कर्म की गति न्यारी

April 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सुदीप और चित्रदीप की पारस्परिक मित्रता पर जन-मन आश्चर्यचकित था और अभिभूत भी। उनके वैचारिक विरोधाभास से सभी परिचित थे। सुदीप को जहाँ शास्त्रचर्चा-सत्संग से प्रीति थी, चित्रदीप वहीं राग-रंग का रसिक था। फिर भी कुछ ऐसा था जो उन्हें बाँधे था। दोनों बाल मित्र थे। उनके पिता श्रेष्ठी सोमवयश और सुशोम की ख्याति अवन्तिका में ही नहीं विदेशों में भी व्याप्त थी।

अवन्तिका में जैसे मालव देश की श्री समृद्धि पुंजीभूत हो गयी थी। महाराज विक्रमादित्य के शौर्य पराक्रम एवं बेताल भट्ट की नीति कुशलता के कारण मालव अपने जीवन के उत्कर्ष के शिखर को छू रहे थे। सुदीप और चित्रदीप का जीवन भी श्री संपन्नता का आगार बना हुआ था।

दोनों मित्र एक दिन सन्ध्या के समय शिप्रा की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर मल्ल युद्ध का आयोजन हो रहा था। तरह-तरह की पैंतरे बाजी-दाँव-पेज की कुशलता से जन समुदाय मोहित था। सुविख्यात मल्ल अपने शरीरी सौष्ठव का प्रदर्शन करके स्वयं की और अपने स्थान की कीर्ति द्विगुणित कर रहे थे। ये दोनों मित्र भी उधर से गुजरे। सुदीप का मन एक क्षण के लिए रुकने को किया लेकिन चित्रदीप के रसिक मन को मल्ल युद्ध में कोई दिलचस्पी न थी। उसने सुदीप का हाथ पकड़ कर एक ओर खींचा ओर आगे बढ़ चला।

कुछ दूर आगे बढ़कर वह एक गली में प्रविष्ट हो गया। वहाँ वेश्याओं के घर थे। जहां से भीनी-भीनी सुगन्ध और वीणा मृदंग के मधुर स्तर के साथ नृत्याँगनाओं के छमछमाहट के जैसी उत्तेजक गीत नाद सुनायी दे रहे थे। चित्रदीप का मन उस विलासमयी वीथिका में मनोरंजनार्थ रुकने के लिए मचल उठा। उसके कदम आगे न बढ़ सके। उसके मन के उद्वेलित तार उस मादक वातावरण के प्रभाव से झंकृत हो चुके थे।

उसने सुदीप से कहा-एक बार ही सही हम दोनों को वेश्या के यहाँ चलना चाहिए। मित्र की बात सुनकर सुदीप स्तब्ध रह गया। उसने आश्चर्य से कहा-आज तुम यह बहकी-बहकी बातें कैसे कर रहे हो? इस जघन्य कार्य के अतिरिक्त तुम जैसा कहो वह कर सकता हूँ पर इस दुर्गति के द्वार में प्रविष्ट होना मुझे सर्वदा नापसन्द है। विलासिता और कामुक उच्छृंखलताओं को भड़काने वाली वेश्या के घर जाने पर श्लेष्मा में फँसी मक्खी की तरह मुक्त वह स्वच्छ रह पाना अति कठिन होता है। चित्रदीप ने कहा-मेरे से यदि प्रेम है, तो एक बार अवश्य ही वेश्या के यहाँ चलना होगा। अन्यथा आज से ही अपना सम्बन्ध विच्छेद। सुदीप ने विवश होकर आज तो नहीं कल चलेंगे कहकर मित्र को एक बार टाल दिया।

बुराई को देख - सुनकर भी उससे बचे रहना बड़ी बात है। सामान्यतया आदमी उसमें फंस ही जाता है। व्यक्ति के लिए इसी हेतु सत्संग का महत्व बताया गया है। सत्संग से भी ज्यादा जरूरी होता है कुसंग से बचे रहना।

दूसरे दिन दोनों मित्र पान-फूल मिष्ठान आदि उपहार लेकर साथ-साथ निकल पड़े। मार्ग में माता हर-सिद्धि का मन्दिर आया। भक्त-जनों ने एकाग्रचित्त से माता को सजाया था। रंग मण्डप झाड़-फानूस के प्रकाश से जगमगा रहा था, मानों दीप मालिका का महापर्व ही आ गया हो। वीणा वेणु, मृदंगों पर ताल व ठेका दिया जा रहा था। भक्त जन आ-आकर अपने स्थान पर जम रहे थे। वहाँ आज देवी भागवत की कथा का समारोह जो था। सुदीप का सत्संग प्रिय मानस मन्दिर के सात्विक वातावरण की ओर सहज आकर्षित हो गया। उसने कहा-आज तो मन्दिर में बैठें, वेश्या के यहाँ कल चलेंगे चित्रदीप ने कहा-मुझे तो आज ही वेश्या के यहाँ जाना है।

