जड़ता से मुक्त हों, चेतना से अनुप्राणित हों

January 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“ न जड़ क्वचित् सर्व चिन्मात्र मेव ही “

अर्थात् - “ संसार में जड़ कुछ हैं ही नहीं सब कुछ चेतना मात्र है। “

शास्त्रकार की बात सामान्य मनुष्य की समझ में नहीं आई। योग की सिद्धावस्था तक पहुँचे हुए, महा ऋषि रामकृष्ण जब भावावेश में आते थे, वे दक्षिणोत्तर की काली मूर्ति से माँ माँ कह कर लिपट जाते थे। मूढ़ और जड़ बुद्धि लोगों के लिए यह भावाभिव्यक्ति भ्राँतिपूर्ण लगी होगी, उन्हें अपनी बुद्धि शीलता का गर्व हुआ होगा, उमड़ती हुई भावनाओं में उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया होगा, पर आज का वैज्ञानिक कहता है, सचमुच संसार में जड़ता कुछ नहीं है। चेतना ही चेतना, भाव ही भाव सब कुछ। स्थूल आँखों से देखने में यह बात आधी सच लगती है। सूर्य, चन्द्रमा, तारे, रेल मोटर, बसें व चलने फिरने वाले पदवी, जीव जन्तु में तो कुछ चेतनता, कुछ हलचल दिखाई देती है पर पृथ्वी, मकान वृक्ष, लोटा -थाली - बर्तन, पुस्तकें, पौधे यह सब स्थिर लगते हैं। यह भी चंचल और गतिशील रहे होते तो हम रात्रि बम्बई की किसी अट्टालिका में सो रहे होते और उठते ही अपने आप को शाँतिकुँज हरिद्वार में पाते।

इससे शास्त्रकार की बात असत्य नहीं हो गयी ? हमारी समझ मात्र का अंतर है अन्यथा वस्तुतः संसार से जड़ता कुछ हैं ही नहीं, जड़ता हमारी मानसिक स्थित का कारण है, जितनी स्थूल बुद्धि होगी, उतनी ही स्थूलता सृष्टि में दिखाई देगी। यदि हम भावनाओं की गहराई से संसार को देखने और परखने लगें तो अपने दिखाई देने वाला शरीर, मकान, शहर, खेत, पेड़ -पौधे तक अपने साथ रहने के लिए तैयार नहीं। सब चेतन गतिशील अपने अपने उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न दिखाई देने लगे।

सृष्टि का प्रत्येक परमाणु चंचल है। अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सब अशाँत हैं, न जाने क्यों अपनी मूढ़ता तो मनुष्य के पल्ले आ पड़ी है कि वह समय और पदार्थों की स्थूलता के आगे की बात सोच ही नहीं पाता। अपने आप को वस्तु से बाँधे हुए, माया मोह के चक्कर में पड़ा हुआ, कामनाओं और वासनाओं से घिरा हुआ, कष्ट पूर्वक जीवन जीता रहता है।

एक वैज्ञानिक ने एक लोहे की शलाका ली, उसका एक सिरा आग में लगाया, दूसरा हाथ में पकड़े रहा थोड़ी देर में दूसरा सिरा भी गर्म हो गया। शलाका हाथ से फेंक देनी पड़ी। पूछा गया शलाका क्यों फेंक दी ? गर्म हो गयी इसलिए उन्होंने बताया। कैसे गर्म हो गयी ? अगला प्रश्न पूछा जिज्ञासु ने तो वैज्ञानिक ने बताया कि अग्नि चेतन हैं, उसके कण जब लोहे की शलाका के स्थूल कण से टकराते हैं तो उन कणों में विद्यमान चेतनता ने अपना नियमित मार्ग बदल दिया। इलेक्ट्रान जो अब तक परमाणु की सीमा से बँधे थे, आग की बर्मी लगते ही ऐसे भागे जैसे ज्ञान का उदय होने पर राग द्वेष और वासनाएँ भाग खड़ी होती है। अग्नि का ताप सारे परमाणु में यह हलचल उत्पन्न करता चला गया और दूसरा सिरा भी गर्म हो गया। वैसे बाहर से देखने में शलाका में अब भी कोई अंतर नहीं आया था। चेतना शक्ति हैं जब तक वह रहती हैं, मनुष्य या कोई भी वस्तु स्निग्ध प्राणवान गर्म और प्रकाशवान दीखती है पर जड़ता के आते ही यह गुण समाप्त हो जाता है, इसलिए निश्चय पूर्वक भाग्यशील व्यक्ति को अधिक शक्तिशाली कहा जा सकता है।

