गायत्री से बुद्धि विकास

गायत्री से सद्बुद्धि और सुमति

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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥

गायत्री सद्बुद्धि का मन्त्र है। इस महामन्त्र में कुछ ऐसी विलक्षण शक्ति है कि उपासना करने वाले के मस्तिष्क और हृदय पर बहुत जल्दी आश्चर्यजनक प्रभाव परिलक्षित होता है। मनुष्य के मनःक्षेत्र में समाये हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, चिन्ता, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, पाप, कुविचार आदि चाहे कितनी ही गहरी जड़ जमाये बैठे हों, मन में तुरन्त ही हलचल आरम्भ होती है और उनका उखड़ना, घटना तथा मिटना प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने लगता है।

संसार में समस्त दुःखों की जननी कुबुद्धि ही तो है। जितने भी दुःखी मनुष्य इस विश्व में दीख पड़ते हैं, उनके दुःखों का एक मात्र कारण उनके आज के अथवा भूतकाल के कुविचार ही हैं। परमात्मा का युवराज मनुष्य दुःख के निमित्त नहीं अपने पिता के इस पुण्य उपवन-संसार में आनंद की क्रीड़ा करने के लिए आता है। इस ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ धरती माता पर वस्तुतः दुःख का अस्तित्व नहीं है। कष्टों का कारण तो केवल ‘कुबुद्धि’ है। यही दुष्ट हमें आनन्द से वंचित करके नाना प्रकार के क्लेशों, भयों, एवं शोक सन्तापों में फंसा देती है। जब तक यह कुबुद्धि मन में रहती है तब तक कितनी ही सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी चैन नहीं मिलता। कोई न कोई क्लेश सामने खड़ा ही रहता है। एक चिन्ता दूर नहीं हो पाती कि दूसरी सामने आ खड़ी होती है। इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए कुबुद्धि को हटाकर सद्बुद्धि की स्थापना आवश्यक होती है। इसके बिना शान्ति मिलना किसी भी प्रकार संभव नहीं। सद्बुद्धि की अजस्र धारा गायत्री माता का पथ पान करने से प्राप्त होती है। इसे पाकर मनुष्य आधिदैहिक, आधिदैविक, आधिभौतिक त्रितापों से छुटकारा पाकर सच्ची शान्ति का अधिकारी बनता है।

‘विपत्ति निवारिणी गायत्री’ पुस्तक में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है कि गायत्री के चार चरणों से किस प्रकार चार प्रकार की कुबुद्धियां दूर होती हैं। (1) ‘‘ॐ भू भुर्वः स्वः’’ इस प्रथम पाद को हृदयंगम कर लेने से मनुष्य को घट-घट में कण-कण में समाये हुए परमात्मा की झांकी होती है, फलस्वरूप वह दुष्कर्म करने का साहस उसी प्रकार नहीं कर पाता जिस प्रकार कोतवाल को सामने खड़ा देख कर चोर को चोरी करने की हिम्मत नहीं पड़ती। सब में परमात्मा का अस्तित्व देखने वाले को स्वभावतः सबके साथ आत्मीयता, उदारता, प्रेम, ईमानदारी, सेवा, सद्व्यवहार एवं मधुरता का व्यवहार करने की भावनाएं उमड़ती हैं। सर्वत्र ईश्वर का दर्शन करते हुए बुरे कर्मों से बचना और सबके साथ स्नेह पूर्वक सद्व्यवहार करना यह नीति ऐसी है जिससे मनुष्य दुष्कर्मों से दण्डस्वरूप प्राप्त होने वाले राजदण्ड सामाजिक दंड एवं ईश्वरीय दण्डों से बचा रहता है और अपने सद्व्यवहार के कारण प्रत्युत्तर में संसार की ओर से भी सद्भाव, सहयोग, एवं स्नेह पाकर सुख शान्तिमय जीवन व्यतीत करता है।

