गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरण

कुण्डलिनी के षट चक्र और उनका वेधन

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कुण्डलिनी साधना को अनेक स्थानों पर षट्चक्र वेधन की साधना भी कहते हैं। पंचकोषी साधना या पंचाग्नि विद्या भी गायत्री की कुण्डलिनी या सावित्री साधना के ही रूप है। एम.ए. एक डिग्री है इसे हिंदी, अंग्रेजी, सिविक्स, इकॉनोमिक्स किसी भी विषय से प्राप्त किया जा सकता है। उसी प्रकार आत्म-तत्व, आत्म शक्ति एक है उसे प्राप्त करने के लिए विवेचन विश्लेषण और साधना विधान भिन्न हो सकते हैं। इसमें किसी तरह का विरोधाभास नहीं है।

तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है। शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के 17 वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है।

योग दर्शन समाधिपाद का 36 वां सूत्र है— ‘विशोकाया ज्योतिष्मती’

इसमें शोक सन्तापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है।

इस समस्त शरीर को—सम्पूर्ण जीव कोशों को—महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया सम्भाले हुए है। उस प्रक्रिया के दो ध्रुव—दो खण्ड हैं। एक को चय प्रक्रिया एनाबॉलिक एक्शन तथा दूसरे को अपचय प्रक्रिया (कैटाबॉलिक एक्शन) कहते हैं। इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है। शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है। इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमण शील शक्ति का नाम कुण्डलिनी है।

सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान ‘शक्ति’ भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्र शक्तिस्थानमुदीरतम् । कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भवं स्थानमुच्यते ।। —वराहश्रुति

मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है। कण्ठ के ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है। यह बात पहले कही जा चुकी है।

मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं। योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुंचते हैं। जीव सत्ता-प्राण शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है। प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक में—ब्रह्म रन्ध्र में माना गया है यह द्युलोक-देवलोक स्वर्ग लोक है। आत्मज्ञान का ब्रह्म ज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है। कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मा जी—कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है—उसी नाभिक (न्यूक्लियस) को सहस्रार कहते हैं। आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं संपन्न होती है। पतन के—स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता जब ऊर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक सूर्यलोक तक पहुंचना होता है। योगाभ्यास का परम् पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है। कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस राज मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं। उसका एक सिरा मस्तिष्क का—दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है। कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियां प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं। इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं। साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं। झाड़ी झाड़न से कमरे की सफाई होती है। इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए हैं। इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है।

इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद कर गड्ढा करते हैं, इसके बाद वे ही दीवार चुनने के काम में लग जाते हैं। इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं। जो आवश्यक है उसे विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं। यों आरम्भ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है। माली भूमि खोदने, खर पतवार उखाड़ने, पौधे की काट छांट करने का काम करते समय ध्वंस में संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोग होता है। इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषुम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है।

मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं। इसे धरती से स्वर्ग पहुंचने का देवयान मार्ग कहा गया है। इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं। इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है। ईसाई धर्म में भी इससे मिलती जुलती मान्यता है। हिन्दू धर्म के भूः भुवः स्वः जनः तपः महः सत्यमः यह सात लोक प्रसिद्ध है। आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है। लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता। बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं। रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती—कोयला, पानी लेती चलती है। इन विराम स्थलों को ‘चक्र’ कहा गया है। चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में। महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है। अभिमन्यु उसमें फंस गया था। वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था। चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं। इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फंसा होना कह सकते हैं। भौतिक आकर्षणों की, भ्रान्तियों की, विकृतियों की चहार दीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है। इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है। रामचन्द्रजी ने वाली को मार सकने की अपनी क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था। उनने सात ताड़ वृक्षों को एक वाण से बेध कर दिखाया था। इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है। भागवत माहात्म्य में धुन्धकाली प्रेत का वांस की सात गांठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है। इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है।

चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएं भरी पड़ी हैं। उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले। कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है। कुसंस्कारी सन्तानें उत्तराधिकार में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनाती और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं। छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेवर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है। धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है। मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं। यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों का वैभव मिल सके। मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है।

चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है। जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है। सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है, इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रन्थ के टीकाकार ने ‘आत्म विवेक’ नामक किसी साधना ग्रन्थ का उद्धरण प्रस्तुत किया है। कहा गया है कि—

गुदलिङ्गान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दंलम् । परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः ।। याोगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम् । स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र क्रमस्य तु ।। पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात् । प्रश्रयः क्रूरता गर्वो नाशो मूर्च्छा ततः परम् ।। अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुवम् । नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम् ।। सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीर्ष्या पिशुनता तथा । लज्जा भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता ।। हृदयेऽनाहतं चक्रं दलैर्द्वादशभिंर्युतम् । लौल्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनूतापिता ।। आशा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः । क्रमेण दम्भो वैकल्यं विवेकोऽहंक्वतिस्तथा ।। फलान्येतानि पूर्वादिदलस्थस्यात्मनो जगुः । कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोड़शच्छदम् ।। तत्र प्रणव उद्गीथो हुं फट् वषट् स्वधा तथा । स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विषम ।। इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोड़शे ।।

(1) गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला ‘आधार चक्र’ है। वहां वीरता और आनन्द भाव का निवास है। (2) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है। उसकी छह पंखुरियां हैं। इसके जागृत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गुणों का नाश होता है। (3) नाभि में दश दल वाला मणिपुर चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये पड़े रहते हैं। (4) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है। यह बारह पंखुरियों वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा। जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे। (5) कण्ठ में विशुद्धाख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह पंखुरियों वाला है। यहां सोलह कलाएं सोलह विभूतियां विद्यमान हैं। (6) भ्रूमध्य में आज्ञा चक्र है, यहां ‘ॐ’ उद्गीय, हूं, फट, विषद्, स्वधा स्वाहा, अमृत, सप्त स्वर, आदि का निवास है। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं।

श्री हडसन ने अपनी पुस्तक ‘साइन्स आव सीयर शिप’ में अपना मत व्यक्त किया है। प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की उपस्थिति का परिचय तन्तु गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता है। अंतःदर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थित दिव्य शक्तियों का केन्द्र संस्थान बताता है। कुण्डलिनी के बारे में उनके पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि—वह एक व्यापक चेतना शक्ति है। मनुष्य के मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क तन्तु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है। कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है। उसके फलस्वरूप—पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है। यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है।

चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण कर्म स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है। मणिपुर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है। अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं। हृदय स्थान पर गुलाब के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचिन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें—रसानुभूति एवं कोमल सम्वेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा सहकारिता के तत्व इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं। कंठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अन्तरंग पवित्रता के तत्व रहते हैं। दोष दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। शरीर शास्त्र में थाइराइड ग्रन्थि और उससे स्रवित होने वाले हारमोनों के सन्तुलन-असन्तुलन से उत्पन्न लाभ-हानि की चर्चा की जाती है। अध्यात्म शास्त्र द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान तो यहीं है, पर वह होता सूक्ष्म शरीर में है। उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान हैं। लघु मस्तिष्क शिर के पिछले भाग में है। अचेतन की विशिष्ट क्षमताएं उसी स्थान पर मानी जाती हैं। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्धचक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियन्त्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियां विकसित होने लगती हैं।

सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थियों से सम्बन्ध रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है। वहां से जैवीय विद्युत का स्वयं भू प्रवाह उभरता है। वे धारायें मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियां तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों। इसलिये हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्र’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है। सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है। यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है इसलिये उसे ब्रह्म रन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। रेडियो एरियल की तरह हिंदू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखाते और उसे शिर रूपी दुर्ग पर आत्म सिद्धान्तों को स्वीकृति किये जाने की विजय पताका बताते हैं। आज्ञा चक्र को सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कह सकते हैं।

सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं तो भी वे समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं। स्वचालित और ऐच्छिक दोनों ही संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है। अस्तु शरीर संस्थान के अवयवों को चक्रों द्वारा निर्देश पहुंचाये जा सकते हैं। साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता है और उस पर सचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है। रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचार रुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती। अचेतन बड़ा दुराग्राही है। सचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं। उसकी मन मर्जी ही चलती है। ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है। शरीर की अनैच्छिक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है। इसी प्रकार अपनी आदत, प्रकृति, रुचि, दिशा को बदलने के मनसूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं। ढर्रा अपने क्रम से चलता रहता है। ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनःसंस्थान में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल बनी रहती है। चक्र संस्थान को यदि जागृत तथा नियन्त्रित किया जा सके तो आत्म जगत पर अपना अधिकार हो जाता है। यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भुत सफलता है। इसका महत्व तत्वदर्शियों ने विश्व विजय से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया है। विश्व विजय कर लेने पर दूरवर्ती क्षेत्रों से समुचित लाभ उठाना सम्भव नहीं हो सकता, उसकी सम्पदा का उपभोग, उपयोग कर सकने की अपने में सामर्थ्य भी कहां है? किन्तु आत्म विजय के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसका पूरा-पूरा लाभ स्वयं ही उठाया जा सकता है। उस आधार पर बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों की सम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप को मिल सकता है।

मेरुदण्ड को शरीर शास्त्री स्पाइनल कालम कहते हैं। स्पायनल एक्सिस एवं वर्टीब्रल कॉलम—शब्द भी उसी के लिए प्रयुक्त होते हैं। मोटे-तौर पर यह 33 अस्थि घटकों से मिलकर बनी हुई एक पोली दण्डी भर है। इन हड्डियों को पृष्ठ वंश—कशेरुका या ‘वर्टिब्री’ कहते हैं। स्थिति के अनुरूप इनका पांच भागों में विभाजन किया जा सकता है। (1) ग्रीवा प्रदेश—सर्वाइकल रीजन—7 अस्थि खण्ड, (2) वक्ष प्रदेश—डार्सल रीजन—12 अस्थि खण्ड, (3) कटि प्रदेश—लम्बर रीजन—5 अस्थि खण्ड, (4) त्रिक या वस्तिगह्वर—सेक्रल रीजन—5 अस्थि खण्ड, (5) चेचु प्रदेश—काक्सीजियल रीजन—4 अस्थि खण्ड।

मेरु दण्ड पोला है। उससे अस्थि खंडों के बीच में होता हुआ यह छिद्र नीचे से ऊपर तक चला गया है। इसी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी विद्यमान है। मेरुदण्ड के उपर्युक्त पांच प्रदेश सुषुम्ना में अवस्थित पांच चक्रों से सम्बन्धित हैं। (1) मूलाधार चक्र—चेचु प्रदेश (2) स्वाधिष्ठान—त्रिक प्रदेश (3) मणिपूर—कटि प्रदेश (4) अनाहत—वक्ष प्रदेश (5) विशुद्धि—ग्रीवा प्रदेश छटे आज्ञाचक्र का स्थान मेरु दण्ड में नहीं आता। सहस्रार का सम्बन्ध भी रीढ़ की हड्डी में सीधा नहीं है। इतने पर भी सूक्ष्म शरीर का सुषुम्ना मेरु दण्ड पांच रीढ़ वाले और दो बिना रीढ़ वाले सभी सातों चक्रों को एक ही शृंखला में बांधे हुए हैं। सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना में यह सातों चक्र जंजीर की कड़ियों की तरह परस्पर पूरी तरह सम्बद्ध हैं।

यहां यह तथ्य भली-भांति स्मरण रखा जाना चाहिए कि शरीर विज्ञान के अन्तर्गत वर्णित प्लेक्सस, नाड़ी गुच्छक और चक्र एक नहीं हैं। यद्यपि उनके साथ पारस्परिक तारतम्य जोड़ा जा सकता है। यों इन गुच्छकों की भी शरीर में विशेष स्थिति है और उनकी कायिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रिया होती रहती है।

