विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर नौका-विहार कर रहे थे। पूर्णिमा की रात्रि। चन्द्रमा की स्निग्ध-शीतल चाँदनी लहरों के स्पर्श-सहयोग से प्रत्येक क्षण एक नवीन सौन्दर्य-दृश्य का सृजन करती, स्वयं को तथा परिवेश को सार्थक कर रही थी।
कविवर एक काव्य संकलन में खोए हुए थे एक मधुर छन्द को पढ़ने में तल्लीन थे। रचना का सौंदर्य उन्हें पुलकित-प्रमुदित कर रहा था। नाव घूमी, हवा का एक तेज झोंका आया और दीप बुझ गया। क्षण भर को कवि व्यग्र हो उठे, सौंदर्य-आस्वादन से वंचित हो जाने के भाव ने चंचल कर दिया। तभी चारों ओर नृत्य कर ही चन्द्रिका की क्रीड़ा-छवियों पर ध्यान गया। वे चौंक उठे-अनन्त सौंदर्य चारों ओर उल्लास बिखेर रहा था। काव्य-पाठ का उल्लास इस असीम उल्लास के सामने कितना फीका है, यह सौंदर्य दृष्टा रवीन्द्र से अधिक कौन जान सकता था? उनके मन में आनन्द, विस्मय, उल्लास और बोध की नई तरंगें छन्दबद्ध होने लगी। वे मन ही मन गा उठे-” हे प्रभु! तुम्हारे इस असीम सौंदर्य की उपेक्षा कर मैं इसी के एक सीमित स्वल्प प्रतिबिम्ब में ही उलझ गया था। विस्मृति का यह दंश अब भविष्य में कभी भूले नहीं। मेरा मन परिमित वाणी की परिधि में ही बन्दी न हो जाय। वह तुम्हारे असीम सौंदर्य, अनन्त विस्तार और उसकी झलक पा सकने की अपनी क्षमता को सदा याद रखे।”
प्रभु अपरिमित आनंद, अनन्त, असीम सौंदर्य हम सभी के चारों ओर सदा ही बिखेरते रहते हैं। हमारे चतुर्दिक् एक एक अनूठे अवसर पुरुषार्थ और उपलब्धि के आते रहते हैं। किन्तु हमारा मन अपनी ही बनाई सीमाओं में बन्दी बना रहता है। वह स्व-निर्मित कल्पना-चित्रों से परे या यथार्थ देखना ही नहीं चाहता। देख सकता तो उसे भी वही अनुभूति होती, जो रवीन्द्र को तथा अन्य महामानवों को होती रही है।