चेतना के सूक्ष्मतम स्वरूप का चिंतन न करने के कारण हमारी बुद्धि जड़तावादी हो गयी है। पृथ्वी हमें इसलिए जड़ दिखाई पड़ती है, क्योंकि हमने अपनी भावात्मक चेतना के द्वारा उसे देखने का प्रयत्न नहीं किया। अब आप यह मानिये कि आप बहुत छोटे बच्चे हैं। आपके हाथ में एक हथौड़ा हैं, दूसरे में पृथ्वी छोटे से गेंद के समान है। हथौड़े से पृथ्वी को पीस डालिये। देखिए पहाड़, नदियाँ, समुद्र, वृक्ष -वनस्पतियाँ सब रेत हो गये। इस रेत के किसी टुकड़े को एक चिमटी से पकड़कर एक प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से देखिये शायद कुछ साफ न दिखाई दे तो न्यूक्लियर माइक्रोस्कोप से देखिये परमाणु के भी टुकड़े इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, प्रोट्रान, प्रोजीट्रान, क्रोमोसोम, जीन्स आदि का अध्ययन इसी सूक्ष्मदर्शी से किया जाता है। आप देखेंगे कि उस टुकड़े में पृथ्वी का जो सबसे लघुतम टुकड़ा होगा, कैसी हलचल मची हुई है। आप उस छोटाई का अनुमान नहीं कर सकते तो एक से.मी. में उन परमाणुओं को बिखराकर देख ले, इतनी सी जगह में एक करोड़ परमाणु आराम से बैठे मिलेंगे। इतना छोटा कि जिसकी कल्पना भी न की जा सके।

अब इसका नाभिक देखते हैं तो लगता है कि, यह तो और भी छोटा है। एक सेमी. स्थान में 100000000000 नाभिक मजे में समा सकते हैं। इस छोटी सी छोटी स्थिति में में भी इतनी हलचल हैं यदि आप देख पाये तो आप यही कहें-

आकाशो भूजलं वायुरिग्नर्ब्रह्म हरिः शिवः। यत्किचिद्यत्र किचिच्च सर्व चिन्मात्र मेवहि॥ तेजविन्दूपनिषद् 1/28,

आकाश, पृथ्वी, जल, वायु, ब्रह्म, विष्णु, महेश जो कुछ है और नहीं हैं, वह सब चैतन्य ही है। ‘ न जड़ं क्वचित ‘ जड़ तो कुछ है ही नहीं।

योगवासिष्ठ के 3/14/20 से लेकर 3/14/21 तक इस गूढ़ रहस्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि वशिष्ठ कहते है- जिस प्रकार जल की लहरों की चंचलता है, जलते हुए दीपक में प्रकाश किरणों की स्फुरणा, अग्नि में चिंगारियाँ, चन्द्रमा की किरणें, वृक्ष में फूल पत्तियों की शोभा है उसी प्रकार सृष्टि के अणु अणु में व्याप्त परम चेतना को जो देखते और अनुभव करते हैं, वही ईश्वर की सच्ची जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। ‘ यथैतत्प्रतिभा मात्रं जगत्सगविभासनम् ‘ अर्थात् जगत में भी पदार्थ हैं, वे सब इसी चेतना से उदय होते हैं।

अनुभव न आने वाली यह चेतना कितनी सूक्ष्म हैं उतनी ही विराट भी। पानी का एक अणु एक सेकेण्ड में 30 अरब टक्करें लेता है, उसके एक परिक्रमा की दूरी इंच के दस करोड़वें भाग जितनी होती है पर इतनी सशक्त कि यदि उसे छोड़ दिया जाय तो किसी परमाणु की चेतना सम्पूर्ण पृथ्वी को जलाकर खाक कर सकती है। बमों की रचना में इसी शक्ति वाले भाग को छेड़ा जाता है।

उसके वीभत्स परिणाम लोग नागासाकी के विध्वंस के रूप में देख सकते हैं। मनुष्य की भावात्मक चेतना में उसे भी कई गुना प्रचण्ड और चमत्कारिक शक्तियाँ होती है, जो कभी कभी ही प्रभाव में आती है।