शरीर शास्त्र के अनुसार प्रमुख नाड़ी गुच्छकों (प्लेक्सेज) में 13 प्रधान हैं। उनके नाम हैं। (1) हिपेटिक (2) सर्वाइकल (3) ब्रांकियल (4) काक्सीजियल (5) लम्बर (6) सेक्रल (7) कार्डियक (8) इपिगेस्ट्रिक (9) इसोफैजियल (10) फेरेन्जियल (11) पलमोनरी (12) लिंगुअल (13) प्रोस्टेटिक।

इन गुच्छकों में शरीर यात्रा में उपयोगी भूमिका सम्पन्न करते रहने के अतिरिक्त कुछ विलक्षण विशेषतायें भी पाई जाती हैं उनसे यह प्रतीत होता है कि उनके साथ कुछ रहस्यमय तथ्य भी जुड़े हुए हैं। यह सूक्ष्म शरीर के दिव्य चक्रों के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाला प्रभाव ही कहा जा सकता है।

‘चक्र’ शक्ति संचरण के एक व्यवस्थित, सुनिश्चित क्रम को कहते हैं। वैज्ञानिक क्षेत्र में विद्युत, ध्वनि, प्रकाश सभी रूपों में शक्ति के संचार क्रम की व्याख्या चक्रों (साइकिल्स) के माध्यम से ही की जाती है। इन सभी रूपों में शक्ति का संचार, तरंगों के माध्यम से होता है। एक पूरी तरंग बनने के क्रम को एक चक्र (साइकिल) कहते हैं। एक के बाद एक तरंग, एक के बाद एक चक्र (साइकिल) बनने का क्रम चलता रहता है और शक्ति का संचरण होता रहता है। शक्ति की प्रकृति (नेचर) का निर्धारण इन्हीं चक्रों के क्रम के आधार पर किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में प्रयुक्त विद्युत के लिये अन्तर्राष्ट्रीय नियम है कि वह 50 साइकिल्स प्रति सैकिंड के चक्र क्रम की होनी चाहिये। विद्युत की मोटरों एवं अन्य यन्त्रों को उसी प्रकृति की बिजली के अनुरूप बनाया जाता है। इसीलिए उन पर हार्सपावर, वोल्टेज आदि के साथ 50 साइकिल्स भी लिखा रहता है। अस्तु शक्ति संचरण के साथ ‘चक्र’ प्रक्रिया जुड़ी ही रहती है वह चाहे स्थूल विद्युत शक्ति हो अथवा सूक्ष्म जैवीय विद्युत शक्ति।

नदी प्रवाह में कभी-कभी कहीं भंवर पड़ जाते हैं। उनकी शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फंसकर नौकाएं अपना सन्तुलन खो बैठती हैं और एक ही झटके में उलटती डूबती दृष्टिगोचर होती हैं। सामान्य नदी प्रवाह की तुलना में इन भंवरों की प्रचण्डता सैकड़ों गुनी अधिक होती है। शरीरगत विद्युत प्रवाह को एक बहती हुई नदी के सदृश माना जा सकता है और उसमें जहां तहां पाये जाने वाले चक्रों की ‘भंवरों’ से तुलना की जा सकती है।

गर्मी की ऋतु में जब वायुमण्डल गरम हो जाता है तो जहां-तहां छोटे बड़े ‘चक्रवात’—साइक्लोन उठने लगते हैं वे नदी के भंवरों की तरह ही गरम हवा के कारण आकाश में उड़ते हैं। उनकी शक्ति देखते ही बनती है। पेड़ों को, छत्तों को छप्परों को उखाड़ते उछालते वे बवंडर की तरह जिधर तिधर भूत-बेताल की तरह नाचते-फिरते हैं। साधारण पवन प्रवाह की तुलना में इन टारनेडों (चक्रवातों) की शक्ति भी सैकड़ों गुनी अधिक होती है।

शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह यों सन्तुलित ही रहता है पर कहीं-कहीं उसमें उग्रता एवं वक्रता भी देखी जाती है हवा कभी-कभी बांस आदि के झुरमुटों से टकरा कर कई तरह की विचित्र आवाजें उत्पन्न करती है। रेलगाड़ी, मोटर और द्रुतगामी वाहनों के पीछे दौड़ने वाली हवा को भी अन्धड़ की चाल चलते देखा जा सकता है। नदी का जल कई जगह ऊपर से नीचे गिरता है—चट्टानों से टकराता है तो वहां प्रवाह में व्यतिक्रम उछाल, गर्जन-तर्जन की भयंकरता दृष्टिगोचर होती है। शरीरगत सूक्ष्म चक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है। यों नाड़ी गुच्छकों—प्लेक्सस में भी विद्युत संचार और रक्त प्रवाह के गति क्रम में कुछ विशेषता पाई जाती हैं। किन्तु सूक्ष्म शरीर में तो वह व्यतिक्रम कहीं अधिक उग्र दिखाई पड़ता है। पवन प्रवाह पर नियन्त्रण करने के लिए नावों पर पतवार बांधे जाते हैं उनके सहारे नाव की दिशा और गति में अभीष्ट हेरफेर कर लिया जाता है। पन चक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने, जल कल चलाने आदि काम लिये जाते हैं। जल प्रपात जहां ऊपर से नीचे गिरता है वहां उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। समुद्री ज्वार भाटों से भी बिजली बनने का काम लिया जा रहा है। ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहां चक्र बनते हैं वहां उत्पन्न उग्रता को कितने ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम लाया जाता है।

चक्र कितने हैं? इनकी संख्या निर्धारण करने में मनीषियों का मतभेद स्पष्ट है। विलय तन्त्र में इड़ा और पिंगला की विद्युत गति से उत्पन्न उलझन गुच्छकों को चक्रों की संज्ञा दी गई है—और उनकी संख्या पांच बताई गई है। मेरुदण्ड में वे पांच की ही संख्या में हैं। मस्तिष्क के अग्र भाग में अवस्थित आज्ञा चक्र को भी उनमें सम्मिलित कर लेने पर वे छह हो जाते हैं और हठयोग की गणना के अनुसार छह की संख्या पूरी हो जाती है।

सातवां सहस्रार है। इसे चक्रों की बिरादरी में जोड़ने न जोड़ने पर विवाद है। सहस्रार—नाभिक है। उसे इसी बिरादरी में सम्मिलित रखने न रखने के दोनों ही पक्षों के साथ तर्क हैं। इसलिए जहां छह की गणना है वहां सात का भी उल्लेख बहुत स्थानों पर हुआ है।

बात इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती। चक्रों की संख्या सूक्ष्म शरीर में बहुत बड़ी है। इन्हें 108 तक गिना गया है। छोटे होने के कारण उन्हें उपत्यिका कहा गया है और जपने की माला में उतने ही दाने रखे जाने की परम्परा चली है। इनमें से कितने ही लघु चक्र ऐसे हैं जिन्हें जागृत करने वालों ने प्रख्यात चक्रों से भी अधिक शक्तिशाली पाया है। चन्द्रमा की गणना ग्रहों में नहीं उपग्रहों में होती है फिर भी अपनी पृथ्वी के लिए पूर्ण समझे जाने वाले ग्रहों में कम नहीं अधिक ही उपयोगिता है।

तन्त्र ग्रन्थों में ऐसे चक्रों का वर्णन है जिनके नाम और स्थान षटचक्रों से भिन्न हैं। जहां उनकी संख्या पांच बताई गई है वहां पांच कोशों का नहीं वरन् भिन्न आकृति प्रकृति के अतिरिक्त चक्रों का वर्णन है। (1) त्रिकूट (2) श्रीहाट (3) गोल्लाट (4) औट पीठ (5) भ्रमर गुफा इनके नाम हैं। इनकी व्याख्या पांच प्राण एवं पांच तत्वों की विशिष्ठ शक्तियों के रूप की गई है। इनके स्थान एवं स्वरूप हठयोग में वर्णित षटचक्रों से भिन्न हैं।