(2) गायत्री का दूसरा चरण ‘‘तत्सवितुर्वरेण्यं’’ साधक में विवेक, दूरदर्शिता, तत्व दृष्टि, दिव्यज्ञान, एवं सूक्ष्मावलोकन की क्षमता उत्पन्न करता है। इस तत्व को प्राप्त कर लेने पर सत् असत् का ज्ञान होता है और तुरन्त के हानि लाभ पर विचार न करके दूरवर्ती परिणामों पर सूक्ष्म दृष्टि से देखना आरंभ कर देता है। परिणाम स्वरूप क्षुद्र प्रलोभनों को ठुकरा कर वह चिरस्थायी सत्कार्यों को अपनाने का मार्ग ग्रहण करता है। क्षणिक इन्द्रिय सुख, तत्कालिक लाभ, वासना, मोह, लोभ आदि के अज्ञान में फंसे लोग पथ-भ्रष्ट होते हैं। गायत्री माता का दूसरा चरण साधक को पथ-भ्रष्ट नहीं होने देता और वह विवेक पूर्ण दूरदर्शिता के साथ सन्मार्ग पर चलता हुआ चिरस्थायी सुखों का अधिकारी बनता है।

(3) गायत्री का तीसरा चरण ‘‘भर्गो देवस्य धीमहि’’ मनुष्य को दैवी संपत्तियां प्रदान करता है। गीता के 16 वें अध्याय में जिन-जिन सद्गुणों को दैवी संपत्तियां गिनाया गया है वस्तुतः मनुष्य का मान-सम्मान, महत्व, ऐश्वर्य, उन्हीं से बढ़ता है। रूप, यौवन, सम्पत्ति आदि तो क्षणिक हैं। आज हैं तो कल इनका पता नहीं लगता। आज का अमीर कल दर-दर का भिखारी हो सकता है। पर सद्गुणों की दैवी सम्पत्तियां ऐसी हैं कि यह दिन-दिन बढ़ता ही चलता है और महानता के उच्चशिखर पहुंचकर पूर्णता के परम लक्ष को प्राप्त कर लेता है। सच्चरित्रता, परिश्रम प्रियता, उत्साह, साहस, प्रसन्नता, मधुरता, नम्रता, शिष्टाचार, नियमितता, संयम, मितव्ययिता, अनुशासन, जिम्मेदारी, वफादारी, जिज्ञासा, धैर्य, स्थिर मति आदि अनेकों सद्गुण उसमें बढ़ते हैं, फलस्वरूप उसका व्यक्तित्व दिन-दिन ऊंचा उठता जाता है और उसे सर्वत्र मान, सहयोग एवं सद्भाव ही प्राप्त होता है। ऐसे मनुष्य ही सच्चे अमीर कहे जाते हैं।

(4) गायत्री का चौथा चरण ‘‘धियो योनः प्रचोदयात्’’ आत्म परीक्षण, आत्म शुद्धि, आत्म उन्नति एवं आत्म साक्षात्कार करने की शक्ति उत्पन्न कर देता है। जैसे ही मनुष्य के अन्तःकरण में गायत्री माता के चौथे चरण का पदार्पण होता है वैसे ही वह अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों को देना छोड़कर आत्म निरीक्षण आरम्भ कर देता है। अपने अन्दर जो त्रुटियां हैं उन्हें ढूंढ़ता है, उनके लिए शोक एवं प्रायश्चित करता है। उन्हें हटा देता है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है और संतुलित मस्तिष्क में शांत चित्त से प्रत्येक बात के मूल कारण पर विचार करता हुआ ऐसी गति विधि ग्रहण करता है, जो अपने और दूसरों के कर्म बढ़ाने में नहीं, उत्कर्ष में सहायक हो। उसका चित्त हर घड़ी प्रसन्न रहता है। उसके समीप रहने वाले भी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कोई आपत्ति प्रारब्ध वश सामने आती है तो उससे भी निवृत्ति का सुअवसर समझ कर धैर्य पूर्वक सहन कर लेता है। आत्मा में अवस्थित दिन-दिन बढ़ते चलने से वह आत्म-साक्षात्कार करता है और प्रभु की कृपा का सच्चा अधिकारी बन उन्हीं में लीन हो जाता है।

इस प्रकार मनुष्य के अन्तःकरण में जैसे-जैसे गायत्री माता की किरणें आती हैं, चरण पड़ते हैं, वैसे-वैसे उसे अपने अन्दर दिव्य प्रकाश, दिव्य बल, दिव्य शान्ति एवं दिव्य उत्कर्ष अनुभव होता है। उसका जीवन निकृष्ट कोटि में न रहकर उच्च आध्यात्मिक भूमिका में विकसित होता जाता है। उसका जीवन क्रम बाहर से चाहे साधारण गृहस्थ, साधारण व्यापारी, कर्मचारी जैसा ही दिखाई पड़ता हो पर भीतर से उसकी स्थिति उच्च कोटि के सन्तों एवं सत्पुरुषों जैसी हो जाती है।