सुदीप ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा- तुम्हें जाना हो तो जाओ। मैं तो मन्दिर जाता हूँ। उसने फल-मिष्ठान आदि मन्दिर में चढ़ा दिए और भक्ति भावना में बैठ गया। वहाँ घण्टों देवी कथा चलती रही। वह उसी में तल्लीन हो गया। कुछ समय बाद यद्यपि गर्भगृह तो बन्द हो गया, पर नाट्य मण्डप में रात्रि जागरण का आयोजन किया गया था। जब थोड़ी सी रात्रि बाकी रही तो वह उठकर वन्दना के बाद घर जाने के लिए मन्दिर से बाहर निकला। सीढ़ियों से उतरते ही उसके पैर में जोर से एक कील चुभ गयी जिसकी असह्य पीड़ा से वह गिर पड़ा। उपस्थित बन्धुओं ने उसे तत्काल उठाकर घर पहुँचाया। कुशल वैद्यराज को बुलाकर कील निकाली गयी। वह बिस्तर पर पड़ा वेदना भोगने लगा।

इधर चित्रदीप जैसे ही सर्वमंगला के कोठे पर पहुँचा। उसे देखकर अपनी सुध-बुध खो गया। नर्तकी सर्वमंगला का मुख अंगराग से मण्डित था, शरीर सुगन्ध में सराबोर। उसके अधर बिम्बारफल थे, भृकुटियाँ शिव पर विजय के संकल्प से धनुष सी तनी थी। उनमें कोमल अमर्ष था, आकर्ण, आम्र के फाँके सी आँखों में भंवर पड़ रहे थे। चीनाशुँक जैसे शुभ्र मृसण कपोलों में कूप बनते और हंसने पर चन्द्रिका सी बौछार होती। सर्वमंगला के शरीर पर गुलाबी साड़ी और गुलाबी कंचुक था साड़ी दो काँच वाली थी, जिसकी किनारी सुनहली थी, कर्धनी में जड़े हुए रत्न दीपकों, मशालों और चाँदनी में चमकते तो चकाचौंध होती। वह साज छिड़ने पर पैरों.....बाँधे... घुंघरू से छम-छम करती हुई त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी थी।

चित्रदीप को देखते ही शतदल सरसिज की तरह सर्वमंगला की बरौनियाँ उठी और कौतुक, हास, अपनत्व, विस्मय और व्यंग ध्वनि के एक-साथ मिश्रण से मंजी हुई दृष्टि उस पर पड़ी। उसको लगा, उसकी शिराएं उसका साथ छोड़ रही हैं, और यदि वह खड़ा रहा तो रूप का भार उसे गिरा देगा। वह झुक कर एक ओर बैठ गया। सर्वमंगला हर्षित मुस्कुरायी और नृत्य शुरू हो गया और उसने एक के बाद एक कटोरा नृत्य, शण्टा नृत्य, छटा विद्युत नृत्य, बादल नृत्य, मयूर नृत्य किए। चित्रदीप के शरीर में मृदंग की गूँज, थाप, ताल, आलाप, और घुंघरुओं की गमक से लहर पर लहर उठती और उतर जाती, पुनः वही आरोह चल पड़ता। इसी सब में रात्रि बीत गयी।

नृत्य गान, हास विलास, मौज-शौक करता हुआ रात्रि के पिछले प्रहर में घर आने लगा तो उसे सर्वमंगला के गृह से बाहर निकले ही स्वर्ण मुद्राओं की एक पोटली मिली। वह उसे सहर्ष उठाकर अपने घर ले गाया। उसने जब प्रातःकाल सुना कि सुदीप के पैर में कील चुभ गयी है और वह शैया पर तो वह उसे देखने के लिए आया। स्वास्थ्य के हाल-चाल पूछने के उपरान्त उसने कहा-भाई तुमने मन्दिर में जाकर यह फल पाया ओर मैंने वेश्यागृह से लौटते समय भावमुद्राओं की एक पोटली प्राप्त की।

चित्रदीप का ऐसा प्रश्न था, जो आज भी अनेकों मनों को उद्वेलित करता रहता है। इस प्रकार के अनेकानेक उदाहरण संसार में रोज घटते रहते हैं जब साधु-सदाचारी व्यक्ति कष्ट भोगता है, और चोर लुटेरा मौज उड़ाता ।

