विभिन्न प्रयोजनों के लिये विभिन्न यज्ञ

August 1955

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विभिन्न प्रयोजनों के लिये विभिन्न यज्ञ विभिन्न प्रकार के हवि पदार्थों के विभिन्न विधानों और विभिन्न प्रक्रियाओं के साथ हवन करने से उनके परिणाम अलग अलग प्रकार के होते हैं। जिस प्रकार विभिन्न रोगों की अलग अलग औषधियाँ, परिचर्या एवं उपचार विधियाँ अलग अलग होती हैं, उसी प्रकार अनेक प्रयोजनों के लिये यज्ञों के विनियोग भी भिन्न भिन्न हैं। प्राचीन काल में याज्ञिक लोग उन सब विधानों की विस्तृत प्रक्रियाओं को भली प्रकार जानते थे और उनसे समुचित लाभ प्राप्त करते थे। खेद है कि आज वह वैदिक और ताँत्रिक यज्ञ विद्या लुप्त प्रायः हो रही है। यज्ञों के रहस्यमय विधानों के ज्ञाता अब दिखाई नहीं पड़ते। केवल उन विधानों के संकेत मात्र ही यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं जिनका निर्देश नीचे किया जा रहा है। भारतीय प्राचीन विज्ञान में रुचि रखने वालों का कर्त्तव्य है कि इन रहस्यमय विधानों की शोध के लिये शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक रीति से अनुसंधान करें और पूर्वजों के उस रत्न भंडार को जन समाज के कल्याणार्थ साँगोपाँग विधि व्यवस्था के साथ उपस्थित करें। नीचे कुछ विधियों के अन्त व्यस्त संकेत उपस्थित कर रहे हैं।

श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर से अनिष्ट ग्रहों की शाँति के लिए हवन का वर्णन किया है।

होमं तिलघृतैः कुर्याद्ग्रह नाम्ना तु मन्त्रवित्।

अकैः पलाश खदिरौह्यपामार्गोथ पिप्पलः॥

उदुम्बर शमी दूर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात्।

एकैकस्यत्वष्ट शतमष्टाविंशतिरेव वा ॥

होतव्या मधु सर्पिभ्याँ दघ्ना वा पायनेन वा।

सप्तमे त्वथ संप्राप्ते नक्तं सूर्य सुतस्यतु॥

अनेन कृत मात्रेण सर्वे शाम्यत्युपद्रवाः।

भवि. पु. उ. प. 4 अ 114 श्लोक 32, 33, 34, 40॥

अर्थः− अर्क, पलाश, खादिर, अपामार्ग, पीपर, उदुम्बर, शमी (छोंकर), दूब, कुशा, इन कुशाओं को क्रम से, मन्त्र को जानने वाला तिल, घी के द्वारा ग्रहों के नाम से हवन करे। एक एक ग्रह को एक सौ आठ बार अथवा अट्ठाईस बार शहद, घी, दही अथवा खीर से हवन करे। इस प्रकार सातवें दिन रात्रि को सूर्य पुत्र शनिश्चर का हवन करे। इस प्रकार करने मात्र से सब उपद्रव शाँत हो जाते हैं।

जब ऋषियों ने सूत जी से पूछा, कि हमें अघोर रूप शिवजी की पूजा, प्रतिष्ठा बताइये। तब सूत जी बोले कि अघोर रूप शिव की पूजा, विधि विधान से करनी चाहिए। बिना विधान के नहीं।

तथाग्नि पूजां वै कुर्याद्यथा पूजा तथैव च।

सहस्रं वा तदर्ध वा शतमष्टोत्तरं तुवा।।

तिलैर्होमः प्रकर्तव्यो दधिमध्वाज्य संयुतैः।

घृतसक्तुमधूनां च सर्व दुःख प्रमार्जनम्॥

व्याधीनाँ नाशनं चैव तिल होमस्तु भृतिदः।

सहस्रेण महा भूतिः शतेन व्याधि नाशनम्॥

लिंग पु. अ. 49 श्लोक 3, 4, 5

अर्थः− जिस प्रकार अघोर रूप शिवजी की पूजा कही है, उसी प्रकार अग्नि की पूजा करनी चाहिये। जैसी पूजा होगी, वैसा ही फल होगा। एक हजार अथवा उससे आधा पाँव सौ अथवा एक सौ आठ बार घी, शहद, दही से मिश्रित तिलों का हवन करना चाहिये।

घृतसक्तुमधु से किया हुआ हवन सब दुःखों को दूर करता है और व्याधियों को नाश करता है तिलों का हवन वैभव को देता है। एक हजार आहुति देने से अत्यन्त धन वैभव बढ़ता है। सौ आहुति से व्याधि का नाश होता है।