संसार में जितने दुःख हैं कुबुद्धि के कारण हैं। लड़ाई-झगड़ा, आलस्य, दरिद्रता, व्यसन, व्यभिचार, आवारागर्दी, कुसंग, कटु भाषण, चोरी, स्वार्थपरता, ज्वारी, छल, निष्ठुरता, अन्याय, अत्याचार, असंयम आदि के पीछे मनुष्य की कुबुद्धि ही काम करती है। इन्हीं करणों से रोग, शोक, अभाव, चिन्ता, कलह आदि का प्रादुर्भाव होता है और इन्हीं से नाना प्रकार की कुंठाएं, व्यथाएं, यातनाएं सहनी पड़ती हैं। कर्म का फल निश्चित है। बुरे कर्म का फल बुरा ही होता है। कुबुद्धि से ही बुरे विचार बनते हैं। इसलिए दुर्बुद्धि को पापों की जननी कहा गया है। पूर्व जन्मों के प्रारब्ध गत पाप भी पूर्व जन्मों की दुर्बुद्धि के परिणाम हैं। इसलिये यही मानना पड़ता है कि जो भी दुःख हमें उपलब्ध हैं या जो भी कठिनाइयां हमारे सामने हैं इसमें वर्तमान काल की या भूतकाल की कुबुद्धि ही मूल कारण है। गायत्री मंत्र का प्रधान कार्य इस कुबुद्धि को हटाना है। उपासना के फलस्वरूप मस्तिष्क में सद्विचार और हृदय में सद्भाव उत्पन्न हो जाते हैं, जिसके कारण मनुष्य का जीवन-क्रम ही बदल जाता है। सद्भावना की वृद्धि के साथ-साथ उसे अनायास ही अनेक प्रकार के सुख-सौभाग्य उपलब्ध होते हैं, साथ ही उसके समीप रहने वाले, पड़ौसी एवं सम्बन्धी भी उसकी समीपता से सुख तथा सन्तोष लाभ करते हैं। ऐसे व्यक्ति जहां भी रहते हैं वहां सुखद वातावरण उत्पन्न करते हैं।

हमारे देखने में ऐसी अनेकों घटनाएं आई हैं जिनमें कुविचारों के कारण उपस्थित रहने वाली अशान्ति का गायत्री उपासना से सहज समाधान हुआ है।

अम्बाला में एक महेश्वरी परिवार का लड़का कुसंग में पड़कर ऐसी बुरी आदतों का शिकार हो रहा था जिससे उनके प्रतिष्ठित परिवार पर कलंक लगता था। लड़के के पिता ने दुःखी होकर गायत्री माता की शरण ली। फलस्वरूप लड़के के विचार बदले, वह सुधरा और परिवार का वातावरण शान्तिमय हो गया।

शेखपुरा (पंजाब) के एक 14 वर्षीय वैश्य बालक के पिता-माता एक ही साल के भीतर स्वर्गवासी हो गये। संरक्षण और नियन्त्रण के अभाव में लड़का कुसंग में पड़ गया और बुरी आदतों में पांच वर्ष के भीतर ही सारी नकदी, जायदाद स्वाहा हो गई। इसके बाद वह चोरी, जेबकटी आदि बुरे उपायों से कठिनाई के साथ अपना खर्च चलाने लगा। अपनी पिछली और वर्तमान दशा की तुलना करके वह सदा दुःखी रहता। ऐसी परिस्थिति में उसे किसी ने गायत्री मन्त्र जपने की सलाह दी। इस कार्य का अवलम्बन करने से थोड़े ही दिन में इसका मानसिक कायाकल्प हो गया और अब सत्पुरुषों की भांति जीवन यापन कर रहा है।