सुदीप ने कहा-भाई मैं क्या कहूँ? इस बात की संशय निवृत्ति तो महायोगी गोरखनाथ ही कर सकते हैं। इन दिनों वह भर्तृहरि गुफा में ही ठहरे हुए हैं। कुछ दिनों के बाद हम लोग उन्हीं के पास चलेंगे।

थोड़े ही दिनों के पश्चात वे दोनों मित्र भर्तृहरि गुफा पहुँचे। वहाँ एक शाला पर महायोगी विराजमान थे। उनके शीश पर केशों पर जटा-जूट था, जिसके दोनों कुण्डलीकृत कानों के नीचे कंधों तक धहरा रहे थे। वे हवा में उड़ते तो वे नाग से लहराते। निकट से देखने पर योगी का मुख किसी अन्य लोक के दिव्य प्राणीसाथा सुवर्ण जैसे तपे गौर वर्ण में उनका कण्ठ शंखाकार था और भव्य मुख पर बड़े-बड़े कटोरे जैसे नेत्रों में करुणा का जल भरा था। योगी नासिका शुक सी थी और अधरों का कटाव कलात्मक था। उनके मस्तक का शिव तिलक उन्हें शिवावतार की तर मण्डित कर रहा था। इन क्षणों में वह चिन्तन की मुद्रा में थे।

सुदीप और चित्रदीप को देखकर वह मुस्कराए। उनकी मुसकान में प्रेम था, वात्सल्य था और गहरा प्रेम सने शब्द गूँजे-कहो क्या कहना चाहते हो तुम दोनों?

सकुचाते-हिचकिचाते चित्रदीप ने अपनी और सुदीप की कथा कह सुनायी। भला ऐसा क्यों हुआ प्रभु, मन्दिर में कथा श्रवण का फल पैर में कील का गड़ना और सर्वमंगला के यहाँ रास-रंग का परिणाम-सुवर्ण मुद्राओं की पोटली।

महायोगी दोनों पर ही अपनी कोमल दृष्टि डालते हुए कहने लगे-आत्मा की शाश्वतता में जीवन और मृत्यु दिवस की शाश्वतता में जीवन और मृत्यु दिवस और रात्रि की तरह है। जिस तरह कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिन्हें आज करने पर भी परिणाम कल मिलता है। उसी विगत जन्मों के कर्म भी वर्तमान जीवन में फलित होते हैं। हाँ वर्तमान जीवन के कर्मों का स्वरूप इनके प्रभाव को घटा बढ़ा जरूर देता है।

अपनी पारदर्शी दृष्टि से सब कुछ स्पष्ट देखते हुए बोल वत्स-सुदीप। तुम्हारे शूलीकर्म का उदय था, परन्तु तुमने माता हरसिद्धि के मन्दिर में बैठे-बैठे भक्ति भाव से उस निविड़ कर्मबन्ध को शिथिल कर दिया। यदि तुम दो-एक घड़ी और वहां तल्लीनता पूर्वक माँ के चरणों में बैठे रहते तो तुम्हारे कील भी नहीं चुभती। तुमने भक्ति-भावना के बल से शूलीकर्म का बन्ध टाल दिया।

शूल चुभने का समाधान करके महायोगी दो पल रुके। उन्होंने देखा कि वे दोनों तत्व को समझने का प्रयास कर रहे हैं तो फिर उनने वेश्यागृह से निकलने पर स्वर्ग मुद्राओं के प्राप्त होने का रहस्य भी बताया। उन्होंने बताया चित्रदीप के राज्यलाभ का योग आ रहा था। इस महापुण्य को इसने वेश्या के यहाँ रास-रंग में समाप्त कर केवल स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त कीं। यदि दो एक घड़ी यह वहाँ और ठहरता तो वह भी न मिलतीं।

चित्रदीप को आज कर्मफल का रहस्य बोध हो रहा था। उसने महायोगी के चरणों की शपथ खायी कि वह अपनी रुचियों और प्रवृत्तियों में परिमार्जन करेगा और अपने मित्र की तरह सत्कर्म में निरत रहेगा कर्मों की गति बड़ी गहन है। गहन कर्मणो गतिः कहकर योगीराज श्री कृष्ण ने कर्म-अकर्म और विकर्म का महत्व गीता में समझाया है। यदि दैनन्दिन जीवन में काम करने वाला व्यक्ति भी इस महत्व को समझ सके तो वह न केवल इस जीवन को बल्कि आत्मा की अनन्त यात्रा को बिना किसी बाधा के पार कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118