मानवी उत्कर्ष का एकमेव आधारः धर्म

April 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अति पुरातन काल में धर्म ही मानवी उत्कर्ष और अनुशासन का एकमात्र आधार था। समयानुसार वह राजतन्त्र और धर्मतन्त्र में बँटा। तो भी अपनी उत्कृष्टता के कारण मानव अन्तराल पर उसका प्रभाव अक्षुण्ण ही बना रहा। शासन का क्षेत्र पदार्थ एवं व्यवहार है। धर्म का चरित्र एवं चिन्तन। धर्म व्यक्तित्व का गठन करता है। शासन साधनों के उत्पादन वितरण से लेकर सुरक्षा व्यवस्था जैसे भौतिक प्रयोजनों की पूर्ति करता है। यों साधनों की कमी या अव्यवस्था से भी कम कष्ट नहीं होता, इसलिए उसकी साज-संभाल रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले शासन का भी महत्व एवं वर्चस्व है। अर्थ और दण्ड की शक्ति उसके हाथ में रहने से आकर्षण एवं भय के आधार पर उसका लोहा भी माना जाता है। इतने पर भी धर्म की गरिमा, उपयोगिता एवं स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। मानवी अन्तःकरण में उच्चस्तरीय आस्था जमाने-विचारणा में सदाशयता जोड़ रखने तथा क्रिया-प्रक्रिया को नीति-निष्ठा बनाने की शक्ति ‘धर्म’ की ही है। भावना और विचारणा का महत्व सर्वोच्च है। वहीं व्यक्ति की मौलिक सम्पदा एवं क्षमता है। उत्थान-पतन की दूरगामी भूमिका का सूत्र-संचालन यहीं से होता है। मनुष्यों का समूह ही समाज है। लोगों का स्तर जैसा होता है, उसी के अनुरूप समाज की गतिविधियाँ होती हैं, वैसी ही परिस्थितियां बनती हैं। शासन तो परिस्थितियों का नियन्त्रण भर करता है। उनका उत्पादन तो अन्तःकरण एवं बुद्धि-संस्थान से ही होता है। अस्तु, भावना क्षेत्र की दिशा देने वाले ‘धर्म’ की गरिमा सदा ऊँची रहेगी। उसे शासन से भी अधिक महत्व मिलेगा। दर्शन की गरिमा वैभव से किसी भी प्रकार कम नहीं है।

शासन का महत्व सभी समझाते हैं। कोई अराजकता नहीं चाहता। यहाँ तक कि दुष्ट-दुराचारी भी नहीं, क्योंकि अभी तो उन्हें न्याय-व्यवस्था के अंतर्गत अपनी जान बचाने और अनीति को छद्म रूप से चलाने का जो अवसर मिला हुआ है, वह भी अराजकता की स्थिति में न रहेगा। दो जवाब बीस। बीस कमजोर मिलकर भी दो बलिष्ठों की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं। जिस प्रकार अराजकता सहन नहीं की जा सकती, अधार्मिकता सभी उतनी ही भयावह सिद्ध होती है। नीति-मर्यादा का परित्याग कर देने के बाद मनुष्य हिंसक पशुओं से भी अधिक आततायी हो जाता है। हिंसक जन्तु पेट भर जाने पर आक्रमण नहीं करते, पर मनुष्य तो दर्प के लिए असंख्यों को मटियामेट करता रहता है। मध्यकालीन सामन्तवाद का प्रत्येक रक्त-रंजित पृष्ठ इसी की साक्षी देता है। आज भी आस्थाहीन व्यक्तियों-हिटलर, चंगेजखाँ, नादिरशाह, रावण दुर्योधन, जरासन्ध ने न जाने कितने कहर ढाये हैं। आततायी और आतंकवादी प्रायः आस्थाहीन ही होते हैं। अराजकता और अधार्मिकता में से कौन अधिक भयावह है, यह कहना कठिन है।

