आचार्य रामानुज मन्दिर की परिक्रमा कर रहे थे। अभी पहली परिक्रमा ही पूरी नहीं हो पाई थी, मार्ग में एक शूद्र आ गया। आचार्य का क्रम टूट गया और वे उत्तेजित हो उठे। कठोर शब्दों में कहा-हट जा चाण्डाल तूने मेरी परिक्रमा खंडित कर दी।’
‘किधर जाऊँ ?’ आचार्य प्रवर! शूद्र ने विनम्र वाणी में पूछा- ‘मेरी चारों ही ओर पवित्रता है फिर अपनी अपवित्रता किधर ले जाऊँ ?’
जो ज्ञान वेद शास्त्र नहीं दे सके थे, एक शूद्र ने दे डाला- आचार्य बोले- ‘तात् ! तुमने मेरा अद्वैत दर्शन साकार कर दिया, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। कहकर उन्होंने उसे प्रणाम किया और पूर्ववत् परिक्रमा में तल्लीन हो गये।