सहस्रेण ज्वरो याति क्षीरेण जुहोतियम्।

त्रिकलं मासमेकं तु सहस्रं जुहुयात्पयः॥

मासेन सिद्धयते तस्य महा सौभाग्यमुत्तमम्।

सिद्धते चाब्द होमेन क्षौद्राज्यदधि संयुतम्॥

यवक्षीराज्य होमेन जाति तण्डुलकेन वा।

प्रीयते भगवानीशो ह्यघोरः परमेश्वरः॥

दघ्ना प्रष्टिर्नृपाणां च क्षीर होमेन शान्तिकम्,

षण्मासन्तु घृतं हुत्वा सर्व व्याधि विनाशनम्॥

राजयक्ष्मा तिलैर्होमान्नश्यते वत्सरेण तु।

यव होमेन चायुष्यं घृतेन च जयस्तदा॥

सर्व कुष्ठ क्षयार्थ च मधुनाक्तैश्च तण्डुलैः

जुहुयादयुतं नित्यं षणमासान्नियतः सदा ॥

लिं. पु. अ. 49 श्लोक 8—13

अर्थ− एक हजार खीर की आहुतियों से ज्वर नष्ट हो जाता है। एक महीने तक तीनों कालों में खीर की सहस्र आहुतियों से हवन करना चाहिए एक महीने में सिद्धि हो जाती है और उत्तम सौभाग्य की वृद्धि होती है।

क्षौद्र, घी, दही का हवन एक वर्ष करने से सिद्धि प्राप्त होती है।

यज्ञ, खीर, घी अथवा चावलों के हवन से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं।

दही का हवन करने से राजाओं की पुष्टि होती है।

खीर का हवन शान्ति का देने वाला होता है। छह महीने तक घी का हवन करने से सब प्रकार की व्याधियों का नाश हो जाता है।

तिलों का एक वर्ष हवन करने से राजयक्ष्मा का नाश हो जाता है। जौ के हवन करने से आयु की वृद्धि होती है और घी के हवन करने से जय की प्राप्ति होती है।

सब प्रकार के कुष्ठों को दूर करने के लिए शहद से मिश्रित चावलों का हवन करना चाहिए। नियमपूर्वक छह महीने तक दस हजार नित्य प्रति हवन करें।

चरुणास घृतेनैव केवलं पयसापिवा। जुहुयात् कालमृत्योर्वा प्रतीकारः प्रकीर्तितः॥

लिं. पु. अ. 53 श्ले. 4

अर्थ—घी से युक्त चरु से अथवा केवल दूध से मृत्युञ्जय मन्त्र द्वारा हवन करने से काल तथा मृत्यु का प्रतीकार हो जाता है।

तावद्धोमं तिलैः कुर्यादच्युतार्च्चनपूर्वकम्।

दीनानाथजनेभ्यस्तु यजमानः प्रयत्नतः॥ 20॥

तावच्च भोजनं दद्याद्यावद्धोमं समाचरेत्।

समाप्ते दक्षिणाँ दद्यात् ऋत्विग्भ्यःश्रद्धयान्वितः॥ 21॥

यथार्हता न लोभेन ततःशान्त्युदकेन च।

प्रोक्षयेद्गाममध्ये तु व्याधिताँन्तुविशेषतः॥ 22॥

एवं कृते तु होमस्य पुरस्य नगरस्य च।

राष्ट्रस्य च महाभाग राजो जनपदस्य च । 23॥

सर्ववाधा प्रशमनी शान्तिभवति सर्वदा।

मार्कण्डेय उवाच−

इत्येतच्छौनक प्रोक्तं कथितं नृपनन्दन।

लक्षहोमादिकविधिं राष्ट्रे कार्य सुशान्तिदम्॥24॥

ग्रामे गृहे व पुरबाह्यदेशे द्विजैरयं यत्नकृतः

पुरोविधिः

तत्रापि शान्तिभविता नराणाँ गवाँ चभृत्यैःसह

भूपतेश्च ॥25॥

नृसिंह पुराण अ. 25

अर्थ−जब तक लक्ष संख्यात्मक या कोटि संख्यात्मक हवन न हो, उस काल तक भगवान का पूजन करके तिल के द्वारा हवन करना चाहिए। यजमान दीन तथा अनाथ मनुष्यों को भोजन करावे तथा यज्ञान्त में ऋत्विजों को पुष्कल दक्षिणा देवे और कलशोदक से शांति मन्त्रों का पाठ करते हुए ग्राम के मध्य में प्रोक्षण करना चाहिए तथा व्याधि युक्त व दुखी मनुष्यों को विशेष प्रोक्षित करे। इस प्रकार होम करने पर पुर का, नगर का तथा राष्ट्र, राजा और उस देश का कल्याण होता है एवं सर्व बाधा को शान्त करने वाली शाश्वत शान्ति प्राप्त होती है।