शासन के पास साधन कितने ही अधिक हों, उसकी सफलता भी वफादार ईमानदार कर्मचारियों एवं नीतिनिष्ठा प्रजाजनों पर टिकी हुई है। यदि कर्मचारी भ्रष्ट हों तो असीम साधनों के रहते हुए भी पतन-पराभव का मुँह देखना पड़ेगा। इसी प्रकार प्रजाजन यदि दुष्टता पर उतारू हो चलें तो फिर उन्हें नियन्त्रित करने में पुलिस कचहरी की शक्ति क्या काम करेगी? फिर वे लोग भी तो भ्रष्ट जनता से ही निकल कर आये होंगे। उनका अन्तरंग नीति-भ्रष्टता के साथ साझेदारी कर ले तो फिर न्याय-नियन्त्रण की, विकास-उत्थान की योजनायें एक कोने में रखी रह जायेंगी। शासन को श्रेय देने वाली सफलताएँ शस्त्रों पर, वैभव-विस्तार पर टिकी हुई नहीं हैं। वरन् नीतिनिष्ठ कर्तव्यपरायण प्रजाजनों पर निर्भर है। कहना न होगा कि यह समूचा भावना क्षेत्र धर्म धारण के अंतर्गत आता है। शासन लोभ या भय के आधार पर किसी को भी उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सम्पन्न नहीं बना सकता। उसकी पहुँच वैभव क्षेत्र से आगे बढ़ मात्र बौद्धिक क्षेत्र तक समाप्त हो जाती है। सरकारी प्रचार-प्रोपेगैंडा के आधार पर प्रस्तुत समाचारों तक पर जब विश्वास नहीं किया जाता, तो उनके द्वारा चिन्तन को उत्कृष्टता और व्यवहार की आदर्शवादिता को लोकमानस में इतनी गहराई तक उतार देना किस प्रकार सम्भव होगा, जहाँ किसी भी भय-प्रलोभन से मानवी आदर्शवादिता को न गँवाने की व्रतशीलता अडिग चट्टान की तरह खड़ी रहे।

धर्म-धारणा जहाँ भी बलवती होगी, वहाँ नैष्ठिक नागरिकता, अनुशासित सामाजिकता, चारित्रिक संयमशीलता, व्यवहारिक सज्जनता के वे सभी चिन्ह प्रकट होंगे, जिन्हें मानवी गरिमा के रूप में सुना समझा जाता रहा है। श्रेष्ठताओं का समुच्चय ही ‘धर्म’ है। इसी उपयोगिता जब जन-जन ने देखी-परखी थी तब उसे सर्वोच्च सम्मान किया गया था। हर किसी का इस आप्त वचन पर दृढ़ विश्वास था कि धर्म की रक्षा करने से ही अपनी रक्षा होती है और मारने वाले को वह उलट कर मार ही डालता है’ इसी तथ्य और सत्य पर अटूट विश्वास होने के कारण इस देश के नागरिक देवोपम कहे जाते थे।

सद्भाव, सम्वेदन, संस्कारवान, चिन्तन, व्यक्तित्व उन्नयन, समग्र प्रगति, सामाजिक सुव्यवस्था, अर्थ सन्तुलन जैसे व्यक्ति और समाज से सम्बन्धित अनेकानेक क्षेत्रों पर धर्म धारणा का असाधारण प्रभाव देखा जा सकता है। उसके कारण इन सभी क्षेत्रों के समुन्नत बनने की सम्भावना सुनिश्चित बनती है। अधर्म का अनौचित्य अपनाने का परिणाम मात्र असन्तोष विग्रह और विनाश का ही वातावरण बनता है। धर्मतत्व का एकमात्र स्वरूप सद्भावना, सज्जनता, सहकारिता, संयमशीलता, उदारता जैसे शालीनता समर्थक सरंजाम जुटाता है।

धर्म की इस गरिमा से मनुष्य जाति चिरकाल से परिचित, अभ्यस्त, आश्वस्त रही है। फलतः इस गये गुजरे जमाने में जबकि धर्म मात्र विडम्बनाओं का अजायब घर बनकर रह गया है, उस प्राचीन गरिमा के प्रति अभी अजस्र श्रद्धा जमी हुई है। लोग उसके लिए बहुत कुछ अनुदान प्रस्तुत करते रहते हैं। महामानवों की समाधियों पर मेले जुड़ते और फूल बरसते हैं। धर्म की मूल धारणा अस्त-व्यस्त हो जाने के उपरान्त भी उसके मजार पर जितनी श्रद्धा बरसती है उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि जब वह जीवन्त रहा होगा तो कितनी बड़ी गौरव-गरिमा का केन्द्र रहा होगा।

