सरिता भाग रही थी-सागर से मिलने के लिए। मार्ग में रेगिस्तान का बीहड़ पड़ता था। मरुस्थल की रेत सरिता को सोख डाल रही थी। थोड़ी दूर जाकर वह मात्र गीली रेत हो गई। सपना टूटकर चकनाचूर हो गया। उद्गम स्रोत से वह जल लेकर पुनः तीव्र वेग से चल पड़ी। पर फिर उसकी वैसी ही दुर्गति हुई। ऐसा अनेकों बार हुआ झुँझला कर निराश होकर उसने रेत से पूछा-”क्या सागर से मिलने में मेरा सपना कभी पूरा होगा?” रेत ने कहा-”मरुस्थल को पार करके जाना तो संभव नहीं है। पर तू अपनी सम्पदा को बादलों को सौंप दे। वे तुझे सागर तक पहुँचा देंगे। “अपने आस्तित्व को मिटाकर अद्भुत समर्पण का उसमें साहस जुट नहीं पा रहा था। पर रेत का परामर्श उसे सारगर्भित जान पड़ा। श्रद्धा ने समर्पण की प्रेरणा दी। बादलों पर बूँदों के रूप में सवार होकर वह अपने प्रियतम सागर से जा मिली।
सच्चा समर्पण हो तो भक्त का भगवान से मिलन कठिन नहीं होता, नदी की तरह सुगम बन जाता है। पुरुष नारी दोनों यदि सच्चे दिल से एक दूसरे की प्रगति चाहते हो तो एक होकर चलना पड़ेगा। किसी एक के आगे बढ़ते रहने मात्र से तो यह संभव नहीं।
विधाता ने एक बार मनुष्यों की सहायता करने के लिए देवदूत भेजा और कहा-जिसकी जो कामना हो उसे पूरा कर दिया करें। देवदूत अपने काम में तत्परता पूर्वक लगे रहे। अनुदान असंख्यों ने पायें, रोना कलपना किसी का बन्द न हुआ। संकटों से किसी को मुक्ति न मिली। इस असफलता से मनुष्य, देवदूत ओर विधाता तीनों ही खिन्न थे। नारद को कारण का पता लगाने भेजा गया। पता चला कि मनुष्य दुर्गुण ग्रसित हैं। जो पाते हैं उन्हें अनाचार में लगा देते हैं, फलतः दरिद्रता मिटती नहीं-संकट कटता नहीं।
विधाता ने देवदूत को वापस बुला लिया और निर्देश में नया परिवर्तन किया कि मात्र सद्गुणी सदाचारियों की ही सेवा किया करें। अनाचारियों को वरदान न दिया करें। तब से अब तक वही क्रम चल रहा है। देवताओं की सहायता मात्र सज्जनों के रूप में नारियों को ही मिलती है। दुर्जन मनुष्यों की मनुहार अनसुनी होती और निरर्थक होती चली जाती हैं। मनुष्यों में सज्जनता का अंश नारी में सर्वाधिक है। इसलिए अनुदान उसे सहज ही मिले हुए हैं। यदि उनका लाभ सभी को मिलना है तो उसका सम्मान भी होना चाहिए, नारी को आगे बढ़ाने के प्रयास भी सतत् होने चाहिए।