इतने बड़े परिवर्तन एवं प्रयास के लिए अग्रदूत कौन बने? अग्रिम पंक्ति में खड़ा कौन हो? आवश्यक क्षमता और सम्पदा कौन जुटाए? निश्चय ही यह नियोजन असाधारण एवं अभूतपूर्व है। इसे, बिना मनस्वी साथी- सहयोगियों के सम्पन्न नहीं किया जा सकता। विचारणीय है कि उतनी बड़ी व्यवस्था कैसे बने?

    आरम्भिक दृष्टि से यह कार्य लगभग असम्भव जैसा लगता है, पर संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिसने असम्भव को सम्भव बनाया है। आल्पस पहाड़ को लाँघने की योजना बनाने वाले नेपोलियन से हर किसी ने यह कहा था कि जो कार्य सृष्टि में आदि से लेकर अब तक कोई नहीं कर सका, उसे आप कैसे कर लेंगे? उत्तर बड़ा शानदार था। असम्भव शब्द मूर्खों के कोश में लिखा मिलता है। यदि आल्पस ने राह न दी, तो उसे इन्हीं पैरों के नीचे रौंदकर रख दिया जाएगा। अमेरिका की खोज पर निकले कोलम्बस को भी लगभग ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा। समुद्र से अण्डे वापस लेने में असफल होने पर जब टिटहरी ने अपनी चोंच में बालू भरकर समुद्र में डालने और उसे पाटकर समतल बनाने का सङ्कल्प घोषित किया और उसके लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए उद्यत हो गई, तो नियति ने संकल्पवानों का साथ दिया। अगस्त्य मुनि आए, उन्होंने समुद्र पी डाला और टिटहरी को अण्डे वापस मिल गए। फरहाद द्वारा पहाड़ काटकर ३२ मील लम्बी नहर निकालने का असम्भव समझे जाने वाला कार्य सम्भव करके दिखाया गया। इसे ही कहते हैं ‘‘प्रतिभा’’।

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