आत्मिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा कुसंस्कारों की है। इन्हीं की प्रेरणा से मनुष्य कुकर्म करते हैं। यह कर्म ओर कर्म फल के अकाट्य सिद्धान्त की धुरी पर परिभ्रमण कर रहा है। प्राणी कर्म करते और उसका फल भोगते हैं। सत्कर्म सुख-शान्ति लाते हैं और दुष्कर्मों का प्रतिफल शोक संतापों के रूप में सामने आता है। कर्मों को फलित होने में थोड़ा बहुत समय लग जाता है, इसी से भ्रमित होकर लोग यह सोचने लगते हैं कि अपनी चतुरता से सहारे शासन, समाज और भगवान को चकमा दे सकने में वे सफल हो गये।
कर्म फल पर अविश्वास करना ही विश्व व्यवस्था पर ईश्वर पर अविश्वास करना है। इसी को नास्तिकता कहते हैं। तत्काल कर्म फल नहीं मिलते, इसी से लोग पाप कर्मों को करने में निर्भय बनते और सत्कर्मों में उपेक्षा उदासीनता बरसते हैं। यही है वह प्रमुख अवरोध जिस चट्टान से टकरा कर आत्मिक प्रगति चूर-चूर होती रहती है। उपासना की कमाई इन्हीं कुसंस्कारों और कुकर्मों के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाती है।
साधना के मार्ग पर चलने का साहस करने वालों को चरित्र-निष्ठ और समाज-निष्ठ बनना पड़ता है। उर्वर भूमि में ही बीज उगते हैं। खाद पानी के सहारे ही पौधे बढ़ते और फलते-फूलते हैं। साधना के बीज अंकुर निर्मल चरित्र और उदार व्यवहार का पोषण प्राप्त कर सकें तो ही वे समुन्नत और फलित होते हैं। निकृष्ट चिन्तन और घृणित कर्तृत्व बना रहे तो किसी भी पूजा पाठ से दैवी अनुग्रह प्राप्त नहीं हो सकता। उपासना कपड़े को रंगने के समान है। इससे पूर्व धुलाई होनी चाहिए। मैले कपड़े पर रंग कहाँ चढ़ता है। दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति अपनाये रहने पर साधना फलवती नहीं होती। साधक को जितना श्रम उपासनात्मक उपचारों में करना पड़ता है उससे अधिक प्रयत्न आत्म परिष्कार के लिए आत्मशोधन के लिए करना पड़ता है।
आत्मोत्कर्ष के लिए आत्मशोधन की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। इसके लिए वर्तमान और भावी जीवन को चरित्र निष्ठ एवं समाज निष्ठ बनाने की-पवित्र और परिष्कृत रखने की सुव्यवस्थित योजना बनानी पड़ती है। लोक मंगल के लिए सत्प्रवृत्तियों का विकास विस्तार करने के लिए उदार अनुदान प्रस्तुत करने पड़ते हैं। साधु ब्राह्मण की परम्परा को जितना सम्भव हो उतना जीवन क्रम में उतारना पड़ता है। भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं को जितना घटाया जा सके और अपनी क्षमता का जितना अधिक उपयोग परमार्थ प्रयोजनों में किया जा सके समझना चाहिए कि साधना के फलित होने का उतना ही सुनिश्चित आधार उपलब्ध हो गया। उपासना के विधि-विधान भले ही गायत्री की उच्चस्तरीय साधना जैसे ही क्यों न हो। भले ही पंच कोशों को ज्योतिर्मय बनाने की- कुण्डलिनी जागरण की -महान् साधनाओं का सुअवसर मिल रहा हो- हर हालत में व्यावहारिक जीवन का परिष्कार-परिशोधन तो अनिवार्य रहेगा ही।
वर्तमान और भावी गतिविधियों का परिष्कृत निर्धारण साधना का अविच्छिन्न अंग माना जाना चाहिए और जितना महत्त्व विधि विधानों को, साधनात्मक कर्मकाण्डों को दिया जाता है उतनी ही जीवन क्रम के सर्वांगीण परिष्कार की क्रमबद्ध योजना बनानी चाहिए। और निश्चयात्मक बुद्धि से उसी सन्मार्ग पर अनवरत गति से बढ़ना चाहिए।
यहाँ एक तथ्य और भी विचारणीय है कि अभ्यस्त कुसंस्कारों और इस जीवन में किये गये दुष्कर्मों का परिशोधन भी किया जाय। जो अवांछनीय बन पड़ा हो उसके निराकरण के लिए उसका बदला चुकाया जाना आवश्यक है। इसे धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित प्रक्रिया कहा गया है। गायत्री की उच्चस्तरीय साधना आरम्भ करते हुए पंच कोशों के परिष्कार एवं कुण्डलिनी जागरण की महान् साहसिकता का परिचय देते हुए-सर्व प्रथम पाप परिमार्जन की प्रायश्चित प्रक्रिया सम्पन्न की जानी चाहिए।