टोंक के एक श्रीवास्तव जमींदार अपने परिवार में 19 व्यक्ति छोड़कर स्वर्गवासी हो गये। यह सबके सब ऐसे थे जो स्वयं कुछ न कमाते थे, जमींदारी की आमदनी पर निर्भर थे। पिताजी जमींदारी के अलावा जो कमाते थे बच्चों के लिये वह आमदनी बन्द हो गई। उधर उनका खर्च बढ़ गया। आपस में लड़ाई झगड़े रहने लगे, मुकदमाबाजी तथा फौजदारी तक होने लगी। बड़ा लड़का इस स्थिति को देखकर मन ही मन रोया करता। निराशा के वातावरण में उसे किसी ने गायत्री मंत्र जपने की सलाह दी। कुछ ही समय में घर भर की बुद्धि में परिवर्तन होने लगा। जो कमाने लायक थे वे नौकरी या व्यापार में लग गये। झगड़े शान्त हुए। डगमगाता हुआ घर बिगड़ने से बच गया।

नासिक में एक मराठा परिवार का बारह वर्षीय बालक कुछ ऐसा बिगड़ा कि घर से रुपया जेवर आदि लेकर भाग जाता और कई हफ्ते दूर-दूर तक रेल की यात्रा करता। घर वालों को उसके सम्बन्ध में बड़ा दुःख रहता। कई बार उसे ढूंढ़ ढूंढ़ कर लाये। ढूंढ़ने में बहुत समय और धन बर्बाद होता। इस चिंता से ग्रस्त दशा में उनने गायत्री उपासना आरम्भ की। एक पुरश्चरण भी कराया। वह लड़का जो अनेक प्रकार समझाने बुझाने, दण्ड देने, प्रलोभन दिखाने आदि से भी नहीं मान रहा था, अपने आप बदला, संभला और पढ़ने में चित्त लगाने लगा। इस समय वह कॉलेज के अन्तिम वर्ष में है और अच्छे नम्बरों से सदा उत्तीर्ण होता है।

जैसलमेर के एक मारवाड़ी सज्जन की वेश्यागमन में प्रवृत्ति हो गई। जो कुछ कमाते सब इसी में खर्च कर देते। स्त्री के जेवर तक भी बेच दिये। जब वह समझाती बुझाती तो उसी बेचारी को मार खानी पड़ती। तीन छोटे बालकों समेत वह महिला बहुत दुखी रहती। एक सहेली से उसने गायत्री की प्रशंसा सुनी, वह उपासना करने लगी। पति के विचार बदलने में इसका बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ। वे मारवाड़ी सज्जन रास्ते पर आ गये और उनकी आर्थिक एवं पारिवारिक स्थिति ठीक हो गई।

दूसरों की बुद्धि सुधारने में भी गायत्री से लाभ होते हैं। स्वयं अपना सुधार तो उससे होता ही है। प्राचीन काल में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिनमें घोर पापियों के भी उद्धार भगवान की शरण में आने से हुए हैं। आत्मोद्धार के जितने भी साधन हैं उनमें गायत्री किसी भी तरह कम नहीं है। इतिहास पुराणों में वर्णन है कि सदन कसाई, हत्यारा अजामिल, डाकू वाल्मीकि आदि पातकियों को भी सद्गति मिली। अम्बपाली वेश्या परम साध्वी तपस्विनी बनी। वेश्यागामी सूरदास परम भक्त हुए। इस प्रकार के परिवर्तन अब भी होते हैं। जिनके जीवन का अधिकांश भाग बुराइयों में बीता है उनने जब गायत्री की शरण ली तो उनका अन्तःकरण बिलकुल ही बदल गया। पिछली भूलों के लिए उनने सच्चे हृदय से पश्चात्ताप किया और आगे से दिन-दिन शुद्ध और सतोगुणी बनते गये।

पापों के प्रायश्चित के जितने उपाय हैं उनमें गायत्री उपासना सबसे सरल और सबसे श्रेष्ठ है। कहा भी है—

ब्रह्म हत्यादि पापानि गुरुपिा च लघूनि च। नाशयन्त्यचिरेणैव गायत्री जपते द्विजः॥ गायत्री जपने वाले के सभी पाप चाहे बड़े हों या छोटे हों शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। गायत्री जप कृद्भक्त्या सर्व पापै प्रमुच्यते। —पाराशर भक्ति पूर्वक गायत्री जपने वाला समस्त पापों से छूट जाता है। सर्व पापानि नश्यन्ति गायत्री जपतो नरः। —व्यास गायत्री जपने वाले मनुष्य के सब पाप नष्ट हो जाते हैं। गायत्री जपतो यस्तु कल्पमुत्थापयो द्विजः। स बिम्पति न पापेभ्यो पद्म पत्र मिवाभ्भसा। —अत्रि