हे राजन्—शौनक ऋषि ने लक्ष होम तथा कोटि होम का यह विधान राष्ट्र की शान्ति के लिये बताया है। ग्राम में, घर पर तथा नगर के बाहर इस प्रकार विधिपूर्वक किया हुआ यज्ञ, मनुष्यों, पशुओं, भृत्यों तथा नृपों को शान्ति कारक होता है।

ऋषिगणों के ब्रह्म, दैव एवं अग्नि होत्र के सम्बन्ध में पूछने पर सूत जी कहते हैं−

सोमवारे च लक्ष्म्यादीन्सम्पदथ यज्ञेद्बुधः।

आज्यान्नेन तथा विप्राँ सपत्नी काँश्च भोजयेत्॥ 29॥

काल्यादीन्भौमवारेतु यजेत् रोग प्रशान्तये।

माष मुद्गाढ़कान्नेन ब्राह्मणाँश्चैव भोजयेत्॥ 30॥

सौम्यवारे तथा विष्णुँ दध्येन्नेन यजेद्बुधः।

पुत्र मित्र कलत्रादि पुष्टिर्भवति सर्वदा॥ 31॥

आयुष्यकामो गुरुवारो देवानाँ पुष्टि सिद्धये।

उपवीतेन वस्त्रेण क्षीराज्येन यजेद् बुधः॥ 32॥

भोगार्थं भृगुवारेतु यजेद्देवान्समाहितः।

षड्रसोपेत्तमन्न च दवात् ब्राह्मण तृपृये॥ 33॥

स्त्रीणाँ च तृपृये तद्वद्देयं वस्त्रादिकं शुभम्।

अपमृत्यु हरे मन्दे रुद्रादींश्च यजेद् बुधः॥34॥

तिल होमेनदानेन तिलान्नेन च भोजयेत्। इत्थंयजच्व विवुधानारोग्यादि फलं लभेत्।।35।।

अर्थ−जो लक्ष्मी और सम्पत्ति की कामना करते हैं उन्हें सोमवार के दिन घृतान्न का हवन करके, विप्र पत्नी को खिलाना चाहिए ॥ 29॥ भोग की शान्ति के लिए तथा कालादि दोष निग्रह के लिए चार सेर माष (उड़द) एवं मूँग से हवन करना चाहिए तथा ब्राह्मण को खिलाना चाहिये ॥ 30॥ सोम, बुध, गुरु एवं शुक्र को दधि अन्न से विष्णु भगवान को आहुति देने से पुत्र, मित्र, स्त्री आदि की परिपुष्टि होती है।31॥ आयुवृद्धि की कामना वाले इसकी पुष्टि और सिद्धि के लिए गुरुवार को उपवीत, वस्त्र एवं दूध तथा घृत के द्वारा देवों को आहुति प्रदान करते हैं ॥ 32॥ भाग को प्रवृद्धि के लिये शुक्रवार को शान्त चित्त से देवों के लिये आहुति देनी चाहिये तथा ब्राह्मणों को षट्रस पूरित भोजन करा के तृप्त करना चाहिये ॥ 33॥ अपमृत्यु से बचने के लिये स्त्रियों को वस्त्रादि से प्रसन्न करके रुद्रयज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये ॥ 34॥

आयुषे साज्य हविषा केवले नाथ सर्विषा। इर्वात्रिकै स्तिलैमन्त्री जुहुयात् सहस्रकम्॥

अर्थ—दीर्घ जीवन की इच्छा करने वाला मनुष्य घृत अथवा घी युक्त खीर, इर्वा एवं तिलों से तीन हजार आहुतियाँ दे।

शत शतं च सप्ताह्यपमृत्युँ व्यपोहति। प्रग्गोध समिधो हत्वा पायसं होमयेत्ततः॥

अर्थ−वट वृक्ष की समिधाओं से प्रतिदिन सौ आहुतियाँ देने से मृत्यु का भय टल जाता है।

रक्तानाँ तण्डुलानाँ च घृताक्तानाँ हुताशने। हुत्वा बलमवाप्नोति शत्रुभि नासि जीयते॥

अर्थ—लाल चावलों को घी में मिलाकर अग्नि में हवन करने से बल की प्राप्ति होती है और शत्रुओं का क्षय होता है।

हुत्वा करवीराणि रक्तानि ज्वाला में ज्वरम्॥

अर्थ—लाल कनेर के फूलों से हवन करने पर ज्वर चला जाता है।

आमृस्य जुहुयात्पत्रैः पयोक्तैः ज्वर शान्तये॥

अर्थ−ज्वर को शान्त करने के लिये दूध में भिगोकर आम के पत्तों का हवन करे।

वचभिः पयसिक्ताभिः क्षयं हुत्वा विनाशयेत्। मधु त्रितय होमेन राजयक्ष्मा विनश्यति॥

अर्थ—दूध में वच को अभिषिक्त करके हवन करने से क्षय रोग दूर हो जाता है। दूध, दही, घी इन तीनों को होमने से भी राजयक्ष्मा नष्ट हो जाती है।


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