महानता की उत्कृष्टता (Kahani)

September 1991

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एक करामाती साधु थे। वे नदी के किनारे रहते। नाव थी नहीं। जो पार होना चाहता उसे राम मंत्र देते और कहते इसे जपते हुए पार निकल जाना। श्रद्धालु भक्त उसी आधार पर पार होते रहते।

कुछ दूर पर नदी का दूसरा घाट था। उस पर एक मुसलमान फकीर रहता था। उसके पास भी मुराद आते। वह सब को ‘खुदा’ मंत्र जपने के लिए कहता और साधु की भाँति ही पार लगा देता।

एक चतुर व्यक्ति था। उसे दोनों सन्तों के चमत्कार मालूम थे। उसने सोचा दोनों मंत्रों को सम्मिलित कर लेने से दूना फायदा हो सकता है। आधे समय में ही पार उतरा जा सकता है। यह सोचकर उसने राम खुदा का एक नया मंत्र गढ़ा और उसे कहते हुए पानी में घुसा तो डूब गया। उसे यह ध्यान ही न था कि श्रद्धा की अध्यात्म प्रयोजनों में प्रमुखता है। श्रद्धा डगमगाई तो फिर हाथ कुछ नहीं रहता।

मर्यादाओं का परिपालन, वर्जनाएँ न तोड़ने का अनुशासन पालने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। दूसरे लोग समुचित प्रत्युत्तर न दें तो भी अपनी ओर से एकाँगी शालीनता बरती जा सकती है और वातावरण में उत्कृष्टता की सुगन्ध भरी जा सकती है। अपना कल्याण साधते हुए दूसरों को भी उसी दिशा में अग्रसर किया जा सकता है।

महत्वाकांक्षाएं तभी श्रेयस्कर हो सकती हैं, जब उनके साथ पुण्य परमार्थ की भावना को सँजोये रखा जा सके। महानता के मार्ग पर हर कोई चल सकता है और सच्चे अर्थों में विभूतिवान, सौभाग्यवान बन सकता है। इसे मूर्खता ही कहना चाहिए कि लोग बड़प्पन की मृगतृष्णा में भटकें और महानता की उत्कृष्टता की उपेक्षा करें।


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