गायत्री- उपासना का सहज स्वरूप है- व्याहृतियों वाली त्रिपदा गायत्री का
जप। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः- ’ यह शीर्ष भाग है, जिसका तात्पर्य है कि आकाश,
पाताल और धरातल के रूप में जाने जाने वाले तीनों लोकों में उस दिव्यसत्ता
को समाविष्ट अनुभव करना। जिस प्रकार न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक की
उपस्थिति में अपराध करने का कोई साहस नहीं करता, उसी प्रकार सर्वदा,
सर्वव्यापी, न्यायकारी सत्ता की उपस्थित अपनी सब ओर सदा- सर्वदा अनुभव करना
और किसी भी स्तर की अनीति का आचरण न होने देना। ‘ॐ’ अर्थात् परमात्मा। उसे
विराट् विश्वब्रह्माण्ड के रूप में व्यापक भी समझा जा सकता है। यदि उसे
आत्मसत्ता में समाविष्ट भर देखना हो तो स्थूल- शरीर सूक्ष्म- शरीर और कारण-
शरीर में परमात्म सत्ता की उपस्थिति अनुभव करनी पड़ती है और देखना पड़ता
है कि इन तीनों ही क्षेत्रों में कहीं ऐसी मलीनता न जुटने पाए, जिसमें
प्रवेश करते हुए परमात्म सत्ता को संकोच हो, साथ ही इन्हें इतना स्वस्थ,
निर्मल एवं दिव्यताओं से सुसम्पन्न रखा जाए कि जिस प्रकार खिले गुलाब पर
भौंरे अनायास ही आ जाते हैं, उसी प्रकार तीनों शरीरों में परमात्मा की
उपस्थिति दीख पड़े और उनकी सहज सदाशयता की सुगंधि से समीपवर्ती समूचा
वातावरण सुगन्धित हो उठे।
गायत्री मंत्र का अर्थ सरल और
सर्वविदित है- सवितु:- तेजस्वी वरेण्यं- वरण करना, अपनाना। भर्गो- अनौचित्य
को तेजस्विता के आधार पर दूर हटा फेंकना। देवस्य- देवत्व की पक्षधर
विभूतियों को- धीमहि अर्थात् धारण करना। अन्त में ईश्वर से प्रार्थना की गई
है कि इन विशेषताओं से सम्पन्न परमेश्वर हम सबकी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर
प्रेरित करें, सद्बुद्धि का अनुदान प्रदान करे। कहना न होगा कि ऐसी
सद्बुद्धि प्राप्त व्यक्ति, जिसकी सद्भावना जीवन्त हो, वह अपने दृष्टिकोण
में स्वर्ग जैसी भरी- पूरी मनःस्थिति एवं भरी- पूरी परिस्थितियों का
रसास्वादन करता है। वह जहाँ भी रहता है, वहाँ अपनी विशिष्टताओं के बलबूते
स्वर्गीय वातावरण बना लेता है।
स्वर्ग- प्राप्ति के अतिरिक्त
दैवी अनुकम्पा का दूसरा लाभ है- मोक्ष मोक्ष अर्थात् मुक्ति। कषाय- कल्मषों
से मुक्ति, दोष- दुर्गुणों से मुक्ति, भव- बन्धनों से मुक्ति। यही भव-
बन्धन है, जो स्वतंत्र अस्तित्व लेकर जन्मे मनुष्यों को लिप्साओं और
कुत्साओं के रूप में अपने बन्धनों में बाँधता है। यदि आत्मशोधनपूर्वक
इन्हें हटाया जा सके, तो समझना चाहिए कि जीवित रहते हुए भी मोक्ष की
प्राप्ति हो गई। इसके लिए मरणकाल आने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।
गायत्री की पूजा- उपासना और जीवन- साधना यदि सच्चे अर्थों में की गई हो, तो
उसकी दोनों आत्मिक ऋद्धि- सिद्धियाँ स्वर्ग और मुक्ति के रूप में निरन्तर
अनुभव में उभरती रहती हैं और उनके रसास्वादन से हर घड़ी कृत- कृत्य हो चलने
का अनुभव होता है।
गायत्री- उपासना द्वारा अनेकों भौतिक
सिद्धियों एवं उपलब्धियों के मिलने का भी इतिहास पुराणों में वर्णित है।
वशिष्ठ के आश्रम में विद्यमान नंदिनी रूपी गायत्री ने राजा विश्वामित्र की
सहस्रों सैनिकों वाली सेना की कुछ ही पलों में भोजन- व्यवस्था बनाकर, उन
सबको चकित कर दिया था। गौतम मुनि को माता गायत्री ने उस सबको चकित कर दिया
था। गौतम मुनि को माता गायत्री ने अक्षय पात्र प्रदान किया था, जिसके
माध्यम से उन दिनों की दुर्भिक्ष- पीड़ित जनता को आहार प्राप्त हुआ था।
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न कराने वाले शृंगी ऋषि को गायत्री का
अनुग्रह ही प्राप्त था, जिसके सहारे चार देवपुत्र उन्हें प्राप्त हुए। ऐसी
ही अनेकों कथा- गाथाओं से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है, जिनमें गायत्री-
साधना के प्रतिफलों की चमत्कार भरी झलक मिलती है।