भारत को ही लें। यहाँ देवालयों का तीर्थयात्रा का कर्मकाण्डों का-सोमवती अमावस्या से लेकर कुँभ जैसे छोटे-बड़े पर्वों का खर्चा जोड़ा जाय तो वह सरकार द्वारा वसूल किये जाने वाले राजस्व से कहीं अधिक बैठता है। जिनका धर्म ही आजीविका व्यवसाय है ऐसे साधु बाबाओं की संख्या तकरीबन 60 लाख है। जो इस उद्योग पर पूर्णतया निर्भर नहीं है-आँशिक समय गँवाते और उपार्जन करते हैं उन पण्डा-पुरोहितों की संख्या भी 40 लाख तो माननी ही पड़ेगी। इन एक करोड़ धर्म जीवियों का ठाट-बाट और आडम्बरों से भरा-पूरा व्यय-भार भावुक धर्म प्रेमियों को ही उठाना पड़ता है। यह राशि इतनी बनती है जितनी कि शिक्षा और चिकित्सा के लिए निर्धारित कुल बजट की। दैनिक जीवन में धर्म कृत्यों के लिए लोग ढेरों समय लगाते हैं और हाथ खोलकर पैसा खर्च करते हैं। मनोयोग, श्रम, समय एवं धन के रूप में जितनी मानवी शक्ति धर्म के निमित्त लगती है उसे उपार्जन, निर्वाह के बाद तीसरे नम्बर की सम्पदा कह सकते हैं।

इतनी बढ़ती मानवी शक्ति यदि सृजनात्मक प्रयोजनों में लग सके तो उतने भर से व्यक्ति और समाज का कायाकल्प हो सकता है। जो क्षेत्र शासन की पकड़ से बाहर हैं जिन्हें संभालना निश्चित रूप से धर्म तन्त्र के कंधों पर है, उस चिन्तन और चरित्र के उभारने वाले प्रयोजनों में यह शक्ति लग सके तो उसकी परिणति उससे भी अधिक श्रेयस्कर हो सकती है जितनी कि शासन द्वारा विभिन्न प्रकार के कल्याणकारी काम हाथ में लेने से सम्भव होती है। बलिष्ठता, सम्पदा और बुद्धिमत्ता को मानवी शक्ति माना जाता है किन्तु यदि थोड़ी गहराई में उतरकर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि अन्तराल की गहन परतों में विद्यमान आस्थाएँ ही उसकी वास्तविक सामर्थ्य हैं। उत्थान और पतन के लिए पूरी तरह वही जिम्मेदार है। व्यक्ति की महानता और राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता उसी के आधार पर विकसित होती है। यहाँ एक तथ्य और भी समझा लेना चाहिए कि इस शक्ति स्रोत को उभारने और दिशा देने का कार्य मात्र धर्म ही करता रहा है। भविष्य में भी वही करेगा। यहाँ धर्म तत्व से तात्पर्य आस्थाओं को उत्कृष्टता के साथ जोड़े रहने वाली उच्चस्तरीय अन्तःप्रेरणा से है। आज के सम्प्रदायवाद को तो उसकी छाया या विकृति ही कह सकते हैं।

शासन की विकृतियों को सुधारने के लिए जनआन्दोलन उभरते रहते हैं। अर्थ संतुलन के लिए भी वैयक्तिक और सामूहिक पुरुषार्थ तत्पर देखा जाता है। निर्वाह, विनोद सुविधा साधन, शिक्षा-चिकित्सा जैसे प्रसंगों में उत्साह और प्रयत्न संलग्न देखा जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि धर्म तत्व जैसे मानवी गरिमा के मेरुदण्ड को इस बुरी तरह अपेक्षित एवं विकृत स्थिति में रहने दिया जा रहा है जिसमें वह जन साधारण भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने और निहित स्वार्थों का निमित्त भर रहने के अतिरिक्त और कुछ कर ही न सके।

आवश्यकता इस बात की है कि भ्रान्तियों का कुहासा हटाया जाय और धर्म के मूल स्वरूप की उपयोगिता और उसके नाम पर चल रही प्रतिगामिता जन्म विभीषिका से सर्वसाधारण को अवगत कराया जाय। धर्म और संप्रदाय के बीच क्या सम्बन्ध और क्या अन्तर है इसे समझने का अवसर मिलना ही चाहिए। आज तो गुड़-गोबर एक हो रहा है। असली के स्थान पर नकली की पूजा प्रतिष्ठा है।

सम्प्रदायों के नाम पर लोग झगड़ते हैं, परम्पराओं के समर्थन में औचित्य और न्याय दोनों को पददलित किया जाता है। स्थिति इतनी गम्भीर है कि कुरीतियों और मूढ़-मान्यताओं का विरोध करने वाले तक उन्हीं अन्ध-परम्पराओं से चिपके देखे जाते हैं। विवेक कितना दुर्बल और प्रचलन कितना समर्थ है- इस दुर्भाग्य भरी स्थिति को देखकर हतप्रभ रह जाना पड़ता है।

समय की माँग है कि नीर-क्षीर विवेक का सरंजाम जुटाया जाय। यथार्थता और विडम्बना के अन्तर को समझने का अवसर सर्वसाधारण को दिया जाय।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118