विदाई की घड़ियाँ और गुरुदेव की व्यथा वेदना-4

April 1996

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(समापन किश्त)

परमपूज्य गुरुदेव ने सदा के लिए गायत्री तपोभूमि मथुरा छोड़ने का निर्णय अपनी गुरुसत्ता के निर्देश पर काफी पहले ले लिया था। भावी बीस वर्ष की जीवन की रीति-नीति क्या हो, यह वे समय-समय पर लिखते रहते थे। सदा के लिए परिजनों से जिन्हें प्यार दे-दे कर उनने परस्पर बाँधा था,बिछुड़ने की विरह वेदना क्या होती है, सही अर्थों में आध्यात्मिक पिता कैसा होता है, यह इन पंक्तियों के माध्यम से परिजन विगत 3 माह से पढ़ रहे हैं। जनवरी, फरवरी 1969 में प्रकाशित अखण्ड-ज्योति पत्रिका के पृष्ठों से उद्धृत उनके मार्मिक उद्गार इस समापन किश्त में।

हर किसी को विश्वास रखना चाहिए कि और कुछ हमारे पास हो चाहे न हो असीम प्यार भरी ममता से हमारा अन्तःकरण भरा पूरा अवश्य है। जिसने हमें तिल भर प्यार किया है उसके लिए अपने मन से ताड़ बराबर ममता उमड़ी है। लम्बी अवधि से जिनके साथ हंसते, खेलते और प्यार करते चले आ रहे हैं उनसे विलग होने की बात सोच कर हमारा मन भी गाय-बछड़े के वियोग की तरह कातर हो उठता है। कई बार लगता है कोई छाती में कुछ हूल रहा है। यह वियोग कैसे सहा जायगा। जिसकी कल्पना मात्र से दिल बैठ जाता है, उस असह्य को सहन करने में कितना बोझ पड़ेगा? और कहीं उस बोझ से यह टूटा खचड़ा चरमरा कर बैठ तो नहीं जायेगा ऐसी आशंका होती है।

प्रिय जनों के विछोह की कल्पना न जाने क्यों कलेजा को मरोड़ डालती है। ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से यदि इसे मानवीय दुर्बलता कहा जाय तो हमें अपनी यह त्रुटि स्वीकार है। आखिर एक नगण्य से तुच्छ मानव ही तो हम हैं। कब हमने दावा किया है योगी-यती होने का।

प्यार करना सीखने और सिखाने में सारी जिन्दगी चली गई। यदि कोई धन्धा किया है तो एक महंगी कीमत देकर प्यार खरीदना और सस्ते दाम पर उसे बेचना। इस व्यापार से लाभ हुआ या घाटा उसका हिसाब कौन लगाये?

यों मरना अभी देर में है, पर जब परस्पर मिलने जुलने और हंसने-खेलने, सुनने और समझने की सुविधा न रही,एक दूसरे से दूर समीप के आनन्द से वंचित रहकर जीवित भी रहे तो यह आनंद उल्लास जिसे पाने का आदी यह मन बना चुका है, कहाँ मिल सकेगा?

जिनके असीम स्नेह जलाशय में स्वच्छन्द मछली की तरह क्रीड़ा कल्लोल करते हुए लम्बा जीवन बीत चुका अब उस जलाशय से विलग होने की घड़ी भारी तड़पन उत्पन्न करती है।

शरीर साधन और श्रम के द्वारा विभिन्न कार्यों में सहायता करने वाले भी कम नहीं रहे हैं पर उनकी संख्या और भी अधिक है जो भावभरी आत्मीयता के साथ अपनी श्रद्धा, ममता और सद्भावना हमारे ऊपर उड़ेलते रहे हैं। सच पूछा जाय तो यही वह शक्ति स्रोत रहा है, जिसे पीकर हम इतना कठिन जीवन जी सके है।

जिसने कोई प्रत्यक्ष अनुदान नहीं दिया उन पाषाण प्रतिभाओं के चरणों में आजीवन मस्तक झुकाते रहे हैं तो क्या उन देवियों और देवताओं की प्रतिमायें हमारी आराध्य नहीं रह सकतीं, जिनकी ममता हमारे ऊपर समय-समय पर बरसीं और प्राणों में सजीवता उत्पन्न करती रहीं।

सहेलियों से बिछुड़ते हुए और पति के घर जाते हुए जिस तरह किसी नव-वधु की द्विधा मनःस्थिति होती है, लगभग वैसी ही अपनी है और रुँधा कण्ठ एवं भावनाओं के उफान से उफनता अन्तःकरण लगभग उसी स्तर का है।

रात को बिना कहे चुपचाप पत्थर की तरह चल खड़े होने का साहस अपने में नहीं, इस स्तर का वैराग्य अपने को मिला नहीं। इसे सौभाग्य दुर्भाग्य जो भी कहा जाय कहना चाहिए।

अपनी सभी सहेलियों से एक बार छाती से छाती जुड़ाकर मिल लेने और अपने अब तक के साथ-साथ हँस खेलकर बड़े होने की स्मृतियों को ताजा कर फफक-फफक कर रो लेने में लोक उपहास भले ही होता हो पर अपना चित्त हल्का हो जायेगा सो ही हमसे बन पड़ रहा है-.....................सन्त, ज्ञानी, वैरागी, ब्रह्मवेत्ता के लिए इस प्रकार की वेदना, अशोभनीय हो सकती है, पर हम उस स्तर के हैं कहाँ?

लोग प्यार करना सीखें। हमें, अपने आप में अपनी आत्मा और जीवन में, परिवार में, समाज में और ईश्वर में देशों दिशाओं में प्रेम बखेरना और उसकी लौटती प्रतिध्वनि का भाव भरा अमृत पीकर धन्य हो जाना, यही जीवन की सफलता है।

हमारी अन्तःस्थिति कुछ ऐसी है कि जिनका रत्तीभर भर स्नेह हमें मिला है, उनके प्रति पर्वत जितनी ममता सहज ही उमड़ती है........... जो श्रद्धा, सद्भावना, आत्मीयता, एवं ममता की दृष्टि से देखते हैं, देखेंगे, प्यार करते हैं, प्यार करेंगे, उनसे विमुख नहीं हो सकते। उनके साथ भी संपर्क किसी न किसी रूप में बनाये रहना है (समापन किश्त)


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