साधक को अब तक के जीवन में बन पड़े पाप कर्मों की सूची तैयार करनी चाहिए। उनका प्रायश्चित क्या हो सकता है ? इसके लिए किसी तत्त्वदर्शी मनीषी से परामर्श करना चाहिए। ब्रह्म वर्चस साधना के शिक्षार्थियों को इस संदर्भ में हमारा परामर्श, मार्ग दर्शन प्राप्त हो सकता है। प्रायश्चित्त का प्रथम चरण जी खोल कर बिना लाग लपेट और दुराव के दुष्कर्मों के समय की मनः स्थिति एवं परिस्थिति का विवरण बताना चाहिए। यह विवरण थोड़ा बड़ा हो जाय तो हर्ज नहीं। संक्षेप में घटना तो बताई जा सकती है पर पाप के वजन का मूल्यांकन करने के लिए इसकी पृष्ठ भूमि समझाई जानी आवश्यक है। जी खोल कर अपने दुष्कर्म को किसी ऐसे व्यक्ति के सम्मुख कहा जा सकता है, जिससे उसके प्रकटीकरण की -प्रतिष्ठा नष्ट किये जाने या किसी प्रकार की हानि पहुँचाये जाने की आशंका न हो । इस प्रकार के प्रकटीकरण से मन की गाँठें खुलती हैं। चित्त हलका होता है और मनः संस्थान में अड़े हुए अवरोध टूटते हैं।
प्रकटीकरण के साथ-साथ उन दुष्कर्मों के प्रति लज्जित और दुखी होने की वृत्ति का उभरना ‘पश्चाताप’ है। पश्चाताप में भविष्य में वैसा न करने का संकल्प भी रहता है। अन्यथा ‘कह देने और फिर करने लगने’ से तो बात ही क्या बनेगी। निश्चय किया जाना चाहिए कि जिस प्रकार के पाप बन पड़े हैं वैसे अथवा अन्य प्रकार के दुष्कर्मों का साहस पूर्वक परित्याग किया जा रहा है। भविष्य में पवित्र और परिष्कृत जीवन ही जीना है।
जो दुष्कर्म बन पड़े हैं, उनका बदला चुकाया जाना आवश्यक है। इसी को प्रायश्चित कहते हैं। कर्म का फल अनिवार्य रूप से भुगता जाना है। मात्र क्षमा प्रार्थना -गंगा स्नान, व्रत उपवास जैसे छुट-पुट कर्मकाण्डों को प्रायश्चित का प्रतीक कह सकते हैं-आधार नहीं । प्रतीकों से प्रेरणा मिलती है। भार तो उतारने और चुकाने से ही उतरता है। शासन या समाज की ओर से पापों के दंड दिये जाते हैं। यदि उन्हें स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार किया जाये और दंड भुगतने का साहस दिखाया जाय तो उस सचाई का प्रमाण और सच्चा प्रायश्चित कहा जाएगा। गड्ढा खोद कर दूसरों को गिराने का उपक्रम किया गया तो उसे भरने का, समतल बनाने का नया परिश्रम करने से ही प्रायश्चित होगा। प्रत्येक पाप कर्म की एक शृंखला होती है। तालाब में उठने वाली लहरें पूरी सतह तक दौड़ती हैं। पापों की शृंखला पूरे समाज को परोक्ष रूप से प्रभावित करती है। प्रायश्चित का स्वरूप यही है कि जितने वजन की समाज को हानि पहुँचाई है उतने ही मूल्य का लाभ दिया जाय। पाप के समतुल्य पुण्य कर्म किये जाय। इसमें जो समय, श्रम, धन, आदि लगा, इसमें जो हानि उठानी पड़ी, उसे पाप का दंड कहा जा सकता है। पुण्य को समतुल्य करने पर ही पाप कटते हैं।
ब्रह्म वर्चस सत्र के साधकों को अपने दुष्कर्मों का विस्तार पूर्वक विवरण देना पड़ता है। यह जानकारी तीसरे तक प्रकट न होगी। यह निश्चित आश्वासन सूत्र संचालक देते हैं। अस्तु लाग लपेट की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । प्रायश्चितों में ऐसे विधान चुनने होते हैं जिससे अपराधी को क्षति उठाने का दंड तो मिल जाय पर वह निरर्थक न जाये।
सभी क्षेत्रों में फैली मूढ़ताओं और विडम्बनाओं की तरह तीर्थ यात्रा का महात्म्य भी किन्हीं क्षेत्रों, प्रतिमाओं नदी, सरोवरों में पहुँचने देखने, नहाने आदि तक सीमित हो गया है। इससे तो मात्र पर्यटन विनोद का उद्देश्य पूरा होता है। वास्तविक तीर्थ यात्रा धर्म प्रचार के लिए पदयात्रा के रूप में होती है। यही उनका ऋषि प्रणीत सनातन स्वरूप था। जन मानस का परिष्कार धर्म प्रेरक लोकशिक्षण ही तीर्थ यात्रा का उद्देश्य है। मंडलियाँ बना कर स्थित समय तक नियत क्षेत्र में योजनाबद्ध धर्म प्रचार के लिए निकला जाना यही युग निर्माण योजना द्वारा प्रतिष्ठापित तीर्थ यात्रा है।
ब्रह्म वर्चस् साधना के साधकों को प्रायः ऐसी ही तीर्थ यात्राओं के रूप में प्रायश्चित कराये जाते हैं। इसमें पाप निवारण और पुण्य सम्पादन के दोनों ही तत्त्व प्रचुर परिमाण में सन्निहित रहते हैं। इसे भी साधना में ही सम्मिलित रखा गया है। यह करने पर आत्मिक प्रगति द्रुत गति से होने लगती है।