कोल्हापुर में एक परमहंस संत हो गये हैं। वे जब भावनाओं के आवेश में आते थे तो कोई कुछ देता जाता था, खाते चलें जाते थे। एक बार कुछ बुरे व्यक्तियों को शरारत सूझी, उन्होंने दो भरी बोतलें शराब की दें दी, परमहंस उन्हें पी तो गये पर संभवतः उस प्रभाव से उसकी व्याकुलता बढ़ी होगी और उसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि उन दुष्ट लोगों को तत्काल कुष्ठ रोग हो गया।

सामान्य अवस्था में यह शक्ति प्रसुप्त अवस्था में होती है इसलिए वह समझ में नहीं आती या उसका प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता, किन्तु यदि ( साधना तपश्चर्या द्वारा अपने ही भीतर की भावनात्मक चेतना को जागृत कर लिया जाये तो मनुष्य सूर्य चेतना की तरह सर्वसमर्थ और शक्तिशाली हो सकता है। ) सामान्य एवं सुप्त अवस्था की चेतना शक्ति सूर्य की चेतना के समान ही दृष्टिगोचर नहीं होती पर वह शक्ति है असंदिग्ध।

प्रकाश सूर्य से चलकर पृथ्वी तक पहुँचने में 8 मिनट समय लेता है। प्रकाश में परमाणु एक सेकिण्ड में 186000 मील की गति से चलते हैं। यह कण सूर्य की सतह से नहीं आते वरन् सूर्य में एक त्रिज्या की स्थिति विद्यमान है, उससे आते हैं। यह त्रिज्या 420000 मील की हैं, यही सूर्य की आत्मा हैं, इसी से शक्ति और ताप का स्फोट होता है। यदि सामान्य प्रकाश की गति काम करती तो वह गर्मी इस त्रिज्या को ढाई सेकिण्ड में पूरा कर लेती और फिर तुरन्त पृथ्वी और अन्य ग्रहों की ओर प्रवाहित होकर उन्हें कुछ ही क्षणों में जलाकर नष्ट कर देती। इसीलिए सामान्य अवस्था में इसे सुषुप्त और अनियमित रखा गया है।

अणुओं की चाल अनियमित होती है, इसीलिए त्रिज्या को पार करके सूर्य की सतह तक पहुँचने में ही उसे कई वर्ष लग जाते हैं। सूर्य के ताप के धन और ऋण अणु जब टकराते हैं तब उनमें केवल एक सेमी. की ही उछाल होती है, इसलिए वे अणु कितनी ही तेजी से उछलें सतह तक पहुँचने में समय लग ही जाता है, इस बीच वह कई प्रकार की किरणों में बँटकर चारों ओर प्रकीर्ण हो जाता है, इस तरह ताप शक्ति की थोड़ी सी मात्रा व प्रकाश पृथ्वी तक आ पाता है और उतने से ही पृथ्वी की गतिविधियाँ चलती रहती है। शक्ति वाला अंश धीरे धीरे प्रवाहित होता रहता है।

यह चेतना शक्ति ही समुद्र, वायु, वृक्ष -वनस्पतियाँ और मनुष्यों तक में काम करती रहती है। दरअसल पृथ्वी पर दिखाई देने वाली हलचल बिल्कुल स्तब्ध रही होती, यदि यह चेतना उतर कर न आई होती, यह चेतना ही अनन्त स्वरूपों में विभक्त होकर विलक्षण शक्ति उत्पन्न कर रही है। यही जब सिमटकर अलग हो जाती है तो मनुष्य का शरीर खाक होकर नष्ट हो जाता है।

हम जो भी बोलते -सुनते, खाते -पाते, भाव अहंकार, आकाँक्षाएँ इच्छायें रखते हैं यह सब चेतना के गुण है। शरीर नष्ट हो जाने पर भी चेतना में इसकी वासनायें और संस्कार बने रहते हैं, इसीलिए शास्त्रकार ने बार बार आत्म- चेतना को जानने और उसे शुद्ध करने के लिए सावधान किया है। चेतना कभी मरती नहीं उसका रूपांतरण भर होता है, इस लिए भावात्मक चेतना से ढके लोगों की अमरता का अविश्वास करने का कोई कारण नहीं रह जाता।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118