ऋद्धि-सिद्धियों का उद्घाटन कैसे हो अंतराल में?

September 1991

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जो कुछ प्रत्यक्ष दिखाई देता है, वही कम विलक्षण नहीं है। प्रत्यक्ष चेतन मस्तिष्क की उपलब्धियाँ ही चमत्कारी होती हैं। विद्वान, लेखक, वैज्ञानिक, कलाकार, दार्शनिक, व्यवसायी, कुशल राजनेता और सफल उद्योगपति अपने कुशल मस्तिष्क के आधार पर ही सफलता प्राप्त करते हैं, अपनी मस्तिष्कीय प्रतिभा से यह स्वयं का और दूसरों का कितना हित साधन करते हैं? यह किसी से छिपा नहीं है। इस प्रत्यक्ष और चेतन मस्तिष्क से भी अधिक रहस्यपूर्ण अचेतन मस्तिष्क है। अभी मनोविज्ञानी इस मस्तिष्क के क्रियाकलापों का केवल सात प्रतिशत भाग ही जान पाए हैं। शेष तो अज्ञात ही पड़ा है और जितना कुछ जाना जा सका है, वही इतना विलक्षण तथा रहस्यपूर्ण है। उसके आधार पर मानव को अतिमानव और उसे विलक्षण शक्तियों से सम्पन्न करने की बात सोची जा रही है।

मनःशास्त्रियों के अनुसार चेतन की अपेक्षा अचेतन बहुत अधिक बलवान और समर्थ है। शरीर यात्रा की स्वसंचालित गतिविधियों का संचालन, नियंत्रण तथा परिवर्तन इस अचेतन मस्तिष्क द्वारा ही होता है। मनुष्य की अभिरुचि, प्रवृत्ति और आदत बहुत कुछ इसी अचेतन मस्तिष्क में जड़ें जमाये बैठी रहती हैं। मोटे तौर पर अभी इतना ही कुछ जाना समझा जा सका है। पर अब इस संबंध में मैटाफिजिक्स, परामनोविज्ञान, अतीन्द्रिय विज्ञान आदि कितनी ही विज्ञान की धाराएँ आरम्भ हुई हैं और इन धाराओं में अचेतन मस्तिष्क के बारे में जो खोजबीन शुरू की है, उनसे निष्कर्षतः यह पाया गया है कि यह संसार का सबसे अधिक रहस्यमय अद्भुत और शक्तिशाली यंत्र है।

इस दिशा में होती जो रही नयी-नयी खोजों के आधार पर यह कहा जा रहा है कि चेतन मस्तिष्क को शिथिल कर के इच्छा शक्ति को यदि अचेतन का विकास करने में लगाया जा सके, तो व्यक्ति अपने शरीर और व्यक्तित्व में कायाकल्प जैसा परिवर्तन कर सकता है। वह अति दीर्घजीवी हो सकता है, अदृश्य जगत का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और उसमें चल रही हलचलों को मद, शिथिल एवं परिवर्तित कर सकता है। इन संभावनाओं को भारतीय ऋषि महर्षि न जाने कब से योग साधना द्वारा प्रत्यक्ष करते रहे है और उन्हें प्रत्यक्ष तथा प्रमाणित करने की अब भी पूरी गुँजाइश है क्योंकि वह एक विज्ञान है जो प्रकृति के रहस्यों को अपने ढंग से सुलझाने में सुनिश्चित निष्कर्ष तक काफी समय पहले पहुँच चुका है। इन नियमों के अनुसार कोई व्यक्ति यदि अभी भी प्रयत्न करे तो उन नियमों और सिद्धाँतों के आधार पर अभी भी इन संभावनाओं को साकार किया जा सकता है।

योग विज्ञान का मूल सिद्धाँत चित्त वृत्तियों का निरोध है। अर्थात् मस्तिष्क की आत्यंतिक सक्रियता को नियंत्रित करके उसकी चेतना शक्ति के अपव्यय को बचा लेना और बचे हुये अचेतन प्राण प्रवाह को अचेतन के विकास में नियोजित कर देना। निःसंदेह यह एक पूर्ण विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है और इसके लाभ अलौकिक उपलब्धियों के रूप में देखे जा सकते हैं। समाधि की स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति जब चित्तवृत्तियों को पूरी तरह चेतना में लय कर देता है, इस स्थिति में त्रिकालदर्शी और विश्व की जड़ चेतन सत्ता को प्रभावित करने में समर्थ बन सकता है। इसमें न तो कोई आश्चर्य जैसी बात है और न ही यह कोई असंभव कल्पना है।