इसी तरह कहीं-कहीं तन्त्र ग्रन्थों में उनकी संख्या छह से अधिक कही गई है—

नवचक्रं कलाधारं त्रिलक्ष्यं व्योम पंचकम् । सम्यगेतन्न जानति स योगी नाम धारकः । —सिद्ध सिद्धान्त पद्धति ।

नवचक्र, त्रिलक्षं, सोलह आधार, पांच आकाश, वाले सूक्ष्म शरीर को जो जानता है उसी को योग में सिद्धि मिलती है। अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या । तस्यां हिरण्मयः कोशःस्वर्गो ज्योतिषावृतः ।। —अथर्ववेद

आठ चक्र, नवद्वार वाली यह अवोह या नगरी, स्वर्ण कोश और स्वर्गीय ज्योति से आवृत है। शक्ति सम्मोहन तन्त्र में उनकी संख्या 9 मानी गई है। कुण्डलिनी को ‘नव चक्रात्मिका देवी’ कहा गया है। नौ चक्र इस प्रकार गिनाये गये हैं (1) आनन्द चक्र (2) सिद्धि चक्र (3) आरोग्य चक्र (4) रक्षा चक्र (5) सर्वार्थ चक्र (6) सौभाग्य चक्र (7) संशोक्षण चक्र (8) शाप चक्र (9) मोहन चक्र। यह नामकरण उनकी विशेषताओं के आधार पर किया गया है। यह कहां है, इसकी चर्चा में मात्र तीन को षटचक्रों की तरह बताया गया है और शेष अन्यान्य स्थानों पर अवस्थित बताये गये हैं।

नौ के वर्णन में भी नाम और स्थानों की भिन्नता मिलती है। एक स्थान पर उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं। (1) ब्रह्म चक्र (2) स्वाधिष्ठान चक्र (3) नाभि चक्र (4) हृदय चक्र (5) कण्ठ चक्र (6) तालु चक्र (7) भूचक्र (8) निर्वाण चक्र (9) आकाश चक्र बताये गये हैं। यह उल्लेख सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में विस्तार पूर्वक मिलता है। संख्या जो भी मानी जाये उन सब का एक समन्वय शक्ति पुंज लोगोज (Logos) भी है जिसकी स्थूल सूर्य के समान ही किन्तु अपने अलग ढंग की रश्मियां निकलती हैं। सूर्य किरणों में सात रंग अथवा ऐसी विशेषतायें होती हैं जिनका स्वरूप, विस्तार और कार्यक्षेत्र सीमित है। पर इस आत्म तत्व के सूर्य का प्रभाव और विस्तार बहुत व्यापक है। वह प्रकृति के प्रत्येक अणु को नियन्त्रित एवं गतिशील रखता है साथ ही चेतन संसार की विधि व्यवस्था को संभालता संजोता है। इसे पाश्चात्य तत्व वेत्ता सन्स आफ फोतह (Sons of fotah) कहते हैं और प्रतिपादित करते हैं कि विश्वव्यापी शक्तियों का मानवीकरण इसी केन्द्र संस्थान द्वारा हो सका है।

सामान्य शक्तिधाराओं में प्रधान गिनी जाने वाली (1) गति (2) शब्द (3) ऊष्मा (4) प्रकाश (5) संयोग (Cohesion) (6) विद्युत (7) चुम्बक यह सात हैं। इन्हें सात चक्रों का प्रतीक ही मानना चाहिए।

कुण्डलिनी शक्ति को कई विज्ञान वेत्ता विद्युत द्रव पदार्थ (Electric Fluid) या नाड़ी शक्ति कहते हैं।