जो द्विज प्रातःकाल गायत्री का जप करता है वह जल में कमल-पत्र की भांति पाप-ग्रस्त नहीं होता।

इस प्रकार के असंख्यों प्रमाण शास्त्रों में मौजूद हैं। अगणित उदाहरण मौजूद हैं और अनेक व्यक्ति आज भी ऐसे मौजूद हैं जिनके जीवन में गायत्री-उपासना से आश्चर्यजनक आध्यात्मिक कायाकल्प हुए हैं। किसी समय के घोर पापी मनुष्य आज ऋषियों जैसी घोर तपस्या करते हुए परम सतोगुणी जीवन यापन कर रहे हैं। कहा जाता है कि लोहे को सोना बना देने का गुण पारस मणि में होता है। पारस किसी ने देखा नहीं है पर गायत्री की पारस मणि प्रत्यक्ष है। यह काले कलुषित हृदयों को भी स्वर्ण सा शुद्ध परम पवित्र और निष्पाप बना सकती है। इसकी परीक्षा कोई भी मनुष्य अपने ऊपर करके खातिरी कर सकता है।

मस्तिष्क को बल देने एवं बुद्धि को तीव्र करने की असाधारण सामर्थ्य गायत्री में भरी हुई है। कई व्यक्ति जो आरम्भ में बड़ी मन्द बुद्धि और मतिहीन थे उनकी बुद्धि में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं। जिनकी बुद्धि आरम्भ से ही तीव्र है उसका मस्तिष्क तो इस महामन्त्र के प्रकाश से कमल पुष्प की तरह खिल पड़ता है। बड़ौदा के एक वकील रामचन्द काली शंकर पाठक जीवन के आरम्भिक भाग में 10) मासिक की छोटी मजूरी करते थे। गायत्री की उपासना से उनकी बुद्धि प्रखर हुई और अपने बलबूते पर वकालत पास करके सुख सम्पन्न बने।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती गंगा में खड़े होकर गायत्री का जप करते थे। जन्म से अन्धे होते हुए भी उनने संस्कृत एवं वेद का असाधारण ज्ञान प्राप्त किया इसका कारण उनका गायत्री तप ही था।

मान्धाता ओंकारेश्वर मन्दिर के पीछे गुफा में एक महात्मा गायत्री तप करते थे। मृत्यु के समय उनके परिवार के व्यक्ति उपस्थित थे। परिवार के एक बालक ने उनसे प्रार्थना की कि मेरी बुद्धि मन्द है मुझे विद्या नहीं आती, मुझे भी आशीर्वाद देकर यह दोष दूर कर दें, महात्मा जी ने कमण्डल में से जल लेकर गायत्री मन्त्र के साथ बालक की जीभ पर डाला और आशीर्वाद दिया कि तू पूर्ण विद्वान हो जायेगा। आगे चल कर यह बालक सचमुच असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान हुआ। इन्दौर में ओंकार जोशी के नाम से इनने प्रसिद्धि पाई। इन्दौर नरेश भी इनकी सिद्धि से बहुत प्रभावित थे।

कितने ही ऐसे बालक जो परीक्षा में समुचित तैयारी नहीं कर सके थे तथा जिनकी बुद्धि भी मन्द थी गायत्री, उपासना द्वारा परीक्षा में अच्छे नम्बरों में उत्तीर्ण हुए हैं। पागल, अर्धविक्षिप्त, मृगी रोग ग्रस्त, अनिद्रा के रोगी, भूतोन्माद से पीड़ित व्यक्तियों का मस्तिष्क गायत्री उपासना के प्रभाव से निरोग होते देखा गया है। गर्भावस्था में बालक पर गायत्री के संस्कार डाले जाय तो उसका मस्तिष्क बहुत ही विलक्षण प्रतिभावान होता है। माण्डूक्य उपनिषद् पर कारिका रचने वाले महा पण्डित श्री गौडपाद को जन्म देने से पूर्व उनके पिता ने उपवास पूर्वक सात दिन तक गायत्री जप किया था।