मनुष्य ऐसी कई अद्भुत क्षमताओं से वंचित है जो विश्व के अगणित जीव-जंतुओं को प्राप्त हैं, इसका एक ही कारण है कि मनुष्य का वैज्ञानिक संस्थान अतिशय सक्रिय है। इस अतिशय सक्रियता के कारण मानवी चेतन ऊष्मा अचेतन को दबा देती है और उससे शरीर संचालन तथा अन्य मस्तिष्कीय गतिविधियाँ भर पूरी हो पाती हैं। वह ऊष्मा जो अचेतन को सक्रिय कर उससे अलौकिक और अद्भुत प्रयोजन पूरे करा सकती थी, एक प्रकार से कुण्ठित ही पड़ी रहती है। मनुष्य की अधिकाँश शक्तियाँ चेतन मस्तिष्क को ही सार्थक रखने में खप जाती हैं, इसलिये वह उन अलौकिक क्षमताओं से वंचित रह जाता है, जो अन्यान्य जीव-जन्तुओं को प्राप्त रहती हैं। स्पष्ट है कि जीव-जंतु बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े रहते हैं, उनका चिंतन और चेतन शिथिल रहता है। इसका लाभ उनके अचेतन को मिलता है और वे योगियों जैसे कितने ही अद्भुत कार्य कर सकते हैं।

उदाहरण के लिये कुत्तों की घ्राण इतनी सूक्ष्म होती है कि वे व्यक्तियों के शरीर की गंध पहचान लेते हैं। उसी गंध के आधार पर भीड़ भाड़ में भी अपने मालिक को पहचान लेते हैं। दोषियों और अपराधियों को पकड़वाने में प्रशिक्षित कुत्ते अपनी घ्राण शक्ति के कारण ही सफल होते हैं। जिस आधार पर वे चोरी का, चोरों का या अपराधी का पता लगाते हैं, वह उनके अधिक विकसित अचेतन मस्तिष्क से संबंधित घ्राण शक्ति ही होती है। चमगादड़ के ज्ञान तंतु राडार क्षमता से संपन्न होते हैं। इस क्षमता के आधार पर वे विभिन्न वस्तुओं से निकलने वाली रेडियो तरंगों को भली-भाँति पहचान लेते हैं और घोर अंधकार में अपने आसपास की वस्तुओं का स्वरूप एवं स्थान समझ कर बिना किसी से टकराये उड़ते रह सकते हैं। समुद्री मछली टरास्किन अपने शरीर से एक प्रकार की रेडियो तरंगें निकालती है। पानी के भीतर ही वे दूर तक फैलती हैं और इस क्षेत्र के जीव-जन्तुओं से टकरा कर उसी के पास वापस लौट जाती हैं। उनका अचेतन मस्तिष्क क्षण भर में यह जान लेता है कि कौन जीव किस आकृति-प्रकृति का, कितनी दूर है? उसी आधार पर वह अपने बचाव तथा आक्रमण की योजनाबद्ध तैयारी करती हैं।

जीव विज्ञानियों की मान्यता है कि कई जीव जंतुओं ने अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार अपने शरीर में ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न कर ली हैं, जो आरम्भ में नहीं थीं। स्पष्ट ही वे क्रियाकलाप इन जीव-जंतुओं का अचेतन मन ही करता है। यदि अचेतन मन की सामान्य शक्तियों को चेतन मस्तिष्क की उत्तेजक ऊष्मा द्वारा नष्ट न किया जाय तो अन्य जीवों की तुलना में हजारों गुना अधिक विकसित मानवीय मस्तिष्क इतनी अधिक दिव्य विशेषताएँ अर्जित कर सकता है, जितने में कि समस्त जीव जंतुओं की सम्मिलित अचेतन सत्ता से भी संभव नहीं हो सके।

योगी, योग साधन द्वारा चेतन मस्तिष्क की अनावश्यक सक्रियता में नष्ट होने वाली ऊर्जा को रोक कर अचेतन को समर्थ बनाने में प्रयुक्त करते हैं। इस संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता है कि योग साधना विद्या विलास या बौद्धिक विकास पर प्रतिबन्ध लगाती है। उसमें मानसिक उत्कर्ष, विद्याध्ययन कला-कौशल और ज्ञानार्जन की पूरी छूट है। प्रतिबन्ध है तो केवल इस बात पर कि मनःक्षेत्र को उत्तेजित, विक्षुब्ध एवं अशान्त न होने दिया जाय।

इस चरण में एकाग्रता का अभ्यास करना पड़ता है। मन में उठने वाले विभिन्न संकल्पों को रोककर उसे केन्द्र पर स्थिर रखने का अभ्यास करना पड़ता है। इस एकाग्रता को आगे बढ़ाते हुए चित्त को जाग्रत अवस्था में ही संकल्पपूर्वक लय कर देने का नाम समाधि है। इसके लिये प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की भूमिकाएँ पार करनी पड़ती हैं। इन साधनाओं के द्वारा सचेतन बुद्धि संस्थान की चिंतन और संकल्प


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