इस निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त परमात्मा की छह चेतन शक्तियों का अनुभव हमें होता है। यों शक्ति पुंज पर ब्रह्म की अगणित शक्ति धाराओं का पता पा सकना, मनुष्य की सीमित बुद्धि के लिए असम्भव है। फिर भी हमारे दैनिक जीवन में जिनका प्रत्यक्ष सम्पर्क संयोग रहता है उनमें प्रमुख यह हैं—(1) परा शक्ति (2) ज्ञान शक्ति (3) इच्छा शक्ति (4) क्रिया शक्ति (5) कुण्डलिनी शक्ति (6) मातृका शक्ति (7) गुह्य। इन सबकी सम्मिलित शक्ति पुंज ईश्वरीय प्रकाश अथवा सूक्ष्म प्रकाश (Astral Light) कह सकते हैं। यह सातवीं शक्ति है। कोई चाहे तो इस शक्ति पुंज को उपरोक्त छह शक्तियों का उद्गम भी कह सकता है। इन सबकी हम चैतन्य सत्ताएं कह सकते हैं। उसे पवित्र अग्नि (Sacred Fire) के रूप में भी कई जगह वर्णित किया गया है और कहा गया है उसमें से आग ऊष्मा तो नहीं पर प्रकाश किरणें निकलती हैं और वे शरीर में विद्यमान ग्रन्थियों ग्लैण्ड्स, केन्द्रों (Centres) और गुच्छकों को असाधारण रूप से प्रभावित करती हैं। इससे मात्र शरीर या मस्तिष्क को ही बल नहीं मिलता वरन् समग्र व्यक्तित्व की महान सम्भावना को और अग्रसर करती है।

इन सात चक्रों में अवस्थित सात उपरोक्त शक्तियों का उल्लेख साधना ग्रन्थों में अलंकारिक रूप में हुआ है। उन्हें सात लोक, सात समुद्र, सात द्वीप, सात पर्वत, साम ऋषि आदि नामों से चित्रित किया गया है। इस चित्रण में यह संकेत है कि इन चक्रों में किन-किन स्तर के विराट् शक्ति स्रोतों के साथ सम्बन्ध है। बीज रूप से कौन महान सामर्थ्य इन चक्रों में विद्यमान है। और जागृत होने पर उन चक्र संस्थानों के माध्यम से मनुष्य का व्यक्तित्व छोटे से कितना विराट और विशाल हो सकता है टोकरी भर बीज से लम्बा-चौड़ा खेत हरा-भरा हो सकता है। अपने बीज भंडार में सात टोकरी भरा—सात किस्म का अनाज सुरक्षित रखा है। चक्र एक प्रकार के शीत गोदाम—कोल्ड स्टोर हैं। और इन पर ताला जड़ा हुआ है। इन सात तालों की एक ही ताली है उसका नाम है ‘कुण्डलिनी’ जब उसके जागरण की साधना की जाती है तो यह ताले खुलते हैं। बीज बाहर लाया जाता है। शरीर रूपी साढ़े तीन एकड़ के खेत में वह बोया जाता है। यह छोटा खेत अपनी सुसम्पन्नता को अत्यधिक व्यापक बना देता है। पुराण कथा के अनुसार राजा बलि का राज्य तीनों लोकों में था। भगवान ने वामन रूप में उससे साढ़े तीन कदम भूमि की भिक्षा मांगी। बलि तैयार हो गया। तीन कदम में तीन लोक और आधे कदम में बलि का शरीर नाप कर विराट् ब्रह्म ने उस सबको अपना लिया। हमारा शरीर साढ़े तीन हाथ लम्बा है। चक्रों के जागरण में यदि उसे लघु से महान्—अण्ड से विभु कर लिया जाय तो उसकी साढ़े तीन हाथ की लम्बाई—साढ़े तीन एकड़ जमीन न रहकर लोक-लोकान्तरों तक विस्तृत हो सकती है। और उस उपलब्धि की याचना करने के लिए भगवान् वामन रूप धारण करके हमारे दरवाजे पर हाथ पसारे हुए उपस्थित हो सकते हैं।
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