जिनकी स्मरण शक्ति शिथिल है, बुद्धि मन्द है, मस्तिष्क जल्दी थक जाता है उन्हें गायत्री उपासना करके थोड़े ही समय में इस महाशक्ति के चमत्कार देखने को मिलते हैं। कीमती दवाएं जो कार्य नहीं कर सकतीं वह इससे पूरा होता है। ब्राह्मी तेल लगाने और बादाम पाक सेवन से मस्तिष्क को उतना बल नहीं मिल सकता जितना इस उपासना से मिलता है। सिर में दर्द, चक्कर आना, निद्रा की कमी, आये दिन नाना प्रकार के शिरोरोगों की शिकायतें जिन्हें बनी रहती हैं उन्हें गायत्री उपासना का अवलम्बन लेना चाहिये। इससे मस्तिष्क के सभी कल पुर्जे बलवान, सजीव, चैतन्य और निरोग बनते हैं। बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी जिनके मनः क्षेत्र में प्रवेश करेंगी उसका मानसिक विकास होना स्वाभाविक हे। मस्तिष्क के अन्तर्गत जो नाना प्रकार की शक्तियां सन्निहित हैं उनका धीरे-धीरे विकास होता है और मनुष्य बुद्धिमान, विवेकशील एवं प्रतिभावान बनता चलता है।

जिनके घर में कुबुद्धि का साम्राज्य छाया रहता है, आपस में द्वेष, असहयोग, मनमुटाव, कलह, दुराव एवं दुर्भाव रहता है। आये दिन झगड़े रहते हैं। आपाधापी और स्वार्थपरता में प्रवृत्ति रहती है। गृहव्यवस्था को ठीक रखने, समय का सदुपयोग करने, योग्यताएं बढ़ाने, अनुशासन मानने, कुसंग से बचने, श्रमपूर्वक आजीविका कमाने, मन लगाकर विद्याध्ययन करने में प्रवृत्ति न होना आदि दुर्गुण कुबुद्धि के प्रतीक हैं। जहां यह बुराइयां भरी रहती है वे परिवार कभी भी उन्नति नहीं कर सकते, अपनी प्रतिष्ठा को कायम नहीं रख सकते, इसके विपरीत उनका पतन आरम्भ हो जाता है। बिखरी हुई बुहारी की सींकों की तरह छिन्न भिन्न होने पर वर्तमान स्थिति भी स्थिर नहीं रहती। दरिद्रता, हानि, घाटा, शत्रुओं का प्रकोप, मानसिक अशान्ति की अभिवृद्धि आदि बातें दिन-दिन बढ़ती हैं और वे घर कुछ ही समय में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। कुबुद्धि ऐसी अग्नि है कि वह जहां भी रहती है वहीं की वस्तुओं को जलाने और नष्ट करने का कार्य निरन्तर करती रहती है।

जहां उपरोक्त प्रकार की स्थिति हो वहां गायत्री उपासना का आरम्भ होना एक अमोघ अस्त्र है। अंगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गरम हो जाती है और उसमें बैठे हुए सभी मनुष्य सर्दी से छूट जाते हैं इसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से माता की शरण लेते हैं तो उन्हें स्वयं तो शांति मिलती ही है, साथ ही उनकी साधना का सूक्ष्म प्रभाव घर भर पर पड़ता है और चिन्ता जनक मनोविकारों का शमन होने तथा सुमति, एकता, प्रेम, अनुशासन तथा सद्भाव की परिवार में बढ़ोतरी होती हुई स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। साधना निर्बल हो तो प्रगति धीरे-धीरे होती है पर होती अवश्य है।

परिवार ही नहीं, पड़ौसियों, सम्बन्धियों तथा सहकर्मियों तक पर इसका प्रभाव पड़ता है। सुगन्धित इत्र कपड़ों से लगा हो तो जो कोई भी अपने समीप आवेगा उसे भी सुगन्धि मिलेगी गायत्री तपस्या की दिव्य सुगन्ध साधक की आत्मा में से सदैव उड़ती रहती है वह जहां भी जाता है, जहां भी बैठता है वहीं वह सद्बुद्धि की शक्ति तरंगें छोड़ता है और वहां की अशान्ति मिट कर शान्ति स्थापित होती है।

(1) अपनी मनोभूमि में छाये हुए अज्ञान का निवारण होकर परमश्रेयष्कर आत्मिक उन्नति का होना, (2) अनेक दोषों, पापों और बुरी आदतों से छुटकारा मिलना, (3) मानसिक उलझनों का नष्ट होना, (4) पिछले पापों का प्रायश्चित होकर कर्मबन्धन मिटना, (5) बुद्धि की तीव्रता मनोबल का विकास, (6) सद्भावना और सुमति का बढ़ना आदि गायत्री के बौद्धिक लाभ हैं। मनुष्य जीवन में इनका महत्व कम नहीं है। इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए यदि उपासना में मनुष्य को कुछ समय लगाना पड़ता है तो वह लगाया जाना ही उचित है।

यों गायत्री की ब्रह्म शक्ति के अनेक लाभ हैं। उनमें आध्यात्मिक लाभ मुख्य एवं सांसारिक गौण है। किन्तु सद्बुद्धि का प्राप्त होना तो सुनिश्चित है। क्योंकि गायत्री प्रधान तथा सद्बुद्धि का मन्त्र है। इसे जो लोग श्रद्धापूर्वक अपनाते हैं उनकी अनेकों बुरी आदतें अपने आप दूर होने लगती हैं। कई व्यक्ति सोचते हैं कि जब तक हमारी आत्मा पूर्ण पवित्र न हों तब तक जाप करना व्यर्थ होगा। हमारा कहना है वह अग्नि क्या, जो कूड़े को जला न दे। वह गंगा क्या, जो मलों को शुद्ध न करदे। गायत्री उपासना मनुष्य की सभी बुराइयों को दिन-दिन घटाती है और उसे धीरे-धीरे शुद्ध बुद्धि पवित्र आत्मा बनाती चलती है। कुकर्मी चोर, व्यभिचारी, अभक्ष भोजी, व्यसनी और पापी व्यक्ति भी जब गायत्री उपासना आरम्भ करते हैं, तो उनकी अन्तरात्मा स्वयं इतनी बलवती होने लगती है कि शरीर और मन में बुराइयों का ठहरना ही सम्भव नहीं रहता।

आप गायत्री उपासना करते हैं तो उसे बढ़ाइए, नहीं करते तो आरम्भ कीजिए। उसका परिणाम शुभ ही होगा। शास्त्रोक्त विधि विधान पूर्वक की हुई गायत्री उपासना कभी भी निष्फल नहीं जाती। उससे मानसिक शान्ति का निश्चित रूप से सत परिणाम प्राप्त होते हैं।

संसार में जितनी भी सुख सम्पत्तियां हैं, उस सर्व शक्तिमान सत्ता के हाथ में है। वही उसकी स्वामिनी है। जब उस परब्रह्म से मनुष्य अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है और उसकी कृपा का अधिकारी बन जाता है तो उसे अपने इष्टदेव के अधिकार की कोई सी वस्तु प्राप्त कर लेना कठिन नहीं रहता। जो राजा का कृपापात्र है उसे उस राज्य की कोई भी वस्तु मिल सकती है। जिन असुविधाओं को राजा दूर कर सकता है उनसे भी वह राज-कृपापात्र, छुटकारा पा सकता है। इसी प्रकार उस परब्रह्म की कृपा को जो लोग प्राप्त कर लेते हैं उनके लिये इस विश्व का प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक सुख, करतल गत हो जाता है। उनके लिए कोई अभाव एवं त्रास शेष नहीं रहता।

गायत्री महामन्त्र ईश्वरीय कृपापात्र बनने का सर्वोत्तम साधन है। इस मन्त्र में बताई हुई शिक्षाओं को अपने जीवन में ढाल देने वाला गायत्री के 24 अक्षरों में बताये हुए सिद्धान्तों, आदर्शों, दृष्टिकोणों एवं कर्त्तव्यों को हृदयंगम करने वाला मनुष्य प्रभु को अत्यन्त प्रिय होता है। जो भक्ति का परिचय दे वही भक्त है। भक्ति का एक मात्र लक्षण ईश्वर की आज्ञाओं को पालन करना, उसके बताए हुए मार्ग पर चलना है। जो लोग हर घड़ी ईश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हैं, जिनके विचार ईश्वरीय विचारधारा से विपरीत दिशा में चलते रहते हैं, जो अपने धर्म कर्त्तव्यों की उपेक्षा करते रहते हैं, ऐसे लोग केवल पूजा पाठ से ईश्वर के भक्त नहीं बन सकते और न प्रभु का अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें अनेकों उलझनों कठिनाइयों भयों अभावों तथा अनिष्टों से छुटकारा पाना है वे गायत्री माता के बताये मार्ग पर चलें, अपने विचारों को धर्मानुकूल एवं सात्विक बनावें। सच्चे गायत्री उपासकों की मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण ही होती है।
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